Saturday, December 25, 2010

मैं सच कहूँ अगर तो तरफदार मत कहो


मैं सच कहूँ अगर तो तरफदार मत कहो




पत्रकारिता बनाम पक्षकारिता
- पंकज झा
एक समाचार चैनल में रिपोर्टर के लिए साक्षात्कार का दृश्य. नौकरी का एक याचक बिलकुल सावधानी से प्रश्नों का उत्तर दे रहा है. साक्षात्कार लेने वाला मुख्य कर्मचारी अपनी स्वाभाविक अकड से बैठा अपने दाता होने का परिचय दे रहा है. तब-तक बात किसी विचारधारा के पक्षधरता की आती है. नौकरी के लिए उपस्थित व्यक्ति कह बैठता है की हां उसकी अमुक विचारधारा में आस्था है और उसी विचारधारा से प्रभावित संस्थान में फिलहाल वह नौकर भी है. भले ही एक शिक्षित-प्रशिक्षित पत्रकार होने के कारण उसकी रूचि मुख्यधारा की पत्रकारिता में है लेकिन विचारधारा विशेष को लेकर काम करते रहने के कारण उसे कोई अफ़सोस नहीं है. घोषित रूप से वह अपना काम करने के लिये गर्व भी अनुभव करता है. फ़िर तो जो परिणाम आया होगा आप समझ भी गए होंगे. याचक अपना सा मूह बनाए बाहर की और रुख करता है.
ऐसा ही एक दूसरा दृश्य देखिये. छत्तीसगढ़ शासन द्वारा पहली बार पत्रकारिता के लिए शुरू किये गए पुरस्कार के लिए पत्रकारों की प्रविष्टियों पर एक ज्युरी विचार कर रही है. विचार के लिए आये प्रविष्टियों में एक ऐसा भी आवेदक है जो एक राजनीतिक दल की पत्रिका का संपादक है. अपनी नौकरी के अलावा प्रदेश से संबंधित विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर विभिन्न अखबारों के लिए स्वतंत्र लेखन भी करता है. प्रदेश के सभी ज्वलंत मुद्दे पर उसने वैचारिक प्रतिबद्धताओं के परे जा कर सशक्त हस्तक्षेप किया है. उसकी फ़ाइल सामने आते ही ‘जजेज’ नाक़ भों सिकोरते हैं. अपेक्षित समय में प्रकाशित लगभग पचास महत्वपूर्ण आलेखों की प्रविष्टि पर बिना नज़र डालने की ज़हमत उठाये ‘असली पत्रकारों’ को उपकृत करने के उपक्रम में सभी सदस्य लग जाते हैं.
दिलचस्प यह की राजनीतिक दलों से संबद्धता को अयोग्यता मानने वाले ज्यूरी के माननीय सदस्य में से कोई खुद किसी सरकारी भोपू के नौकर हैं तो कोई नेपथ्य में अपनी पक्षधरता एवं निष्ठा का राग अलाप कर सरकारी मलाई चट करते रहने वाले प्रजाति के प्राणी. इसी निष्ठा की बदौलत बिना पत्रकारिता की कोई शिक्षा पाए पत्रकार बनाने वाले संस्थान का सूबेदार या फ़िर ज्यूरी सदस्य बन पत्रकारों की हैसीयत तय करने वाला न्यायाधीश भी बन जाने वाले लोग.
पहली नज़र में देखने पर आपको दोनों ही चीज़ें सही दिखेंगी. ज़ाहिर है आप सोचेंगे की पत्रकारों को तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए. उसकी संबद्धता किसी राजनीतिक दलों या उसकी विचारधारा से नहीं हो. किसी सरकार का कृपापात्र नहीं हो तो अच्छा…आदि-आदि. लेकिन अगर आप थोड़े विषयनिष्ठ होकर विचार करें तो चीजे अलग दिखेंगी. अव्वल तो यह की आखिर पत्रकार होने का मानदंड क्या है, आप किसको पत्रकार कहेंगे? क्या दुनिया में तटस्थता जैसी भी कोई चीज़ हो सकती है. ज़ाहिर सी बात है की हर वैचारिक व्यक्ति किसी न किसी विचारधारा में आस्था रखता होगा. मताधिकार हर व्यक्ति को इसीलिए मिला होता है की वह अपनी पक्षधरता व्यक्त करे. अगर शिक्षा को मानदंड बनाया जाय तो ज़ाहिर है की केवल डीग्री लेने मात्र से कोई इंजीनियर अपने पेशे के नाम से जाना जा सकता है तो यही मानदंड पत्रकारिता के लिए भी क्यू न लागू हो.
