निरंजन निरंजन निराकार भज रे |
ताता न सीरा, राता न पीरा, धरो ध्यान धीरा रह्या आप थीर रे || १ ||
अडोलम् अबोलम् अछेदम् अभेदम् , परे से परे रे कहो कौंन हेरे |
अगम अथाह दरिया, गया तू बिसर रे ||२ ||
बिना मूल मौला, जो काला न धौला |
सुरति सिंध सैल , करो दूर फैलम, भजो क्यों न हरि रे ||३ ||
पशु तूँ पतंगम् भुवंगम् बिसासी, दई देह नर रे |
रटो राम रमता रखो सील समता, करै तोहि अजर रे || ४ ||
अलख नूर मेला गुरु कौन चेला, बजर काल डर रे |
शब्द में समाना अमाना अजोखम्, चलो क्यूं न घर रे || ५ ||
मूल मन्त्र गौहराया, भेद किन्हे विरले जन पाया |
पिंड ब्रह्मंड सै सिंध न्यारी, कुछ ऐसी ही धारना धारी || ६ ||
दिल अंदर दीदार नहीं वार पार, बजर पौल पट खोल |
नहीं तोल मोल, शब्द सिंध झलकै, दास गरीब निज नूर पलकै || ७ ||
आचार्य श्री गरीब दास महाराज जी ने मूल मन्त्र मे परमेश्वर का स्वरुप, उसे प्राप्त करने की प्रेरणा, मनुष्य जन्म की दुर्लभता, और परमेश्वर प्राप्ति के मार्ग का वर्णन किया है | इस मूल मन्त्र का पाठ प्रत्येक व्यक्ति को हर दिन सुबह नियम से करना चाहिए |
निरंजन निरंजन निराकार भज रे |
ताता न सीरा, राता न पीरा, धरो ध्यान धीरा रह्या आप थीर रे || १ ||
निरंजन = माया रहित, दाग रहित, अविद्या से रहित | निराकार = आकार से रहित |
ताता- गरम | सीरा – ठंडा | राता = लाल | पीरा = पीला
आचार्य श्री गरीब दास महाराज जी कहते हैं की उस माया से रहित, आकार से रहित परमेश्वर का ध्यान करो| वह परमेश्वर न गर्म है न ठंडा और न ही वह लाल रंग का न पीले रंग का, वह परमेश्वर अपने आप में, अपने स्वरुप में स्थिर है | तू ऐसे परमेश्वर का धैर्य पूर्वक ध्यान कर |
अडोलम् अबोलम् अछेदम् अभेदम् , परे से परे रे कहो कौंन हेरे |
अगम अथाह दरिया, गया तू बिसर रे ||२ ||
अडोलम् = जो हमेशा एक जैसी स्थिति में बना रहे या जिसमे कोई क्रिया न हो|
अबोलम् = जो बोलता नहीं अर्थात अपने आप को व्यक्त नहीं करता या जिसका वर्णन
नहीं किया जा सकता|
अछेदम् = जिसका छेदन नहीं किया जा सकता, जिसको काटा या बाँटा नहीं जा सकता,
या जो छिद्र यानि विकार से रहित है |
अभेदम् = जो भेद से रहित है (यानि के जिस के जैसा दूसरा कोई नहीं या)
जो समस्त जगत के नाना रूपों में व्यक्त होते हुए भी मूलतः एक जैसा ही है |
जिस का भेद नहीं पाया जा सकता |
परे सै परे = दूर दूर तक व्याप्त है |
हेरे = हेर = पता लगाना, देखना |
अगम = जिसे समझा न जा सके |
अथाह = जिस के इस छोर या उस छोर, गहराई या ऊंचाई का पता न लगाया जा सके|
बिसर = भूल जाना |
वह परमेश्वर हमेशा एक जैसी स्थिति में बना रहता है, वह अपने आप को व्यक्त नहीं करता, उसे काटा या बाँटा नहीं जा सकता, वह सब में एक समान भेद से रहित है, वह हर तरफ दूर दूर तक व्याप्त है, ऐसे परमेश्वर को कौन देख(जान) सकता है |
बिना मूल मौला, जो काला न धौला |
सुरति सिंध सैल , करो दूर फैलम, भजो क्यों न हरि रे ||३ ||
