Krishna Bhagwan
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
सभी शास्त्रों तथा धर्माचार्यों के प्रवचनों का यही सार है कि भगवान केवल भाव के भूखे हैं। वे हमसे किसी वस्तु अथवा पदार्थ की कामना नहीं रखते और न ही किसी फल-फूल की अपेक्षा रखते हैं। ईश्वर तो बस कोमल भाव और प्रेम चाहते हैं, निर्मल मन चाहते हैं। उनको तो भक्त का सच्चा प्रेम चाहिए, बस। जिस भक्त का स्वभाव निर्मल है, हृदय निर्मल है तथा जो छल-कपट से दूर है, उन्हें तो भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
संतों का भी मत है कि हम जन्म से पूर्ण और निर्मल ही थे, स्वभाव भी सरल ही था, एक नवजात शिशु की तरह, किंतु जैसे-जैसे हम बड़े होते चले गये, हमारे सरल स्वभाव तथा पवित्र हृदय में विकार प्रवेश करते चले गये। इन विकारों का आना भी स्वाभाविक है। हमारे लाख प्रयत्न करने के बाद भी पवित्र हृदय में विकारों का समावेश हो ही जाता है। जिस प्रकार एक बंद कमरे में धूल के कण पहुँच ही जाते हैं और उसे गंदा कर देते हैं, उसी प्रकार विकारों का हमारे अंदर प्रवेश होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसके लिए हम नियमित रूप से सत्संग और संतों की वाणी का पान करें तो सभी प्रकार के विकारों से बचा जा सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार बाह्य स्थूल स्वरूप के नहीं हैं। अंत इन विकारों को बाह्य साधनों से शुद्ध नहीं किया जा सकता है। ये विकार तो अंतकरण पर सूक्ष्म रूप में छाये रहते हैं, इसलिए इसके लिए सूक्ष्म साधनों की आवश्यकता होती है। जैसे, सूर्य की किरणें जो सूक्ष्म हैं, गंध को पवित्र कर देती हैं, उसी प्रकार ये विकार भी स्वच्छ होते हैं, लेकिन परमात्मा और संतों के प्रकाश को अपने अंदर धारण करने पर। सत्संग से यह विकार जो सत्, रज और तम गुणों से प्रभावित रहते हैं, अपनी विषमता को त्यागकर समता में आ जाते हैं। आत्मा का प्रकाश प्रस्फुटित होकर उसी प्रकार दिखने लगता है, जिस प्रकार काई को हटाने पर निर्मल जल दिखाई देने लगता है। ऐसा निर्मल मन ही परमात्मा से साक्षात्कार का अधिकारी बन सकता है।
अपने भक्तों की भावनाओं का प्रभु ने सदैव ख्याल रखा है। हर युग में अपने भक्तों की भावनाओं का प्रभु ने प्रतिफल दिया है। शबरी मतंग त्र+षि के आश्रम में रहती थी। वह नित्य प्रतिदिन त्र+षि का सत्संग सुनती तथा उनकी सेवा में रत रहती। परमधाम सिधारने से पूर्व त्र+षि ने शबरी से कहा कि एक दिन भगवान राम तेरी कुटिया पर आयेंगे, तब तुम उनकी प्रतीक्षा करना। उस दिन से शबरी रोज अपनी कुटिया में भगवान के आने की प्रतीक्षा करती रही। वह कुटिया की साफ-सफाई, पेड़-पौधों का सिंचन तथा प्रभु का ध्यान करती रहती। एक दिन वह शुभ घड़ी भी आ ही गयी, जब भगवान राम अपने अनुज सहित शबरी की कुटिया में पधारे और शबरी का सत्कार स्वीकार किया। शबरी ने बड़े भाव से चख-चख कर बेर खिलाये ताकि कोई खट्टा बेर प्रभु को न खाना पड़े। प्रभु ने शबरी के जू"s बेर और उनकी सेवा को प्रसन्नता से स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उनको अपना आशीर्वाद भी दिया-

`कंद मूल फल खाये बारंबार बखान।'

भगवान कृष्ण जब कौरवों-पांडवों के बीच सुलह कराने हेतु समझौता प्रस्ताव लेकर राजा धृतराष्ट्र के दरबार में पहुँचे तो दुर्योधन ने पांडवों को पाँच गाँव देने के प्रस्ताव को भी "gकरा दिया। सभा के बाद जब दुर्योधन ने भगवान कृष्ण को भोजन के लिए आमंत्रित किया, तो भगवान ने निमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि भोजन वहाँ किया जाता है, जहाँ भोजन का अभाव हो अथवा भोजन कराने वाले का आमंत्रित व्यक्ति पर कोई प्रभाव हो या भोजन कराने वाले का निर्मल भाव हो। चूंकि इस समय इन तीनों में से एक भी परिस्थिति ऐसी नहीं है, अत आपके यहाँ मेरा भोजन करना अभीष्ट नहीं है। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण महात्मा विदुर के घर चले गये और वहाँ भोजन को स्वीकार किया। ऐसी लीलाओं से भगवान ने यह संदेश दिया कि वे तो भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। संत-महात्मा कहते हैं कि प्रभु का दर्शन सर्वव्याप्त है। प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का दर्शन होता है। जिस साधना में प्रेम की मि"ास न हो, वह व्यर्थ का शारीरिक परिश्रम है। भक्ति, ज्ञान, योग, साधना ये सभी प्रभु की कृपा-प्राप्ति की सीढ़ियाँ हैं, जिन्हें संसार के प्राणियों से प्रेम नहीं, जिन्हें भगवान की वस्तुओं से प्रेम नहीं, ऐसे क"ाsर हृदय को ईश्वर दर्शन नहीं देते। इसलिए पूजा में प्रेम का भाव सर्वोपरि होना चाहिए। हमारी पूजा में निष्काम भाव का रस होना चाहिए तभी हमें प्रसाद की कामना करनी चाहिए।