मंजरी जोशी के साथ मीडिया और उससे जुड़े कई मुद्दों पर मीडिया खबर.कॉम के संपादक पुष्कर पुष्प से हुई बातचीत के मुख्य अंश ( दरअसल यह इंटरव्यू कई साल पुराना है. साल 2003 में लिया गया था. कालेज के दिनों में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में. मेरा पहला इंटरव्यू. लेकिन इंटरव्यू में कही गयी कुछ बातें अब भी प्रासंगिक हैं. इसलिए इसे मीडिया खबर पर प्रकाशित कर रहे हैं. )
आप एक साहित्यिक परिवार से हैं तो किस तरह से आप साहित्य के क्षेत्र से निकलकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में आयीं ?
साहित्य में जिस तरह शब्द और विचार हैं , उसी तरह मीडिया या पत्रकारिता, टेलीविजन, रेडियो मैगजीन आदि में भी तो यही है. बस यह है कि इसकी दिशा अलग है. किस तरह से आई से क्या जानना चाह रहे हैं.
जैसे कि साहित्य एक बहुत खुला क्षेत्र है. उसमें अपनी इच्छा के अनुरूप आप अपने आपको अभिव्यक्त कर सकते हैं. लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा जाय तो उसका दायरा सीमित है. उसी सीमित दायरे में आपको अभिव्यक्त करना है.
देखिए, इस क्षेत्र में जब शुरू-शुरू में दाखिल हुई थी तो मैंने इसको शौक की तरह नहीं बल्कि एक लम्बा आगे ले जानेवाला काम समझकर इसे अपनाया था. यह बात सही है कि दूरदर्शन और रेडियो में बहुत आज़ादी कहने-बोलने की नहीं होती है. लेकिन पहले जब बहुत सारे इन हाउस प्रोडक्शन हुआ करते थे तो उसमें कई तरह के ऐसे प्रोग्राम बनाये है जिसमें अपनी अभिव्यक्ति थी. सड़कों की दुर्घटनाओं पर फीचर बनाया और एलिजाबेथ ब्रुनो जो कि एक हंगरियन चित्रकार हैं उनपर 15 मिनट का फोटो फीचर बनाया है. इस तरह की कई और चीजें वहां होती रहती थी और इस मामले में तो आज़ादी तो थी ही.
हाँ जहाँ तक न्यूज़ का सवाल है तो यह सही है कि जो लिखकर दिया जाता था वही पढना पड़ता था. अभी दूरदर्शन में कुछ परिवर्तन आये हैं . कुछ आज़ादी मिली है. फिर भी आज़ादी कम है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि कम आज़ादी के कारण मैंने अपनी आज़ादी खो दी है. मैं कई अख़बारों में लिखती रहती हूँ लेकिन उसे व्यवसाय का रूप नहीं दिया है.
जैसा कि अभी आपने दूरदर्शन के बारे में कहा कि उसमें कुछ परिवर्तन हुए हैं. यूनेस्कों की एक ख़ास योजना के तहत जब दूरदर्शन का प्रारंभ हुआ था तब उसका मुख्य उद्देश्य शैक्षिक और सामाजिक था. लेकिन सैटेलाईट चैनलों के आने के बाद से दूरदर्शन में जो परिवर्तन हुए हैं उससे कहीं दूरदर्शन अपने वास्तविक उद्देश्य भटक तो नहीं गया है. ?
सैटेलाईट चैनलों के आने बाद से बदलाव तो हुए हैं. इतनी व्यवसायिकता बढ़ गयी है कि कहीं उसमें शिक्षा, संदेश, अच्छा साहित्य, कविता, नाटक इस तरह की चीज तो रह ही नहीं गयी है. थप्पड़ मारकर हंसाने वाली कामेडी दिखाई जाती है. दूरदर्शन अपने -आप में एक अनूठा चैनल था जिसकी देखा - देखी सब चैनलों ने उसको अपनाया. लेकिन जब ये चैनल आ गए और अपना बाज़ार खड़ा कर लिया तो अब उस बाज़ार को और बढ़ाने के लिए उल-जुलूल और रंगीन प्रोग्राम दिखाने लगे. देखा-देखी दूरदर्शन ने भी कई वाहियात कार्यक्रम शुरू किये कि हमें भी बाज़ार टिके रहना है.
लेकिन गौर करने लायक बात है कि पिछले कुछ समय में दूरदर्शन में सामाजिक ख़बरों में कमी आई है. डाक्यूमेंट्री मेकर्स का भी आरोप है कि सामाजिक मुद्दों पर बनी डाक्यूमेंट्री के लिए दूरदर्शन समय नहीं देता. जबकि पहले ऐसा नहीं था.
