Saturday, October 16, 2021

दर्शन, सुमिरन और भजन ...


        दर्शन, सुमिरन और भजन ...


   परमार्थी अभ्यास के यही तीन मुख्य अंग हैं।

   कुल मालिक दयाल ने फरमाया है कि, "सतगुरु के स्वरूप का ध्यान (दर्शन), नाम का सुमिरन (सुमिरन) और ध्यान नाम का (भजन), इसके सिवा कलजुग में कोई करनी नहीं बनेगी।"

   हम सभी जानते हैं पर मान नहीं पाते।


   कारण उचित रीति का अभाव है और जो रीत पता भी है, तो वह काम नहीं करती। क्योंकि समुचित मार्ग-दर्शन और उचित शिक्षा के अभाव में मन ने, बुद्धि में तरह-तरह के भरम, तर्क और संशय पैदा कर दिए हैं। इस तरह मन, जिसमें कि जिज्ञासा होनी चाहिए थी वह तरह-तरह की अर्थहीन टेकों में बंधता चला गया और जो खुद बंध गया वह अपने आगे की पीढ़ियों को भी बांधता चला जा रहा है। 

   तो परिणाम यही है की एक सच्चा जिज्ञासु भी धीरे-धीरे 'टेक' ही पकड़ता जाता है और एक दिन अपनी ही टेकों में उलझ कर जीव की परमार्थी गति में एक ढीलापन व ठहराव सा आ जाता है और इस तरह वह एक मुकाम से आगे नहीं बढ़ पाता।

   सन्तों का मार्ग सहज मार्ग है और सहज रीति से ही प्राप्त भी होता है। पर जीव के भीतर की असहजता उसे सहज मार्ग तक पहुंचने ही नहीं देती।

   'सतगुरु के स्वरूप का ध्यान' सहज है, पर उनके लिए, जिनके अंतर में वह प्रकट हो चुका है। और अंतर में तब प्रकट होगा जबकि प्रकट रूप में प्रत्यक्ष मिला होगा। तो वास्तविक प्रत्यक्ष रूप से मिला भी या नहीं, इसकी परख जीव करे भी तो कैसे ? 

   इस विषय में पहले भी विस्तार से (सतगुरु की खोज) चर्चा की जा चुकी है। सो सतगुरु की पहिचान उनके वचनों से ही हो सकती है, और किसी भी रीत से नहीं हो सकती।

   'नाम का सुमिरन', जब सतगुरु मिले, तो सच्चा नाम भी मिले। और,  ....जब नाम मिले तो भजन बने।

   इस तरह कुल परमार्थी कार्यवाही का आधार सतगुरु वक़्त ही है और उसकी जीव को परख नहीं। 


क्रमशः

     


   जीव चाहता है कि उसके मुताबिक उसे 'सतगुरु' मिले और सतगुरु चाहता है कि उसके मुताबिक उसे भक्त मिले। जीव चाहता है कि , मैं 'जो कुछ.'  चाहूं सो सतगुरु से पा सकूं और सतगुरु चाहता है कि, राज्य की सारी दौलत राजपुत्र को सौंप सकूं.... सो 'सुरत' जो मालिक कुल राधास्वामी दयाल की 'निज अंश' है, वह तो अपने निज घर का पता और अपना वंश भूल कर, नित नशवर जगत की माया में भटक रही है। अब जब तक कोई सुरत को उसके निज घर और वंश की चेत दिला कर न सम्भाले, जीव की नादानी छूटे तो कैसे...? 

और वह कैसे होश में आए कि, 

"वह 'सतनाम वंशी' है।"

   जीव की यही कशमकश और नादानी जीव को खोजी बनने नहीं देती और 'रीति' जो उचित है वह पूरी नहीं होती।

   हम सभी जानते हैं कि जो भी कार्य उचित रीति से किया जाता है तो उसका परिणाम भी उचित ही होता है और जो कार्य उचित रीति से न किया जाय उसका परिणाम भी कभी उचित नहीं ठहरता। 

   'मानव मन' ही वह दीवार है जो जीव को 'परमारथी उचित' से दूर रखती है। तो जब तक 'मन' की इस दीवार का टूटना न होगा , जीव कभी भी 'उचित' के धरातल पर खड़ा नहीं हो सकता।

   प्रश्न यह नहीं कि कौन तोड़ेगा, इस दीवार को !

पर प्रश्न तो यह है, कि -

कौन चाहता है इस दीवार का ....'टूटना' ?

   

'सप्रेम राधास्वामी'

   🌹🙏🌹

राधास्वामी हेरिटेज.

(सन्तमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित).

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