Friday, December 17, 2010

बिहार की साहित्यिक पत्रकारिता - साहित्य और साhityakar


पत्रकारिता शुरुआती दौर में एक मिशन के रूप में सामने आयी थी लेकिन आज बदलते बाजारवाद संस्कृति के बीच यह शुद्ध रूप से व्यवसाय बन चुका है। तब और अब की पत्रकारिता में काफी बदलाव आ चुका है। फिर भी पत्रकारिता की ताकत को कोई चुनौती नहीं दे सकता और भारतीय प्ररिपेक्ष में तो इसकी भूमिका को भुलायी नहीं जा सकती है। पत्रकार, साहित्यिकार, राजनेता, समाज सुधारक या यों कहे कि अभिव्यक्ति की लड़ाई में शरीक सभी ने इसे हथियार बना कर अपनी आवाज बुलंद की। पत्रकारिता में विविध आयाम शामिल हुये । हर विधा के पत्र-पत्रिकाओं का बड़े पैमाने पर प्रकाशन हुआ बल्कि आज भी हो रहा है।
राजनीतिक, सांस्कृतिक, भाषाई, जाति, धार्मिक, खेल, वैज्ञानिक पत्रकारिता एक ओर जहंा अपनी प्रखारता दिखा रही थी वहीं पर साहित्यक पत्रकारिता भी अछूती नहीं रही । शुरू से ही साहित्यिक पत्रकारिता पूरे तेवर के साथ निखरती रही। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने 'कवि वचन सुधा`:१८६८: और 'हरिश्चन्द्र मैगजीन`:१८७३: पत्रों के माध्यम से जो यादगार काम किया वह बाद में विकसित होते- होते हिन्दी साहित्य के लिए यादगार क्षण बन गया। हांलाकि बाद में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन` का नाम बदल कर 'हरिश्चन्द चन्द्रिका` कर दिया गया था, उन्हीं दिनों हरिश्चन्द्र के साहित्यिक अभियान को मेरठ के पंडित गौरीदत्त ने १८७४ में 'नागरी प्रकाश` पत्र संपादित कर आगे बढाया। बाद में उन्होंने ने 'देवनागरी गजट`:१८८८:, 'देवनागरी प्रचारक`:१८९२: और 'देवनागर`:१८१४: पत्रों का संपादन किया। प्रयाग के पंडित बालकृष्ण भट्ट ने १८७७ में 'हिन्दी प्रदीप` संपादित किया। इस पत्र ने भारतीय हिन्दी साहित्य के निमार्ण के क्षेत्र में अहम् भूमिका अदा की। इसबीच मिर्जापुर से पंडित बदरीनारायण चौधरी 'पे्रमघन` ने १८८१ में 'आनन्द कादम्बिनी` और कानपुर से पं. प्रतापनारायण मिश्र ने १८८३ में 'ब्राहमण` निकाल कर हिन्दी साहित्य की दिशा में ऐतिहासिक कार्य किया। एक ओर जहंा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी पत्रकारिता के लिये प्रयत्नशील थे वहीं पर, देश के अन्य भाग के साहित्यकार भी सक्रिय थे। कोलकत्ता के गोविंदनारायण मिश्र, दुर्गाप्रसाद मिश्र, छोटेलाल मिश्र, अमृत लाल चक्रवर्ती सरीखे कई साहित्यकार पत्रों के माध्यम से सक्रिय थे।
जहंा तक साहित्यिक पत्रकारिता की यात्रा का सवाल है तो इसमें ''सरस्वती`` का स्थान अहम् है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की ओर से यह १९०० में, राधाकृष्ण दास, कार्तिकप्रसाद खत्री, जगन्नाथ दास रत्नाकर, किशोरी लाल गोस्वामी और श्याम सुन्दर दास के संपादन में छपना शुरू हुआ। १९०३ में इसका संपादन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथों में चला गया। वहीं कोलकत्ता के शारदाचरण मित्र ने १९०७ में 'देवनागर` पत्र निकाल कर साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जो शुरूआत 'सरस्वती` ने की वह निरंतर बढ़ता ही गया और देश भर में साहित्यिक पत्रकारिता के मद्देनजर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। इनमें 'माधुरी`, 'सुधा`, :लखनउ:, 'श्रीशारदा`, पे्रमा` :जबलपुर:, 'लक्ष्मी` :गया:, 'प्रभा`:खण्डवा व कानपुर:,' प्रतिभा`:मुरादाबाद`,'मनोरमा`:प्रयाग`, 'ललिता`:मेरठ:, 'समालोचक`:जयपुर:, 'भारतोदय`:ज्वालापुर:, 'नवजीवन`:इन्दौर:, 'भारतेन्दु`:प्रयाग`, 'आर्यावर्त, हिन्दू पंच`, 'समन्वय`,'सरोज`:कोलकत्ता:,'चांद` :प्रयाग:, 'हंस`, 'हिमालय`, 'नई धारा`,'अवन्तिका`:पटना: आदि ने खासकर हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता को काफी आगे बढाया। हालांकि शुरूआती दौर में निकले पत्रों में भी साहित्यिक सामग्री को खास तरजीह दी जाती रही थी। इसकी वजह यह रही थी कि उस दौर के लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक या फिर उसे निकालने वाले पत्रकार के साथ- साथ अच्छे साहित्यिकार भी थे।
