Thursday, December 23, 2010

‘टेलीविजन एंकर रिपोर्टर पुण्य प्रसून बाजपेयी


सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जब कोई व्यक्ति टेलीफोन के परदे पर समाचार देख रहा होता है तो उसके जेहन में दो व्यक्ति अहम हो जाते हैं-एंकर और रिपोर्टर। एंकर टेलीवीजन के परदे पर पहले-पहल किसी खबर की सूचना देता है,उसके बारे में बताता है कि घटनाक्रम किस प्रकार घटित हुआ।। वास्तव में किसी महत्वपूर्ण खबर के दौरान दर्शकों के लिए यह मह्तवपूर्ण नहीं होता कि वे कौन-सा चैनल देख रहे हैं, वह महत्त्वपूर्ण खबर जिस भी चैनल पर आ रही होती है दर्शकों का रिमोट उसी पर ठहर जाता है। ऐसे में किसी भी समाचार चैनल के लिए एंकर और रिपोर्टर बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि दर्शकों को चैनल से जोड़ने का काम वही करते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि एंकर और रिपोर्टर हर परिस्थिति को सँभालने में माहिर हों।
पुण्य प्रसून बाजपेयी ‘आजतक’ के प्रमुख एंकर है। पेशे के रूप में एंकर-रिपोर्टर का काम क्या होता है,उसकी भूमिका क्या होती है, उसका काम कितना चुनौतीपूर्ण होता है- पुण्य प्रसून ने इन्हीं पहलुओं को विभिन्न कोणों से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक टी.वी.पत्रकारिता सीखनेवालों के लिए तो उपयोगी है ही, उनके लिए भी बड़े काम की साबित हो सकती है जो इन पेशों की चुनौतियों को जानना-समझना चाहते हैं। यह एक ‘इनसाइटर स्टोरी’ की तरह है।

भूमिका

कैमरा...विडियो कैमरा—यह एक ऐसा शब्द है जो ज़ेहन में आते ही तस्वीरें उभार देता है। चलती...बोलती तस्वीरें। यह एक ऐसी तकनीकी ‘क्रांति’ का प्रतीक है जो बिना खून बहाए सत्ता पर काबिज़ होती है, समूचे समाज की सोच बदल देती है, मानसिकता झकझोर कर रख देती है। समाज में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ न सिर्फ संवाद का तरीका बदल जाता है, बल्कि जब भी किसी शख़्स के बारे में कोई सोचता है या फिर किसी घटना या किसी स्थान को लेकर दिमाग हरकत में आता है तो सबसे पहले घटना/स्थान/व्यक्ति की तस्वीर उभरती है। मसलन फिल्म ‘बैटिल फॉर बर्लिन’ देखते वक़्त सिनेमा स्क्रीन पर आँकड़े उभरते हैं। साढ़े चार लाख लोग मारे गए, 10 लाख से ज्यादा घायल। उसके बाद अलग-अलग देशों के मारे गए लोगों के आँकडें और सिनेमा हॉल के अँधेरे में इन्हीं आँकड़ों पर आवाज गूँजती है....ओह....उफ या इतनी तादाद। लेकिन 9/11 का जिक्र होते ही मरने वालों की संख्या किसी के ज़ेहन में नहीं गूँजती। हर एक की आँखों के आगे 9/11 का दिन एक तस्वीर के तौर पर उभरता है। एक ऐसी तस्वीर जिसने बच्चों ही नहीं बड़े-बुजुर्गों के शरीर में सिहरन पैदा कर दी थी; एक ऐसा खौफ जगा दिया था जो भूलाये नहीं भूलता। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की सवा सौ मंजिली इमारत में यात्रियों से भरे हवाई जहाज का सुसाइड अटैक। यह एक तस्वीर है जो आतंकवाद के वीभत्स रूप का जिक्र होते ही किसी के भी ज़ेहन में उभरेगी ही। तस्वीरों का यह नायाब संसार अचानक तेजी से हमारे समाज के सामने आया है, ऐसे में हर चीज को देखने-परखने, समझने-समझाने में यही तस्वीर हावी हो गई है। शहरी बहुसंख्यक तबके के हर व्यक्ति की जेब में मोबाइल के जरिए कैमरा मौजूद है। शब्दों से कहीं ज्यादा प्रभावी तरीके से तस्वीर भेजकर संवाद की अनोखी भाषा भी इसी दौर में विकसित हुई।

