Saturday, December 25, 2010

पत्रकार अब प्रचार भी कर रहा है





पत्रकार अब प्रचार भी कर रहा है

जो काम फिल्म वाले करते हैं, वहीं अब हम पत्रकार करने लगे हैं। अपनी स्टोरी या शो का सेल्फ प्रमोशन। फेसबुक का स्टेटस अपडेट कब बिलबोर्ड बन गया पता ही नहीं चला। मैं खुद अपनी रिपोर्ट का मल्टी स्तर पर प्रचार करने लगा हूं। यू-ट्यूब में प्रोमो अपलोड कर देता हूं। फेसबुक पर दो दिन पहले से टीज़ करने लगता हूं। एनडीटीवी के सोशल साइट्स पर जाइये तो वहां सारे एंकर और अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। बताते हैं कि दस बजे या नौ बजे मेरी रिपोर्ट देखियेगा। नहीं देखा जाने का डर सबको सता रहा है। इतने सारे माध्यम हो गए हैं। हर माध्यम में नाना प्रकार के चैनल या अखबार। टीवी,लैपटॉप,ट्विटर,फेसबुक,आरकुट,अखबार,एफएम इत्यादि। जब एफएम पर न्यूज आने लगेगा तब घर पहुंचते पहुंचते चटपटे अंदाज़ में ख़बर मिल जाया करेगी। फिर कार से निकलकर टीवी के सामने न्यूज के लिए कोई क्यों जाएगा? जब थ्री जी से मोबाइल में ही टीवी चल जाएगा तब टीवी पर क्या देखेंगे मालूम नहीं।

पहले जब कोई रिपोर्ट करता था तो टीआरपी का आतंक नहीं होता था। क्योंकि तब टीआरपी के सौ फीसदी का बंटवारा तीन चार चैनलों में होता था। अब कई चैनलों में होता है। तब एक रिपोर्ट पर कई लोगों की प्रतिक्रिया मिलती थी। अब भी मिलती है लेकिन दर्शकों से कम। उन दर्शकों से मिलती है जो बौद्धिक कार्यों में ज्यादा संलग्न हैं। प्रतिक्रिया देने वाले ज्यादातर लोगों में से भावी पत्रकार हैं या फिर पत्रकार हैं। कई लोग इन दोनों कैटगरी से बाहर के भी हैं। फेसबुक पर सक्रियता के अनुभव से कुछ-कुछ ऐसा लगता है। यह कहने का मेरे पास कोई आधार नहीं है कि लोगों के पास टीवी देखने का वक्त नहीं है। लोग थक कर घर आते हैं तो सीरीयल ही देखते हैं। यही वजह है कि टीवी की खबरों का असर कम होने लगा है। अफसरों पर तो और भी कम हो गया है। इम्पैक्ट का वाइप( जो खबर के असर के तौर पर धांय धांय करता आता है) कम ही दिखता है।

टीवी को एसएमएस के ज़रिये इंटरएक्टिव बनाने का प्रयास हुआ। राय मंगाई गई। अब यह लगभग बंद होने लगा है। मुझे याद है जब मैंने दरभंगा से अपनी रिपोर्ट की एक पीटूसी में एसएमएस का नंबर ही बोल दिया। स्टुडियो में नग्मा और सिक्ता हंस पड़ी। न्यूज़ चैनलों ने फीडबैक के लिए ईमेल का सिलसिला शुरू किया। मुझे नहीं लगता कि बहुत फीडबैक आते हैं। आते भी हैं तो उनका खास प्रभाव नहीं है। पढ़कर अच्छा ज़रूर लगता है मगर ईमेल से हिन्दुस्तान का दर्शक एसएमएस की तरह राय नहीं भेजता है। इसके बाद न्यूज़ चैनलों ने इंटरएक्टिविटी बढ़ाने के लिए अपने अपने वेबसाइट बना डाले। वेबसाइट पर वीडियो लाइव देखने की सुविधा दे दी गई। टीवी अपनी खबरों को अखबार की तरह छापने भी लगा। अखबार तो टीवी होने का प्रयास नहीं करता। कल ही खबर देखी कि दैनिक भास्कर अपने रिपोर्टर को ऑन स्पॉट रिपोर्टिंग की सुविधा दे रहा है। मालूम नहीं कि यह किस लिए किया जा रहा है। क्या अखबार को भी अब पाठक का संकट हो रहा है जिससे जूझने के लिए वे अब टीवी की तरह बनने लगे हैं।

