Tuesday, December 14, 2010

ग़ज़लें माहिर रतलामी की ग़ज़


माहिर रतलामी की ग़ज़लें

art8
हज़ार गम थे मेरी ज़िंदगी अकेली थी
खुशी जहान की मेरे वास्ते पहेली थी

वो आज बच के निकलते हैं मेरे साए से
की मैं ने जिन के लिए गम की धूप झेली थी

जुदा हुई ना कभी मुझ से गर्दिश-ए-दौरां
मेरी हयात की बचपन से ये सहेली थी

चढ़ा रहे हैं वो ही आज आस्तीन मुझ पर
कि जिन की पीठ पे कल तक मेरी हथेली थी

अब उन की क़ब्र पे जलता नहीं दिया कोई
कि जिन की दहर में रोशन बहुत हवेली थी

वो झुक के फिर मेरी तुरबत पे कर रहे हैं सलाम
इसी अदा ने तो "माहिर" की जान ले ली थी
---

यूं दोस्ती के नाम को रुसवा ना कीजिए
तर्क-ए-ता'अल्लुक़ात की चर्चा ना कीजिए

जुर्म-ओ-सितम का पास भी उलफत में शर्त है
पलकों को आँसुओं से भिगोया ना कीजिए

ऐसा ना हो उम्मीद से रिश्ता ही टूट जाए
हर रोज़ मुझसे वादा-ए-फर्दा ना कीजिए

हमदर्द जिस को अपना समझते रहे हैं आप
उस का ही ज़िंदगी में भरोसा ना कीजिए

"माहिर" वाफ़ुर-ए-गम से ना घबराए कभी
खुद्दारी-ए-हयात को रुसवा ना कीजिए
----

No comments:

Post a Comment

पूज्य हुज़ूर का निर्देश

  कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...