धौला = सफ़ेद | सुरति = वृत्ति, विचार या ध्यान | फैलम् = बुरे कर्म या विचार |
उस परमेश्वर को बनाने वाला कोई नहीं, वह बिना मूल के है, वह स्वयं सिद्ध है | वह न काला है न सफ़ेद अर्थात वह वर्ण से रहित है | अपने बुरे विचारों को दूर करके उस परमेश्वर में अपनी वृत्ति को जोड़ कर, सब पापों का हरण करने वाले उस परमेश्वर को क्यों नहीं भजते |
पशु तूँ पतंगम् भुवंगम् बिसासी, दई देह नर रे |
रटो राम रमता रखो सील समता, करै तोहि अजर रे || ४ ||
भुवंगम् = सर्प | बिसासी = विष धारी, जेहरिले | समता = समान भाव, समान दृष्टी |
सील = शील = कर्म, मन और वचन से कभी भी किसी से बुरा आचरण (द्रोह) न करना, सब से प्रेम करना और दान करना |
हे जीव अनेक तरह के पशुओं, कीट पतंगों और विष धारी साँपों की योनियों को भुगतने के बाद तुमने यह नर (मानव) शरीर पाया है| इसलिए तू हरदम सर्व व्यापक परमेश्वर को याद कर| तुं कभी भी किसी का ना बुरा कर, ना बुरा सोच और ना हि किसी को बुरा बोल| सब से प्रेम कर, सब को एक समान दृष्टि से देख ताकि वह परमात्मा तुझे जन्म मरण के चक्कर से मुक्त करके अजर करदे |
[इन पंक्तियों में महाराज जी ने मनुष्य देह के महत्त्व और दुर्लभता को निर्देशित किया है|
चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात हमें नर देहि प्राप्त हुई है| वह इसलिए की हम परमेश्वर की बंदगी कर सकें और मुक्ति को प्राप्त कर सकें | मनुष्य को सब जीवों से श्रेष्ट माना गया है, क्यों की इस के पास बाकि सभी जीवों से अधिक बुध्दि होती है| यह हर एक विषय को बाकि सभी जीवों से ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकता है |
अगर हम पृथ्वी और इस पर रह रहे समस्त जीवों के क्रमिक विकास के ऊपर आधुनिक विज्ञानं की दृष्टि से नजर डाले तो भी महाराज जी की कही यह पंक्तियाँ सत्य प्रतीत होती हैं|
पृथ्वी पहले एक आग का गोला थी जो समय के साथ ठंडी होकर कठोर हो गई और धीरे धीरे कठोर सतह मिटी में तब्दील हुई, फिर काफी समय बाद पानी उत्पन्न हुआ| यहाँ तक का पूरा विकास जड यानि चेतना से रहित था| फिर
काफी समय पश्चात सर्व प्रथम जल में एक कोषीय जीवों का जन्म हुआ| इन जीवों में चेतना थी | यह जीव पानी में चल सकते थे अपना भोजन खुद तलाश सकते थे और अपने जैसे दूसरे जीव को विभाजन के द्वारा जन्म देते थे | फिर समय आने पर इन्ही जीवों का क्रमिक विकास हुआ और मछलियों का जन्म हुआ फिर इसी तरह ऐसे जीवों का निर्माण हुआ जो पानी और धरती दोनों पर रहते थे | इन जीवों के क्रमिक विकास से सर्प इत्यादी विषारी जीवों और कुछ से पक्षियों का निर्माण हुआ | कुछ जीवों का रूपांतरण स्तन धारी जीवों में हुआ| और इन स्तन धारी जीवों में से कुछ बन्दर में तबदील हुए और बंदरों के क्रमिक विकास से मनुष्य का निर्माण हुआ| एक कोषीय जीव से लेकर मनुष्य के निर्माण तक जिस चीज का विकास हुआ वह थी चेतना या बुध्दि का विकास|
