Tuesday, December 14, 2010

राष्ट्रीय संगोष्ठी के नाम पर हिन्दू कॉलेज में ड्राma



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दूधनाथ सिंह को छोड़कर दिल्ली से बाहर का एक भी वक्ता नहीं है लेकिन ये यूजीसी की ओर से फंडेड राष्ट्रीय संगोष्ठी है। राष्ट्रीयता की अवधारणा के साथ इतना घटिया और अश्लील मजाक शायद ही आपको कहीं देखने को मिले। जिस हिन्दी साहित्य और समाज के लोगों का ककहरा राष्ट्रीय शब्द से शुरु होता है और जर्जर होने तक इसी राष्ट्रीय पर जाकर खत्म हो जाता है,वहां राष्ट्रीयता के नाम पर इस तरह की बेशर्मी की जाएगी,इस बेशर्मी से ही हिन्दी समाज की तंग मानसिकता उघड़कर बजबजाती हुई हमारे सामने आ जाती है।

हिन्दू कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में अज्ञेय की जन्मशती को लेकर दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी( दिसंबर 14 और 15) का आयोजन किया गया है। इस आयोजन के लिए यूजीसी की तरफ से पैसे मिले हैं। जाहिर है जब पैसे यूजीसी से मिले हैं और वो भी राष्ट्रीय संगोष्ठी के नाम पर तो इसका सीधा मतलब है कि इसमें देश के अधिक से अधिक लोगों,कॉलेजों और विचारों की भागीदारी हो। वैसे भी अगर संगोष्ठी के लिए पैसे यूजीसी की तरफ से दिए जाते हैं तो आयोजकों पर इस बात की खास जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो इस राष्ट्रीय संगोष्ठी की अवधारणा को लेकर चौकस रहे। लेकिन दिल्ली से बाहर एक अकेले दूधनाथ सिंह को बुलाकर बाकी दिल्ली के 20-25 किलोमीटर की रेडियस पर रह रहे और लगभग जंग खा चुके आलोचकों को बुलाकर उसे राष्ट्रीय संगोष्ठी का नाम देना पूरी अवधारणा की सरेआम धज्जियां उड़ाने जैसा है। मुझे याद है अब तक मैंने कम से कम दस राष्ट्रीय(यूजीसी की ओर से फंडेड) संगोष्ठियों में हिस्सा लिया है और दो संगोष्ठियों में बतौर आयोजकों की तरफ से शामिल रहा हूं,इस तरह की पहली घटना मुझे दिखाई दे रही है जहां कि एक शख्स के दिल्ली से बाहर होने पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करा ली जा रही है। मैंने तमाम सेमिनारों में कम से कम छ-सात राज्यों के प्रतिनिधि वक्ता और कुछ हद तक श्रोताओं के शामिल होने की स्थिति को ही राष्ट्रीय संगोष्ठी के तौर पर देखा है। जहां तक मेरी अपनी समझदारी और जानकारी है कि इस तरह के सेमिनार के लिए ऐसा किया जाना जरुरी भी है। यूजीसी इसके लिए दो स्तरों पर पैसे देती है- एक तो कार्यक्रम के आयोजन के लिए और दूसरा कि कुल की आधी रकम प्रकाशन के लिए।

हिन्दू कॉलेज या देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय की अपनी इच्छा है कि वो अज्ञेय,मुक्तिबोध या किसी भी रचना या रचनाकार के बहाने राजपूत सभा,ब्राह्ण सभा या दिल्ली सभा का आयोजन करा दें। लेकिन यूजीसी की ओर से सहयोग दी जानेवाली संगोष्ठी कोई हेयर कटिंग सलून या होटल नहीं होते कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए नाम के आगे नेशनल या इन्टरनेशनल जोड़ दिया जाए। बाकी सारे ग्राहक भले ही चार-पांच गलियों में सिमटे हुए लोग हों। विभाग इस तरह से संगोष्ठी के आगे राष्ट्रीय चस्पाकर एक बड़ी अवधारणा को फ्रैक्चरड करने की कोशिश कर रहा है जो कि किसी भी अर्थ में सही नहीं है। सिर्फ दिल्ली के साहित्यकार अज्ञेय पर पंचायती कर देंगे और वो राष्ट्रीय संगोष्ठी का दर्जा पा जाएगा,ऐसी स्थिति में यूजीसी को विभाग से सवाल किए जाने चाहिए कि आपने बाहर से कितने लोगों को बुलाया या फिर सिर्फ दिल्ली के ही लोगों को क्यों बुलाया?

देशभर के हिन्दी विभागों के रिसर्चर से मिलिए,आपको हर चार में से एक अज्ञेय,मुक्तिबोध या नई कविता पर शोध करता मिल जाएगा। इन विषयों पर रिसर्च कर चुके लोगों की एक लंबी फौज है। लेकिन वक्ताओं की लिस्ट में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि 40 साल से नीचे का हो। अभी अज्ञेय,नागार्जुन,शमशेर जैसे रचनाकारों की सीजन होने की वजह से दर्जनों साहित्यिक पत्रिकाएं इन पर विशेषांक निकाल रही हैं। मेरे कुछ साहित्यिक साथी इनके लिए शोधपरक लेख भी लिख रहे हैं और खुद संपादकों की डिमांड में नए लोग हैं। आप उन अंकों को पलटें तो 25 से 35-40 तक के लोगों की एक लंबी सूचि मिल जाएगी। लेकिन इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है। आयोजक इस बात से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि उन्हें ऐसे नए लोगों के एक भी नाम नहीं मिले,बल्कि उन्होंने इस दिशा में न तो पहल की और न ही ऐसा करना जरुरी समझा। इससे क्या संदेश जाता है कि पिछले दस-पन्द्रह साल में पूरे दे के िसी भी विश्वविद्यालय ने एक भी अज्ञेय का जानकार पैदा नहीं किया। अगर 15 साल में सैंकड़ों रिसर्चर अज्ञेय और नई कविता पर शोध करने और लेख लिखने के बावजूद यूजीसी के पैसे पर आयोजित किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी में आने का दर्जा नहीं पा सकते तो फिर सरकार के लाखों रुपये खर्च करके इन्हें जारी रखने का क्या तुक है? मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि रिसर्चर की सारी काबिलियत उसकी संगोष्ठी में शिरकत करने से ही साबित होगी लेकिन कल को इस संगोष्ठी के वक्तव्य पर आधारित पाठ और पुस्तकें तैयार होंगी तो उसमें तो 45 से नीचे का कोई भी लेखक नहीं होगा जबकि पत्रिकाओं में वो लगातार लिख रहा है। अब सोचिए कि ऐसे में वो कितनी बड़ी साजिश का शिकार होता है?

इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि केंद्रीय विश्वविद्यालय से बाहर के हों। मतलब ये कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय से बाहर एक भी ऐसा साहित्यकार या आलोचक नहीं है जो कि अज्ञेय पर बात करने की क्षमता रखता हो। ये कॉलेज के विभाग की अपनी समझ है। जो विभाग तमाम रचना और रचनाकारों में राष्ट्रीयता,आंचलिकता और  सरोकार की घुट्टी बीए फर्स्ट इयर के स्टूडेंट से ही पिलानी शुर कर देता हो,उसकी इस हरकत पर सैद्धांतिक अवधारणाओं और व्यवहार के बीच उसके जड़ हो जाने की स्थिति बहुत ही नंगई के साथ सामने आती है। दिल्ली में बैठे साहित्यकारों और आलोचकों के प्रति देशभर के लोगों की टकटकी बंधी रहती है,यहां से जब लोग छोटे शहरों और कस्बों के कॉलेजों में बोलने और शिरकत करने जाते हैं,उनकी जो कहां उठाउं-कहां बिठाउं की शैली में स्वागत किए जाते हैं, फेसबुक पर टंगी इस सूचना और वक्ताओं की लिस्ट देखकर कैसा महसूस करते हैं,इसका शायद रत्तीभर भी अंदाजा नहीं है। बड़े नामों को जुटाने से एकबारगी तो लगता है कि भव्य आयोजन होगा लेकिन इसके साथ ही आयोजकों की ठहर चुकी समझ की तरफ इशारा करता है कि उसने पिछले 15 सालों में एक भी नया नाम नहीं खोज पाए। बड़े नामों का आना आयोजन की सफलता जरुर तय करती है लेकिन नए नामों को शामिल नहीं किया जाना,उसकी जड़ता को रेखांकित करती है। हालांकि इस तरह की संगोष्ठियां नेक्सस बनाने और एक-दूसरे को तुष्ट करने के लिए पूरी तरह बदनाम हो चुकी हैं,जिसके प्रतिरोध में लिखे जाने की स्थिति में एवनार्मल करार दिए जाने का खतरा है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर नए विचारों और चिंतन के लिए ही यूजीसी लाखों रुपये खर्च करके कराती है। 

इस संगोष्ठी में एक भी दलित वक्ता नहीं है। नहीं हैं तो इसका मतलब है कि देश में अज्ञेय के एक भी दलित जानकार नहीं है। कुल चार सत्र में से पहले के तीन सत्र में एक भी स्त्री वक्ता नहीं है। अंतिम सत्र में जो कि अज्ञेय के चिंतन पक्ष  को लेकर है,उसमें दो स्त्री वक्ताओं निर्मला जैन(अध्यक्षता) और राजी सेठ को रखा गया है। पहले के तीन सत्र जिसमें कि उनके गद्य और कविता से संबंधित सत्र है,एक भी वक्ता नहीं है। कुल बारह वक्ताओं में से दो स्त्री वक्ता हैं और बाकी पुरुष वक्ता। बाकी इन वक्ताओं के नाम के अंत में लगे हॉलमार्क काफी कुछ कह देते हैं।

अब सवाल है कि ये सबकुछ बस आयोजन का एक स्वाभाविक हिस्सा है या फिर इसमें गलत क्या है? फेसबुक पर एक शख्स ने इस सेमिनार के प्रति अहमति में लिखे जाने पर खुन्नस में आकर ऐसा लिखने की बात कही। लेकिन इसका प्रतिरोध किया जाना वाकई खुन्नस का हिस्सा है या फिर कार्यक्रम की रुपरेखा एक सैंपल पेपर की तरह है जिसके आधार पर हमें देशभर में होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी जिसे कि यूजीसी पैसे देती है,उस पर सोचने और तय करने के लिए विवश करती है कि यूजीसी के करोड़ों रुपये किस तरह एक अवधारणा को फ्रैक्चरड किए जाने,खंडित और क्षतिग्रस्त किए जाने के लिए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की अवधारणा अपने आप में बहुत विवादास्पद है जिसका मैं खुद भी पक्षधर नहीं हूं। लेकिन अगर राष्ट्रीयता सुविधा और शामिल किए जाने की शर्त तक परिभाषित होती है तो दिल्ली के चंद साहित्यकारों को पूरे देश को काटकर,उनका हक मारकर राष्ट्रीय होने और कहलाने का कुचक्र कितनी घिनौनी साजिश को मजबूत करती हैं,जरा सोचिए?
2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया से हुई बातचीत के टेप  इंटरनेट पर लगातार तैरते रहने से एक के बाद एक मीडिया दिग्गज लपेटे में आते रहे हैं। लेकिन अब तक इन टेपों में खास बात रही है कि इनमें से कोई भी पत्रकार हिन्दी मीडिया का नहीं रहा। इससे उपरी तौर पर ये मैसेज गया कि हिन्दी के मीडियाकर्मी अंग्रेजी मीडियाकर्मियों के मुकाबले कहीं ज्यादा पाक-साफ हैं। वो छोटे-मोटे समझौते तो करते रहते हैं लेकिन इस तरह देश को हिला देनेवाले करनामे नहीं करते। तब भाषाई स्तर पर ये निष्कर्ष निकाला गया कि आखिर हिन्दी तो है अपनी भाषा,इस देश की भाषा। कितना भी कुछ हो जाए,इस भाषा से जुड़े मीडियाकर्मी देश को इस तरह से बेच खाने का काम नहीं करेंगे। कुछ मीडियाकर्मियों ने इसे ईमानदारी के तौर पर प्रोजेक्ट किया और आशुतोष(IBN7) जैसे पत्रकार ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि उन्हें सब पता होता है कि मीडिया के भीतर कुछ पत्रकार जो करते हैं वो दरअसल दल्लागिरी कहते हैं,अंग्रेजी में इसे भले ही लॉबिइंग कहा जाता हो। इस काम को करनेवाले दल्ले होते हैं। आशुतोष को ये जुमला इतना हिट समझ आया कि पटना गांधी मैदान में चल रहे पुस्तक मेले में इसे दोबारा दोहराया और जमकर तालियां बटोरी। यूट्यूब पर डाली गयी वीडियो को देखकर मैं मन मसोसकर रह गया कि उनमें से किसी ने ये सवाल क्यों नहीं किया कि अगर आपको पता है कि मीडिया में कुछ लोग दल्लागिरी करते हैं तो अब तक ऐसे कितने दल्लों पर स्टोरी चलायी है या फिर अपने सबसे प्रिय अखबार हिन्दुस्तान में उनके बारे में लिखा है। 2G स्पेक्ट्रम मामले में मीडिया की गर्दन बुरी तरह फंस जाने की स्थिति हिन्दी मीडिया जहां पूरी तरह खामोश है,वहीं आशुतोष लीड ले रहे हैं और एक तरह से कहिए तो हिन्दी मीडिया की ईमानदारी के झंडे गाड़ रहे हैं।लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष है कि मीडिया और सत्ता के गलियारों में हिन्दी पत्रकारों को लेकर बहुत ही नकारात्मक छवि बनी है। लोगों को अफसोस हो रहा है कि हिन्दी में ऐसा कोई भी एक पत्रकार नहीं है जिसकी इतनी हैसियत हो कि वो नीरा राडिया जैसी लॉबिइस्ट से बात कर सके। यकीन मानिए दूसरा खेमा इसे हिन्दी पत्रकारों की ईमानदारी न समझकर उसकी औकात पर तरस खा रहा है कि बेकार में इतना हो-हल्ला मचाए फिरते हैं ये लोग,नीरा राडिया से बात तक नहीं होती। आज मीडिया के भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जो कि उघड़कर आम लोगों के बीच सामने न आ गया हो,मीडिया एमसीडी की बजबजाती हुई नाली की तरह दिख रहा है,ऐसे में हिन्दी के पत्रकारों का नाम न आना खुशी नहीं शर्म की बात है। बीबीसी के विनोद वर्मा ने बीबीसी ब्लॉग खरी-खरी में लिखा कि आज बड़े पत्रकार होना का सीधा पैमाना है कि आपकी नीरा राडिया से बातचीत होती है या हुई है कि नहीं। ये आज का एक बड़ा पैमाना है और फिर विस्तार से इसके कारणों की चर्चा की है। उस हिसाब से सोचें तो सहारा मीडिया के न्यूज डायरेक्टर उपेन्द्र राय हिन्दी के अकेले मीडियाकर्मी हैं जिन्होंने कि हिन्दी मीडिया की इज्जत बचा ली है।