जंहा तक बिहार का सवाल है तो यहंा पत्रकारिता की शुरुआत उर्दू पत्रों ने की। इसके साथ ही राज्य में अन्य भाषाई पत्रों के लिए रास्ते खुले, हालांकि इनका दौर काफी देर से शुरू हुआ। जहां १८१० में ही उर्दू का पहला पत्र ''साप्ताहिक उर्दू अखबार` मौलवी अकरम अली ने संपादित कर कोलकता से छपवाया, वहीं राज्य में अंग्रेजी और हिन्दी के पत्रों का दौर १८७२ में ''द बिहार हेराल्ड`` और ''बिहार बन्धु`` के प्रकाशन से शुरू हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्रकारिता के इस जन हथियार को जहां सामाजिक ,राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के मद्देनजर एक मिशन के तहत अंजाम दिया गया, वहीं भाषा, जाति और धर्म के पोषकों ने भी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर इसका इस्तेमाल किया है। हालांकि बहुत सारे पत्रों के संपादक विख्यात साहित्यकार तो रहे लेकिन राज्य में विशुद्ध साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का सिलसिला देर से चला। राज्य में हिन्दी पत्रकारिता हाथ से लिखी ''पाटलिपुत्र सौरभ`` से शुरू होने की बात कही तो जाती है, लेकिन इसकी प्रति उपलब्ध नहीं होने से बिहार का पहला हिन्दी पत्र कहना संभवत: उचित नहीं होगा। बिहार का पहला हिन्दी दैनिक 'सर्वहितैषी` पटना से बाबू महावीर प्रसाद के संपादन में शुरू हुआ।
१८८० में पटना के बांकीपुर में खड़ग्विलास पे्रस की स्थापना के साथ ही राज्य में पत्रकारिता को एक दिशा मिली और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में तेजी आयी। इसी क्रम में 'साहित्य`, 'लक्ष्मी`, 'श्रीशारदा`, 'कमला`, 'गंगा`, 'बिजली`, 'आरती`, 'अवंतिका`, 'हिमालय` और 'चित्रेतना` जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन बिहार से हुआ।
१९३४ में प्रफुल्लचंद ओझा 'मुक्त` के संपादन में साहित्यिक मासिक 'आरती` का प्रकाशन हुआ। 'आरती` के बंद होने पर मुक्त जी ने एक दूसरी पत्रिका १९३५ में पटना से 'बिजली` निकाली। हालांकि यह भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य` इसी समय निकली। इसमें गम्भीर लेख और आलोचनाएं छपती थीं। यह पूरी तरह से साहित्यिक पत्रिका थी। बिहारशरीफ से १९३६ में 'नालन्दा` और १९३८ में पटना से 'जन्मभूमि` प्रकाशित हुई जो शुद्ध रूप से साहित्य से जुड़ी थीं। 'नालन्दा` एकाध साल चली। वहीं 'जन्मभूमि दो-तीन माह ही चल पायी। बिहार से निकलने वाली साहित्यिक पत्रों में 'गंगा`, 'माधुरी`, 'जागरण`, 'हिमालय` का संपादन आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने किया।
१९५२ में अखिल भारतीय शोध मंडल से शिवचंद्र शर्मा के संपादन में 'दृष्टिकोण` छपा। इसी वर्ष १९५२ में नरेश के संपादन में मासिक 'प्रकाश` आया, जिसने हिन्दी साहित्य में प्रपद्यवाद की आधारशिला रखी। १९५४ में 'कविता` प्रकाशित हुई। १९७३ में प्रो. केसरी कुमार के संपादन में मासिक 'चित्रेतना` छपी।
बिहार से अब तक बहुत सारे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो चुका है और हो रहा है। इनमें कई बंद हुए तो उनकी जगह दूसरों ने ली और ऐसे में यहंा साहित्यिक पत्रकारिता जारी रही है। बिहार की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में पटना से प्रकाशित हो रही ''नई धारा`` का विशेष स्थान है। बिहार से सबसे लम्बे समय से लगातार प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका को एक अप्रैल १९५० में पटना से साहित्यिकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह ने शुरू किया। तब इसका संपादन विख्यात साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने किया था। उसके बाद इसके संपादकों में उदयराज सिंह, गोविन्द मिश्र, कमलेश्वर, विजयमोहन सिंह आदि चर्चित साहित्यकार रहे। फिलवक्त, विगत १२-१३ वर्षों से कवि-समालोचक डॉ.शिवनारायण के संपादन में पूरे तेवर के साथ प्रकाशित हो रही है। अमूमन साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं कुछ साल तक छपने के बाद बंद हो जाती हैं। लेकिन 'नई धारा` के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।
