Wednesday, December 8, 2010

भड़ास4मीडिया को दस हजार संजय शर्मा ने दिए

संजय शर्मा ने दिए भड़ास4मीडिया को दस हजार!

: विकीलिक्स और विकीपीडिया का मॉडल बनाम भड़ास4मीडिया की चिंता :
लखनऊ में एक पत्रकार हैं संजय शर्मा. पहले कुछ मीडिया हाउसों के साथ जुड़कर पत्रकारिता करते थे. बाद में लखनऊ में अपना अखबार शुरू किया, वीकेंड टाइम्स नाम से, समान विचार वाले कुछ लोगों के साथ मिलकर पार्टनरशिप में. पिछले कुछ महीनों के दौरान दो बार लखनऊ जाना हुआ दोनों ही बार उनसे मिला. पहली बार बड़े आग्रह और स्नेह के साथ अपने घर ले गए, खाना खिलाया. अपना आफिस दिखाया. खूब सारी बातें कीं. दूसरी बार वे छोड़ने स्टेशन आए, स्टेशन पर ही हम दोनों ने खाना खाया. आज उनका मोबाइल पर एक संदेश आया. आपके एकाउंट में दस हजार रुपये जमा करा दिए हैं.
मैंने उन्हें एसएमएस से ही पूछा कि किस बात के? तो उनका जवाब आया कि भड़ास4मीडिया को सपोर्ट करने के लिए. मैंने उन्हें शुक्रिया का जवाब भेजा और उनसे अनुरोध किया कि वे अपने अखबार का एक विज्ञापन या लोगो मेरे पास भिजवा दें, ताकि उसे प्रकाशित करा सकूं. अंतरमन में यह था कि जो पैसा भड़ास4मीडिया को सपोर्ट करने के लिए संजय ने स्वेच्छा से भेजा है, उसके बदले उनके अखबार का विज्ञापन लगाकर हिसाब बराबर कर सकूं. पर जिंदगी गणित नहीं है और भावनाएं हिसाब-किताब से नहीं संचालित होतीं. पिछले दिनों मैंने विकीपीडिया और विकीलिक्स वेबसाइटों को देखा. दोनों पर कोई विज्ञापन नहीं. सिर्फ उनके संस्थापकों की एक फोटो समेत अपील वाला विज्ञापन. क्लिक करेंगे तो एक नया लिंक खुलेगा जिसमें जो कुछ लिखा है उसका लब्बोलुवाब ये कि हे भाई लोगों, डोनेट करो, और इस अभियान के मददगार बनो. विकीपीडिया और विकीलिक्स, दोनों वाकई बहुत शानदार काम करने वाली वेबसाइटें हैं और इनके संस्थापक अब किसी परिचय के मोहताज नहीं है.
ये लोग अगर दुनिया के बड़े से बड़े धनपशु से बोल दें कि निवेश करो तो अरबों रुपये का निवेश उन्हें मिल सकता है. वे अगर मुनाफा कमाना चाहें तो ढेर सारे महंगे महंगे विज्ञापन लाने के लिए मार्केटिंग टीम का गठन कर आनलाइन मार्केटियरों की फौज की मदद से अच्छा पैसा कमा सकते हैं. लेकिन उन्होंने ऐसा कोई रास्ता नहीं चुना. उन लोगों ने रास्ता चुना जनता के बीच जाने का. इन लोगों ने पत्रकारिता के मानक बदले हैं. मिशनरी पत्रकारिता को नई ऊंचाई दी है. ऐसे में वे समझौते वाला, पूंजी वाला, मुनाफे वाला, बाजार वाला रास्ता चुनना नहीं चाहते थे. और, सच में इन लोगों को दुनिया भर में फैले उनकी वेबसाइटों के प्रशंसकों ने अच्छा खासा योगदान दिया होगा, तभी ये वेबसाइटें बड़ी से बड़ी चुनौतियों के सामने टिक कर काम कर ही हैं.
