दिल में फिर दर्द उठा
फिर कोई भूली हुई याद
छेड़ती आई पुरानी बात
दिल को डंसने लगी गुज़री हुई जालीम रात
दिल में फिर दर्द उठा
फिर कोई भूली हुई याद बन के नश्तर
रंगे अहसास में उतरी ऐसे
मौत ने ले के मेरा नाम पुकारा जैसे
फ़िल्म जगत में मीनाकुमारी ने एक सफल अभिनेत्री के रूप में कई दशकों तक अपार लोकप्रियता प्राप्त की, लेकिन वह केवल उच्चकोटि की अभिनेत्री ही नहीं एक अच्छी शायर भी थीं। अपने दर्द, ख़्वाबों की तस्वीरों और ग़म के रिश्तों को उन्होंने जो जज़्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम लोगों को मालूम है।
उनकी वसीयत के मुताबिक प्रसिद्ध फ़िल्मकार और लेखक गुलज़ार को मीनाकुमारी की २५ निजी डायरियां प्राप्त हुईं। उन्हीं में लिखी नज़्मों, ग़ज़लों और शे’रों के आधार पर गुलज़ार ने मीनाकुमारी की शायरी का यह एकमात्र प्रामाणित संकलन तैयार किया है।
दो शब्द
मैं, इस ‘मैं’ से बहुत डरता हूं।
शायरी ‘मीना जी’ की है, तो फिर मैं कौन ? मैं क्यों ?
मीना जी की वसीयत में पढ़ा कि अपनी रचनाओं, अपनी डायरियों के सर्वाधिकार मुझे दे गई हैं। हालांकि उन पर अधिकार उनका भी नहीं था, शायर का हक़ अपना शे’र-भर सोच लेने तक तो है; कह लेने के बाद उस पर हक़ लोगों का हो जाता है। मीना जी की शायरी पर वास्तविक अधिकार तो उनके चाहनेवालों का है।
और वह मुझे अपने चाहनेवालों के अधिकारों की रक्षा का भार सौंप गई हैं।
यह पुस्तक मेरी उस ज़िम्मेदारी को निभाने का प्रयास है।
गुलज़ार
एक एहसास – मीनाकुमारी
न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन,
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई
मीना जी चली गईं। कहती थीं :
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा
और जाते हुए सचमुच सारे जहान को तन्हा कर गईं; एक दौर का दौर अपने साथ लेकर चली गईं। लगता है, दुआ में थीं। दुआ खत्म हुई, आमीन कहा, उठीं, और चली गईं। जब तक ज़िन्दा थीं, सरापा दिल की तरह ज़िन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। कहती रहीं :
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता,
धज्जी-धज्जी रात मिली।
जिसका जितना आंचल था,
उतनी ही सौग़ात मिली।।
जब चाहा दिल को समझें,
हंसने की आवाज़ सुनी।
जैसे कोई कहता हो, लो
फिर तुमको अब मात मिली।।
बातें कैसी ? घातें क्या ?
चलते रहना आठ पहर।
दिल-सा साथी जब पाया,
बेचैनी भी साथ मिली।।
समन्दर की तरह गहरा था दिल। वह छलक गया, मर गया और बन्द हो गया, लगता यही कि दर्द लावारिस हो गए, यतीम हो गए, उन्हें अपनानेवाला कोई नहीं रहा। मैंने एक बार उनका पोर्ट्रेट नज़्म करके दिया था उन्हें। लिखा था :
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तांगों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
पढ़कर हंस पड़ीं। कहने लगीं–‘जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?’
उन्हीं का एक पन्ना है मेरे सामने खुला हुआ। लिखा है :
प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छांव की चोटें
छांव में देखे धूप के छाले
अपने अन्दर महक रहा था प्यार–
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे
बाहर से अन्दर का यह सफ़र कितना लम्बा था कि उसे तय करने में उन्हें एक उम्र गुज़ारनी पड़ी। इस दौरान, रास्ते में जंगल भी आए और दश्त भी, वीराने भी और कोहसार भी। इसलिए कहती थीं :
आबलापा१ कोई दश्त२ में आया होगा
वर्ना आंधी में दीया किसने जलाया होगा ?
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१. जिसके पैरों में छाले पड़े हों २. जंगल।
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