अशोक पे्रस और 'नई धारा` को स्थापित करवाने में शिवपूजन जी की अहम भूमिका रही। वे प्रख्यात साहित्यकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के साहित्यकार पुत्र उदयराज जी के पास एक पे्रस खोलने का प्रस्ताव लेकर आए थे, जिसे उन्होंने मान लिया और १५ जनवरी १९४७ को पटना में 'अशोक पे्रस` का उद्घाटन हुआ। पे्रस की नींव राजा साहब की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए पड़ी थी। लेकिन बिहार के लेखकों की किताबें भी छपती रही। इसी बीच 'नई धारा` निकालने की योजना बनी और बेनीपुरी जी के संपादन में १९५० में 'नई धारा` शुरू हो गई।
'नई धारा` के जरिये कई नये रचनाकार सामने आये। हिन्दी के विख्यात साहित्यकारों के अलावे विदेशी लेखकों की रचनाएं भी प्रमुखता से छपती रहीं। नई धारा में ''बर्नांर्ड शॉ अंक`` छपा तो मैक्सिम गोर्की की रचनाओं को भी प्राथमिकता दी गयी। नये पुराने कवियों को इसमें उचित स्थान मिला।
नई धारा के कई चर्चित अंक निकले जिनमें ''बर्नांर्ड शॉ अंक`` जनवरी१९५१, ''रंगमंच अंक`` अपैल-मई १९५२, ''स्वतन्त्रता दिवस विषेशंाक`` अगस्त १९५८, ''नलिन अंक`` नवम्बर-दिसम्बर १९६१, ''शिवपूजन सहाय स्मृति अंक`` अपै्रल-जुलाई १९६३, ''नई कहानी अंक``, समांतर कहानी अंक, ''समकालीन कहानी विशेषांक`` फरवरी-मार्च १९६६, '' बेनीपुरी स्मृति अंक`` अप्रैल-अगस्त १९६९ ,''राजा राधिकारमण स्मृति अंक`` जून-अक्टूबर १९७०, ''आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा स्मृति अंक`` दिसम्बर १९९२-जनवरी १९९३, ''अर्द्ध्रशती विशेषांक`` दिसम्बर १९९९-मार्च२०००, ''स्मृति शेष उदयराज सिंह -श्रद्धांजलि अंक`` जून-सितम्बर २००४,''उदयराज स्मृति अंक`` अक्टूबर-नवम्बर २००४, ''सुभद्रा कुमारी चौहान जन्मशती अंक`` फरवरी-मार्च २००५, ''व्यंग्य विशेषांक`` अगस्त-सितम्बर २००५ प्रमुख हैं।
विशेषांकों को लेकर नई धारा शुरू से ही चर्चित रहा है। इसका पहला विशेषांक जनवरी १९५१ में प्रख्यात नाटककार बर्नाड शॉ पर निकला था। जिसमें शॉ की लेखनी से कई आलेख तो छपे ही थे, शॉ के नाटक और नाट्य शिल्प के तमाम पहलू पर उनके विचारों को भी समेटा गया। आलेखों में डा. विश्वनाथ प्रसाद ने शॉ की कला, गोपीकृष्ण प्रसाद ने शॉ औेर समाजवाद और जगन्नाथ प्रसाद मिश्र ने शॉ के नाटकों पर प्रकाश डाला। अगले वर्ष अप्रैल-मई १९५२ में 'रंग मंच विशेषांक निकला। इसमें भारतीय रंगमंच की दशा और दिशा पर दो दर्जन से ज्यादा आलेख प्रकाशित हुए। इसमें मराठी, तेलगु, राजस्थानी, बंगला, गुजराती रंगमंच के अलावा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र और शेक्सपीयर पर रोचक आलेखों को समावेशित किया गया। अगस्त १९५८ में नई धारा का ''स्वतन्त्रता दिवस विशेषांक`` निकला, जिसमें देश के जाने माने लेखकों समेत पूर्व राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद व पूर्व प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू ने देशभक्ति का अलख जगाते हुए लेख लिखे।