12 दिसंबर 2010 को JOURNALIST FIGURED IN TALKS WITH IA EX-CHIEF 
नाम से छपी स्टोरी में मेल टुडे ने बताया है उपेन्द्र राय की नीरा राडिया से बातचीत हुई है। स्टोरी में बताया गया है कि उपेन्द्र राय जब स्टार न्यूज के लिए एयरलाइंस पर स्टोरी कर रहे थे,उस दौरान नीरा राडिया से बातचीत की थी। उपेनद्र ने भी स्पष्ट किया है कि उसकी नीरा राडिया से बातचीत हुई है जिसकी जानकारी स्टार न्यूज को उस समय दे दी गयी थी। नीरा राडिया ने दूसरी खेप में जो ताजा टेप जारी हुए हैं उसमें पू्र्व आइएस अधिकारी औऱ 2002 में एयर इंडिया के हेड हुए सुनील अरोड़ा को बता रही है कि उपेन्द्र से उसकी बात हुई है और साथ में ये भी सवाल कर रही है कि क्या उपेन्द्र ने उन्हें फोन किया है क्योंकि वो आधे घंटे की स्टोरी बनाना चाह रहा था। अरोड़ा साहब बता रहे हैं कि उपेन्द्र का एक मिस्ड कॉल तो था। इस बातचीत से ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं होता जिससे कि उपेन्द्र राय पर शंका जाहिर की जा सके। लेकिन स्टोरी के मुताबिक तीन चीजें स्पष्ट है- 1. उपेन्द्र राय नीरा राडिया से बतौर मैजिक और क्रॉन एयरलाइंस की चैयरपर्सन होने के नाते बातचीत करना चाह रहे थे. 2. एयर इंडिया के हेड सुनील अरोड़ा के नीरा राडिया से बहुत ही अच्छे संबंध हैं और 3. उपेन्द्र राय ने नीरा राडिया को ये भी बताया कि वो सुनील अरोड़ा से भी बात करेंगे।

28 साल से भी कम उम्र के होने पर उपेन्द्र राय जब उसी सहारा मीडिया में बतौर न्यूज डायरेक्टर बनकर आए जिसमें कभी स्ट्रिंगर हुआ करते तो मीडिया गलियारों में हंगामा मच गया। मीडिया के बड़े-बड़े तुर्रम खां के तोते उड़ गए। हिन्दी-अंग्रेजी की मीडिया साइटों ने उनके नाम के कसीदे पढ़ने शुरु कर दिए। मीडिया का काम करते हुए एमबीए कोर्स करने को लेकर जमकर तारीफें की गयीं और उन्हें औसत मीडियाकर्मियों से अलग बात बताया गया। लेकिन जिनलोगों को चैनलों और मीडिया के भीतर उपर बढ़ने के तरीके महीनी से पता है,उनलोगों ने आपसी बातचीत में कहना शुरु किया- कुछ तो बात है,बॉस। नहीं तो एक से एक धुरंधर पड़े हैं। इसी बीच खबर मिलने लगी कि सहारा एयरलाइंस और जेटलाइट के बीच जो डील हुई है,उसके सूत्रधार उपेन्द्र राय ही हैं और उन्हें न्यूज डायरेक्टर का ये प्रसाद उसी काम के लिए मिला है। ये खबर इतनी गर्म हुई कि देखते ही देखते हमलोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि एकदम से बदल गयी। पत्रकारिता की सीढ़ी चढ़कर उपेन्द्र राय ने कैसे पीआरगिरी शुरु कर दी है,इसके कई किस्से टुकड़ों-टुकड़ों में हमें कई लोगों से सुनने को मिलने लगे।

साफ-सुथरी छविवाले उपेन्द्र राय के लिए पीआरगिरी हॉबी का हिस्सा रहा है। इसलिए अब जब उपेन्द्र राय का नाम आया तो लोगों को हैरानी होने के बजाय इस बात पर हैरानी हुई कि अब तक इनका नाम क्यों नहीं आया। वो कुछ नहीं,बस लोगों से संपर्क बनाने में अपनी खुशी ढूंढते हैं और वो भी बहुत ही ईमानदार तरीके से। बाकी के लोगों की तरह वो 2sk फार्मूले पर काम नहीं करते। मीडिया के लोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि जबरदस्त ढंग से नेटवर्किंग करनेवालों में से रही है। पत्रकारिता करने की उनकी पहचान बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। सहारा में आकर भी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके दम पर उन्हें पत्रकार के तौर पर जाना जाए। हां,इसके ठीक उलट उन्होंने ऐसा हिसाब-किताब जरुर लगाया कि सालों से बीबीसी में काम करते आए संजीव श्रीवास्तव जिनका की अपना नाम और शोहरत है,उपेन्द्र राय के आगे सहारा से उन्हें जाना पड़ा। लोगों का मानना है कि ये उपेन्द्र राय की पत्रकारिता के बदौलत नहीं बल्कि पीआरगिरी की महिमा है। उनकी इस कला के आगे अच्छे-अच्छे महारथी पानी भरने लग जाएं।

