Sunday, December 12, 2010

हिंदी के प्रसार में मीडिया की भूमिका


हिंदी के प्रसार में मीडिया की भूमिका

सुभाष सेतिया, पूर्व समाचार निदेशक, आकाशवाणी
आज से 60 वर्ष पूर्व 14 सितंबर, 1949 को देवनागरी में लिखी जाने वाली हिंदी को भारत की राजभाषा स्वीकार किया गया था। इसलिए हर वर्ष 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि हिंदी दिवस पर होने वाले भव्य और ख़र्चीले आयोजनों तथा राजभाषा कानून लागू किए जाने के बावजूद हिंदी सचमुच केंद्र की राजभाषा बन गई है किंतु यह तथ्य आज सभी स्वीकार करते हैं कि हिंदी अब व्यावहारिक तौर पर इस देश की संपर्क भाषा बन चुकी है। अब तो भारत के साथ संपर्क रखने के लिए हिंदी की अनिवार्यता विदेशी सरकारें भी महसूस कर रही हैं। इसलिए अमरीका, चीन, यूरोप तथा अन्य प्रमुख देशों में हिंदी के अध्ययन की व्यवस्था की जाने लगी है। विदेशों से बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं केंद्रीय हिंदी संस्थान, विभिन्न विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में हिंदी पढने के लिए आते हैं।
 
हाल में आम चुनाव के बाद नयी सरकार के मंत्रियों ने सपथ ली तो पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्य मेघालय से निर्वाचित सबसे कम उम्र की मंत्री सुश्री अगाथा संगमा ने हिंदी में सपथ लेने में गौरव महसूस किया। उनके इस निर्णय पर सपथ ग्रहण समारोह में मौजूद अन्य मंत्रियों व नेताओं ने तालियां बजाकर अपना समर्थन व्यक्त किया। मेघालय वह राज्य है जिसने अंग्रेज़ी को अपनी राजभाषा घोषित किया था। वर्ष 1960 और 1970 के दशकों में दक्षिण के जिन राज्यों में हिंदी के विरूद्ध आंदोलन चले थे, अब उन राज्यों के नेता हिंदी में बोलने को आतुर दिखाई देते हैं। इसके अलाव विभिन्न विश्वविद्यालयों हिंदी विषय को लेकर बीए-एमए, करने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।
 
उधोग और व्यापार के क्षेत्र में, जहां भारतीय भाषाओं के प्रयोग की पूर्ण उपेक्षा की जाती थी, अब हिंदी सम्मानजनक स्थान प्राप्त करती जा रही है। रेडियो, टीवी तथा पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी में विज्ञापन देने की होड़ लगी रहती है। इन तथ्यों के देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी को देशव्यापी स्वीकार्यता मिल चुकी है और वह समय दूर नहीं जब हिंदी पूर्ण रूप से भारत की एकमात्र संपर्क भाषा बन जाएगी।
 
हम सब जानते हैं कि भारत की संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में हिंदी के विकास की प्रक्रिया संविधान बनने के बहुत पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही शुरू हो चुकी थी। सच तो यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल हिंदी भाषी नेताओं ने नहीं बल्कि महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, राजगोपालाचारी और सुभाषचन्द्र बोस सरीखे गैर-हिंदी भाषी लोगों की ओर से की गई। महात्मा गांधी देशभर में अपने भाषण हिंदी या हिंदुस्तानी में ही दिया करते थे। सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की तो विभिन्न राज्यों के सैनिकों को जोड़ने का काम हिंदी के माध्यम से ही किया। गांधीजी ने आज़ादी से पहले ही विभिन्न अहिंदी भाषी राज्यों, विशेषकर दक्षिण भारत में हिंदी प्रचारिणी सभाएं बनाईं। इन सभाओं के माध्यम से हज़ारों हिंदीसेवी तैयार हुए जो देशभक्ति की भावना से हिंदी का प्रचार-प्रसार और शिक्षण करते थे। किंतु आज के संदर्भ में देखें तो हिंदी के प्रचार-प्रसार में सबसे अधिक योग मीडिया यानी पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो-टेलीविज़न का रहा है।
 