प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जी पर विशेष ''नलिन स्मृति अंक``, नवम्बर-दिसम्बर १९६१ में निकला। इसमें नलिन जी की साहित्य साधना व यात्रा और उनके व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए उस दौर के करीब अस्सी चर्चित साहित्यकारांे द्वारा नलिन जी पर लिखे आलेख को प्राथमिकता दी गई। १९६३ में आचार्य शिवपूजन सहाय को लेकर ''शिवपूजन स्मृति अंक`` निकला। इस अंक में शिवपूजन जी पर करीब सौ रचनाएं छपीं। फरवरी-मार्च १९६६ का अंक अतिथि संपादक गोविंद मिश्र के संपादन में '' समकालीन कहानी विशेषांक`` के रूप में आया। राजेन्द्र यादव, रघुवीर सहाय, हरिशंकर परसाई, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती समेत कई चर्चित साहित्यकारों की रचनाओं को प्रमुखता से स्थान दिया गया। यह अंक काफी चर्चित हुआ, इसी के जवाब में नई धारा का 'समानान्तर कहानी` पर एक अंक ,कमलेश्वर के संपादन में आया। प्रख्यात साहित्यकार-पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी पर नई धारा ने अपै्रल-अगस्त १९६९ में ''बेनीपुरी स्मृति अंक`` निकाला। इसमें 'बेनीपुरी जी की लेखनी से` के अलावे उनकी साहित्य-पत्रकारिता के योगदान को करीब एक सौ आलेखोें के माध्यम से समेटा गया। इनके अलावा नई धारा ने जून-अक्टूबर १९७० में ''राजा राधिकारमण स्मृति अंक``, दिसम्बर-जनवरी १९९३ में आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा स्मृति, जून-सितम्बर २००४ में 'उदयराज सिंह स्मृति शेष-श्रद्धांजलि अंक`, अक्टूबर-नवम्बर २००४ में ''उदयराज स्मृति अंक``, फरवरी-मार्च २००५ में सुभद्रा कुमारी चौहान-जन्मशती अंक`` और फरवरी-मार्च २००५ में ''भारतीय व्यंग्य विशेषांक`` प्रकाशित हुआ।
नई धारा ने जहां पुराने लेखकों को सम्मान दिया, वहीं नवलेखकों को भी वह प्रमुखता से स्थान देता रहा है। 'नई धारा` में प्रकाशित होने वाले प्रख्यात साहित्यकारों में महाकवि निराला, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर`, कविवर आरसी प्रसाद सिंह, जनार्दन झा द्विज, केदारनाथ मिश्र प्रभात, कविवर रामगोपाल रूद्र, जनकवि कन्हैया, कविवर श्याम नन्दन किशोर, धर्मवीर भारती, शैलेश मटियानी, ब्रजकिशोर नारायण, पोद्दार रामावतार अरूण, व्योहार राजेन्द्र सिंह, अवधेन्द्र देव नारायण, मुरलीधर श्रीवास्तव, भूपेन्द्र अवोध, कविवर हरिवंश राय बच्चन, डा. वचनदेव कुमार, मोहन लाल महतो वियोगी, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, डा. प्रभाकर माचवे, आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य शिवपूजन सहाय, प्रो. कपिल, महादेवी वर्मा, माखन लाल चदुवेर्दी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, सुमित्रानन्दन पंत, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, जगदीश चन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, उदय शंकर भटृट, शांतिप्रिय द्विवेदी, सेठ कन्हैया लाल पोद्दार, मदन वात्स्यायन, डा.सत्येन्द्र, कामेश्वर शर्मा, रोमां रोलां, आयार्च चन्द्रबली पाण्डेय, राजेन्द्र यादव, रघुवीर सहाय, हरिशंकर परसाई, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती आदि प्रमुख हैं।
नई धारा के संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी समय-समय पर अपनी रचनाओं से पाठकांे को अवगत कराते रहे। उनका स्थायी स्तम्भ 'डायरी` काफी चर्चित हुआ था। बेनीपुरी जी के बाद संपादक उदयराज सिंह ने 'नई धारा` के तेवर को बरकरार रखा। उदयराज जी सन् २००४ तक 'नई धारा` का संपादक रहे।
'नई धारा` साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों को समेटते हुए आज जो भूमिका अदा कर रही है उसे नजरअंदाज नही किया जा सकता। वजह साफ है कि साहित्यक पत्रिकाएं छप तो रही हैं लेकिन वे लम्बे समय तक अपने को जिंदा रख पाने में सफल नहीं हो पाती हैं। कई कारणों से कुछ अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो जाती है।