विकीलिक्स ने तो रिकार्ड कायम किया है. अमेरिका में सेवाएं समाप्त हुईं तो स्विटरलैंड से प्रकट हो गई यह वेबसाइट. कभी कभी मैं सोचता हूं कि भारत में कभी कोई जब बेहद क्रांतिकारी वेबसाइट पैदा होगी तो उसका संचालन इस देश में रहकर कर पाना संभव न होगा क्योंकि न जाने कब सत्ता शीर्ष के इशारे पर उसके संस्थापक को पुलिस आकर उठा ले जाए और थाने में उल्टा लटकाकर रात भर ये कहकर पीटते रहें कि बोल, बोल साले, तू और साइट चलाएगा... :) और, उस पत्रकार को बचाने शायद ही कोई पत्रकार आए क्योंकि उस बागी व क्रांतिकारी पत्रकार से संबंध रखने वाले पत्रकार भी बागी व क्रांतिकारी मान लिए जाएं और इस चक्कर में उनकी नौकरी फिर गृहस्थी न तबाह हो जाए, सो इस गुणा भाग के कारण कोई उसे बचाने भी न आए. पर जब आप विदेश से वेबसाइट का संचालन करते हैं तो देश की सरकार भले उस वेबसाइट को बैन कर दे लेकिन उसके संचालकों को पकड़ नहीं सकती. और, वेबसाइट पर बैन करने से कुछ नहीं होता, विकीलिक्स ने बता दिया है कि कुछ घंटों में नए डोमेन नेम से पूरे कंटेंट को लेकर प्रकट हुआ जा सकता है.
भड़ास4मीडिया के सामने भी चुनौतियां हैं, खतरे हैं, दबाव हैं, खर्चे हैं और सबसे जूझते हुए मैं सोचता रहता हूं कि इसका मॉडल क्या रखा जाए. विकीलिक्स और विकीपिडिया वाला डोनेशन का मॉडल, या बाजार का मॉडल. पर बाजार के मॉडल के खतरों को हम लोग बड़ी शिद्दत से देख सुन रहे हैं, नीरा राडिया टेप कांड के जरिए. ऐसे में जनता के सामने जाना ही सबसे उचित फैसला है. अभी तक, करीब तीन साल होने को हैं, इस वेबसाइट के संचालन में डोनेशन का पैसा न के बराबर लगा क्योंकि वो आया ही नहीं, विज्ञापन व कंटेंट सपोर्ट के जरिए आया पैसा ही काम करता रहा. विज्ञापन व कंटेंट सपोर्ट के जरिए आया पैसा कई पेंच भी ले आया. इस कारण कई बार तल्ख घटनाक्रमों को नरम तेवर के साथ प्रकाशित करना पड़ा, कुछ खबरों को ब्लैकआउट करना पड़ा. ये सच है. और, चूंकि मैं जन्मना कोई उद्यमी या महान पत्रकार नहीं हूं, सो, प्रयोगों के जरिए सीखता समझता और उसके अच्छे बुरे को विवेचित कर आगे बढ़ता रहता हूं.
जब आप बेहद मुश्किल में होते हैं, जीवन-मरण के सवाल से जूझ रहे होते हैं तो सरवाइव करने को मिल रहे खाने, मिल रहे पैसे पर सवाल नहीं उठाते, कम से कम मेरे में इतना नैतिक साहस नहीं है, लेकिन जब ऐसी स्थिति हो कि आप दो चार महीने तक कहीं से कुछ न मिलने पर भी जी खा सकते हैं तो सामने आने वाले पैसे की नीयत पर सवाल खड़ा कर उसे स्वीकारने या न स्वीकारने के बारे में सोच सकते हैं और फैसला ले सकते हैं. आर्थिक स्थिति भड़ास4मीडिया की अच्छी नहीं है क्योंकि कभी मैं इस वेबसाइट के जरिए महीने में बीस से पचीस हजार रुपये पैदा करने की सोचता था ताकि घर का खर्च चल सके लेकिन आज इस वेबसाइट पर ही महीने का करीब एक लाख रुपये इनवेस्ट हो रहा है, सेलरी, सर्वर, स्टाफ, आफिस आदि के उपर, बेहद सीमित व न्यूनतम खर्च करने के बावजूद.
