अमृत-बचन (“डिस्कोर्सेज़ ऑन राधास्वामी फ़ेथ”) का अनुपूरक
राधास्वामी सतसंग, दयालबाग़ के पूज्य आचार्यों के विभिन्न लेखों और अभिभाषणों में कर्मों की व्याख्या
डा. प्रेम सरन सतसंगी साहब द्वारा संकलित
145. कर्मवेग से बचने के लिए आशा का नाश करना होगा
हरचन्द दुनिया में कर्म के सिद्धान्त को भारी गौरव दिया जाता है मगर वाज़ह हो कि कर्म मनसा का ग़ुलाम है और मनसा आशा का ग़ुलाम है। कर्म से बच जाना आसान है और मनसा को रोक लेना नामुमकिन नहीं है लेकिन जब तक हमारे अन्दर आशा का बीज मौजूद है तब तक हमारी मुसीबतों का ख़ात्मा नहीं होता। असल में सब फ़साद आशा का है। यही हमको आदि में रचना में लाई, यही अब बार बार जन्म दिलवाती है। इसी के हुक्म से मनसाएँ पैदा होती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए तमाम दुनिया परेशान है और जिसकी वजह से इन्सान कर्म करता है इसलिए हर शख़्स के लिए, जो जन्म मरण के चक्र से आज़ादी हासिल किया चाहता है, लाज़िमी है कि अपने मन की निचली से निचली तह में छिपी हुई आशाओं का विनाश कर दे। ज्यों ही आशाओं का ख़ात्मा हो गया मनसाओं का बल और कर्मों का वेग आप से आप जाता रहेगा। एक दृष्टांत देकर आशा, मनसा व कर्म के मानी और उनका परस्पर सम्बन्ध ज़ाहिर करते हैः-
फ़र्ज़ करो आपका किसी दोस्त के यहाँ जाने का इत्तिफ़ाक़ होता है। वह दोस्त आपका तपाक व गर्म जोशी से सत्कार करता है और आपके खाने के लिए नफ़ीस व मीठे आम पेश करता है। आप सहजस्वभाव आम खाने लगते हैं। आम की फाँक हलक़ से उतरते ही सहजस्वभाव आप कहते हैं - ‘‘वाह वा! कैसा अच्छा आम है’’। जिस वक़्त यह शब्द आपके मुँह से निकलते हैं ज़ाहिरा आपका कोई नुक़्सान नहीं होता और आपका दोस्त प्रशंसा के बचन सुन कर खुश होता है लेकिन आपके मन के अन्तर के अन्तर आम के ज़ायक़े के भोग की आशा का बीज नामालूम तौर से जम जाता है। ज़्याफ़त ख़त्म हो जाती है और आप कुछ देर बाद अपने मकान पर लौट आते हैं और कहने के लिए मामला रफ़ा दफ़ा हो जाता है। मगर नहीं, वह आशा का बीज, जो आपके मन के अन्दर घुस गया है, मौक़ा पाकर अंकुर लाता है। दस बीस रोज़ के बाद उसी क़िस्म के आम हासिल करने की मनसा या ख़्वाहिश आपके दिल में बार बार उठती है और उसे पूरा करने के लिए आप उनके उपाय व कोशिश करते हैं। अलग़रज़ आपको आम प्राप्त हो जाते हैं, आप आम खाकर अपनी मनसा पूरी करते हैं और बज़ाहिर अब झगड़ा पाक हो गया मगर नहीं, मनसा पूरी होने के साथ साथ आपकी आम के ज़ायक़े के भोग की आशा और भी मज़बूत यानी दृढ़ हो जाती है। आशा के मज़बूत हो जाने पर आपकी मनसाएँ बड़ी प्रबल हो जाती हैं और अब उनको रोकना या दबाना ज़्यादा कठिन हो जाता है। इन मनसाओं से प्रेरित होकर आप तरह तरह के कर्म करते हैं और सुख दुख सहते हैं। अगर ग़ौर करोगे तो मालूम होगा कि तमाम दुनिया आशा की ज़ंजीरों में जकड़ी है और तमाम तहज़ीब तमाम मालूमात व ईजादात-ग़रजे़कि दुनिया का तमाम कारख़ाना आशा ही की क़ुव्वत (शक्ति) से चल रहा है। इसलिए अगर कोई शख़्स इस संसार के प्रपंच से निकलना चाहता है तो उसको चाहिए कि सबसे ज़्यादा फ़िक्र अपनी आशाओं की सफ़ाई के मुतअल्लिक़ करे।