आप आज़ादी के आंदोलन के समय से ही चीज़ों को देखे तो समझ सकते हैं कि उस समय के सभी बड़े नेता या तो वकील होते थे या पत्रकार. गांधी से लेकर सभी अगुए अपनी बात पत्रकारिता के माध्यम से ही कर देश के ‘नवजीवन’ हेतु प्रयासरत थे. लेकिन कभी भी उनकी अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा उनकी पत्रकारिता के आडे नहीं आया. आश्चर्य जनक किन्तु सत्य है कि संचार सुविधाओं के सर्वथा अभाव वाले उस ज़माने में भी उनकी पत्रकारिता दूर तक पहुच रखती थी. न्यूनतम साक्षरता वाले उस ज़माने में भी उस समय किसी साप्ताहिक में लिखा गया एक आलेख कश्मीर से कन्याकुमारी तक को आंदोलित कर देता था.
अगर छत्तीसगढ़ के इस पुरस्कार की ही बात करें जिन युगपुरुष के नाम पर पत्रकारिता का यह पुरस्कार देना तय हुआ है वह स्वयं ही कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री और सांसद रहे. बावजूद उसके सही अर्थों में वे प्रदेश की ऐसी विभूति हैं जिनपर पत्रकारिता के अलावा राजनीति को भी नाज़ है. अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय चैनल से संबद्ध रहे एक पत्रकार ने अपने चर्चित ब्लॉग में लिखा कि वह वामपंथी पार्टी का कार्ड होल्डर है और इस पर उसे गर्व है. और वह सदा ही वामपंथी रहेगा. बावजूद उसकी पत्रकारिता पर किसी ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया.
तो सवाल किसी व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह का नहीं है. सवाल तो यह है कि किसी भी अन्य विचारधारा का वाहक बन कर भी आप पत्रकार कहे जा सकते हैं. किसी विदेशी विचार या विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा फैलाए गए विचार के वाहक बनकर आप हर तरह के सम्मान के भागी बन सकते हैं लेकिन किसी राष्ट्रीय या राष्ट्रवादी विचारधारा में आस्था आपको कम से कम बौद्धिक क्षेत्र में दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर ही रखेगा.
हमें अभी याद आते हैं वैसे संघनिष्ठ पत्रकार गण जो इस सूचना क्रान्ति के ज़माने में भी, सांप-सापिन और सावंत को पत्रकारिता का पर्याय बना देने वाले इस दुकानदार के बीच भी अपने छोटे-छोटे श्वेत-श्याम पत्रों के माध्यम से या फ़िर संपादकों की चिरौरी कर किसी तरह अपने कागज़ के नाव को इस घरियालों के समंदर को पार करने की कुव्वत रखते हैं. अपने ही देश-प्रदेश में अपनी ही सरकार में स्वयं तिरस्कृत होकर भी तिरस्कार करने वालों को कथित अपनों के द्वारा ही सम्मानित होते देखते भी बिना किसी परवाह के अपना कार्य संपादन करते रहते हैं.
निश्चित ही पुरस्कार पा जाना केवल किसी पेशेवर पत्रकार का ध्येय नहीं होता होगा. न ही कोई इसलिए लिखता है कि वह कोई पुरस्कार पा जाय.
अगर सवाल केवल चंदूलाल चंद्राकर स्मृति समेत हालिया घोषित पुरस्कारों का हो तो शासन की इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए कि उसने अपनी तरफ से पूरी तरह ईमानदार दिखने की कोशिश की है. उसने अपने ही द्वारा बनाए गए नियम से खुद को ज्यूरी के निर्णय के प्रति बाध्यकारी बना लिया है. लेकिन सवाल उन वरिष्ठों पर है जो अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए मानदंड तय कर किसी के पत्रकार होने या न होने के सम्बन्ध में फतवा जारी करते हैं.