जो भी हो टीवी संकटग्रस्त हो गया है। यह एक जाता हुआ माध्यम लगता है। थ्री जी के आते ही बड़े बड़े ओबी वैन बेकार हो जाएंगे। कैमरे के साथ सेट टॉप जैसा बक्सा होगा जिससे आप लाइव टेलिकास्ट कर सकेंगे। इसे पूरी तरह सक्रिय होने में कम से कम तीन साल लगेंगे लेकिन थ्री जी का प्रयोग होने लगा है। क्वालिटी खराब है मगर इसका रास्ता निकल आएगा। वर्तमान में टीवी बौरा गया है। वो कभी ट्विटर से कमेंट उठाता है तो कभी फेसबुक से। वॉक्स पॉप लेने का रिवाज भी कम होता जा रहा है।टीवी आंखें ढूंढ रहा है। आंखें किस टीवी को ढूंढ रही हैं मालूम नहीं।

मैं जिस फ्लोर पर रहता हूं। उस में पांच घर हैं। नीचे के फ्लोर पर भी इतने ही हैं। इन दस घरों में से छह मुझे सीधे तौर पर जानते हैं। इनके घरों में मैं कभी भी अचानक चला जाता हूं। लेकिन कभी भी अचानक इन्हें न्यूज़ देखते हुए नहीं पाया। इनमें से एक या दो को मालूम है कि मेरे शो की टाइम क्या है। टीवी खूब देखते हैं। चलता है तो इंडियन आइडल टाइप कुछ चल रहा होता है। मेरे घर में जब बुज़ुर्ग आते हैं तो कभी उनको न्यूज देखते नहीं देखा। सास-ससुर न्यूज के लिए बांग्ला चैनल लगा कर देख लेते हैं। बहुत कम समय के लिए। उसके बाद अगर टीवी चल रहा होता है तो सिर्फ सीरीयल या क्रिकेट के लिए। टीआरपी के विशेषज्ञ एक मित्र ने कहा कि अकेले दिल्ली में न्यूज़ के दर्शकों में चालीस फीसदी की गिरावट है। टैम मीटर की सत्यता पर मेरे जैसे खिन्न पत्रकार ही सवाल उठाते हैं। आज तक किसी मीडिया मालिक को टैम को गरियाते नहीं सुना। जबकि ये काम वो हमसे बेहतर कर सकते हैं। टैम नहीं जाएगा। वो रहेगा।

नहीं देखे जाने के मलाल से सब परेशान हैं। मैं तो फेसबुक पर चैट करने वालों से पूछने लगता हूं कि आपने मेरा शो देखा? न जाने उन पर क्या बितती होगी। बेचारे गरियाते भी होंगे कि चाट है। जब देखो यही बात करता है। कुछ नहीं तो सबके चैट में शो की टाइमिग डाल देता हूं। फिर कई लोगों से पूछने लगता हूं कि देखा मेरा शो। जवाब मिलता है कि मिस कर गए तो मायूस हो जाता हूं। ये एक पत्रकार के व्यवहार में आ रहे बदलाव की आत्मस्वीकृति है। ये तो शुरूआत है। पता नहीं अंत कहां होगी। क्या पता एक दिन मैं टी शर्ट पहनकर घूमने लगूं। जिसके पीछे लिखा होगा कि आप रवीश की रिपोर्ट नहीं देखते हैं? क्या करते हैं। एनडीटीवी के सोशल साइट्स पर लोग अपनी स्टोरी या टॉपिक डालने लगे हैं। स्टेटस मन की बातों के लिए था। हम धंधे के दबाव में आ गए। आखिर सवाल तो है ही क्या हम न देखे जाने के लिए काम करें या फिर वो काम करें जो देखा जा सके। तब क्या हो जब दूसरे टाइप का काम भी करें और देखे न जाएं। मीडिया का असर कम हो रहा है। विविधता से मीडिया को क्या फायदा हुआ इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। फिलहाल यह फैसला करना होगा कि क्या करें। बेहतर रिपोर्ट कौन तय करेगा। चार बुद्धिजीवी या फिर चालीस दर्शक।

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