 जिस तरह का माहौल बना है,ऐसे में स्टार न्यूज की एयर इंडिया पर बनी स्टोरी सहित उपेन्द्र राय की कवर की गयी उन तमाम स्टोरी पर विश्लेषण की जरुरत है जिसके बिना पर कुछ तथ्य खुलकर सामने आ सकेंगे। मीडिया में आए दिन मीडियाकर्मियों को लेकर जो खबरें आ रही है,उससे एक बात तो साफ है कि मीडिया के भीतर लॉबिइंग का काम सालों से तेजी से चल रहा है,जिसमें हिन्दी मीडिया के लोग भी शामिल है। आशुतोष जैसे काबिल पत्रकार इसका ठिकरा भले ही सिर्फ स्ट्रिंगरों पर फोड़कर बड़े पत्रकारों को महान साबित करने में जुटे हैं लेकिन आशुतोष को ये साफ करना चाहिए कि दिल्ली-नोएडा से स्ट्रिंगरों को विज्ञापन उगाहने के जो दबाव बनाने का काम किया जाता है,उसमें चैनल और स्ट्रिंगरों का कमीशन कितना होता है? जाहिर है खेल किसी एक शख्स का नहीं बल्कि पूरे के पूरे संस्थान के भीतर का है। 

नोट- पोस्ट के साथ पटना गांधी मैंदान में लगे पुस्तक मेला में आशुतोष की अमृतवाणी और मेल टुडे की लिंक अटैच्ड है।



सीधी बात के नाम पर अगर आप अब तक प्रभु चावला की मसखरी से तंग आ चुके हैं तो खुश हो लीजिए,अब वो सीधी बात में नजर नहीं आएंगे। आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप से उनका पत्ता साफ हो गया है। आजतक के सूत्रों के मुताबिक प्रभु चावला ने मैनेजमेंट को इस्तीफा सौंपा है यानी कि खुद अपनी इच्छा से वहां से चल देने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन मीडिया कल्चर के हिसाब से सोचें तो यहां कभी भी कोई बड़ा मीडियाकर्मी निकाला नहीं जाता बल्कि या तो वो कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर चला जाता है या फिर खुद इस्तीफी दे देता है। आप लिस्ट उठाकर देख लीजिए,जितने भी बड़े नामों की मीडिया संस्थानों से विदाई होती है तो पहली खबर बनती है कि वो कुछ दिनों के लिए आराम करना चाहते हैं,अपने परिवारवालों पर समय देना चाहते हैं। इस बीच हमारी भूलने की आदत इतनी है कि हम दोबारा नोटिस ही नहीं लेते कि जो छुट्टी पर गया वो लौटा क्यों नहीं। हल्के से तब तक वो इस्तीफा देकर बाहर हो लेते हैं या तो कर दिए जाते हैं। दर्जनभर मीडियाकर्मियों को तो मैंने खुद मैनेजमेंट के दबाव में आकर इस्तीफा देते देखा है। चैंबर या न्यूजरुम में उनके उदास चेहरे बाहर आते ही ऐंठकर अकड़ में तब्दील हो जाती है- मार दिया लात स्साली इस नौकरी को,रखा ही क्या था इसमे? बड़े से बड़े दिग्गज मीडियाकर्मियों के कार्ड पंच न होने लगे,ब्लॉग कर दिए जाएं,गार्ड उन्हें अंदर जाने से रोक दे लेकिन मीडिया में वो इस्तीफा ही कहलाता है। किसी मीडियाकर्मी ने इस रवैये का प्रतिकार नहीं किया। शुक्र है कि प्रभु चावला छुट्टी पर नहीं गए,सीधे वहां से विदा करार दिए गए हैं।

टीवी टुडे ग्रुप से प्रभु चावला का जाना एक बड़ी घटना है क्योंकि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया के साथ बातचीत के टेप बाकी लोगों के साथ इनकी भी वर्चुअल स्पेस पर तैर रहे थे,इनकी भी गर्दन अटकी हुई थी। तब आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइंस टुडे ने 1 दिसंबर की रात मीडिया दिग्गजों को बुलाकर पंचायती की थी और प्रभु चावला को पाक-साफ करार दिया था। अब आज उनके इस्तीफे की खबर से ये साफ होने लगा है कि चैनल ने जो पंचायती की और जो नतीजे निकलकर आए,उस पर उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है। लिहाजा मैनेजमेंट ने सोचा कि इस बदनामी का वजन बेईज्जती में डूबकर और भारी हो जाए,इससे बेहतर है कि इन्हें अलग कर दिया जाए।

उनके जाने के कारणों को लेकर जो कयास लगाए जा रहे हैं,उनमें से एक कारण ये भी है कि उन्होंने अरुण पुरी की सेवा देने से मुक्त होने का मन तब ही बना लिया था जब एम जे अकबर को ठीक उनके सिर पर लाकर बिठा दिया गया। एम जे अकबर कायदे से महीने भर भी इंडिया न्यूज में रहकर कुछ भी करिश्मा नहीं कर पाए होंगे कि इंडिया टुडे ग्रुप में आ धमके और तो और प्रभु चावला जो कि इंडिया टुडे के ग्रुप एडीटर हुआ करते, उस कुर्सी को उनसे छीनकर और उसमें हेडलाइंस टुडे चैनल की भी तख्ती लगाकर एम जे अकबर के आगे बढ़ा दी गयी और प्रभू चावला के लिए इंडिया टुडे के रिजीनल संस्करण प्रभारी नाम की एक नयी लेकिन कमजोर कुर्सी बनयी गयी और उनके आगे सरका दिया गया। प्रभु चावला को अपनी छोटी होती साइज देखकर खुन्नस आया और तभी से उन्होंने मन बना लिया कि यहां से कट लेना है। बीच में ये भी हल्ला हुआ कि वो इंडिया न्यूज का रुख करेंगे। इंडिया न्यूज इंडिया टुडे को बता देना चाहता है कि अगर वो उनसे एम जे अकबर को छीन सकता है तो वो भी प्रभु चावला को अपने यहां सटा सकते हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रभु चावला को पता है कि इंडिया टुडे से सटे रहकर वो बाहर किस तरह का फायदा ले सकते हैं?