स्वतंत्र लेखन और सृजनात्मक साहित्य को लोगों तक पहुंचाने के उद्देश्य को लेकर छपने वाला, नई धारा आज भी अपने उद्देश्य के साथ अनवरत प्रवाहित हो रही है। पुराने नये लेखकों का सहयोग इसे निरंतर मिल रहा है। इसके पीछे प्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र मानते है कि राजपरिवार से होने के बावजूद संपादक उदयराज सिंह में आभिजात्य होने का दंभ नहीं था। साथ ही एक यशस्वी साहित्यकार का पुत्र एवं स्वयं एक सशक्त लेखक होने के बाद भी लेखकों के प्रति उनके मन में बड़ा सौहार्द्ध और स्नेह भाव रहता था। संपादक की ऐंठ के साथ नहीं बल्कि लेखकीय विनम्रता के साथ वे लेखकों से रचनाएं मांगते थे। लगातार ५६ वर्षों के प्रकाशन काल में हिन्दी के जितने भी साहित्यकार हुए लगभग सभी का सक्रिय सारस्वत योगदान इस पत्रिका को मिलता रहा है। बेनीपुरी जी १९६८ तक जुड़े रहे। मृत्यु ने ही उन्हें नई धारा से अलग किया, लेकिन उनकी आत्मा अभी भी इसमें है। उनके कायल रहे उदयराज जी ने लिखा है 'बेनीपुरी जी ने अपने संपादन में नई धारा को हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के शिखर पर ला दिया`।
'नई धारा` हर कोटि के रचनाकारों का स्वागत करती रही है। इसके पुराने और नये अंकों का अध्ययन करने से साफ लगता है कि यह राजनीति से दूर है और वामपक्ष- दक्षिणपक्ष का अंतर इसमें नहीं हैं। इसमें जयप्रकाश नारायण पर भी लेख छपे और डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय की कविता भी। इसकी सादगी गजब की है। बिना तामझाम और अश्लील कहानियों से कोसों दूर नई धारा शुरू से अविवादित रहा है। नई धारा ने सभी भाषा को लेकर एक योजना चलाई, जिसके तहत हिन्दीतर भाषियों की प्रमुख रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद कर प्रकाशित किया। पत्रिका ने कई स्तम्भों के माध्यम से ख्यातिलब्ध लेखकों के आलेख प्रकाशित किये। शुरुआती दौर में नई धारा में पारिश्रमिक प्रत्येक आलेख पर दस रूपये दिया जाता था।
नई धारा के स्वरूप को लेकर हमेशा से उहा-पोह की स्थिति बनी रही। उदयराज जी के जाने के बाद साहित्यिक गलियारे में इसके स्वरूप को लेकर चर्चा होने लगी कि कहीं यह किसी खास गुट के हाथ में न चला जाये या फिर पत्रिका का भविष्य क्या होगा? कई तरह की आशंकाएं उठी। इसके वर्तमान सौजन्य संपादक डा. शिवनारायण ने बताया कि उदयराज जी को इसकी काफी चिंता थी। उन्होंने नई धारा के फरवरी-मार्च २००३ के अंक में लिखा भी ''जाने कितने उतार चढ़ाव इस पत्रिका ने देखे लेकिन इसके पाठक जानते हैं कि राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की उसी भावना के अनुरूप अब तक मैं इस पत्रिका को निकालता रहा हूं``। सच भी है राजा साहब, शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी जी साहित्य में समन्वय का जो मार्ग 'नई धारा` के साथ लेकर आये थे वह आज भी कायम है। इसकी वजह है उदयराज जी के बाद उनके पुत्र और 'नई धारा` के प्रधान संपादक प्रमथ राज सिंह की सोच, जो पुराने तेवर के साथ कायम है। तभी तो 'नई धारा` आज भी किसी खास विचारधारा के चुंगल में नहीं पड़ कर निरंतर सभी सोच / विचारधारा के साहित्यिकारों को एक साथ लेकर चल रही हैं। यही नहीं इसकी शुरूआत के समय ही कहा गया था कि ''नई धारा किसी गुट, किसी वाद और किसी दल की न हो कर अकेली कला की होगी, साहित्य की आंखों की पुतली ! भाव और भाषा के महल की नवेली ! वह चेतना; नया उद्दपीन लेकर आई है``।
'नई धारा` बिहार की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर है। यह इकलौती पत्रिका है, जो लम्बे समय से लगातार प्रकाशित हो रही हैं। १९५० से मासिक के तौर पर छपने वाली 'नई धारा` बीच-बीच में द्विमासिक या मासिक छपी और १९७६ से द्विमासिक ही छपती आ रही है। इसने अपने प्रकाशन काल में साहित्यिक आंदोलनों के कई उतार-चढ़ाव देखे और साहित्य पर अपनी पैनी नजर रखी। हालांकि बिहार से कई पत्रिका प्रकाशित हो रही है। इनमें पूर्णिया से 'वर्तिका`, अररिया से 'संबदिया`, पटना से 'भाषा-भारती संवाद`, 'जनमत`, 'सनद` आदि शामिल हैं।
बिहार के यशस्वी पत्रकार, जो प्र्रख्यात साहित्यकार भी थे उनकी भूमिका बिहार की पत्रकारिता को दिशा देने मेें अहम् रही है। और उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बिहार की साहित्यिक पत्रकारिता को अपने बलबूते पर पहचान दिलाने वालों मेंं ईश्वरी प्रसाद शर्मा :१८९३-१९२७:, आचार्य शिवपूजन सहाय:१८९३-१९६८:, केशवराम भट्ट: १८५२-१८८३:, रामवृक्ष बेनीपुरी:१९०१-१९६८:, रामदीन सिंह, देवव्रत शास्त्री, शिवचंद्र शर्मा, गंगा शरण सिंह, रामदयाल पांडेय, केसरी कुमार, पारसनाथ तिवारी, रामदयाल पाण्डेय आदि कई नाम हैं। डालते है उन पर एक नजर :-
