शेष :
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आगे की जुक्ति, जो कि अभ्यास का दूसरा चरण है , वह तो सतगुरु भेदी द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। जब कि सतगुरु पूरे , नाम और उसके हर मुकाम का भेद दे कर सुरत को अपने अंतर बल से तीसरे तिल का नाका फोड़ कर पिंड से ब्रह्मांड में प्रवेश करवाते हैं। सो 'जुक्ति' तो सन्त सतगुरु वक़्त से प्रेम भक्ति और सेवा से ही प्राप्त हो सकती है।
हर बानी और वचन में मालिक ने और वक़्त के हर गुरु ने साफ साफ फरमाया है कि अपने वक़्त के गुरु की खोज करो, पर अदिकांश सतगुरु को खोजने की बजाय , पकड़ने की होड़ में लग जाते हैं, कोई भी व्रक्ष अपने फल से ही पहचान जाता है और सतगुरु की पहिचान उनकी बानी से ही हो सकती है, बाने से नहीं।
सतगुरु 'शब्द स्वरूप' हैं, शब्द का गुण आकर्षण है। तो जब 'शब्द' कंठ में वाणी बन कर वचन के रूप में ज़ुबान से प्रकट होता है, तब उसमें एक अनजाना सा आकर्षण होता है, मन के मना करने पर भी दिल बार बार उनके वचनों के आकर्षण में खिंचा चला जाता है और एक दिन सच्चे प्रेम में परवर्तित हो जाता है।
....यही सतगुरु वक़्त की सच्ची पहिचान और परख है।
सतगुरु दीजे प्रेम दात मोहे....
सप्रेम राधास्वामी
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राधास्वामी हेरिटेज .
(सन्तमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित).
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