(परम गुरु साहबजी महाराज का सतसंग के उपदेश, भाग 1 ब.31)
146. शुभ कर्म की असलियत
हिन्दुस्तान में पुराने ज़माने से कर्म के सिद्धान्त में विश्वास चला आता है। योरप के कई एक विद्वानों ने हाल में इस मस्ले की जानिब तवज्जुह देकर बहुत कुछ शान्ति हासिल की है और उनकी देखा देखी बहुत सी योरपियन जनता कर्म फ़िलॉसफ़ी में श्रद्धा ले आई है लेकिन हिन्दुस्तान का बच्चा बच्चा कर्म के मस्ले में विश्वास रखता है और उसको कोई कठिनाई इसमें विश्वास के मुतअल्लिक़ महसूस नहीं होती। मगर इसके यह मानी नहीं है कि हिन्दुस्तान का हर शख़्स इस गूढ़ मसले की सब बारीकियों से वाक़िफ़ है। बर्ख़िलाफ़ इसके बवजह नावाक़िफ़ियत अहलेहिन्द (भारतवासी) इस मस्ले के मुतअल्लिक़ बहुत सी ग़लतफ़हमियों में पड़े हैं। मसलन् हर शख़्स यही कहता है कि अच्छे कर्म करने से सुख मिलता है, परमात्मा प्रसन्न होता है या बहिश्त मिलता है और बुरे कर्म करने से दुख मिलता है, परमात्मा अप्रसन्न होता है या नरकगामी होना पड़ता है। ग़ौर का मुक़ाम है कि कोई कर्म अज़ख़ुद न भला है न बुरा। कर्म करने वाले की नीयत के हिसाब से कर्म भला या बुरा हो जाता है। मसलन् अगर कोई डाक्टर तुम्हारी अँगुली काटे तो यह अच्छा कर्म है क्योंकि उसकी नीयत अँगुली काटकर तुम्हें आराम पहुँचाने की है और अगर कोई दुश्मन या डाकू तुम्हारी अँगुली काटे तो यह बुरा कर्म है क्योंकि उसकी नीयत तुम्हें दुख या नुक़्सान पहुँचाने की है। इससे मालूम हुआ कि अच्छे कर्मों से मुराद ऐसे कामों से है जो नेकनीयती से किए जावें और महिमा नीयत की है न कि कर्मों की। मगर ज़रूरी नहीं कि नेकनीयती से किए हुए सभी कर्मों का फल सुख हो। मसलन् एक रीछ की कहानी में बतलाया जाता है कि उसने अपने सोते हुए इन्सान दोस्त के मुँह पर उसको सुख पहुँचाने की गरज़ से ज़ोर का थप्पड़ मारा क्योंकि एक मक्खी बार बार उस दोस्त के चेहरे पर बैठती थी और हटाने से हटती न थी। रीछ ने थप्पड़ से मक्खी को तो मार डाला लेकिन अपने दोस्त का मुँह पंजों से लहूलुहान कर दिया। इसी तरह और भी बहुत सी मिसालें दी जा सकती हैं जिनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि बावजूद परले दर्जे की नेकनीयती के हर कर्म का नतीजा सुख नहीं होता। इसलिए यह उसूल की नेकनीयती से किए हुए कर्मों का फल सुख, सच्चे मालिक की प्रसन्नता या बहिश्त होता है, असत्य हो जाता है और अगर यह उसूल दुरुस्त है तो ”अच्छे कर्मों“ की तारीफ़ कुछ और होनी चाहिए, महज़ नेकनीयती से काम नहीं चलता। इसलिए कहा जाता है कि अच्छे कर्मों से यहाँ मतलब उन फ़रायज़ की अदायगी से है जो ऋषि मुनियों, साध सन्तों व पीर पैग़म्बरों ने इन्सानों के लिए तजवीज़ किए। ज़ाहिर है कि इन फ़रायज़ की अदायगी अगर महज़ बतौर रस्म या बेगार के की गई तो निष्फल रहेगी। इसलिए असली उसूल यह ठहरा कि रसीदा व कामिल बुज़ुर्गों ने जो फ़रायज़ इन्सान के लिए तजवीज़ फ़र्माये उनको श्रद्धा व प्रेम के साथ हस्बहिदायत सरअंजाम देने से इन्सान को सुख, सच्चे मालिक की प्रसन्नता या बहिश्त हासिल होते हैं।
(परम गुरु साहबजी महाराज का सतसंग के उपदेश, भाग 1, ब.32)
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