Thursday, June 10, 2021

लोकतंत्र / आदित्य रहबर

लोकतंत्र  / आदित्य रहबर 


सोने की अथक कोशिशों के बावजूद 

मेरी आँखे जाग रही हैं 

जैसे बुझ जाने के बाद भी 

जलती रहती है लाशें 

डोम की आँखों में


मेरा जीवन एक मसान है 

और मेरी आँखें डोम जैसी 

जिनकी आकांक्षाओं ने 

हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा जलाया है मुझे 


उस पेड़ पर क्या बीती होगी 

जिसे काट दिया गया 

महज़ इस खातिर 

कि जलाया जा सके किसी मरी हुई देह को 


मेरी आत्मा उसी मृत देह की भांति है 

जिसे जलाने के लिए 

हमने काट दिये हैं 

अनगिनत पेड़ 

जो कल तक हरे थे किसी की आँखों में 


हम सब अव्वल दर्जे के स्वार्थी हैं 

समाजवाद की छतरी में 

हमने खुद को इसलिए छुपाये रखा है 

ताकि हमारी बेइमानी की नुमाइश 

ना हो सके खुले आसमान में 

जबकि हम सब नंगे हैं 

अपनी-अपनी आँखों में 


लोकतंत्र उस बुद्धुआ की लुगाई जैसा है 

जिसे सब अपनी आंखों को ठंडा करने के लिए 

अपनी मर्जी से इस्तेमाल करते हैं 

और आखिर में 

छोड़ देते हैं नंगे, बेबस और लाचार 

यूँ ही खुले में फुटपाथ पर 

जहाँ बची-खुची आँखें 

अपनी हवस शांत करती हैं 


• आदित्य रहबर 


तस्वीर : अज्ञात

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