ईश्वरी प्रसाद शर्मा;
प्रसिद्ध साहित्यिकार-पत्रकार ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने दर्जनों पत्रों का संपादन किया। इनमें 'धर्माभ्युदय`:आगरा:, 'पाटलिपुत्र`:पटना:, मनोरंजन`:आरा:,'लक्ष्मी`:गया:, 'श्रीविद्या`, और 'हिन्दू पंच`:कोलकत्ता: प्रमुख है। बिहार के आरा शहर में १८९३ में जन्में श्री शर्मा ने जीवन के अंतिम क्षण तक पत्रकारिता से जुडे रहे। आरा के कायस्त जुबली कालेज से शिक्षा प्रारम्भ करने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गए।लेकिन बीमारी की वजह से बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर आरा वापस आ गये और बाद में शिक्षक के रूप में सक्रिय हो गये । १९०६ से उन्होंने लेख लिखना शुरू किया।उनका लेख 'भारत जीवन में छपा जिससे पे्ररित होकर वे १९१२ में आरा से मनोरंजन हिन्दी मासिक निकाला जो थोडे ही दिनों में लोकप्रिय हो गया।बाद में वे पटना से छपने वाले 'पाटलिपुत्र` पत्र के संपादक बने।उसके बाद गया से प्रकाशित 'लक्ष्मी` और 'श्रीविद्या` के संपादक बन गये । शर्मा जी ने पटना से छपने वाले 'शिक्षा` और आगरा से प्रकाशित होने वाले त्रैमासिक पत्र 'धर्माभ्युदय` का संपादन किया। बाद में वे कोलकत्ता से छपने वाले 'हिन्दू पंच` का संपादन किया और अंतिम दम तक संपादन करते रहे। शर्मा जी एक बेहतर पत्रकार के साथ साथ विषयों पर पकड़ रखने वाले प्रतिभाशाली लेखक भी थे। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी है। २२ जुलाई १९२७ को बीमारी की वजह से निधन हो गया।
आचार्य शिवपूजन सहाय;
बिहार ही नहीं बल्कि देश-विदेश में अपनी पहचान रखने वाले बिहार के शाहाबाद जिले के उनवास गांव में ९ अगस्त १८९३ में जन्में आचार्य शिवपूजन सहाय ने हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को खास तौर से एक दिशा प्रदान की।अनेकों पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करने वाले शिवपूजन सहाय के अनेकों लेख छात्रजीवन में ही 'शिक्षा`,'मनोरंजन` ओर 'पाटलिपुत्र` जैसे प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे थे।महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के शुरू होने पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ कर आरा में एक स्कूल में शिक्षक हो गये ।पत्रकारिता से खास लगाव रखने वाले सहाय जी ने १९२१ में आरा से प्रकाशित होने वाले 'मारवाड़ी सुधार` मासिक का संपादन किया।बाद में वे १९२३ में कोलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'मतवाला` से जुड़ गये ।'मतवाला` के संपादन के अलावा उन्होंने 'मौजी`,'आर्दश`,'गोलमाल`,उपन्यास तरंग` ओर 'समन्वय` आदि पत्रों के भी संपादन में महत्वपूर्ण सहयोग किया।कुछ समय के लिए १९२५ में 'माधुरी` का भी संपादन किया।बाद में पुन: १९२६ में वापस 'मतवाला` से जुड़ गये । सहाय जी ने भागलपुर के सुलतानगंज से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका 'गंगा` का संपादन किया।'गंगा` के बाद आचार्य रामलोचनशरण 'बिहारी` के बुलाने पर दरभंगा में उनके 'पुस्तक भण्डार` से जुड़ गए।