एक बहुत पुरानी कथा है। परमात्मा ने सारी दुनिया बनाई। फिर उसने एक सौंदर्य की देवी बनाई और एक कुरूप की देवी भी। उन दोनों को पृथ्वी पर भेजा। आकाश से जमीन पर आते-आते उनके कपड़े मैले हो गए। रास्ते की धूल जम गई। वे जमीन पर उतरीं तब सुबह सूर्य निकलने के करीब था। थोड़ी देर थी, भोर हो गई थी, पक्षी गीत गाते थे। वे सरोवर के किनारे आकर उतरीं और उन्होंने सोचा कि इसके पहले कि हम पृथ्वी की यात्रा पर जाएं, उचित होगा कि हम स्नान कर लें। वे दोनों देवियां कपड़े उतारकर सरोवर मग स्नान करने को उतरीं। सौंदर्य की देवी तैरती हुई आगे चली गई, उसे कुछ भी पता न था कि पीछे कोई धोखा हो जाने को है। कुरूपता की देवी किनारे पर वापस आई और सौंदर्य की देवी के कपड़े पहन कर भाग खड़ी हुई। जब लौटकर सौंदर्य की देवी ने देखा, तो वह हैरान हो गई। वह नग्न थी, सुबह होने के करीब था। सूर्य निकलने को था।
गांव के लोग जागने लगे थे। उसके कपड़े कुरूपता की देवी पहनकर भाग चुकी थी। कुरूपता के कपड़े पहनकर वह उसका पीछा करे, इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं था। वह किनारे गई, मजबूरी में उसने कुरूपता के कपड़े पहने और भागी अपने कपड़े वापस लेने को। लेकिन कथा कहती है कि वह अब तक भी पकड़ नहीं पाई। कुरूपता अब भी सौंदर्य के कपड़ेे पहने घूम रही है। सौंदर्य की देवी उसका पीछा कर रही है, पर अभी तक पकड़ में नहीं आई। हमेशा कुरूपता सौंदर्य के वस्त्र पहन लेना पसंद करती है चूंकि तब उसे गति मिल जाती है, तब उसका सिक्का चल पड़ता है। घृणा प्रेम के वस्त्र पहन लेती है, असत्य सत्य के वस्त्र पहने लेता है, इसलिए वस्त्रों से सावधान हो जाने की जरूरत है। वस्त्रों को देखकर यह मत सोच लेना कि प्रेम का नगर बस गया है और हम उसके निवासी हैं। वस्त्र प्रेम के हैं पर भीतर आदमी पूरी तरह से घृणा से भरा हुआ है घृणा हजार तरह की है। चूंकि प्रेम के शब्दों में छिपा लिया गया है, हम पहचान भी नहीं पाते कि यह घृणा है और जब तक उसे न पहचानें तब तक उससे छुटकारा भी कैसे हो सकता है? मैं हिंदू हूं, तुम मुसलमान हो, तुम ईसाई हो, तुम जैन हो, तुम बौद्ध हो¬ये सब घृणा के रूपांतर है। तुम समझ लो कि जब मैं मनुष्यता के साथ इसी तरह का भेद अपने मन में रखता हूं, तो मैं कोई दीवाल खड़ी करता हूं। जब मैं कहता हूं कि मैं हिंदू हूं तब मैं यह कहता हूं कि मैं सारे लोगों से पृथक और भिन्न हूं। जब मैं कहता हूं कि मैं मुसलमान हूं तब भी यही कहता हूं। जब हम कहते हैं ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘अल्लाह ईश्वर तेरे नाम’ तब ये बातें सत्य नहीं हैं क्योंकि यदि यह समझ में आ गा हो कि अल्लाह और ईश्वर एक ही शक्ति के नाम हद्द तो यह भी समझ में आ जाएगा कि सिर्फ इस बात को कहने का भी कोई अर्थ नहीं कि अल्लाह ईश्वर एक के ही नाम हैं, उसको दुहराने की भी जरूरत नहीं है।