ऐसे में टी.वी. की महत्ता कितनी होगी, यह एक वाजिब-सा सवाल है। सवाल इसलिए क्योंकि हर जेब में कैमरा है और उस कैमरे से चलती-बोलती तस्वीरों को समझने देखने वाला अलग-अलग दिमाग। ऐसे में टी.वी. में दिखाई जाने वाली चलती बोलती तस्वीर क्या मायने रखेगी। याद कीजिए किसी भी घटना को, चाहे ब्लास्ट हो, ट्रेन हादसा, भूकम्प, सुनामी, कुछ भी, हर टी.वी. न्यूज़ चैनल वाला खबरों के बीच अपने दर्शकों से यह गुहार जरूर लगाता है कि संयोग से अगर किसी ने कैमरे या मोबाइल फोन से हादसे की कोई तस्वीर उतारी है तो वह चैनल को जरूर भेजे। यानी टी.वी. न्यूज़ चैनल के पास कोई नायाब कैमरा/तस्वीर नहीं होती, वही सब होता है जिसे कोई सामान्य व्यक्ति भी गाहे-बगाहे ले सकता है। फिर टी.वी. का महत्त्व ? टी.वी. ने दरअसल समाज की इसी सोच को मूर्त रूप दिया है जहाँ संवाद ही नहीं बल्कि किसी भी घटना को बताने के लिए तस्वीर ही पूरी कहानी दिखा देती है। लेकिन टी.वी. न्यूज़ चैनल के पास कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं जो कि तकनीक का सहारा लेती हैं...लेकिन तकनीक नहीं होती। दरअसल मूक तस्वीरें या किसी घटनास्थल पर चिल्ल-पों मचाती आवाज़ों के बीच चलती-फिरती-बोलती तस्वीरें समूची कहानी नहीं कहतीं। इन तस्वीरों को शब्द चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे कोई ‘हीरा’ तब तक बेनूर है जब तक उसे सोने के हार में न जड़ा जाए। हाँ कुछ ‘तस्वीरें’ अपनी कहानी जरूर कहती हैं, यह तस्वीरें ‘कोहिनूर’ होती हैं—जैसे 9/11 की तस्वीर। हकीकत यही है कि टी.वी. न्यूज़ चैनल में हर तस्वीर को शब्दों के जरिये पिरोने का काम एक पूरी टीम करती है।