दूरदर्शन क्यों नहीं दिखा रहा है यह तो दूरदर्शन के आला अफसर ही बता सकते हैं. वैसे कमी तो हुई है.
अधिकतर चैनलों में ज्यादातर ख़बरें राजनीति, खेल, फ़िल्मी, मनोरंजन या अश्लील तरह की होती है. ऐसी ख़बरों को दिखाने का ट्रेंड बन गया है. ऐसे में कोई परिवर्तन की कोई आशा दिखती है ?
देखिए, बात तो देश और समाज को जोड़ने वाली होनी चाहिए. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. वैसे मनोरंजन एक पेचीदा मामला है. विज्ञापनदाता , विज्ञापन देने से पहले उस प्रोग्राम से होने वाले अपने फायदे के बारे में पहले सोंचता है. यदि उसको लगता है कि इससे उसका उत्पादन बिकेगा तो वह आपको पैसा देगा. यदि भारतेंदु जी के नाटक पर कोई प्रोग्राम बनाना चाहते हैं और स्पोंसरशिप के लिए कालगेट के पास जाते हैं तो वह कहेगा कि यह नहीं चलेगा. इस तरह आपके पास अच्छे विचार होते हुए भी आपके हाथ बंध जायेंगे और वर्तमान में यही हो रहा है.
यानि बाजारवाद बहुत अधिक हावी हो गया है ?
बहुत बुरी तरह से हावी है. चैनलों में और आपको क्या दीखता है? कोई भी सीरियल, उदहारणस्वरुप, घर -घर की कहानी ही को लें, उसमें कैसा घर दीखता है. ऐसे दसियों नाम हैं. सब एक लाइन में है. सब वैसे ही चेहरे - मोहरे, वैसा ही पहनावा, उठाना -बैठना और वैसे ही घर , चमकते -दमकते , चेहरे पर कोई कष्ट -पीड़ा नहीं दिखाते. यह समाज को बहलाना - फुसलाना है. मैं इसे मीठा जहर कहूँगी.
अभी आपने जैसा बाजारवाद के बारे में कहा. लेकिन यदि बाहर के डिस्कवरी जैसे चैनल को देखें तो पाते है कि उसमें कहीं अश्लील या अटपटी चीजें नहीं दिखाई जाती. फिर भी न उनके पास विज्ञापन की कमी है और न दर्शकों की. क्या भारतीय मीडिया को उनसे सीखना चाहिए ?
बिलकुल सीख लेनी चाहिए. उनके कार्यक्रमों में लगन, अथक परिश्रम तो दीखता ही है. भारतीय चैनल काफी कुछ सीख सकते हैं.
एक प्रश्न भाषा पर है. चुकी आप हिंदी में समाचार पढ़ती हैं और साहित्य से भी जुडी हुई हैं तो आपको मीडिया में और उसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिंदी की कैसे स्थिति नज़र आती है ? क्या इसको बेहतर कहा जा सकता है ?
एक प्रश्न भाषा पर है. चुकी आप हिंदी में समाचार पढ़ती हैं और साहित्य से भी जुडी हुई हैं तो आपको मीडिया में और उसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिंदी की कैसे स्थिति नज़र आती है ? क्या इसको बेहतर कहा जा सकता है ?
बेहतर(कुछ पल सोंचकर).....दुरूह स्थित है. जो जैसा चाह रहा है वैसा कर रहा है. एक जमाना था जब रेडियो में अज्ञेय जी, मनोहरश्याम जोशी, रघुबीर सहाय जैसे नामी पत्रकार , साहित्यकार और भाषा के ज्ञाता लोग काम करते थे. टेलीविजन में रघुवीर सहाय जी ने ही कमेंट्री शुरू की. करेंट अफैयर के कार्यक्रम शुरू किये. वह ज़माना कुछ और ही होगा. उसके बाद हमलोगों का ज़माना आया. हमारे समय में भी मुझे याद है कि यदि गलतियाँ भाषा की होती थी तो वहीँ निपटा दी जाती थी. प्रोड्यूसर को भी भाषा की तमीज होती थी. वह भी कई बार बताते थे कि ऐसे नहीं ऐसे पढो. इसका वाक्य विन्यास ऐसे होना चाहिए. फिर भी यदि गलत होती थी तो समीक्षक लोग उसपर लिखते थे. मेरा मानना है कि वह केवल बोला ही नहीं जा रहा है बल्कि पूरी संस्कृति ही संप्रेषित की जा रही है. लोग देख-सुनकर ही सीखते हैं. यदि विचार अच्छा है तो तो लोग वही सीखेंगे.