वास्तव में पत्रकार किसे माना जाय यह तय करने का अधिकार कुछ ऐसे मठाधीशों को देने के बदले इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट मानदंड बनाने के ज़रूरत है. वकील और पत्रकार में मूल में यही है कि दोनों को किसी का पक्ष लेना होता है. एक के सरोकार थोड़े व्यक्तिगत होते हैं तो दुसरे के व्यापक होना चाहिए. पत्रकारिता से अपेक्षा यह होता है कि वह जन-पक्षधारिता की बात करे. लेकिन कोई भी सामान्य सोच का व्यक्ति भी आज की पत्रकारिता को जनोन्मुखी कह सकता है? हर तरह की गंदगी को बेच भारी-भरकम वेतन पर काम करने वालों को आप समाज में प्रतिष्ठा दें लेकिन अपने झोले में अपना संविधान रख किसी सावधान नए व्यक्ति को केवल इस लिए अपने समाज से निकाला दे दें कि उसका ‘जन’ आपके जन से थोडा अलग है. क्या कहा जाय इस परिभाषा को?
सीधी सी बात है कि अगर जन-सरोकारों की ही बात को परिभाषा बनाया जाय तो किसी राजनीतिक दल की बात करने वाले को इस श्रेणी में क्यू न रखा जाय? सब जानते हैं कि मुख्यधारा के माध्यमों का साध्य केवल टीआरपी या कंघी-बाल्टी तक मुफ्त दे कर अपना सर्कुलेशन बढ़ा कर ढेर सारा विज्ञापन प्राप्त करना रहता है वही राजनीतिक दलों को बार-बार, कई बार विभिन्न चुनावों में स्वयं को साबित करना होता है. खराब से खराब हालत में भी जहां राजनीतिक दलों के पास करोड़ों लोगों के समर्थन का प्रमाण पत्र होता है तो मीडिया के पास केवल विज्ञापन की ताकत. अभी हाल में एक समूह ईमेल में तथ्यों के साथ यह बताया गया है कि किन-किन समाचार कंपनियों में चर्च से लेकर किस तरह विदेशी तत्वों के पैसे लगे हुए हैं.
तो एक इरानी कहावत है कि अगर हर व्यक्ति में एक दीवार हो तो आदमी को चाहिए कि वह दीवाल की ओर मुंह करके ही खड़ा हो जाया जाय. तो जहां भूत-भूतनी-भभूत बेचने वाले को पत्रकार कहा जाय और वैचारिक अधिष्ठान में कार्यरत जन को तिरस्कृत किया जाय वैसे परिभाषा से मुक्त करने की जिम्मेदारी भी राजनीति को ही उठानी होगी. अगर वह मुख्यधारा में किसी तरह की तबदीली लाने में सक्षम नहीं हो तो दलों को चाहिए कि अपना प्रभावी एवं समानांतर समाचार संस्थान विकसित कर अच्छे एवं ईमानदार व्यक्तियों को जगह दें.
जब-तक भूख से भी लडखडाते कदम को मयखार-दारूबाज कहने वाला समूह कायम रहे वहां सच कहने वाले को तरफदार कह कर कलंकित होने से बचाने की जिम्मेदारी भी ‘राजनीति’ को ही उठानी होगी. पुरस्कारों के लिए की जाने वाली राजनीति या राजनीति में काम करने वालों को तिरस्कृत होने के इस वर्तमान आलोच्य घटना का यही सबक है. ज़रूरत इस बात का है कि जंगल-जंगल की बात को पता कर सही अर्थों में ‘चड्ढी पहन कर राष्ट्रवाद का असली फूल खिलाने वाले लोगों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाय. अगर व्यवस्था ऐसा करने में सफल नहीं रहा तो कोई योग्य व्यक्ति तो अपनी जगह तो बना ही लेगा, लेकिन देश प्रेम की बात करने वाले को ज़हरीला कहने वाले समूह या कश्मीर को पकिस्तान का हिस्सा बताने वाले देशद्रोही लोगों से, नक्सलवाद के विरुद्ध ईमानदार लड़ाई को आदिवासियों के संहार के रूप में प्रचारित करने वाले लोगों के विरुद्ध आपकी बात सच्चाई से कहने की साहस कौन और क्यू करेगा?

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