इसी कारण आप देख सकते हैं कि भड़ास4मीडिया पर खबरों का जोरदार फ्लो बना रहता है. रोजाना दस से लेकर 40 तक खबरें अपडेट हो जाया करती हैं. अपने सर्वर पर हम लोग आडियो और वीडियो दिखा सकने में सक्षम हो पा रहे हैं. कह सकते हैं कि भड़ास4मीडिया को अब ऐसा मुकाम पर पहुंचा दिया गया है जहां यह वेबसाइट देश में समानांतर पत्रकारिता के एक प्रतीक के रूप में स्थापित होने लगी है. अब बारी जनता की है. आप लोगों की है. हम नहीं चाहते कि इस आशावान व क्रांतिकारी प्रयोग का हश्र वही हो जो अन्य क्रांतिकारी साथियों व मीडिया हाउसों का हुआ है. सो, मैं अपनी तमाम बुराइयों व अच्छाइयों के साथ आपसे अपील करता हूं कि भड़ास4मीडिया अगर आपको किसी रूप से पसंद आता है और आप आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि महीने में या साल में कुछ रकम इस पर खर्च कर सकें, अपनी निजी जरूरतों से समझौता किए बगैर तो जरूर सोचिए, मन बनाइए.
मैं अब किसी अखबार मालिक या टीवी चैनल के मालिक से भड़ास4मीडिया चलाने के लिए विज्ञापन मांगने का इच्छुक नहीं हूं. जो अपने से विज्ञापन आते रहेंगे, वे दिखते रहेंगे लेकिन विज्ञापन लाने के लिए कोई मार्केटिंग टीम हम लोग नहीं रखेंगे. हां, कई लोग पूछते हैं कि भड़ास4मीडिया पर विज्ञापन का रेट क्या है, तो उनको मैं यही जवाब देता हूं कि हम लोगों का कोई रेट नहीं है. इस डायलाग के दो अर्थ होते हैं. एक तो ये कि हम इतने पतित हैं कि हम किसी भी रेट पर समझौता कर लेते हैं. दूसरा ये कि हम इतने महान हैं कि हम लोगों का कोई रेट लगाया ही नहीं जा सकता, 'अमूल्य' की तरह हम 'अरेट' हैं. तो इन दोनों छोरों के बीच झूलते हुए हम लोगों ने भड़ास4मीडिया पर विज्ञापन के लिए अब एक फ्लैट रेट तय किया हुआ है, न्यूनतम, 5 हजार रुपये प्रति हफ्ते या 20 हजार रुपये प्रति माह या दो लाख रुपये सालाना.
आगे से कोई भी साथी विज्ञापन के रेट के लिए न पूछे तो ज्यादा अच्छा है क्योंकि विज्ञापन के रेट बताते हुए झुंझलाहट होती है क्योंकि उसके साथ फिर शुरू होता है बारगेनिंग का दौर जिसमें पड़ने की मेरी कतई इच्छा नहीं होती इसलिए बारगेनिंग करने वाले से यही कहकर मुक्ति पाता हूं कि आपकी जो औकात हो दे दीजिएगा. मैं आपको बता दूं कि भड़ास4मीडिया के लिए तरह तरह के प्रस्ताव आते रहते हैं. कोई निवेश कर इसका मेजारिटी स्टेक खरीदना चाहता है तो कोई बल्क में पैसे देकर किसी बड़े नेता के लिए लगातार खबरें छपवाना चाहता है. पर इस तरह के प्रस्तावों को उदासीन उत्साह के साथ सुन लिया करता हूं और हां-ना में कोई जवाब दिए बगैर बीच में लटका कर छोड़ दिया करता हूं. लेकिन सच तो यही है कि ऐसे प्रस्तावों को स्वीकारने का मतलब यही है कि मैं निजी तौर पर आर्थिक रूप से थोड़ा संपन्न जरूर हो जाउगा लेकिन जनता के भरोसे पर खड़ा हुआ इतना बड़ा ब्रांड चुपचाप छोटा व घटिया हो जाएगा. पर मरता क्या न करता वाली हालत में इन प्रस्तावों पर भी विचार करना पड़ ही जाता है लेकिन अभी मरता वाली स्थिति नहीं है, इसलिए क्या न करता जैसा तर्क रख कुछ अनाप-शनाप समझौता नहीं करने जा रहा.