यहंा से प्रकाशित होंने वाली मासिक 'बालक` का संपादन किया। १९४६ में सहाय जी ने 'पुस्तक भण्डार` पटना की साहित्यिक पत्र 'हिमालय` का संपादन किया। साथ ही १९५० में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की शोध त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य` का भी संपादन किया। साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सहाय जी ने जो सराहनीय कार्य किया वह मील का पत्थर के रूप में आज भी मौजूद है। १९५० में बिहार सरकार द्वारा गठित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के पहले निदेशक सहाय जी को ही बनाया गया। उन्होंने अपने कार्यकाल में 'बिहार का साहित्यिक इतिहास` को एक जगह समेटा। चार खण्डों में दो उनके कार्यकाल में पूरे हो गये थे। सहाय जी को 'पद्मभूषण`, 'वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान पुरस्कार` सहित कई सम्मानों से नवाजा गया। एक पत्रकार के रूप में सहाय जी ने साहित्यि की जो सेवा की वह काबिले तारीफ है। पत्रकारिता के साथ उनहोंने कई कृतियों की रचना की । बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने उनकी रचनाओं को 'शिवपूजन रचनावली` में समेटा और चार खण्डों प्रकाशित किया। हिन्दी के दधीचि कहे जाने वाले सहाय जी का २१ जनवरी १९६३ को निधन हो गया।
केशवराम भट्ट;
बिहार में हिन्दी पत्रकारिता के जन्मदाता और खड़ी बोली को इससे जोडने वाले पं.भट्ट का जन्म नालंदा के बिहारशरीफ में १८५२ में हुआ था। इनके भाई मदनमोहन भट्ट जब कोलकत्ता गये और १८७२ में अपना पे्रस खोला तो उन्होंने केशवराम जी को इससे जोड़ दिया। बाद में वे १८७४ में अपना पे्रस बिहार ले आये। पं. भट्ट एक बेहतर पत्रकार के साथ बेहतर लेखक भी थे।''बिहार बंधु `` से जुड़ कर भट्ट जी ने बिहार की हिन्दी पत्रकारिता को एक दिशा दी। उन्होंने दो नाटक '' शमशाद सौसन`` और सज्जाद सुंबंल`` लिखा। साथ ही उनकी कई और रचनाएं हैं जो काफी चर्चित हुई।
रामवृक्ष बेनीपुरी;
रामवृक्ष बेनीपुरी जी हिन्दी के जाने माने पत्रकार-लेखक थे। अपनी लेखन शैली को लेकर चर्चित रहने वाले बेनीपुरी का जन्म जनवरी १९०१ में बिहार के मुजफ्फरपुर के बेनीपुरी गांव में हुआ था। मैटिक तक पहंुचने के समय ही वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े जिससे उनकी शिक्षा बीच में ही रह गई। वहीं बचपन से ही उनका झुकाव साहित्य की ओर थी । छोटी सी उम्र में ही उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थी। हालांकि उन्होंने अपने को पत्रकार के रूप में ही सामने लाया और दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया जिनमें ''तरूण भारत``::१९२१::, ''किसान मित्र``::१९२२::, ''गोलमाल``::१९२४::, ''योगी``::१९३५::, ''जनता``::१९३७::,''लोक संग्रह`` और कर्मवीर`` सभी साप्तसहिक , '' बालक``::१९२६::, ''युवक``::१९२९::, ''हिमालय``::१९४६::, ''जनवाणी``:१९४८, ''नई धारा`` और ''चुन्नू-मुन्न्ूा``:१९५०:: सभी मासिक आदि शामिल हैं। इसके अलावे हजारीबाग जेल से 'कैदी` और 'तूफान` हस्तलिखित मासिक पत्र के निकालने की भी सूचना है। रामवृक्ष बेनीपुरी जी पत्रकारिता के क्षेत्र में जितने चर्चित हैं उतने ही साहित्यि के क्षेत्र में । साहित्य की अनेक विधाओं मसलन नाटक, निबंध, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण, एकांकी , बाल साहित्य आदि में उनकी उपलब्धियां आज भी यादगार हैं। बेनीपुरी जी की रचनाओं का प्रकाशन ''बेनीपुरी ग्रंथावली`` के तहत दो भागों में १९५५-५६ में की गई । बेनीपुरी जी ने उस सोच को तोड़ा था कि पत्रकारिता से जुड़े लोग अच्छे साहित्यकार नहीं हो सकते ? लेकिन उन्होंने दोनों विधा में जो तालमेल स्थापित किया वह देखने को कम ही मिलता है। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी जुड़े। उनका निधन ७ सितम्बर १९६८ में हुआ।
रामदीन सिंह;
यूं तो रामदीन जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया में हुआ था। लेकिन उनके नाना उन्हें पटना ले आये । शुरू से साहित्य के प्रति उनकी रूचि रही है। छपरा में अध्यापन कार्य छोड़ने के बाद उन्होंने १८८०-८१ में प्रसिद्ध खड्गविलास पे्रस की स्थापना की । पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन की दिशा में भी उन्होंने बढ़- चढ कर हिस्सा लिया और दर्जनों पत्रिकाएं निकाली। उनके संपदन में क्षत्रिय पत्रिका,हरिश्चन्द्र कला और ब्राह्मण प्रमुख है। हिन्दी की वे जी जान से सेवा करते हुए वे १९३० में दुनिया से विदा हो गये।