आज के बच्चों को देखिए उनकी क्या भाषा हो गयी है. आज के चैनलों की भाषा भी बहुत बुरी है. दूरदर्शन को ही लीजिये - उपराष्ट्रपति कृष्णकांत जी की शवयात्रा जब जा रही थी तो एक सज्जन स्टूडियो में बैठकर उनसे सवाल कर रहे थे कि काफिला कहाँ तक पहुंचा. जबकि काफिला शब्द यहाँ उपयुक्त नहीं है. शवयात्रा या जनाजा शब्द उपयुक्त होता. सैंकड़ों लोगों ने इसे सुना होगा. मुझे मालूम था. इसलिए मुझे खटका. लेकिन जिस पीढ़ी को नहीं खटका होगा उसने वैसे ही लिया होगा. इसलिए किसी भी ब्राडकास्टर को सबसे पहले भाषा का ज्ञान होना जरूरी है. भाषा की तमीज , लहजा और कायदों को चैनलों ने छोड़ दिया है.
आज के बच्चों को देखिए उनकी क्या भाषा हो गयी है. आज के चैनलों की भाषा भी बहुत बुरी है. दूरदर्शन को ही लीजिये - उपराष्ट्रपति कृष्णकांत जी की शवयात्रा जब जा रही थी तो एक सज्जन स्टूडियो में बैठकर उनसे सवाल कर रहे थे कि काफिला कहाँ तक पहुंचा. जबकि काफिला शब्द यहाँ उपयुक्त नहीं है. शवयात्रा या जनाजा शब्द उपयुक्त होता. सैंकड़ों लोगों ने इसे सुना होगा. मुझे मालूम था. इसलिए मुझे खटका. लेकिन जिस पीढ़ी को नहीं खटका होगा उसने वैसे ही लिया होगा. इसलिए किसी भी ब्राडकास्टर को सबसे पहले भाषा का ज्ञान होना जरूरी है. भाषा की तमीज , लहजा और कायदों को चैनलों ने छोड़ दिया है.
हाल के दिनों में पत्रकारिता (इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया) के स्तर में काफी ज्यादा गिरावट आई है. रघुवीर सहाय सरीखी पत्रकारिता का अभाव है. स्तरीय पत्रकारिता की कमी महसूस की जा रही है. इसके लिए आप किसे ज़िम्मेदार मानती है ?
पिताजी के ज़माने की पत्रकारिता तो कुछ और ही थी. आज भी लोग दिनमान को याद करते हैं. पिताजी के जाने के बाद जिन-जिन लोगों से मिली हूँ वे सब कहते हैं कि दिनमान अपने-आप में पत्रिका नहीं आंदोलन थी. आजकल पत्रकारिता में चिंतन का अभाव दिखता है. पत्रिका हो या टेलीविजन उसमें भावशून्य चीजें दिखाई जा रही है. क्योंकि भाव रहेगा तो उनकी रोजी-रोटी नहीं चल पायेगी. भावनात्मक चीजों को भी कई बार ऐसे दिखाया जाता है कि उसकी सारी भावना मर जाती है. उसकी सारी संवेदना ख़त्म हो जाती है. हिंसा के दृश्य बार - बार दिखाए जाते हैं.
आपको अपने पिता रघुवीर सहाय से कितनी प्रेरणा मिली ?
आपको अपने पिता रघुवीर सहाय से कितनी प्रेरणा मिली ?
ये कहिये .... उन्हीं से प्रेरणा मिली. मुझे जो भी संस्कार मिले वो अपने माँ-बाप से ही मिला.
अच्छा इलेक्ट्रानिक मीडिया की अपनी व्यस्तताएं होती है और घर की अपनी जिम्मेदारियां. इनके बीच आप कैसे सामंजस्य बैठा पाती हैं ?
हो जाता है सामंजस्य. परिवार का सहयोग मिल जाता है. पति हेमंत जोशी का सहयोग मिल जाता है इसलिए सामंजस्य बन जाता है.
आपकी दूसरी क्या अभिरुचियाँ है ?
मैंने फ्रेंच और रूसी कहानियों का अनुवाद किया है. नयी भाषा सिखने में मेरी अभिरुचि है. मुझे संगीत का शौक है. उसमें रूचि भी है. समझ भी है और पकड़ भी. अभी बच्चों के लिए मैंने संगीत पर किताब लिखी है. यह अपने -आप में पहली किताब है जो भारतीय शास्त्रीय संगीत पर है और वो भी बच्चों के लिए. और भी कई शौक हैं. कई पूरे होते हैं और कई नहीं.