Wednesday, June 16, 2021

हनीमून की कहानी पापा की जुबानी★ रितिका सिहाग

★★हनीमून की कहानी पापा की जुबानी★★

                               

साल 1993 की बात है मैं पैदा भी न हुई थी उस वक़्त !

गांव हमारे में हनीमून जाना तो दूर ये भी न पता होता ये बला क्या है ? 

मम्मी थोड़े प्रगतिशील एरिया से ब्याह कर गांव में आई थी। बस इतने ही प्रगतिशील एरिया से जहां हनीमून नाम के त्योहार का पता तो था लेकिन मनाया वहां भी नही जाता था उनका हमेशा से सपना था हनीमून पर जाने का।

घर मे दादा दादी रौब मोगेंबो से भी ज्यादा था।

मम्मी की हिम्मत ही न होती थी इसपर बात करने की।

एक दिन हिम्मत करके बोल ही दिया हनीमून पर जाने के लिए। पापा 2 घण्टे तक तो सदमे जैसी स्तिथि में थे बहुत बहस हुई दोनों की। अंततः पापा माने पर उनके मानने से क्या होता ?? 

बिल्ली के गले मे घण्टी कौन बांधेगा(दादा दादी को को मनाना) ये अगला सबसे बड़ा पड़ाव था।


कुछ दिन का इंतजार किया उनके अच्छे मूड का--

और गांव के किसानों का मूड ज्यादातर फसल आने के बाद जब बिक जाती है और पैसा हाथ मे आता है उसी दिन होता है। गेंहू की फसल बिकी दादा मूंछ पर ताव दे रहे थे डरते डरते पापा उनके पास गए और बाहर घूमने के लिए पूछा।

ये बैक टू बैक 150-200 भद्दी भद्दी गालियां पापा की तरफ फेंक दी दादा ने !  शर्म के मारे पापा धरती से शरण मांग रहे थे। पैसे की कीमत कितनी होती है इसके लिए आदिकाल से आधुनिक काल तक के सारे संघर्ष के उदाहरण दे दिए मोगेंबो दादा ने।

पापा ने हार नही मानी। 3-4 तक घर मे महाभारत चलती रही। अंत मे इस बात पर फैसला हुआ कि टूर पर कम से कम खर्चा किया जाएगा और खर्च किये गए पैसे को अगले 6 महीने में पापा अन्य स्त्रोत से कमाकर दादा को वापिस करेंगे। इतने कठोर वादों के बावजूद दादा काटो तो खून नही वाली स्तिथि में थे और रवानगी से पहले तक पापा डरे हुए थे कि कब दादा का मूड सटक जाए और टूर रदद् करवा दें।


खैर वो रवानगी का सुनहरा दिन आया।

पापा को मुश्किल से आने जाने का किराया और खाने के पैसे दिए गए। कमरे के किराए की बात करते तो शायद टूर कैंसिल हो जाता। बाकी की जरूरत के पैसे पापा ने अपने मित्र से उधार लिए।


इन्होंने चंड़ीगढ़ और शिमला घूमने का प्लान बनाया था

नियत दिन जब ये घर से प्रस्थान करने लगे तो दादा का मूड इतना खराब था कि पापा से बोले भी नही।

ऐसे कामों पर पैसा खर्च करना उन्हें बिलुकल भी गवारा नही था। 

खैर ये चंडीगढ़ वाली ट्रेन में चढ़े !

ढेर सारा खाना और बिस्कुट वगैरह घर से दिए गए थे ताकि बाहर के खाने पर जितना हो सके खर्च घटाया जा सके।

ट्रैन में मम्मी आने वाले सुनहरे पलों की और पापा आने वाले खर्चों की कल्पना करते हुए सफर कर रहे थे। ख्यालों में डूबे डूबे सो गए।

हनीमून का पहला सरप्राइज इनको अगली सुबह ही मिल गया था। जब उठे तो पता चला ट्रैन अपने अंतिम स्टेशन कालका पहुंच चुकी थी और इन्हें चंडीगढ़ उतरना था..


क्रमशः.....

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