देवव्रत शास्त्री
बिहार की हिन्दी पत्रकरिता में देवव्रत शास्त्री जी भूमिका काफी मायने रखती है। १९०२ में चंपारण जिले के गोरे गांव में जन्में शास्त्री जी ने पत्रकारिता की शुरूआत कानपुर से प्रकाशित ''प्रताप`` के संपादकीय विभाग से जुड़ कर की। बाद में वे बिहार आ गये। और १९३४ में उन्होंने ''नवशक्ति`` को निकाल कर की। उन्होंने १९३६ में साप्ताहकि ''नवशक्ति`` का दैनिक संस्करण निकाला। १९४१ में शास्त्री जी ने दैनिक ''राष्ट्रवाणी`` का प्रकाशन शुरू किया । १९४२ में उनके जेल जाने से पत्र पर असर पड़ा । बाद में उन्होंने नवराष्ट्र पे्रस खोला और वहीं से ''नवराष्ट्र`` का प्रकाशन १९४७ में शुरू किया । शास्त्री जी वर्तमान रूस, गणेश शंकर विद्यार्थी, हिन्दी की उत्कृष्ट कहानियां आदि कई पुस्तकें भी लिखी।
शिवचंद्र शर्मा
छपरा में जन्में शिवचंद्र शर्मा ने 'दृष्टिकोण` १९४८, 'पाटल` १९६३-५३, 'प्रपंच` और 'स्थापना` पत्रिकाओं का संपादन किया था। बिहार के हिन्दी पत्रकारिता में शर्मा जी का विशिष्ट स्थान है। कविता से विशेष लगाव रखने वाले शर्मा जी ने 'प्रगतिवाद की रूपरेखा`, 'दिनकर और उनकी काव्यकृतियां`, 'मेखला`, 'कूल किनारा` आदि साहित्यिक रचनाओं को रच कर अपनी साहित्यिक पहचान भी बनायी।
गंगा शरण सिंह,
बिहार के हिन्दी पत्रकारिता में गंगा शरण सिंह की चर्चा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। खासतौर से साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में। १९०५ में पटना जिले में जन्में गंगा जी आजादी के दौर में जहंा देश के चर्चित राजनेताओं के संपर्क में रहे वहीं साहित्यिक क्षेत्र में महादेवी वर्मा, पे्रमचंद, निराला के साथ भी रहे। उन्होंने चर्चित साहित्यिक पत्रिका 'गंगा` का संपादन किया और कई पत्रों के साथ किसी न किसी रूप से जुडे रहे।
रामदयाल पांडेय;
रामदयाल पांडेय की भूमिका बिहार की हिन्दी और साहित्यिक पत्रकारिता में विशेष स्थान रखता है। पत्रकारिता से जुड़ाव उनका पत्रिका 'बालक` से हुआ । १९४७ में वे साप्ताहिक 'स्वदेश` के संपादक बने। १९५३ में उन्होंने मासिक साहित्यिक पत्रिका 'पाटल` का संपादन शुरू किया। १९५८ में वे दैनिक ' नवराष्ट्र` के संपादक बने। १९६२ में पांडेय जी दैनिक 'विश्वमित्र` के पटना संस्करण के संपादक बने । लेकिन इससे वे ज्यादा दिनों तक जुड़ नहीं रह पाये और बाद में वे 'नवीन बिहार` से जुडे।़ १९७३ में वे भागलपुर से प्रकाशित साप्ताहिक 'बिहार जीवन` के संपादक बने। संपादन के अलावा वे निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे।
केसरी कुमार;
पटना के सैदनपुर गांव में १९१९ में जन्में केसरी कुमार ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया । खासकर साहित्यिक पत्रकारिता से वे जुड़े रहे। उनके द्वारा संपादित पत्र-पत्रिकाओं में 'साहित्य`, 'कविता`, 'चित्रेतना` आदि शामिल हैं।
हालांकि बिहार की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में कई ऐसे हस्ताक्षर हैं जिनके योगदान को भूला पाना मुमकिन है। सुनहरे अक्षरों में उनके नाम पन्नों में दर्ज हैं वहीं कई ऐसे भी नाम है जिन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता को एक मुकाम दिलाया। मसलन, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, डा क़ाशी प्रसाद जयसवाल, पारसनाथ त्रिपाठी, प्रभुल्लचंद्र ओझा आदि कई नाम है जिनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बहरहाल आज भी बिहार में साहित्यिक पत्रकारिता गतिमान है।


संदर्भ
 - हिन्दी समाचार पत्रों का इतिहास, शिवपूजन रचनावली,बिहार की हिन्दी पत्रकारिता,हिन्दी के यशस्वी पत्रकार,जरनलिज्म इन बिहार,नई धारा और ढेरों किताबें व पत्र-पत्रिकाएं

संजय कुमारअगस्त 1, 2006
 

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