Tuesday, December 14, 2010

खजुराहो : मिथुनाचार को अंकित करने वाली प्रतिमायें


महावीर सरन जैन का आलेख – खजुराहो : मिथुनाचार को अंकित करने वाली प्रतिमायें

Khajuraho temple
नौवीं से तेरहवीं शताब्‍दी तक बुन्‍देलखण्‍ड में चन्‍द्रवंशी चंदेल राजपूतों ने शासन किया। खजुराहो के शिल्‍प वैभव का श्रीगणेश दसवीं शताब्‍दी के पूवार्द्ध में राजा यशोवर्मन द्वारा कालिंजर का दुर्ग जीतने के बाद खजुराहो में विष्‍णु महालय के निर्माण से हुआ। इसके बाद यशोवर्मन के पुत्र धंग ( 950 - 1002 ) के काल में खजुराहो की पाषाण कला के वैभव का विकास हुआ। उन्‍होंने विशाल शिव मन्‍दिर बनवाकर महादेव वैद्‌यनाथ के वृहद लिंग की स्‍थापना की। धंग के उपरान्‍त उसके उत्‍तराधिकारी विद्‌याधर हुए जिनका उल्‍लेख मुस्‍लिम पर्यटक इब्‍नुल अतीर ने ‘ बिदा ' नाम से किया है। इतिहास से यह जानकारी प्राप्‍त होती है कि सन्‌ 1022 ईस्‍वी में महमूद गज़्‍ानवी ने विद्‌याधर से कालिंजर के दुर्ग की माँग की थी। इसी काल में महमूद गज़्‍ानवी के साथ आए अबू रिहान अल बरूनी ने जेजाहती ( बुन्‍देलखण्‍ड ) की राजधानी के रूप में खजुराहो का उल्‍लेख किया। विद्‌याधर के काल में खजुराहो के कला शिल्‍प ने मिथुन युग्‍मों के भावपूर्ण अंकन का कीर्तिमान स्‍थापित किया।
इस काल में दाम्‍पत्‍य जीवन की युगल रूप में मैथुनी लौकिक चेष्‍टाओं एवं भावाद्रेकों को शरीर के सहज एवं अनिवार्य धर्म के रूप में स्‍वीकृति एवं मान्‍यता प्राप्‍त थी। यह काल भारतीय तंत्र साधना की चरम परिणति एवं उत्‍कर्ष का काल था जिसमें साधक सम्‍पूर्ण सृष्‍टि की आनन्‍दमयी विश्‍व वासना से प्रेरित, संवेदित एवं उल्‍लसित रूप में प्रतीति एवं अनुभूति करता है। यह वह काल था जिसमें ‘ काम ' को हेय दृष्‍टि से नहीं देखा जाता था अपितु इसे जीवन के लिए उपादेय एवं श्रेयस्‍कर माना जाता था। समर्पण भाव से अभिभूत एकीभूत आलिंगन के फलीभूत पृथकता के द्वैत भाव को मेटकर तन - मन की एकचित्‍तता, मग्‍नता एवं एकात्‍मता में अस्‍तित्‍व के हेतु भोग से प्राप्‍त ‘ कामानन्‍द ' की स्‍थितियों को पाषाण खंडों में उत्‍कीर्ण करने वाले नर - नारी युग्‍मों के कलात्‍मक शिल्‍प वैभव को चरम मानसिक आनन्‍द करने का हेतु माना गया। यही कारण है कि इस प्रकार के मिथुन युग्‍मों का शिल्‍पांकन न केवल खजुराहो अपितु कोणार्क, भुवनेश्‍वर एवं पुरी आदि अनेक देव मन्‍दिरों में हुआ।
पाश्‍चात्‍य विचारणा में नर - नारी के दैहिक मिलन को ही सेक्‍स, काम, प्रेम का आधार माना गया है। प्रेम शरीर से ही आरम्‍भ होता है। शरीर ही प्रेम की जन्‍मभूमि है। जिन पाश्‍चात्‍य चिन्‍तकों ने ‘सेक्‍स' पर विचार किया है उनमें निम्‍नलिखित चिन्‍तकों के नाम अधिक महत्‍वपूर्ण हैं -