हेनरी थोरी अमेरिका का एक बहुत बड़ा विचारक था। वह मरने के करीब था। वह कभी चर्च में नहीं गया था। उसे कभी किसी ने प्रार्थना करते नहीं देखा था। मरने का वक्त था, तो उसके गांव का पादरी उससे मिलने गया। उसने सोचा यह मौका अच्छा है, मौत के वक्त आदमी घबड़ा जाता है। मौत के वक्त डर पैदा हो जाता है, क्योंकि अनजाना रास्ता है मृत्यु का। न मालूम क्या होगा? उस वक्त भयभीत आदमी कुछ भी स्वीकार कर सकता है। मौत का शोषण धर्मगुरु बहुत दिनों से करते रहे हैं। इसलिए तो मंदिरों, मस्जिदों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं। पादरी ने हेनरी थोरी से जाकर कहा, ‘क्या तुमने अपने और परमात्मा के बीच शांति स्थापित कर ली है? क्या तुम दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम से भर गए हो? ’ हेनरी थोरी मरने के करीब था। उसने आंखें खोलीं और कहा, ‘महाशय, मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैं उससे कभी लड़ा भी हूं।
मेरा उससे कभी झगड़ा नहीं हुआ तो उसके साथ शांति स्थापित करने का सवाल कहां है? जाओ, तुम शांति स्थापित करो, क्योंकि जिंदगी में तुम उससे लड़ते रहे हो। मुझे तो उसकी प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। मेरी जिंदगी ही प्रार्थना थी।’ कोई मरा हुआ आदमी ऐसा कहेगा, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन बड़ी सच्ची बात उसने यह कही कि अगर मैं उससे लड़ा होता, अगर एक पल को मेरे और उसके बीच कोई शत्रुता खड़ी हुई होती तो फिर मैं शांति स्थापित करने की कोशिश करता। लेकिन नहीं, वह तो कभी हुआ नहीं है। किसके बीच, कैसी शांति, कैसे स्थापित करूं? अगर अल्लाह, परमात्मा और भगवान एक के ही नाम हैं तो इन दोनों को मिलाने की कोशिश नहीं हो सकती। कोई मिलाने की कोशिश नहीं हो सकती। कोई मिलाने का सवाल नहीं है। उन दोनों में कोई भिन्न बातें नहीं है लेकिन हम मिलाने की कोशिश कर रहे हैं। उस मिलाने की कोशिश के पीछे भेद है, वह भेद खड़ा हुआ है। उस भेद को हम गीत गाकर छिपाना चाहें तो वह छिपनेवाला नहीं है।
ज्यादा से ज्यादा इतना होता है कि उसको हम सहने लगते हैं। तुम मुसलमान हो, यह ठीक है, हम हिंदू हैं, यह ठीक है। हम एक दूसरे को सहते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हमारे बीच प्रेम पैदा हो गया। प्रेम पृथकता को जानता ही नहीं; और जहां पृथकता हो वहां समझ लेना प्रेम की बातें हैं, पर भीतर घृणा मौजूद है। प्रेम ने कभी पृथकता को नहीं जाना। प्रेम कभी फासले नहीं जानता, दूसरी नहीं जानता। लेकिन हम तो हर तरह से दीवालों में बंधे रहे हैं न मालूम कितने तरह की दीवालें हमने खड़ी कर रखीं है और ये दीवालें भी बढ़ाते चले जाते हैं। अगर प्रेम हमारे भीतर पैदा हुआ है या होने का है, उसके अंकुरित होने की शुरुआत हुई है, तो गिरा दो उन दीवालों को जो तुम्हें किसी भी मनुष्य से दूर करती हों। उन शब्दों को अलग कर दो जो तुम्हारे और दूसरे मनुष्य के बीच फासला पैदा करते हों और स्मरण रखो कि किसी भी तरह की सीमा-रेखा मूलतः हिंसात्मक मन का लक्षण है।
ओशो - 3-घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-05)
पांचवां-प्रवचन-(प्रेम नगर के पथ पर)
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3 - घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-05)
(Random Collection of Osho's Thoughts)❤
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