Sunday, March 20, 2022

प्रेम के सिवा सब कुछ अभिनय हैं

 " सिवाय प्रेम के,.सब अभिनय है।"/ कृष्ण मेहता 

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प्रेम का अभिनय है तो इसका मतलब प्रेम अनुपस्थित है।

प्रेम ईश्वरीय है।उसे सांसारिक समझना सबसे बडी भूल है।

कभी भी प्रेम का कर्ता बनने की भूल नहीं करनी चाहिए।

प्रेम तो होता है,किया नहीं जाता।

फिर हम क्या करें?

प्रतीक्षा करें,शांत रहें,सहज रहें।

संसार में भी जिसे प्रेम कहा जाता है वह होता है,किया नहीं जाता।मगर वह राग है,मोह हैआसक्ति है।पीछे का कोई ऋणानुबंध है।पहले जन्म का कोई सुखद संबंध रहा है।

हम बात कर रहे हैं प्रेम के वास्तविक स्वरुप की।ऐसा प्रेम जो निर्दोष है,सरल है,सहज है,कल्याणकारी है।

यह ईश्वरीय है।हम सबके भीतर यह स्वत:आविर्भूत होना चाहिये।प्रयासरहित प्रेम ही वास्तविक होगा।और यह सबके लिये होगा।यह संभव है कोई हमसे नफरत कर रहा हो,हम उससे प्रेम कर रहे हों।और कुछ हो भी नहीं सकता।जब प्रेम का अनुभव प्रकट होता है हम वैसे ही हो जाते हैं।जैसे किसीके भीतर घृणा उत्पन्न हो रही हो तो वह मजबूर है।वह प्रेम कर नहीं सकता।जबर्दस्ती की जाय तो वह अवसाद से भर जायेगा।

कैसी विचित्र बात!

कोशिश प्रेम की,परिणाम अवसाद का।इसका कारण है प्रेम,प्रयत्न से होनेवाली चीज नहीं है।इसलिए व्यर्थ है यह कहना कि प्रेम करो।

ज्यादा अच्छा हो अगर कहा जाय-प्रेम मत करो।शांत रहो।स्वस्थ रहो।सहज रहो जो अपने स्वभाव के अनुकूल है।

अवसाद को निकल जाने दो।कर्ताभाव से,भोक्ता भाव से प्रेम करना अपने स्वभाव के प्रतिकूल है।उसका केवल अभिनय या दिखावा ही हो सकेगा।वह स्वार्थ है या राग है।खुश करने की चेष्टा है।

कर्ताभाव हमेशा प्रेम को विकृत कर देता है।सिर्फ एक ही चीज सुरक्षित है वह यह कि प्रेम स्वत:प्रकट हो,अनुभव हो।

 हम कुछ याद करते हैं या याद आता है?वस्तुतः हम वही याद करते हैं जो याद आता है।हम जबर्दस्ती किसीको याद करने की या याद रखने की कोशिश नहीं कर सकते।वह तनाव पैदा करेगा।स्वतः याद आये वह ठीक है।इस तरह स्वतः प्रेम का अनुभव हो तो वह ठीक है।

फिर वह सबके लिये होता है।निरपेक्ष प्रेम का अनुभव सबके लिये होता है वर्ना किसीको देखकर प्रेम का अनुभव हो रहा है तो वह व्यक्तिगत है।वह राग,मोह या आसक्ति हो सकती है जिसके तार पिछले जन्म से जुडे होते हैं।दिव्य,निरपेक्ष, ईश्वरीय प्रेम हो तो वर्तमान में उसकी सर्वव्यापकता बनी रहती है बिना किसी भूतभविष्य के हस्तक्षेप के।

यह अच्छा है जो प्रयत्न करने से प्रेम नहीं होता।यही उसकी दिव्यता,सुंदरता,नैसर्गिकता है।हम ईश्वरीय प्रेम कैसे कर सकते हैं?हम मिटें तो ईश्वरीय प्रेम प्रकट हो या ईश्वरीय प्रेम प्रकट हो तो हम मिटें।