एक समय था जब पढ़-लिखे होने का मतलब था अंग्रज़ी भाषा का ज्ञान होना। इसलिए आज़ादी के समय बड़े या तथाकथित राष्ट्रीय समाचार पत्र अंग्रेज़ी मे ही छपते थे। किंतु शिक्षा और साक्षरता के प्रसार की दिशा मे किए गए प्रयासों के फलस्वरूप यह अवधारणा बदलने लगी तथा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अख़बार पढ़ने वाले लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा होने लगा। यह प्रक्रिया दुतरफा चली। एक ओर जहां साक्षरता दर बढ़ने से हिंदी पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने के इच्छुक लोगों की संख्या में वृद्धि हुई, वहीं हिंदी अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ने से हिंदी के बोलचाल और प्रयोग में बढ़ोतरी हुई। हिंदी अखबारों ने नये-नये प्रयोग किए और समाचार को औपचारिकता और स्टीरियोटाइप के घेरे से निकालकर उसे स्थानीय रंगत तथा रोचकता प्रदान की। ज़िला स्तर के विशेष संस्करण निकलने से अख़बार पढ़ना केवल उच्च शिक्षित वर्ग ही नहीं बल्कि मामूली पढ़-लिखे लोगों का भी शौक बन गया। आज हालत यह है कि आमलोगों के एकत्र होने के किसी भी स्थान पर अंग्रेज़ी अख़बार गायब हो गए हैं और ऐसे हर स्थान या केंद्र पर हिंदी अख़बार ही पढ़ने को मिलते हैं। यही बात पत्रिकाओं के बारे में भी कही जा सकती है। अंग्रेज़ी की सभी प्रमुख समाचार पत्रिकाएं अपने हिंदी संस्करण भी निकाल रहीं हैं जो काफ़ी लोकप्रिय हुई हैं। इसके अलावा हल्की-फुल्की सामाग्री देने वाली पत्रिकाओं की भरमार है और इसमें तो कुछ पत्रिकाएं लाखों की संख्या में छपती है। भले ही गंभीर विषयों पर हिंदी पत्रिकाएं कम निकलती हैं, किंतु सामान्य ज्ञान, फ़िल्म, फ़ैशन, स्वास्थ, साहित्य, पर्यटन, विज्ञान कथा-कहानियां जैसे विषयों पर बहुत अच्छी पत्रिकाएं हिंदी में निकलती हैं और खूब पढ़ी जाती हैं। बच्चों और महिलाओं की हिंदी पत्रिकाएं विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। ज़ाहिर है कि ये सभी पत्र-पत्रिकाएं बिना शोर मचाए हिंदी भाषा को गांव-गांव तक लोकप्रिय बना रही हैं।
 
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को सर्वस्वीकार्य बनाने में रेडियो की उल्लेखनीय भूमिका रही है। आकाशवाणी ने समाचार, विचार, शिक्षा, समाजिक सरोकारों, संगीत, मनोरंजन आदि सभी स्तरों पर अपने प्रसारण के माध्यम से हिंदी को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इसमें हिंदी फ़िल्में और फ़िल्मी गीतों का विशेष स्थान रहा है। हिंदी फ़िल्मी गीतों की लोकप्रियता भारत की सीमाओं को पार कर रुष, चीन और यूरोप तक जा पहुंची। आकाशवाणी की विविध भारती सेवा तथा अन्य कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रसारित फ़िल्मी गानों नें हिंदी को देशभर के लोगों की ज़बान पर ला दिया। हिंदी को देशव्यापी मान्यता दिलाने में फ़िल्मों की भी महती भूमिका रही है किंतु फ़िल्मों से अधिक लोकप्रिय उनके गीत रहे हैं जिन्हें जन-जन तक पहुंचाने का काम आकाशवाणी ने किया। अब वही काम निज़ी एफएम चैनल कर रहे हैं। एफएम चैनल हल्के-फुल्के कार्यक्रमों, वाद-संवाद और हास्य- प्रहसन के ज़रिये हिंदी का प्रसार कर रहे हैं। इस समय आकाशवाणी के 225 केंद्रों और 361 ट्रांसमीटरों के साथ-साथ लगभग 400 एफएम और सामुदायिक रेडियो चैनल प्रसारण कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर चैनल हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं।
 