 मेरी अपनी समझ है कि इंडिया टुडे और टीवीटुडे नेटवर्क मीडिया में उन विरले संस्थानों में से हैं जहां किसी के जाने से कोई फर्क पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से देखा कि जब पुण्य प्रसून वाजपेयी मोटी पैकेज के आगे और अंदुरुनी राजनीति से पिंड छुड़ाने के फेर में सहारा चले गए और समय चैनल चलाने लगे,तब भी लोगों को लगा कि आजतक तो गया,कम से कम 10तक तो पिट ही गया लेकिन आजतक पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। दीपक चौरसिया गए तो लगा कि आजतक की दीवार ढह गयी लेकिन कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। न्यूज इज बैक का नगाड़ा पीटते हुए न्यूज24 में जब आजतक के सुप्रिया प्रसाद जैसे दिग्गज,आउटपुट हेड और टीआरपी की मशीन कहे जानेवाले अपने साथ भारी-भरकम टीम लेकर गए तो लगा कि आजतक तो अब अनाथ ही हो गया। सुमित अवस्थी IBN7 गए तो लगा कि ढह जाएगा आजतक। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैनल अपने तरीके से चलता रहा,ये टीवीटुडे नेटवर्क मैनेजमेंट की अपनी खासियत है। उल्टे जानेवाले लोग जल्द ही छटपटाकर वापस आने की फिराक में लगे रहते हैं जिसमें सुमि अवस्थी और श्वेता सिंह कामयाब हैं। इसलिए प्रभु चावला के जाने से संस्थान को कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है और न ही वो अपनी साइज छोटी होने की वजह से गए हैं। जाने की पूरी-पूरी वजह राडिया-टेप,मीडिया कलह ही है।

अब इस संदर्भ में देखें तो ये कितना दिलचस्प मामला है कि एक चैनल सालों से काम करनेवाले अपने मीडिया दिग्गज का जमकर बचाव करता है और अभी दस दिन भी नहीं होते हैं कि उसे बाहर का रास्ता दिखा देता है। ये किस किस्म का भरोसा और किस किस्म की दावेदारी है कि जिस पर उसे खुद भी यकीन नहीं है। प्रभु चावला का जाना साफ करता है कि पत्रकार चाहे कितना भी बड़ा हो,बात जहां पर्सनल पर आती है तो संस्थान उसे दूध की मक्खी की तरह फेंकने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगाता। वीर साघंवी का नाम आया तो सांघवी ने खुद ही भावुक अंदाज में कॉलम लिखकर कुछ दिन बाद सामान्य स्थिति होने तक आराम करने की बात कर दी। फिर पता चला कि मैनेजमेंट ने उनकी साइज एडीटोरियल एडवाइजर से छोटी करके एडवायजर कर दी है। अभी तक सिर्फ NDTV24X7 ही है जो बरखा दत्त की साख में बट्टा लगने के बावजूद भी उसे ऑन स्क्री बनाए हुए है और उसका पद भी बना हुआ है। लेकिन हां सोशल साइट और बाकी इन्टरेक्टिव जगहों से उसे भी गायब कर दिया है। बरखा दत्त के बने रहने की एक वजह ये भी हो सकती है कि पिछले संडे को दि संडे गार्जियन ने NDTV24X7 में प्रणय रॉय और राधिका राय की ओर से करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी करने के मामले में जो खबरें प्रकाशित की है,उसका असर हो। इस बीच बरखा दत्त को बने रहने देने में ही अपना भला चाह रहा हो। लेकिन इतना तो साफ है कि किसी भी मीडिया संस्थान का कलेजा इतना मजबूत नहीं है कि वो अपने मीडियाकर्मी का लंबे समय तक साथ दे। अब जबकि मीडिया संस्थान के लोग एक-एक करके खुद ही अपने आरोपित मीडियाकर्मियों को अलग कर रहे हैं ऐसे में चैनलों पर मीडिया एथिक्स को लेकर भाषणबाजी करना कितना भौंडेपन का काम है,आप ही सोचिए।

इधर खबर है कि प्रभु चावला न्यू इंडियन एक्सप्रेस ज्वायन करने जा रहे हैं जो कि मूल रुप से बैंग्लूरु की कंपनी है। अब सवाल है कि इंडिया टुडे ने तो आरोप के बिना पर प्रभु चावला की सजा का एलान कर दिया। लेकिन क्या आरोप सच साबित होने पर कानून और न्यायपालिका ऐसे पत्रकारों को दबोच पाएगी? एक बड़ा तबका जिस पत्रकार को देखकर अपनी राय बनाता आया है,क्या ऐसे दागदार पत्रकारों को अपनी तरफ से कोई सजा मुकर्रर करने की स्थिति में होगा? इनलोगों ने तो अपनी इतनी ताकत पैदा कर ली है कि टुडे की चौखट से धकिआए जाएंगे तो न्यूज एक्सप्रेस की गोद में गिरेंगे लेकिन सोशल जस्टिस......लागू होता भी है या नहीं इन पर? 

ये मीडिया में करप्शन के उजागर होने और बड़े-बड़े आयकन के ध्वस्त हो जाने का दौर चल रहा है। इस कड़ी में अब प्रसार भारती के सीइओ बीएस लाली भी शामिल हो गए हैं। बीएस लाली पर आरोप है कि उन्होंने निजी प्रसारण कपंनियों को फायदा पहुंचाने का काम किया है जिससे प्रसार भारती को करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है। प्रसार भारती के भीतर उनकी मनमर्जी इस तरह से बनी रही कि उन्होंने प्रावधानों को ताक पर रखकर निजी स्पोर्ट्स चैनलों से सांठ-गांठ कर उन्हें फायदा पहुंचाया है। बीएस लाली का कोई एक कारनामा नहीं है जिसे कि बताया जाए,उनके कार्यकाल में दबंगई की लंबी सूची है जिसे देखकर हैरानी होती है कि सरकार ने अब जाकर क्यों कारवायी करने का मन बनाया है? यह काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। पहले राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की तरफ से बीएस लाली के खिलाफ जांच करने की सिग्नल मिलने के बाद शुक्रवार को सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की तरफ से भी हरी झंडी दिखा दी गयी है। दो-तीन दिनों में ही साफ हो जाएगा कि लाली का निलंबन होना है कि नहीं। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा।

