Saturday, December 25, 2010

पत्रकारिता: अन्धेरे समय में उजाले की उम्मीद


पत्रकारिता: अन्धेरे समय में उजाले की उम्मीद




-प्रदीप चन्द्र पाण्डेय
पत्रकारिता के लिये यह चिन्तन, चिन्तित, विचलित और चकित होने का समय है जब पूर्वजों की मान्यतायें भर-भराकर गिर रही है और जो नयी स्थापनायें सामने आ रही हैं उसे पत्रकार नहीं बाजार तंय कर रहा है। पत्रकारिता की धार और संसार पर यकीन करने वाले पुरानी पीढ़ी के लोग खूटियों पर टांग दिये गये हैं और विलियम बोल्ट, जेम्स आंगस्ट हिकी, महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय, गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, प्रभाष जोशी, जैसे पत्रकारों, सम्पादकों की त्याग तपस्या पुस्तकालयों और पाठयक्रमों में कैद है। एक बेतहाशा अंधी दौड़ सी चल पड़ी है। ”जो बिकेगा वो टिकेगा” के इस बेशर्म समय में पत्रकारिता न जाने कब मीडिया बन गयी और अब धंधे के रूप में हमारे सामने हैं। नयी पीढी के युवा पत्रकार जब हताशा में गुनगुनाते हैं ” गंदा है पर धंधा है ये” तो हमारे जैसे लोगों को अजीब बेचैनी होती है।
हताशा के इस समय में हमें उम्मीदों का चिराग जलाये रखना होगा। कवि बाल सोम गौतम की पंक्तियां ” ये शाम और ये फूलों का मुरझाना देख उदासी क्यों, जब तंय है होगी सुबह खिलेंगे फूल हजारों नये-नये”, घोर तमस के इस समय में विश्वास जगा देती हैं। ऐसा भी नही है कि सब कुछ समाप्त हो रहा हो, कहते हैं सृजन में संहार के और संहार में सृजन के बीज छिपे होते हैं। जैसे और दौर गुजरे हैं यह बाजारू समय भी लम्बा नहीं टिकेगा क्योंकि ‘सत्यम् शिवं सुन्दरम’ के देश में शुभ लाभ के कारोबारी हानि की आशंका से ही भाग खड़े होंगे ।
भारतीय पत्रकारिता पर यदि आज अधिक उंगलियां उठ रही हैं तो यह अकारण नही है। अकेले भारतीय पत्रकारिता को यह गौरव प्राप्त है कि कलम के पुजारियों ने देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रत्येक दौर में खरीदने, बेचने और अड़िग रहने वाले रहे हैं और रहेंगे। हम उन चंद लोगों की प्रश्नगत चर्चा ही क्यों करें जिन्होने पत्रकारिता को धंधा बना लिया है, बात उनकी होनी चाहिये जो इस विकट समय में भी पत्रकारिता को मीडिया बनने से रोके हुये हैं। आज तकनीकों ने जितने संसाधन हमें उपलब्ध करायें हैं ऐसा स्वर्ण युग तो कभी नहीं था। एक तरफ गूगल का बडा संसार है तो दूसरी ओर भडास और ब्लाग, टि्वटर की दुनियां जहां कोई भी व्यक्ति अपनी बात, विचार, व्यथा कथा को सार्वजनिक करने के लिये स्वतंत्र है। आज उसकी गूंज कागज पर छपने वाले अखबारों, टेलीविजन के स्क्रीन से भले कमजोर हो किन्तु ‘थ्रीजी: आने वाले दिनों में सूचना के क्षेत्र में एक संसार लेकर आयेंगी जब अल्प पूंजी में बिना बाजार के आक्रमण से विचलित हुये समय का सत्य निर्भय होकर व्यक्त होगा। ‘ गिलास आधा भरा है, या गिलास आधा खाली है, दोनों सच है, सबसे महत्वपूर्ण यह कि हमारी दृष्टि किस गिलास पर है। हमारी जैसी दृष्टि होगी सृष्टि उसी अनुसार बन जायेगी। संसाधनों का कोई अन्तिम प्रस्थान बिन्दु नही है। भारतीय पत्रकरिता जब अभी रंग बिरंगा होने के काल खण्ड से