माहिर रतलामी की ग़ज़लें
हज़ार गम थे मेरी ज़िंदगी अकेली थी
खुशी जहान की मेरे वास्ते पहेली थी
वो आज बच के निकलते हैं मेरे साए से
की मैं ने जिन के लिए गम की धूप झेली थी
जुदा हुई ना कभी मुझ से गर्दिश-ए-दौरां
मेरी हयात की बचपन से ये सहेली थी
चढ़ा रहे हैं वो ही आज आस्तीन मुझ पर
कि जिन की पीठ पे कल तक मेरी हथेली थी
अब उन की क़ब्र पे जलता नहीं दिया कोई
कि जिन की दहर में रोशन बहुत हवेली थी
वो झुक के फिर मेरी तुरबत पे कर रहे हैं सलाम
इसी अदा ने तो "माहिर" की जान ले ली थी
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यूं दोस्ती के नाम को रुसवा ना कीजिए
तर्क-ए-ता'अल्लुक़ात की चर्चा ना कीजिए
जुर्म-ओ-सितम का पास भी उलफत में शर्त है
पलकों को आँसुओं से भिगोया ना कीजिए
ऐसा ना हो उम्मीद से रिश्ता ही टूट जाए
हर रोज़ मुझसे वादा-ए-फर्दा ना कीजिए
हमदर्द जिस को अपना समझते रहे हैं आप
उस का ही ज़िंदगी में भरोसा ना कीजिए
"माहिर" वाफ़ुर-ए-गम से ना घबराए कभी
खुद्दारी-ए-हयात को रुसवा ना कीजिए
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