1.सिग्‍मंड फ्रायड ( 1856 - 1939 )
2.डी.एच.लारेंस ( 1885 - 1930 )
3.अल्‍फ्रेड चार्ल्‍स किंजी ( 1894 - 1956 )
4.माइकेल फकोल्‍ट ( 1929 - 1984 )
पाश्‍चात्‍य चिन्‍तकों के सेक्‍स सम्‍बंधी चिन्‍तन का सार यह है कि सेक्‍स नर नारी का शारीरिक मिलन है, सेक्‍स दैहिक, सांसारिक एवं स्‍थूल कर्म है, सेक्‍स नर नारी के बीच रुधिर का संवाद है अथवा रुधिर की ऊष्‍मा से परिणत सहज सम्‍भोग है। सम्‍भोग की सहज वृत्‍ति से भयभीत होना, सम्‍भोग की सहज वृत्‍ति से पलायन करना, सम्‍भोग की सहज वृत्‍ति से विमुख होना अस्‍वास्‍थकर है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सेक्‍स सम्‍बंधी पाश्‍चात्‍य चिन्‍तन कामाकुल एर्न्‍द्रिय संवेगों की शारीरिक वास्‍तविकता के चारों ओर चक्‍कर लगाता है।
भारतीय चिन्‍तन में ‘काम' को उसके मूल स्‍वरूप में स्‍वीकार किया गया है एवं उसे सम्‍मान भी दिया गया है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की चार उपलब्‍धियों में से एक उपलब्‍धि ‘काम' भी है किन्‍तु उसका स्‍थान धर्म एवं अर्थ के बाद है तथा काम ही जीवन की मंजिल नहीं है, उसकी एकान्‍तिक सत्‍ता नहीं है, काम से मोक्ष की दिशा में उन्‍मुख होना है। धर्म से विवेक प्राप्‍त होता है, संयम प्राप्‍त होता है, दायित्‍व बोध होता है, कर्तव्‍य पालन होता है। अर्थ व्‍यक्‍ति को पुरुषार्थी, सम्‍पन्‍न, समर्थ, सक्षम बनाता है। इसके बाद ही गार्हस्‍थ जीवन का विधान है जिसमें पुरुष एवं स्‍त्री के बीच प्रजनन के पावन उद्‌देश्‍य से मर्यादित काम का प्रेम में पर्यवसान होता है। प्रेम प्रसंगों के गति पथ की सीमा शरीर पर आकर रुक नही जाती, शरीर के धरातल पर ही निःश्‍ोष नहीं हो जाती अपितु प्रेममूलक एर्न्‍द्रिय संवेगों की भावों में परिणति और भावों का विचारों में पर्यवसान तथा विचारों एवं प्रत्‍ययों का पुनः भावों एवं संवेगों में रूपान्‍तरण - यह चक्र चलता रहता है। काम ऐन्‍द्रिय सीमाओं से ऊपर उठकर अतीन्‍द्रिय उन्‍नयन की ओर उन्‍मुख होता है। प्रेम शरीर में जन्‍म लेता है लेकिन वह ऊर्ध्‍व गति धारण कर प्रेमी प्रेमिका के मन के आकाश की ओर उड्‌डीयमान होता है।
भारतीय पौराणिक मान्‍यता के अनुसार काम ही कामदेव हैं और उनकी पत्‍नी रति हैं। काम और रति के सहयोग से संसृति का आकार बनता है। ये दोनों सृष्‍टि के पूर्व विद्‌यमान थे। इन्‍हीं से सृष्‍टि के समस्‍त पदार्थ उत्‍पन्‍न हुए। प्रश्‍नोपनिषद्‌ में वर्णित है कि कात्‍यायन कबंधी के आचार्य पिप्‍पलाद से यह प्रश्‍न करने पर कि सृष्‍टि में जो कुछ दृष्‍टिगोचर है वह आदि में किससे उत्‍पन्‍न हुआ आचार्य ने उत्‍तर दिया -
तस्‍मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः।
स तपोऽतप्‍यत स तपस्‍तप्‍त्‍वा स मिथुनमुत्‍पादयत।