 पब्लिक ब्राडकास्टिंग में पैसे के हेर-फेर को लेकर एनडीटीवी( प्रणय राय) के बाद ये दूसरा मौका है जब मामला कोर्ट तक जाने की स्थिति तक पहुंच गया है। एक प्रोडक्शन हाउस के तौर पर जब NDTV  दि वर्ल्ड दिस वीक बनाया करता औऱ लाइसेंस फीस देकर प्रसारित करता,उस दौरान भी पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन को 47.8 मिलियन रुपये का नुकसान हुआ था और इसी तरह फायदा पहुंचाने का मामला बना था। तब दूरदर्शन के भीतर गठित कमेटी ने पूरे मामले को सीबीआई जांच के लिए सौंपने की बात की थी। तब जांच एजेंसी ने 9 जनवरी 1998 को दूरदर्शन के कुछ अधिकारियों औऱ प्रणय राय के खिलाफ मामला दर्ज करायी थी।( 43 वां रिपोर्ट, पब्लिक अकाउंटस कमेटी(2002-03), नई दिल्ली,लोकसभा सचिवालय,मार्च 2003 पे.-1-2)  बीएस लाली का दावा है कि वो सुप्रीम कोट में अपने को दूध का धुला साबित कर पाएंगे क्योंकि जो कुछ भी आरोप लगाए गए हैं,वो सबके सब कुछ बाहरी प्रभावी ताकतों की ओर से लगाए गए हैं।

अखबारी रिपोर्टों और प्रसार भारती से जुड़े लोगों की मानें तो बीएस लाली की पहचान शुरु से ही एक निरंकुश सीइओ के तौर पर रही है। प्रसार भारती को हमेशा अपने इशारे पर न केवल नचाने की कोशिश की है बल्कि जब जैसा मौका मिला निजी कंपनियों,चैनलों को फायदा पहुंचाने के फेर में उटपटांग और पब्लिक ब्राडकास्टिंग को नुकसान पहुंचानेवाले फैसले लिए हैं। अभी हाल ही में प्रसार भारती और आकाशवाणी ने 1 नबम्वर से सबसे लोकप्रिय एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी आनन-फानन में बदलने के फैसले लिए गए तो इस फैसले से अपना पल्ला झाड़ते हुए लाली ने कहा कि उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे ने तो यहां तक कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया के जरिए हुई। बाद में मेनस्ट्रीम मीडिया में इस बात का विरोध किए जाने के बाद एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी वहीं बनी रहने दी गयी लेकिन ऐसा करके एक बहुत बड़े स्तर पर हेरा-फेरी का होनेवाले धंधे पर पर्दा डालने का काम किया गया। दरअसल ये फ्रीक्वेंसी बीएजी फिल्मस के रेडियो चैनल रेडियो धमाल को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा था।
इसके साथ ही जिस फ्रीक्वेंसी 100.1 पर एफएम गोल्ड को शिफ्ट किया जा रहा था वो दरअसल राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े प्रसारण के लिए खोला गया था। फ्रीक्वेंसी बदलते समय तर्क दिया गया था कि ये ज्यादा बेहतर फ्रीक्वेंसी है लेकिन 6 नबम्वर को इस चैनल को बंद कर दिया गया। प्रसार भारती और आकाशवाणी से जुड़े लोगों के मुताबिक इस चैनल को खोलने में लाखों रुपये खर्च किए गए और इसके लिए मुंबई से कुछ चहेते लोग महीने भर तक होटल में आकर मौज करते रहे। आगे प्रसार भारती की तरफ से इस चैनल के बंद किए जाने को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं आया।

जिस राष्ट्रमंडल खेलों में करोड़ों रुपये के घोटाले की बात की जा रही है,उसमें अगर प्रसारण और प्रसार भारती के भीतर हुई दलाली और गड़बड़ियों को शामिल किया जाए तो बहुत संभव है कि उसमें बीएस लाली का भी नाम शामिल हो। वैसे भी लाली ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के निर्देशों को ताक पर रखते हुए अपनी चहेती कंपनी सिस लाइव को 246 करोड़ रुपये का प्रसारण अधिकार देने का काम किया है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान जिस मनमानी तरीके से कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन ठूंसे गए और प्रति 10 सेकंड के विज्ञापन की कीमत को 60 हजार से ढाई लाख तक ले जाने का काम किया,लाली और प्रसार भारती के सामने इस बात का तर्क नहीं है कि 100 से 200 करोड़ तक की कमाई का दावा करने के बावजूद अगर 58.19 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ तो टार्गेट से आधी से भी कम और ओवरलोडेड विज्ञापनों के पीछे की क्या वजह रही है?

प्रसार भारती पर कॉन्ट्रेक्ट के स्तर पर काम कराए जाने और निजी कंपनियों के साथ समझौते कराने के मामले में भी लगातार आरोप लगते रहे हैं। स्पोर्ट्स चैनल इएसपीएन को फायदा पहुंचाने के लिए और इक्सक्लूसिव कवरेज के लिए दूरदर्शन ने अधिकार रहते हुए भी T-20 का प्रसारण नहीं किया। इसके अलावे लाली ने वकीलों को वाजिव रेट से कहीं ज्यादा भुगतान कराने का काम किया है। सेवंती निनन ने अपने लेख MEDIA MATTERS: CAN BE AFFORD PRASAR BHARTI? में इन सारी घटनाओं की विस्तार से चर्चा की है और नोट लगाकर यह भी लिखा कि जब इस मामले में बीएस लाली से बाचतीत करने की कोशिश की तो उन्होंने कोई रिस्पांस नहीं दिया। बीएस लाली के निरंकुश होने के किस्से कापरनिकस मार्ग,मंडी हाउस और संसद मार्ग आकाशवाणी में चाय पीते हुए लोग रोजमर्रा की रुटीन के तहत किया करते हैं।