लेकिन इस टीम में दो शख्स हमेशा होते हैं जिनकी पहचान इतनी ठोस बनती जाती है कि अक्सर किसी खास घटना या खबर को लेकर दर्शक उसी शख़्स को खोजते हैं और रिमोट पर उनकी उँगलियाँ तब तक थिरकती रहती हैं, जब तक वह शख़्स चैनल के पर्दे पर उस खास घटना के बारे में बताता हुआ नहीं मिल जाता। जी, हम बात कर रहे हैं किसी घटना स्थल पर मौजूद उस रिपोर्टर की जो कैमरे में कैद न हो सकी उन परिस्थितियों को बताता है, सरकारी मशीनरी से लेकर आम आदमी की उस पहल और हरकत को बताता है जो कैमरा नहीं देख पाता। उसी वक़्त न्यूज चैनल के स्टूडियो में मौजूद एंकर किसी भी घटना की तस्वीर और रिपोर्टर के बयान को एक ऐसे खाके में ढालता जाता है कि किसी भी घटना में एक तरह की पारदर्शिता आ जाती है। अर्थात दर्शक घटना के आर-पार देखने की स्थिति में आ जाता है। मगर एंकर/रिपोर्टर टी.वी. न्यूज़ चैनल के ऐसे लैंस होते हैं जो किसी भी दर्शक की जेब में रखे कैमरे में जड़े होते हैं, न बाजार में तकनीक के सहारे खोजे जा सकते हैं। यही मायने में सातों दिन/चौबीसों घंटे के न्यूज़ चैनल के युग में एंकर/रिपोर्टर ही मानवीय संवेदना को तकनीक पर टिके न्यूज़ चैनल में जिंदा रखते हैं और दर्शकों को जोड़े रखते हैं। एंकर/रिपोर्टर की सफलता तभी है जब किसी हादसे या घटना का भुक्तभोगी या चश्मदीद भी हादसे/घटना की हकीकत जानने-समझने के लिए न्यूज़ चैनल को स्विच करे और अपने चहेते, भरोसेमंद एंकर/रिपोर्टर की जुबाँ से सच को जानना चाहे। दरअसल इस किताब के हर पन्ने पर उकेरे गए शब्द एंकर/रिपोर्टर को लेकर उस समझ को सामने लाने का प्रयास है जिसे लेकर आम दर्शक ग्लैमर में समा जाते हैं, तो नई पीढ़ी इसी ग्लैमर में खुद को टटोलना चाहती है। यह किताब एक प्रयास है, एंकर/रिपोर्टर का काम करते हुए, एंकर/रिपोर्टर की उस हकीकत को बताने का जिसे कैमरा कभी नहीं दिखाता।

आखिर में बात प्रभात रंजन की जो मुझे शुरू से याद है। प्रभात रंजन की भूमिका शब्दों को कागज पर उकेर एक शक्ल देने की है जो आपके सामने है। प्रभात रंजन की पहचान पत्रकार/पत्रकारिता के अध्यापक की है। लेकिन इस किताब को पढ़ते वक़्त आप महसूस करेंगे कि प्रभात के शब्द आपके साथ खड़े हैं। ऐसे शब्द जो हौवा नहीं बल्कि आपके दोस्त हैं। एक लाइन महेश दत्त के लिए भी जो चक्रव्यूह न रचते तो यह अभिमन्यु भी न होता !

एंकर रिपोर्टर


‘मास्टहेड’ एक ऐसा शब्द है जिसके जुबान पर आते ही जे़हन में किसी अखबार की तस्वीर उभर जाती है। न सिर्फ तस्वीर बल्कि अखबार का मिजाज़ भी। यानी खबरों को पन्नों पर उकेरने की वह सोच जो अलग-अलग ‘मास्टहेड’ के जरिए अलग-अलग हो जाती है। खबरों को कैसे परोसा जाए, उसके ट्रीटमेंट का तरीका क्या होगा—यह किसी भी अखबार के नाम (मास्टहेड) में रहता है। पाठक समझ जाता है। इतना ही नहीं अखबारों का एक अपना प्रतीकचिह्न और स्लोगन भी रहता है, जो उस अखबार की पहचान होता है। मसलन कलम की निब और साथ में लिखा ‘जर्नलिज्म ऑफ करेज’ का मतलब ही है ‘इंडियन एक्सप्रेस’। जब ‘जनसत्ता’ शुरू हुआ तो उसका स्लोगन ही उसकी पहचान बन गई ‘सबकी खबर ले, सबको खबर दे।’ दरअसल यही पहचान खबरों के जरिए भी झलकती है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का प्रतीकचिह्न याद कीजिए। एक-दूसरे की तरफ सूँड़ झुकाकर देखते दो हाथी। ‘मास्टहेड’, ‘प्रतीकचिह्न’ या ‘स्लोगन’ न सिर्फ किसी अखबार को पहचान देने के लिए हैं बल्कि पाठकों के मिजाज़ को अपने साथ जोड़ने का प्रयास भी है।