रयिं च प्राणं चेत्‍येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्‍यत इति।
( अधीश्‍वर प्रजापति को जब प्रजा उत्‍पन्‍न करन की कामना हुई तो उन्‍होने तप किया। तप के बाद उन्‍होंने ‘मिथुन' - द्वित्‍व, युग्‍म, जोड़ा - उत्‍पन्‍न किया। यह मिथुन रयि = रति एवं प्राण = काम है। यही मेरी विविध प्रकार की प्रजा उत्‍पन्‍न करेंगे। ) काम प्राण शक्‍ति एवं रयि रति शक्‍ति के प्रतीक हैं।
भारतीय साधना का यह वैशिष्‍ट्‌य है कि यह काम का पर्यवसान मोक्ष में मानती है। कामाध्‍यात्‍म काम = भोग एवं अध्‍यात्‍म = मोक्ष का एकीकरण है जो सिद्धों का मार्ग है। भारतीय तंत्र साधना का सार है कि रति के आनन्‍द से, कामानन्‍द से, संभोग के आनन्‍द से ब्रह्मानन्‍द की प्राप्‍ति सम्‍भव है। इसके लिए तांत्रिक योग का आश्रय लेते हैं जिसका फलितार्थ होता है कि साधारण अवस्‍था में तो जगत के जीव जन्‍तु अधोलिंग ही रहते हैं, कुण्‍डलिनी शक्‍ति के प्रबुद्‌ध होने पर ये ऊर्ध्‍वलिंग के रूप में आ सकते हैं अर्थात्‌ कुण्‍डलिनी शक्‍ति के उद्‌बोधन के बिना जीव की ऊर्ध्‍वगति नहीं हो सकती।
खजुराहो में मिथुनाचार को अंकित करने वाली विभिन्‍न प्रतिमाओं के कलात्‍मक बोध से यह प्रतीति होती है कि ये प्रतिमायें नर नारी के दैहिक मिलन की विभिन्‍न भंगिमाओं का जीता जागता अंकन ही नहीं हैं, जीवन के उत्‍साह, उछाह, उमंग, उल्‍लास, कर्मण्‍यता, जीवंतता, आशावाद, प्रेरणा एवं सक्रियता की अनुपम उत्‍प्रेरक कला कृतियाँ भी हैं।
जिनका मन विषय वासना से लीन हे, काम कुंठाओं से ग्रसित है उन्‍हें ये पाषाण प्रतिमायें गर्हित, अश्‍लील, कुत्‍सित नजर आती हैं मगर सिद्ध साधकों को ये मैथुनाचार में रत शिव शक्‍ति के द्वैत से अद्वैत की ओर उन्‍मुख होने वाली मनः स्‍थिति की प्रतीक प्रतीत होती हैं। सहज एवं स्‍वस्‍थ्‍य चित्‍त वाले गुणग्राहक एवं कलाप्रेमी का येे प्रतिमायें भोग एवं प्रेम से उपलब्‍ध परितुष्‍टि एवं परितृप्‍ति तथा प्रशांत एवं एकाग्रचित्‍तता की सौन्‍दर्यपूर्ण कलात्‍मक अभिव्‍यक्‍तियाँ लगती हैं। एक स्‍वस्‍थ एवं तटस्‍थ द्रष्‍टा को भी मैथुनाचार में रत प्रतिमाओं के मुखमंडल पर असंयमित वासना की कुरूपता एवं पाशविकता नजर नहीं आती अपितु उसे इन प्रतिमाओं के मुखमंडल पर अखंड एवं अविचल शान्‍ति, सुखप्रदायक परितृप्‍ति एवं संतुष्‍टि तथा भावपूर्ण प्रसन्‍नता एवं मुदिता अवलोकित होती है।
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प्रोमहावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्‍त निदेशक, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान)
123, हरिएन्‍कलेव, चांदपुर रोड, बुलन्‍दशहर - 203001

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