मौजूदा दौर में मीडिया के भीतर एक के बाद एक आयकन और मिथक तेजी से जिस तरह ध्वस्त हो रहे हैं,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी पर पैसे के हेर-फेर और अपने पद का दुरुपयोग करने का आरोप लगना,कहीं से भी किसी तरह उम्मीद के नहीं बचे रहने की कहानी कहता है। अभी प्रणय राय और एनडीटी के महान होने का मिथक टूटा है, बरखा दत्त और वीर सांघवी सवालों के घेरे में हैं,राजदीप सरदेसाई के मीडिया के पक्ष में दिए गए सारे तर्क बंडलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं लगता,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग के भीतर की सडांध का उघड़कर  आना मीडिया की सबसे बदतक स्थिति को सामने लाकर रख देता है। लेकिन इन सबके बीच जरुरी सवाल है कि क्या बीएस लाली पर होनेवाली कारवायी बलि का बकरा बनाए जाने या फिर एक को निबटाओ,बाकी मामला अपने आप शांत हो जाएगा कि रणनीति है या फिर प्रसार भारती और आकाशवाणी के भीतर और भी कई मगरमच्छ तैर रहे हैं जिनका बेनकाब होना जरुरी है।
ICICI की मिलीभगत से कौडि़यों के शेयर सैकड़ों में बेचे, देश के बाहर हुआ सारा खेल
♦ विनीत कुमार
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स्पेक्ट्रम मामले में अपनी तेज तर्रार पत्रकार पर आरोपों के छींटे पड़ने से जो सदमा एनडीटीवी प्रबंधन को लगा था, उससे उबरने की सूरत तलाशी ही जा रही थी कि करोड़ों रुपये की जालसाजी के आरोपों ने प्रबंधन को नये सिरे से सकते में डाल दिया है। द संडे गार्जियन नाम के अखबार की साइट ने, जिसे कि इसी साल के जनवरी महीने (31 जनवरी 2010) में 3 रुपये की कीमत के साथ एमजे अकबर ने लांच किया, खबर दी है कि एनडीटीवी ने इस देश को करोड़ों रुपये का चूना लगाने का काम किया है। द संडे गार्जियन इस खबर को लगातार फॉलो कर रहा है और 6 दिसंबर तक इसकी ऑफिशियल साइट ने कुल तीन रिपोर्टें प्रकाशित की हैं। पहली बार 4 दिसंबर को साइट ने NDTV-ICICI loan chicanery saved Roys नाम से पहली रिपोर्ट प्रकाशित की और उसमें बताया कि कैसे उसे ICICI बैंक ने गलत तरीके से कर्ज दिये। इस खबर में ये भी बताया कि किस तरह से मनोरंजन चैनल (GEC) एनडीटीवी इमैजिन, जिसे कि अब TURNER GENERAL ENTERTAINMENT NETWORKS INDIA PRIVATE LIMITED के हाथों बेच दिया गया है, उसके शेयर की फेस वैल्यू यानी बाजार मूल्य 10 रुपये थे, उसे 776 रुपये में बेचे गये और ये सारा खेल देश के बाहर हुआ। भारत में जो निवेशक थे, जो कि यहां की कंपनी में थे, उन तक ये लाभ नहीं पहुंचा। रिपोर्ट ने बताया कि एनडीटीवी लगातार विदेशों में शेयरों की खरीद-बिक्री, कर्ज लेने का काम करता रहा है और ऐसी दरों पर शेयरों की खरीद-बिक्री की है, जिसका कि वास्तविक मूल्य से कोई तालमेल नहीं रहा है। इधर भारतीय बाजार में देखें, तो एनडीटीवी के शेयर लगातार तेजी से लुढ़कते रहे हैं। जाहिर सी बात है कि एनडीटीवी के जिंदा रहने के पीछे मूल रूप से विदेशों से हो रहे शेयरों की खरीद-बिक्री और लेन-देन रहे हैं।
ICICI बैंक से गलत तरीके से कर्ज लेने के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि ये डील जुलाई और अक्टूबर 2008 के बीच हुई, जब एनडीटीवी ने अपने शेयर वापस खरीदने चाहे। तब एनडीटीवी के शेयर की कीमत 439 यानी वूम पर थी और उसे लग रहा था कि इसकी कीमत और बढ़ सकती है। लिहाजा एनडीटीवी ने चाहा कि वो अपने शेयर वापस खरीदे लेकिन उसके पास लिक्विड फंड नहीं था। तब उसने कुल 90,70,297 शेयर के बदले India Bulls Financial Services से 363 करोड़ रुपये उधार लिये। ये जुलाई 2008 की बात है। अगस्त 2008 में शेयर मार्केट बुरी तरह कोलैप्स कर गया। अमेरिका की वजह से पूरी दुनिया में शेयर बाजार की मिट्टी पलीद हो गयी। ऐसे में इंडिया बुल्स के पास गिरवी के तौर पर जो शेयर रखे गये थे, उसकी कीमत गिरकर 100 रुपये प्रति शेयर हो गया। इंडिया बुल्स ने अपने दिये हुए लोन की बात दोहरायी और कंपनी से पैसे की मांग की। एनडीटीवी के पास इतने पैसे कहां थे, जो कि वो इंडिया बुल को चुका पाता। लिहाजा उसने ICICI बैंक का हाथ थामा और बैंक ने अक्टूबर महीने में कुल 375 करोड़ रुपये एनडीटीवी को दिये। बदले में एनडीटीवी ने कुल 47,41,721 शेयर बैंक के पास गिरवी के तौर पर रखे, जिसकी औसत कीमत 439 रुपये लगायी गयी, जो कि लगभग 208 करोड़ रुपये होती है।
ये पहली बार था कि इस तरह से लगभग आधी रकम के शेयर के बदले इतनी रकम लोन के तौर पर दी गयी। द संडे गार्जियन का कहना है कि इसे वित्तीय जालसाजी न कहा जाए, तो और क्या कहा जाए। इतना ही नहीं, जिस समय एक शेयर की कीमत 439 रुपये लगायी गयी, उस समय (23 अक्टूबर 2008) बाजारू कीमत मात्र 99 रुपये थी। इस तरह शेयर की राशि बनती थी मात्र 46.94 करोड़ रुपये। इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्‍प पहलू है कि एनडीटीवी के जो भी शेयर इंडिया बुल्स को दिये गये, फिर बाद में ICICI बैंक को दिये गये, वो सबके सब RRPR Holding Private Limited के जिम्मे थे। ये वही कंपनी थी, जिसमें बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में दो ही लोग थे – मिस्टर रॉय और मिसेज रॉय। जुलाई 2008 के पहले इस कंपनी ने एनडीटीवी के एक भी शेयर नहीं खरीदे। मामले में एक और दिलचस्प पहलू है कि इंडिया बुल्स के भुगतान किये जाने के बाद RRRR के एक बोर्ड डायरेक्टर को 73.91 करोड़ रुपये बिना किसी ब्याज के लोन दिये गये। ये वही पैसे थे, जो ICICI बैंक से कर्ज के तौर पर लिये गये और जो SARFAESI Act 2002 का सीधा-सीधा उल्लंघन था।
