संचार माध्यमों का संयम
अयोध्या मामले पर मीडिया की भूमिका को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी
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अयोध्या का फैसला आने से पहले से ही आप देश के प्रिंट मीडिया पर नजर डालें देश के सभी प्रमुख अखबार किस भाषा में संवाद कर रहे थे? जबकि 90 के दशक में भारतीय प्रेस परिषद ने माहौल को बिगाड़ने में कई अखबारों को दोषी पाया था। किंतु इस बार अखबार बदली हुयी भूमिका में थे। वे राष्ट्रधर्म निभाने के लिए तत्पर दिख रहे थे। फैसले के पहले से ही अमन की कहानियों को प्रकाशित करने और फैसले के पक्ष में जनमानस का मन बनाने में दरअसल अखबार सफल हुए। ताकि सांप्रदायिकता को पोषित करने वाली ताकतें इस फैसले से उपजे किसी विवाद को जनता के बीच माहौल खराब करने का साधन न बना सकें। यह एक ऐसी भूमिका थी जिससे अखबारों एक वातावरण रचा। मीडिया की ताकत आपको इससे समझ में आती है। शायद यही कारण था कि राजनीति के चतुर सुजान भी संयम भरी प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर हुए। इसका कारण यह भी था कि इस बार मीडिया के पास भड़काने वाले तत्वों के लिए खास स्पेस नहीं था। उस हर आदमी से बचने की सचेतन कोशिशें हुयीं, जो माहौल में अपनी रोटियां सेंकने की कोशिशें कर सकता था। अदालत का दबाव, जनता का दबाव और मीडिया के संपादकों का खुद का आत्मसंयम इस पूरे मामले में नजर आया। टीवी मीडिया की भूमिका निश्चय ही फैसले के दिन बहुत प्रभावकारी थी। एक दिन पहले से ही उसने जो लाइन ली, उसने फैसले को धैर्य से सुनने और संयमित प्रतिक्रिया करने का वातावरण बनाया। यह एक ऐसी भूमिका थी जो मीडिया की परंपरागत भूमिका से सर्वथा विपरीत थी। टीवी सूचना माध्यमों को आमतौर पर बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। टीआरपी की होड़ ने दरअसल उन्हें उनके लक्ष्य पथ से विचलित किया भी है। किंतु अयोध्या के मामले पर उसकी पूरी प्रस्तुति पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का बड़े से बड़ा आलोचक सवाल खड़े नहीं कर सकता। इस पूरे वाकये पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक अभियान की तरह अमन के पैगाम को जनता तक पहुंचाया और राजनीतिक व धार्मिक नेताओं को भी इसकी गंभीरता का अहसास कराया। यह मानना होगा कि कोर्ट के फैसले को सुनने और उसके फैसले को स्वीकारने का साहस और सोच, सब वर्गों में दरअसल मीडिया ने ही पैदा किया। राममंदिर जैसे संवेदनशील सवाल पर साठ साल आए फैसले पर इसीलिए देश की राजनीति में फिसलन नहीं दिखी, क्योंकि इस बार एजेंडा राजनेता नहीं, मीडिया तय कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि 1990 से 92 के खूंरेंजी दौर के नायक इस बार संचार माध्यमों में वह स्पेस नहीं पा सके जिसने उन्हें मंदिर या बाबरी समर्थकों के बीच महानायक बनाया था। मीडिया संवाद की एक नई भाषा रच रहा था जिसमें जनता के सवाल केंद्र में थे, एक तेजी से बढ़ते भारत का स्वप्न था, नए भारतीयों की आकांक्षाएं थीं, सबको साथ रहने की सलाहें थीं। यह एजेंडा दरअसल मीडिया का रचा हुआ एजेंडा था, अदालत के निर्देशों ने इसमें मदद की। उसने संयम रखने में एक वातावरण बनाया। देश में कानून का राज चलेगा, ऐसी स्थापनाएं तमाम टीवी विमर्शों से सामने आ रही थीं।
आप कल्पना करें कि मीडिया अगर अपनी इस भूमिका में न होता तो क्या होता। आज टीवी न्यूज मीडिया जितना पावरफुल है उसके हाथ में जितनी शक्ति है, वह पूरे हिंदुस्थान को बदहवाश कर सकता था। प्रायोजित ही सही, जैसी प्रस्तुतियां और जैसे दृश्य टीवी न्यूज मीडिया पर रचे गए, वे बिंब भारत की एकता की सही तस्वीर को स्थापित करने वाले थे। मीडिया, फैसले के इस पार और उस पार कहीं नहीं था, वह संवाद की स्थितियां बहाल करने वाला माध्यम बना। फैसले से पहले ही उसने अपनी रचनात्मक भूमिका से दोनों पक्षों और सभी राजनीतिक दलों को अमन के पक्ष में खड़ाकर एक रणनीतिक विजय भी प्राप्त कर ली थी, जिससे फैसले के दिन कोई पक्ष यू-टर्न लेने की स्थितियों में नहीं था। सही मायने में आज देश में कोई आंदोलन नहीं है, मीडिया ही जनभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रगटीकरण का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। देश ने इस दौर में मीडिया की इस ताकत को महसूसा भी है। फिल्म, टेलीविजन दोनों ने देश के एक बड़े वर्ग को जिस तरह प्रभावित किया है और आत्मालोचन के अवसर रचे हैं, वे अद्भुत हैं। पीपली लाइव जैसी फिल्मों के माध्यम से देश का सबसे प्रभावी माध्यम(फिल्म) जहां किसानों की समस्या को रेखांकित करता है वही वह न्यूज चैनलों को मर्यादाएं और उनकी लक्ष्मणरेखा की याद भी दिलाता है। ऐसे ही शल्य और हस्तक्षेप किसी समाज को जीवंत बनाते हैं। अयोध्या मामले पर मीडिया और पत्रकारिता की जनधर्मी भूमिका बताती है कि अगर संचार माध्यम चाह लें तो किस तरह देश की राजनीति का एजेंडा बदल सकते हैं। माध्यमों को खुद पर भरोसा नहीं है किंतु अगर वे आत्मविश्वास से भरकर पहल करते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। क्योंकि सही बात को तो बस कहने की जरूरत होती है, अच्छी तो वह लग ही जाती है। अयोध्या मामले के बहाने देश के मीडिया ने एक प्रयोग करके देखा है, देश के तमाम सवालों पर अभी उसकी ऐसी ही रचनात्मक भूमिका का इंतजार है।
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