रेडियो प्रसारण में हिंदी के महत्व को इसी प्रकरण से समझा जा सकता है कि जब मुंबई में एफएम स्टेशनों के लाइसेंस दिए गए तो पहले आधे स्टेशन अंग्रेज़ी प्रसारण के लिए निर्धारित थे किंतु कुछ ही महीनों में वे भी हिंदी में प्रसारण करने लगे क्योंकि अंग्रज़ी श्रोता बहुत कम थे। मनोरंजन के अलावा आकाशवाणी के समाचार, खेल कार्यक्रम, प्रमुख खेल प्रतियोगिताओं का आंखों देखा हाल तथा किसानों, मजदूरों और बाल व महिला कार्यक्रमों ने हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने में बहुत बड़ा योग दिया है और आज भी दे रहे हैं।
 
मीडिया का सबसे मुखर, प्रभावशाली और आकर्षक माध्यम टेलीविज़न माना जाता है। टेलीविज़न श्रव्य के साथ-साथ दृश्य भी दिखाता है इसलिए यह अधिक रोचक है। भारत में अपने आरंभ से लगभग 30 वर्ष तक टेलीविज़न की प्रगति धीमी रही किंतु वर्ष 1980 और 1990 के दशक में दूरदर्शन ने राष्ट्रीय कार्यक्रम और समाचारों के प्रसारण के ज़रिये हिंदी को जनप्रिय बनाने में काफी योगदान किया। वर्ष 1990 के दशक में मनोरंजन और समाचार के निज़ी उपग्रह चैनलों के पदार्पण के उपरांत यह प्रक्रिया और तेज हो गई। रेडियो की तरह टेलीविज़न ने भी मनोरंजन कार्यक्रमों में फ़िल्मों का भरपूर उपयोग किया और फ़ीचर फ़िल्मों, वृत्तचित्रों तथा फ़िल्मों गीतों के प्रसारण से हिंदी भाषा को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने के सिलसिले को आगे बढ़ाया। टेलीविज़न पर प्रसारित धारावाहिक ने दर्शकों में अपना विशेष स्थान बना लिया। सामाजिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक तथा धार्मिक विषयों को लेकर बनाए गए हिंदी धारावाहिक घर-घर में देखे जाने लगे। रामायण, महाभारत हमलोग, भारत एक खोज जैसे धारावाहिक न केवल हिंदी प्रसार के वाहक बने बल्कि राष्ट्रीय एकता के सूत्र बन गए। देखते-ही-देखते टीवी कार्यक्रमों के जुड़े लोग फ़िल्मी सितारों की तरह चर्चित और विख्यात हो गए। समूचे देश में टेलीविज़न कार्यक्रमों की लोकप्रियता की बदौलत देश के अहिंदी भाषी लोग हिंदी समझने और बोलने लगे।
 
‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे कार्यक्रमों ने लगभग पूरे देश को बांधे रखा। हिंदी में प्रसारित ऐसे कार्यक्रमों में पूर्वोत्तर राज्यो, जम्मू-कश्मीर, और दक्षिणी राज्यों के प्रतियोगियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इस तथ्य को दृढ़ता से उजागर किया कि हिंदी की पहुंच समूचे देश में है। विभिन्न चैनलों ने अलग-अलग आयु वर्गों के लोगों के लिए आयोजित प्रतियोगिताओं के सीधे प्रसारणों से भी अनेक अहिंदीभाषी राज्यों के प्रतियोगियो ने हिंदी में गीत गाकर प्रथम और द्वित्तीय स्थान प्राप्त किए। इन कार्यक्रमों में पुरस्कार के चयन में श्रोताओं द्रारा मतदान करने के नियम ने इनकी पहुंच को और विस्तृत कर दिया। टेलीविज़न चैनलों पर प्रसारित किए जा रहे तरह-तरह के लाइव-शो में भाग लेने वाले लोगों को देखकर लगता ही नहीं कि हिंदी कुछ ख़ास प्रदेशों की भाषा है। हिंदी फ़िल्मों की तरह टेलीविज़न के हिंदी कार्यक्रमों ने भी भौगोलिक, भाषाई तथा सांस्कृतिक सीमाएं तोड़त दी हैं।
 