लेकिन टेलीविजन में न्यूज़ चैनल की पहचान उसका मास्टहेड कतई नहीं होता। क्योंकि खबरों को परोसने जैसा न्यूज़ चैनल में अखबार की तर्ज पर नहीं होता। दरअसल न्यूज़ चैनल उस बहते हुए पानी की तरह है जो न सिर्फ अपना रास्ता अपने बहाव के अनुकूल बनाता है बल्कि पानी का बहाव ही उसकी तेजी, उसका फैलाव, उसकी तरंग सब कुछ तय करता जाता है। किसी तालाब के पानी को एक नज़र में मापा जा सकता है, खँगाला जा सकता है, उसे एक धागे में पिरोया जा सकता है, जो अखबार में सम्भव नहीं। सम्पादक-सम्पादकीय नीति उसकी पहचान है। मगर न्यूज़ चैनल में ऐसा सम्भव नहीं है। टी.वी. के सामने बैठा कोई भी दर्शक चैनल के नाम से कहीं ज्यादा उस वक़्त आ रही खबर के ट्रीटमेंट के अनुसार चलता है। हाथ में रिमोट और रिमोट पर मचलती उँगलियाँ ही न्यूज़ चैनल का सच है। जिस खबर को लेकर रिमोट पर उँगलियाँ थमीं, उस खबर को दिखाने वाले चैनल की वही सफलता है।

टी.वी. चैनल देखनेवाला दर्शक पहले से यह सोचकर नहीं बैठता कि ‘एनडीटीवी’ देखें या ‘आजतक’ देखें या ‘चैनल सेवन’ देखें या इंडिया टी.वी.’ देखें। दर्शकों के लिए खबरें महत्त्व रखती हैं। कम-से-कम भारत में खबरों का प्रोग्रामिंग के जरिए टी.वी. चैनल से जुड़ने की प्रक्रिया नहीं है। क्योंकि ऐसा कोई भी चैनल नहीं है जो अपने आप में सम्पूर्ण हो। इस अर्थ में हर चैनल एक-दूसरे के पूरक की तरह काम करता है। दर्शक को अगर किसी खबर में दिलचस्पी होती है तो वह हर चैनल पर उसे देखता है। चैनल उसकी उँगलियों पर होता है और वह उनको सर्फ करते हुए आगे बढ़ता है। मान लीजिए अच्छे डिस्कशन ‘एनडीटीवी’ पर आते हैं और आप डिस्कशन देखना चाहते हैं तो आप केवल ‘एनडीटीवी’ ही देखें। हो सकता है ‘सीएनबीसी’ पर बहुत अच्छा डिस्कशन आ रहा हो, ‘स्टार’ पर आ रहा हो। आप अगर टी.वी. न्यूज़ के दर्शक हैं तो आप किसी एक चैनल से बँधकर नहीं रह सकते। यह टी.वी. की सच्चाई है। यही वजह है कि न्यूज़ चैनलों ने भी अपने मिज़ाज को दर्शकों से जोड़ने के लिए स्लोगन का सहारा लेना शुरू किया। ‘सबसे तेज’, ‘आपको रखे आगे’, ‘सच दिखाते हैं हम’ आदि हैं तो स्लोगन लेकिन अलग-अलग चैनलों के ‘मास्टहेड’ का काम यही करने लगे हैं। हालाँकि ‘स्लोगन’ चैनल के नाम को पहचान देता है, लेकिन यह खबरों को लेकर या यूँ कहा जाए कि अलग-अलग न्यूज़ चैनल पर आ रही खबरों को अपने स्लोगन के अनुरूप पहचान भी देता है—यह सोचना भी सम्भव नहीं है।