इस मामले में चौंकानेवाली बात है कि मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को इन सारी सूचनाओं की जानकारी मिलती रही, लेकिन वे चुप रहे। एक बड़ा सवाल है कि बैंक ने इतनी आसानी से क्यों कर्ज दे दिया? द संडे गार्जियन का कहना है कि जब पिछले ही महीने 2000 करोड़ रुपये के लोन घोटाले में सीबीआई ने LIC और दूसरे बैंकों के आठ सीनियर मैनेजरों को गिरफ्तार किया, तो फिर क्या ये मामला उससे अलग है?
द संडे गार्जियन ने अपनी दूसरी रिपोर्ट जो कि 5 दिसंबर को प्रकाशित हुई है – NDTV juggles funds, shares abroad, avoids tax, उसमें बताया है कि NDTV किस तरह से फंड को लेकर चालबाजी करता आया है, विदेशों में शेयरों के लेन-देन करके भारत में अपने को टैक्स से बचाता है। इस रिपोर्ट में साइट ने एनडीटीवी के एक के बाद एक चैनल के खोलने और फिर उसके धड़ाधड़ हिस्सेदारी बेचने के पीछे की कहानी को विस्तार से बताया है। अपने विदेशी सहायक चैनलों और वेंचरों के माध्यम से कैसे उसने भारतीय टैक्स और कार्पोरेट कानून का उल्लंघन किया है, इसकी पूरी कहानी रिपोर्ट में दी गयी है? नवंबर 2006 में NDTV Network Plc, UK को स्थापित किया गया, जिसकी बैलेंस शीट भारत में फाइल नहीं की गयी। इस कंपनी ने बहुत पैसे अर्जित किये और NDTV Imagine (जो कि अब बिक गया), NDTV Lifestyle, NDTV Labs, NDTV Convergence और NGEN Media में बहुत पैसे लगाये भी। अधिकांश डील एनडीटीवी के नाम से हुए लेकिन एक भी पैसा भारत में टैक्स के तौर पर नहीं आया। एनडीटीवी इंडिया ग्रुप ने अप्रैल 2008 के दौरान 804.6 करोड़ रुपये उगाहे, जो कि सितंबर 2009 तक आते-आते 982.2 करोड़ रुपये हो गये। एनडीटीवी ने ये पैसे अपने विदेशी स्रोतों से अर्जित किये, जो कि यूके और नीदरलैंड में उसके सहयोगी चैनलों और वेंचरों की बदौलत आये थे। इस तरह भारत में एनडीटीवी के साथ इसकी बैलेंस शीट नहीं अटैच की गयी, तो दूसरी तरफ विदेशों में जो इसके सहयोगी वेंचर हुए, उसमें विस्तार से सब कुछ नहीं बताया गया। यहां तक कि यूके NDTV Network Plc में जो कंपनी खोली गयी, उसका अपना कोई कर्मचारी भी नहीं था। जो था वो एक ही साथ कई कंपनियों का भी काम संभालता था। एनडीटीवी ने नीदरलैंड में वेंचर मजबूत करने के लिए यूके के वेंचर का इस्तेमाल किया। यूके के वेंचर को मजबूती देने के लिए नीदरलैंड के वेंचर का इस्तेमाल किया और इस तरह एक-दूसरे के सपोर्ट से काम चलता रहा। लेकिन भारत में जो इसकी बैलेंस शीट थी, उसमें यह सब दर्ज नहीं था जबकि देखा जाए तो ये भारत की एनडीटीवी के ही सहयोगी वेंचर थे। इनमें से कइयों की साइट खोलने पर डीटेल के बजाय यही आता कि यह भारत की एनडीटीवी की सहयोगी कंपनियां हैं।
रिपोर्ट ने विस्तार से बताया कि कैसे देश के बाहर इसके वेंचर को मजबूती मिलती रही, जबकि यहां इसके शेयरधारकों को इसका कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि जिस वेंचर को लाभ पहुंचते, उसका यहां जिक्र नहीं होता।
चार दिसंबर को ही साइट ने NDTV CEO gives reply, Guardian responds शीर्षक से एक और रिपोर्ट छापी है, जिसमें कि उसने एनडीटीवी से एक बेहतर पत्रकारिता की संभावना बनी रहे, इसलिए नौ सवालों के जवाब मांगे गये। एनडीटीवी के सीईओ ने द संडे गार्जियन की इस खबर को निराधार और फर्जी करार दिया और साथ में यह भी कहा कि पब्लिकेशन और व्यक्तिगत स्तर पर सिविल और क्रिमिनल दोनों कानूनों के तहत अदालती कार्रवाई की जाएगी। साइट ने एनडीटीवी के सीईओ केएल नारायण राव के जवाब को भी प्रकाशित किया है और उसके आगे लिखा है कि उन्होंने गोलमोल तरीके से जवाब दिया है।
30 नवंबर 2010 को जब बरखा दत्त NDTV 24X7 के कठघरे में एडिटर्स के सवालों के जवाब दे रही थीं, तो एंकर सोनिया सिंह ने कहा था कि संभव हो ये पूरा मामला कार्पोरेट वार का हिस्सा हो। वर्चुअल स्पेस पर जनतंत्र डॉट कॉम ने भी इसे इसी तरह से विस्तार देने की कोशिश की है और मीडिया के लोगों के नाम आने को बहुत ही छोटा खेल बताया जा रहा है। उसमें इस बात की आशंका जतायी गयी है कि संभव है कि ओपन और आउटलुक जैसी पत्रिका भी सत्ता की दलाली के लिए ये सब कर रहे हों, इस सवाल में एक सच्चाई यहां आकर जुड़ती है कि क्या द संडे गार्जियन भी कुछ ऐसा ही कर रहा है? जनवरी में शुरू हुए इस अखबार ने एनडीटीवी के 2007-08 की डील और बिजनेस का ब्योरा अब जाकर देते हुए सारी बातें सामने लायी हैं। बैलेंस शीट भी प्रकाशित किया है। अगर ऐसा है, तो कार्पोरेट वार के साथ-साथ मीडिया वार भी शुरू हो चुका है।
एमजे अकबर इन दिनों इंडिया टुडे ग्रुप में हैं। इससे पहले महीने भर के लिए इंडिया न्यूज को सेवा देकर आये हैं। प्रेस क्लब में राजदीप सरदेसाई, द संडे इंडियन में अरिंदम चौधरी के आरोपी पत्रकारों के बचाव में उतर आने और नीरा राडिया से पत्रकारों की बातचीत के टेप आने के करीब तीन सप्ताह बाद दैनिक भास्कर में 6 दिसंबर को दो पन्ने में एक्सक्लूसिव खबर छपने की घटना से अंदाजा लगाना चाहिए कि अब मीडिया वार शुरू हो गया है। ये मीडिया वार अब खबरों की दुनिया से आगे निकलकर एक-दूसरे को पूरी तरह तहस-नहस कर देने की नीयत से शुरू हुआ है। इसके पीछे की लीला शायद यह भी हो कि ऐसी स्थिति कर दी जाए कि इस देश में बिग पिक्चर, बिग सिनेमा, बिग टीवी के साथ-साथ सिर्फ बिग मीडिया रहे, बिग खबरें रहे, दूसरा कोई नहीं। इन सबों पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है। हालांकि द संडे गार्जियन की इस खबर पर कई ऐसे कमेंट आये हैं, जो इस खबर को बकवास बताते हैं लेकिन अगर ये खबर सच है तो 

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