हिंदी समाचार भी सबसे अधिक दर्शकों द्वारा देखे-सुने जाते हैं। हालांकि इन दिनों हिंदी समाचार चैनल समाचारों के स्तरीय प्रसारण की बजाय अविश्वश्नीय और सनसनीखेज ख़बरें प्रसारित करने के लिए आलोचना झेल रहे हैं किंतु फिर भी टीआरपी के मामले में वे अंग्रेज़ी चैनलों से कहीं आगे हैं। इन आलोचनाओं के बावजूद हिंदी ख़बरिया चैनलों की संख्या लागातार बढ़ती जा रही है। जून 2009 में 22 नये चैनलों को प्रसारण की अनुमति मिली जिनमें से अधिकांश चैनल हिंदी के हैं और लगभग सभी ने ख़बरे प्रसारित करने की अनुमति मांगी है। इस समय देश से अपलिंक होने वाले चैनलों की संख्या 357 है जिनमें से 197 ख़बरिया चैनल हैं। इनमें आधे से अधिक चैनल हिंदी कार्यक्रम या समाचार प्रसारित करते हैं। विदेशों से अपलिंग होने वाले चैनलों की संख्या 60 है। इस संदर्भ में यह जानना दिलचस्प होगा कि स्टार, सोनी और ज़ी जैसे विदेशों से अपलिंक होने वाले चैनलों ने जब भारत में प्रसारण प्रारंभ किया तो उनकी योजना अंग्रेज़ी कार्यक्रम प्रसारित करने की थी, किंतु बहुत जल्दी उन्होने महसूस किया कि वे हिंदी कार्यक्रमों के जरिये ही इस देश में टिक सकते हैं और वे हिंदी चैनलों में परिवर्तित होते गए। समाचार प्रसारण में हिंदी के बढ़ते महत्व का ही प्रताप है कि रेडियो और टेलीविज़न की ख़बरों के लिए सभी विशेषज्ञ और नेता अपने साउंडबाइट, टूटी-फूटी और अंग्रेज़ी मिश्रित ही सही, हिंदी में ही देने की कोशिश करते हैं।
 
जब इंटरनेट ने भारत में पांव पसारने शुरू किए तो यह आशंका व्यक्त की गई थी कि कंप्यूटर के कारण देश में फिर से अंग्रेज़ी का बोलबाला हो जाएगा। किंतु यह धारणा निर्मूल साबित हुई है और आज हिंदी वेबसाइट तथा ब्लॉग न केवल धड़ल्ले से चले रहे हैं बल्कि देश के साथ-साथ विदेशों के लोग भी इन पर सूचनाओं का आदान-प्रदान तथा चैटिंग कर रहे हैं। इस प्रकार इंटरनेट भी हिंदी के प्रसार में सहायक होने लगा है।
 
हिन्दी को लेकर कुछ लोग यह शिकायत करते हैं कि मीडिया व इंटरनेट के कारण हिंदी भाषा विकृत हो रही है और इसका मूल स्वरूप नष्ट हो रहा हैं। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा एक बहती नदी है और जब उसका अधिक इस्तेमाल होगा तो उसके स्वरूप में कुछ-न-कुछ बदलाव अवश्य आएगा। वास्तव में यह बदलाव विकार नहीं संस्कार है। अक़सर कहा जाता है कि मीडिया में इस्तेमाल होने वाली भाषा हिंदी नहीं ‘हिंग्लिश’ है। इसी तर्क़ के आधार पर देखा जाए तो आज अंग्रेज़ी में भी हिंदी का खूब समावेश हो चुका है। अंग्रेज़ी मीडिया और विज्ञापनों में हिंदी मुहावरों, शब्दों और उक्तियों का खुलकर प्रयोग होता है। यदि मीडिया की भाषा परिनिष्ठित हिंदी ही होती तो क्या इतने अधिक अहिंदी भाषी लोग रेडियो या टीवी के कार्यक्रमों और समाचारों में अपनी बात हिंदी में रख पाते ? हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उसमें स्वच्छंदता लाना आवश्यक है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि जब भी कोई भाषा पुराने तटबंधो को तोड़कर नये क्षेत्र में प्रवेश करती है तो शुद्धतावादी तत्व उससे चिंतित हो जाते हैं। सच तो यह है कि हिंदी इस समय स्वीकार्यता के राजमार्ग पर सरपट दौड़ रही है और हिंदी अश्वमेध के घोड़ों को रोक पाना किसी के बस में नहीं है। मीडिया इस दौड़ को और गतिशील बना रहा है। आज का सच यह है कि जिस तरह हिंदी को अपने प्रसार के लिए मीडिया की ज़रूरत है उसी तरह मीडिया को अपने विस्तार के लिए हिंदी की आवश्यकता हैं।
(योजना सितंबर 2010 से साभार)
 
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