यही प्रार्थना के साथ है अहंकार मिटे तो हृदय से प्रार्थना हो या हृदय से प्रार्थना हो तो अहंकार मिटे।

यह नहीं हो सकता है तो कोई उपाय नहीं सिवाय असमर्थता के अनुभव के।असमर्थता ही उपाय है।

जो ईश्वरीय वस्तु है उसे अपने कर्ताभोक्ता भाव के अधीन नहीं बनाया जा सकता।कर्ताभोक्ता भाव से सांसारिक उपलब्धियां संभव है,ईश्वरीय नहीं, दिव्य नहीं।

दिव्य के लिये तो हमें दिव्य होना पडे।यह कामना के बस के बाहर है।ईश्वरीय चीजें कामना तथा कामनापूर्ति से परे की चीजें हैं।इसलिए गीता संकेत करती है-उस परमेश्वर की शरण में जाओ।उसके अनुग्रह से सब संभव होगा।'

अतः असमर्थता तथा शरणागति को एक दूसरे का पर्याय समझना चाहिए।संसार में असमर्थता बंजर है,परमार्थ में यह उपजाऊ भूमि की तरह है।

किसीको असमर्थता की बात अच्छी न लगे तो उसे सहज रहना चाहिए तथा प्रेमानुभव को आने देना चाहिए जब भी वह आये।वह है।प्रतीक्षा करनेवाले पर वह बरसता है।कृत्रिम उपयोगकर्ता से वह दूर रहता है।यही कारण है जो प्रेम का अभिनय असंभव है शेष सबका अभिनय हो सकता है।ऐसे कोई प्रेम का अभिनय करले,प्रदर्शन करले मगर वह प्रेम तो है नहीं, फिर क्या लाभ!वास्तविक प्रेम हो जो तभी संभव है जब वह हमारे मूलस्रोत से,हृदय से स्वतः आता है।हमारे अहंरुप को निगल जाता है और जगत पर बरसता है बिना संकुचित भेददृष्टि के।

ऐसे लोग जगत के लिये वरदान हैं।जगत के लिये शाप की तरह जीनेवाले तो बहुत हैं।हम अपने और सबके हित के लिये सोचें।आत्ममित्र होने में जो सुख है वह आत्मशत्रु बननेवाले को कैसे मिल सकता है?

अहंकार आत्मा का शत्रु है।क्षुद्र सुख के लिये आदमी अहंकार को अपनाता है,शाश्वत सुखस्वरूप आत्मा से-अपने निरपेक्ष होनेपन से परहेज करता है।उसे संकुचित सुख का पता है,विराट विशाल आनंद अनुभव का उसे कुछ पता नहीं।पता हो तो क्यों उसमें न डूबे,अभिनय करने की क्या जरूरत पडे?

अहंकार बेहोशी है।जब उसकी पीडा असहनीय होती है तब आदमी घबराता है।ठीक कहा है-

"बेहोशी की पीडा उत्पन्न हो जाए तो ही जागरण की तरफ कदम उठते हैं।'

इसलिए नकारात्मक अहंकार का-अहम्मन्यता का एक ही सकारात्मक पहलु है वह यह कि उसका कष्ट इतनी अधिक मात्रा में बढ जाये कि मौलिक परिवर्तन के अलावा और कोई रास्ता न रहे।इसलिए अहंकार को पीडा हो तो वह शुभ है।वह अहंकारमुक्त होकर सहज सुखरुप जीवन जीने की प्रेरणा देता है।

जितनी भी अच्छाई है वह अपने आप आती है,जितनी भी बुराई है वह कामनाजन्य प्रयासों से आती है।हममें इतना धैर्य हो ताकि अच्छाईयां अपने आप आ सकें।सबका

अनुभव है अधीरता वातावरण को विषम बनाती है।धैर्य वातावरण को सहज होने में शक्तिशाली सहायता करता है।यह आत्मबल है।अहंकार जगह नहीं छोडता,आत्मबल में जगह ही जगह है अनंत असीम।

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