गुजर रही है चीन में ‘थ्रीडी न्यूज पेपर’ का जन्म हो गया है, इस अखबार को विशेष चश्मे से पढा जा रहा है। बहुत संभव है कि जिस प्रकार से ई पेपर्स का विस्तार हो रहा है आने वाले दिनों में कागज पर छपने वाले समाचार पत्रों, पत्रिकाओं का समापन हो जाय किन्तु शद्व की सत्ता कभी समाप्त नहीं होगी। वेदो में शद्व को ब्रम्ह कहा गया है किन्तु विसंगति देखिये कि आज की चालू, चालाक और मुनाफाखोर पत्रकारिता/मीडिया ने शद्व संसार और उसके व्याकरण की ऐसी तैसी कर दिया है। समाचार पत्रों के पृष्ठों की संख्या बढ रही है किन्तु दैनिक समाचार पत्र जहां क्षेत्रीयता के गंभीर रोग से ग्रस्त हैं वहीं भीतर के पन्नों में बच्चो, महिलाओं, वृध्दों, किसानों के लिये हम क्या और कितना दे पा रहे हैं यह विचारण्ाीय प्रश्न हैं जिसका हल ढूढा जाना चाहिये। बाजार ने पाठक समाप्त कर दिया है और उसके स्थान पर एक ऐसा ग्राहक हमारे सामने हैं जिसके पास विकल्पों के कई अवसर है। जिस प्रकार से अपने टी.वी. सेट पर वह पलक झपकते चैनल बदल देता है एक नयी इनामी योजना अच्छे से अच्छे समाचार पत्र के लिये समस्या बनकर सामने आ जाती है। प्रसार संख्या बढाने के अतिवाद ने विचारों का क्षरण कर दिया है। हिन्दी के 10, 12 समाचार पत्रों से गुजरने पर ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि किसी समाचार पत्र के पास अपनी कोई भिन्न दृष्टि या पहचान हो। नि:सन्देह आज हमारे पास संसाधन हैं किन्तु यह स्वीकार करना ही होगा कि हमारी साधना को बाजार ने खण्डित सा कर दिया है। बाजार कभी भी विचार से बड़ा नहीं हो सकता। सम्पादकीय संस्था का मालिकानों के नयी पीढी ने लगभग समापन सा कर दिया है, मालिकानों के इस पीढी को अब सम्पादकीय पृष्ठ अनुपयोगी लगता है क्योंकि विज्ञापनों की होड़ पहले पन्ने तक तो पहुंची अभी यहां थोड़ी आबरू बची है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो समाचारों के अपने प्रायोजक तलाश लिये है किन्तु अब वह दिन बहुत दूर नही है जब कागज पर छपने वाले अखबारों में भी भिन्न-भिन्न समाचारों के अपने प्रायोजक हों और पाठक चाहे अनजाने विज्ञापनों को पढने के लिये बाध्य।
दूसरे नजरिये से देखे तो यह एक ऐसा समय है जब अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है। एफ.एम, रेडियो की सफलता के बाद सामुदायिक रेडियों, मोबाइल पत्रकारिता, व्लाग की एक बड़ी दुनियां हमारे सामने है जिसके रथ पर सवार होकर समय का सत्य व्यक्त हो सकता है। समय का व्यवहार भले ही हमें विवश कर रहा हो किन्तु यह विवशता कायरता में बदले इसके पूर्व सचेत होने की जरूरत है। समय स्वयं को व्यक्त करने के नित नये नूतन माध्यम चुन ही लेता है। किसी प्रतिष्ठान को बहुत गुमान करने की जरूरत नही है कि वह जगत को अपने इशारे से चलायेगा। ”फेंक दे चाहे हवा दिश, राह में हर बार दूर, जायेगी मंजिल कहां जब जिन्दगी मंजिल में है।” नि:सन्देह आने वाले कल की पत्रकारिता और अधिक शक्तिशाली होगी और अंधेरों के बादल समय के साथ छट जायेंगे।(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक हैं)

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