मसलन कहीं कोई घटना हुई। मान लीजिए, बनारस के संकटमोचन मन्दिर परिसर में विस्फोट हो गया है तो स्लोगन के मिज़ाज से दर्शक अगर रिमोट चलाए तो ‘सबसे तेज़’ पर सबसे पहले आएगा। फिर ‘सच दिखाते हैं हम’ के पास जाएगा और ‘आपको रखे आगे’ के पास और उसके बाद आएगा। लेकिन हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। दर्शक की उँगलियाँ सबसे पहले उस न्यूज़ चैनल पर रुकेंगी जहाँ घटना की तस्वीर सबसे पहले उसे दिखाई देगी। वह कोई भी चैनल हो सकता है। कोई से भी तात्पर्य है कि यहाँ भाषा की सीमा भी खत्म होती है। हिन्दी-अंग्रेजी ही नहीं कोई क्षेत्रीय भाषा का चैनल भी अगर तस्वीर सबसे पहले दिखा रहा है और दर्शक की रुचि उस खबर में है तो मानकर चलिए रिमोट के जरिए वह वहाँ पहुँचेगा और वहाँ तब तक रुका रहेगा, जब तक उसकी अपनी भाषा के न्यूज़ चैनल के पास वह तस्वीरें नहीं आ पातीं। यहाँ दो घटनाएँ उदाहरण के लिए काफी हैं। पहली, जयलललिता के निर्देश पर ‘डी.एम.के.’ नेता करुणानिधि को जबरदस्ती पुलिस गिरफ्तार कर ले गई। करुणानिधि के साथ जिस तरह का सुलूक पुलिस ने किया, जितने बेबस करुणानिधि नजर आ गए, साथ में तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री मुरासोली मारन के साथ भी जो हुआ वह सब भारतीय राजनीति की एक अजीबोगरीब त्रासदी थी। यह त्रासदी तस्वीरों के जरिए तमिलनाडु की राजनीति की खुली किताब थी। ‘सन टी.वी.’ पर इसकी तस्वीरें सबसे पहले आईं। समूचे देश ने उसी चैनल के जरिए इस घटना को देखा। यहाँ तक कि हिन्दीभाषी दर्शकों ने भी ‘सन टी.वी.’ ही रिमोट पर दबाया। सुनामी के दौर में भी ऐसा ही कुछ हुआ। दक्षिण भारत के न्यूज़ चैनलों पर सुनामी त्रासदी की तस्वीर सबसे पहले नजर आई। सभी ने उसी के जरिए सुनामी की भयावहता का अन्दाज़ लगाया। तो टी.वी. का सबसे बड़ा सच विजुअल है। विजुअल जिसके पास है वही लीडर है।

लेकिन विजुअल अगर हीरा है, तो उसका महत्त्व तभी है जब उसे सोने के साथ पिरोया जाए या गढ़ा जाए। दरअसल टी.वी. पत्रकारिता के मापदंड विजुअल से शुरू होते हैं। विजुअल किसी भी घटना की अनकही कहानी दिखा तो देते हैं, लेकिन इस कहानी को कहने का काम घटना स्थल पर अगर रिपोर्टर कहता है तो स्टूडियों से एंकर।