उससे पहले मैं चाहता हूं कि जनता के बीच जाने के प्रयोग को आजमाया जाए. पहले भी मैंने भड़ास4मीडिया के आर्थिक संकट के बारे में लिखा है और कई लोगों ने सपोर्ट करने के बारे में कहा था लेकिन किसी को एकाउंट नंबर नहीं भेजा था क्योंकि कहीं न कहीं मेरा सामंती मन यह स्वीकारता नहीं कि मैं चंदे, भीख के जरिए पोर्टल चलाऊं. जो लोग विज्ञापन छपवाने को राजी होते हैं, उन्हें एकाउंट नंबर मैं तपाक से भेज दिया करता हूं. विकीलिक्स और विकीपिडिया जैसी वेबसाइटों ने अच्छे काम के लिए अपने पाठकों के बीच जाने का जो रास्ता अपनाया है, वह काफी प्रेरणादाई है. उसी से प्रेरित होकर और आज सुबह संजय शर्मा द्वारा अचानक दस हजार रुपये भेज देने के कारण अब जनता के बीच जाने का फैसला कर रहा हूं. देखता हूं, अपनी गरीब हिंदी जनता कितना योगदान करती है. गरीब हिंदी जनता का मतलब आर्थिक रूप से मजबूत न होना है.
अंग्रेजी वेबसाइटों का पाठक वर्ग ग्लोबल होता है और उनके योगदानकर्ता भी ग्लोबल होते हैं. अंग्रेजी वाले हिंदी वालों की तुलना में ज्यादा समृद्ध होते हैं. ऐसे में मैं यह उम्मीद तो कतई नहीं कर रहा कि भड़ास4मीडिया को योगदान करने वाले करोड़ों रुपये दे डालेंगे, लेकिन इतना संभव है कि भड़ास4मीडिया के सर्वर, कंटेंट व टेक्निकल टीम का खर्च निकल आएगा. जो भी है, देखते हैं. बस एक अनुरोध है कि जो भी लोग जितना भी योगदान दें, उसे मुझे निजी तौर पर सूचित जरूर कर दें, फोन से नहीं, मेल से, मेरी निजी मेल आईडीyashwant@bhadas4media.com yashwant@bhadas4media.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर मेल भेजकर ताकि हर तिमाही मददगारों से मिली राशि के बारे में जानकारी सार्वजनिक की जा सके. ये भी एक प्रयोग होगा जिसके पीछे मकसद ट्रांसपैरेंसी रखना है जिससे देने वालों को यह पता रहे कि सबको पता है कि भड़ास4मीडिया को इतना मिला है और इस मद में खर्च हुआ है.
मुझे फौरी तौर पर चिंता जनवरी महीने में तीन महीने के लिए सर्वर का चालीस हजार रुपये का चेक सर्वर प्रोवाइडर कंपनी को देने का है. संभव है, आप लोग इस चिंता से मुझे मुक्त करा दें. भड़ास4मीडिया का एकाउंट नंबर नीचे दिया जा रहा है. इस एकाउंट में फिलवक्त करीब 57 हजार रुपये हैं जो महीने भर के खर्च, यानि जनवरी 4 तक के लिए काफी हैं. दो-चार जगहों से पांच हजार से लेकर 30 हजार तक के पैसे आने बाकी हैं, विज्ञापन के.


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देश के बाहर के लोग अगर भड़ास4मीडिया के लिए डोनेशन देना चाहते हैं तो वे इस लिंक का सहारा ले सकते हैं...
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सो, अगर आप मदद न भी करेंगे तो मेरी जिंदगी और यह साइट, जैसे तैसे चल ही रही थी, आगे भी चलती रहेगी, लेकिन शायद, आपकी मदद से हम लोगों का हौसला और उत्साह बढ़े और एनर्जी आर्थिक चिंता दूर करने में खपने की जगह बड़ी खबरों में लगे, और सबसे बड़ी बात कि हम लोगों को भी तो लगे कि हम आपके लिए काम कर रहे हैं, किसी धनपशु, नेता, नौकरशाह, भ्रष्टाचारी, दलाल, सरकार या अपने पेट की खातिर नहीं. इस मुद्दे पर आप मुझसे मेल के जरिए बात कर सकते हैं, मोबाइल पर एसएमएस कर सकते हैं लेकिन प्लीज, इस मसले पर फोन न करें क्योंकि शायद मैं आपको अगर इतना कुछ कह के, कर के, लिख के नहीं समझा सका तो फोन पर भी नहीं समझा सकूंगा. आमीन.
यशवंत
एडिटर
भड़ास4मीडिया
दिल्ली
फोन: 09999330099 मेल:yashwant@bhadas4media.com yashwant@bhadas4media.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

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