तो इतनी जुनियों में से गुजर कर हमने नर देहि पाई है तो किसलिए? क्या सिर्फ इसलिए की हम खा पिकर मजा करें, बच्चे पैदा करें, धन इकठा करें अपनी संतानों को दे और एक दिन सब छोड कर मर जाएं ? हमारे होने का यह तो कोई प्रयोजन नहीं हुआ | क्यों की सभी जीव खाते पीते है, वंश वृद्धि करते है तो प्रभु का हमें उत्पन्न करने में या विभिन्न प्रकार के जीवों को उत्तपन्न करने का क्या प्रयोजन है | इस का एक ही उत्तर सही प्रतीत होता है जो शास्त्र या संतों महापुरषों की वाणी हमें देती है | वह यह की हमारा सफर पत्थरों से शुरू होता है पत्थर पूरा सोया हुआ है और विभिन्न प्रकार के जीव अपने विकास के पायदान के मुताबिक जगे हुए हैं | मनुष्य अभी सिर्फ १० प्रतिशत ही जगा है | अभी मनुष्य सिर्फ अपने भौतिक (शारीरिक) सुखों के प्रति ही जागरूक है| मनुष्य अभी मानसिक शांति और परमात्मा के प्रति बहुत कम जागा है |
जिस दिन मनुष्य पूरा जाग (चेतन) जायेगा उस दिन मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर मुक्त हो जायेगा | यह कैसे होगा जैसा की महाराज जी कह ही रहे हैं की सर्व व्यापक परमेश्वर का ध्यान करने से, शील और समता को धारण करने से अर्थात कर्म, मन और वचन से सभी प्राणियों, पेड पौदों, पक्षियों और जीवों से प्रेम और दया करने से | सभी को सम दृष्टि से देखने से |]
अलख नूर मेला गुरु कौन चेला, बजर काल डर रे |
शब्द में समाना अमाना अजोखम्, चलो क्यूं न घर रे || ५ ||
अलख = जिसे देखा न जा सके | अमाना = मान से रहित|
अजोखम् = जिसे मापा न जा सके |
जिसे हम अपनी दृष्टि द्वारा देख नहीं सकते ऐसे परमेश्वर के नूर से जब मिलाप हो जाता है तो फिर न कोई गुरु रहता है न शिष्य अर्थात परमेश्वर के नूर (ज्ञान) से मेल होने पर बड़े छोटे का भाव खत्म हो जाता है सभी एक समान प्रतीत होते हैं |
तुम काल की भयानक मार मृत्यु से डरते हुए, मान रहित हो कर, बिना माप तोल किये शब्द में समाकर, अपने निज घर (मूल स्वरुप) को क्यों नहीं चलते |
मूल मन्त्र गौहराया, भेद किन्हे विरले जन पाया |
पिंड ब्रह्मंड सै सिंध न्यारी, कुछ ऐसी ही धारना धारी || ६ ||
गौहराया = बताना, घोषणा करना | पिंड = शरीर | सिंध = नाता या एकता |
महाराज जी कहते हैं की हमने इस मूल मंत्र में गुप्त और सार तत्व बताया है | इसका भेद किसी विरले व्यक्ति ने ही पाया है | इस शरीर और ब्रह्माण्ड से उस परमेश्वर की संधि (नाता/एकता) निराली ही है | उस ने कुछ इसी प्रकार से इसे धारण किया हुआ है |
दिल अंदर दीदार नहीं वार पार, बजर पौल पट खोल |
नहीं तोल मोल, शब्द सिंध झलकै, दास गरीब निज नूर पलकै || ७ ||
पौल = दरवाजा, पर्दा |
तू उस परमेश्वर का दीदार अपने दिल के अंदर ही कर कहीं बाहर नहीं| बस अपने अंदर के वज्र के समान अज्ञान रूपी दरवाजे (या पर्दों) के पट खोल दे (हटा दे) | उस परमेश्वर का कोई वार पार नहीं, कोई तोल या मोल नहीं | आचार्य श्री गरीब दास महाराज जी कहते हैं की शब्द के साथ जुड़ने पर उसका नूर अंदर प्रत्यक्ष झलकने लगता है |
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