इसी कारण टी.वी. में—टी.वी. न्यूज़ में एंकर और रिपोर्टर का महत्त्व काफी ज्यादा होता है क्योंकि जब भी कोई बड़ी घटना हो जाती है तो उस दौरान जो व्यक्ति एंकरिंग कर रहा होता है उसका महत्त्व सबसे ज्यादा होता है। उसका काम उस समय बहुत बड़ा होता है। क्योंकि कोई घटना घटती है तो हो सकता है कि उसकी खबर एजेंसी द्वारा आई हो, गृह मंत्रालय से पता चली हो या किसी और स्रोत से जानकारी मिली हो या हो सकता है किसी ने फोन करके यह सूचना दी हो। यानी इस पूरी प्रक्रिया में आपका संस्थान मैटर नहीं करता। आपके रिपोर्टर से आप संपर्क नहीं कर पा रहे हों, आपके पास विजुअल न हों और जब तक ये सब चीजें आपके पास नहीं आ जातीं उस दौरान एंकर की भूमिका ही सामने रहती है। वही शब्दों के द्वारा उस घटना का खाका खड़ा करता है। अपनी जानकारी के आधार पर दर्शकों को बाँधने का प्रयास करता है। इस तरह के हालात में बस एक एंकर का चेहरा होता है और दूसरा चैनल का नाम होता है और कुछ भी नहीं होता। अगर वह कहीं लड़खड़ता है तो रिमोट पर उँगलियाँ मचलने लगती हैं। लोग चैनल शिफ़्ट कर लेते हैं। यह कहीं नहीं होता कि इस चैनल के जरिए चीज़ों को समझें। दर्शक एंकर के जरिए ही चीज़ों को देखना शुरू कर देते हैं। एंकर ही इस दौर में एक तरह से नीति-निर्धारक हो जाता है।

लेकिन इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में रिपोर्टर की भूमिका बड़ी हो जाती है। वह सारी घटना को किस प्रकार से सामने लाता है, किस तरह से एक्सक्लूजिव पहलू किसी घटना से जुडे ? उसके पास बाइट क्या-क्या हैं ? इन सब चीजों से जुड़कर रिपोर्टर की रिपोर्ट ऐसी बनती है कि दर्शक उसे देखने लगते हैं, नहीं तो दर्शक दूसरे चैनल की तरफ बढ़ जाते हैं। रिपोर्टर एक तरह से समाज के किसी तबके के प्रतिनिधि के तौर पर होता है और उसके माध्यम से लोग अपनी बात सुनना चाहते हैं। इसीलिए चैनलों में एंकर के बाद रिपोर्टर का महत्त्व सबसे ज्यादा होता है। यह किताब भी इसी पहलू पर केन्द्रित है।

एंकर यानी हरफनमौला


‘टेलीविजन’ पर एंकर यानी प्रस्तुतकर्ता को इयान बॉथम की तरह होना चाहिए’—ब्रिटेन के चैनल फोर के एंकर जॉन स्नो ने एक बार अच्छे एंकर की विशेषताओं के बारे में पूछे जाने पर यह बात कही थी। इयान बॉथम इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के हरफनमौला खिलाड़ी थे। लेकिन उन्होंने हरफनमौला की जगह इयान बॉथम के नाम का प्रयोग किया, तो इसके भी कारण हैं। कारण यह है कि इयान बॉथम की ख्याति एक ऐसे खिलाड़ी के रूप में रही है, जो क्रिकेट के महान गेंदबाज, बल्लेबाज, क्षेत्ररक्षक तो थे ही, फुटबाल के खेल में भी उन्होंने अपना जलवा दिखाया था।

स्नो के कहने का मतलब था कि टी.वी. एंकर को हर विषय का थोड़ा-बहुत जानकार होना चाहिए। उसे कार के नए से नए मॉडल की खूबियों का भी जानकार होना चाहिए फैशन के नए ट्रेंड्स के बारे में भी पता होना चाहिए। यानी उसे पता होना चाहिए कि आजकल कॉलेज जानेवाले युवाओं की दिलचस्पी किन नए-नए पहलुओं में है। सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव पर उसकी नज़र होनी चाहिए। सबसे बढ़कर राजनीति से जुड़े विषयों में उसे पारंगत होना चाहिए। अपने समय, अपने समाज पर उसकी पकड़ जितनी मजबूत होगी, एंकर के रूप में उसकी विश्वनीयता उतनी ही अधिक होगी। क्योंकि टीवी के माध्यम से मिलनेवाली सूचनाओं का वही स्रोत होता है।

दुनिया भर में लड़ाई छोटे परदे से दर्शकों को बांधे रखने की होती है। कहने का मतलब है कि दुनिया भर के टेलीविजन चैनलों के मालिकों में न केवल अधिक से अधिक विज्ञापनदाताओं को आकर्षित कर मुनाफा कमाने की होड़ होती है, बल्कि उससे भी अधिक इस बात को लेकर होती है कि कैसे अधिक अधिक से अधिक दर्शकों को टेलीविजन के छोटे परदे से बाँधा जा सके। ज़ाहिर है, इस सारी प्रक्रिया में टी.वी. और उसे देखनेवाले दर्शकों के बीच सेतु की भूमिका निभानेवाले एंकर की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

यही कारण है कि दुनिया भर के टी.वी चैनलों में, चाहे वे समाचारों से जुड़े चैनल हों या मनोरंजन या खेल से जुड़े हों, दर्शक-संख्या में बढ़ोत्तरी को ध्यान में रखते हुए एंकरिंग को लेकर लगातार प्रयोग होते रहते हैं। भारत में अभी ऐसी स्थिति तो नहीं आई है, लेकिन संसार के अनेक देशों में टी.वी. चैनलों पर तरह-तरह के प्रयोग आजमाए जाते रहे हैं। अगर आपको भारत के टी.वी. चैनलों पर मॉडलनुमा एंकरों की भरमार को लेकर चिंता हो रही है तो घबराइए मत, पश्चिमी देशों में तो समाचारों के प्रस्तुतीकरण तक में ‘टॉपलेस एंकरिंग’ या अर्धनग्नावस्था में समाचारों की प्रस्तुति तक की जा चुकी है।
एंकर जॉन स्नो की मानें तो उनका कहना है कि भले देखने में एंकर का काम बड़ा आकर्षक और आसान दिखाई देता हो, लेकिन वास्तव में यह काफी मुश्किल काम होता है। उसका मानना है कि टी.वी पर दो तरह के एंकर दिखाई देते हैं। एक तो वे होते हैं जिनमें चीज़ों की बड़ी गहरी समझ होती है, पत्रकारिता पर उनकी पैनी नज़र होती है, और सबसे बढ़कर जो गुण उनमें पाया जाता है वह होता है उनका बड़ी ही सहजता से टी.वी. स्क्रीन पर अपनी भूमिका निभाना। वे सब कुछ इतना सहज, इतना विश्वसनीय बना देते हैं कि लगता ही नहीं कि वे किसी कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता हैं। इसके विपरीत दूसरे प्रकार के एंकर सहज चीज़ों को भी असहज बना देते हैं, जिनको देखते-सुनते हुए इस बात का बराबर अहसास होता रहता है कि वे कुछ ‘प्रस्तुत’ कर रहे हैं, उनकी प्रस्तुति की शैली इस तरह की होती है कि सहज रूप से विश्वसनीय दिखाई देनेवाली बात भी अविश्वसनीय लगने लगती है।

इसके अलावा, एंकरिंग का क्षेत्र अपने आप में इतना विस्तृत होता है कि यह कह पाना भी मुश्किल होता है कि आखिर वे क्या गुण होते हैं या हो सकते हैं जो किसी व्यक्ति में एक सफल एंकर बनने के लिए आवश्यक माने जा सकते हैं। कुछ इसलिए सफल एंकर के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो पाते हैं क्योंकि वे अनुभवी पत्रकार होते हैं, तो कुछ अपनी अनुभवहीनता के कारण ही चैनलों में अपनी जगह इस कारण बना पाने सफल होते हैं, क्योंकि अनुभवहीनता के कारण वे चैनल के अनुसार अपनी भूमिरा निभा पाते हैं। कुछ एंकरों को इस कारण भी काम मिलता रहता है क्योंकि वे देखने में अच्छे होते हैं, टी.वी. के परदे पर उनकी मौजूदगी आकर्षक लगती है, तो कुछ एंकर इसलिए अच्छे माने जाते हैं क्योंकि वे तकनीकी रूप से बड़े जानकार होते हैं और संकट के समय में, किसी आपातस्थिति में चैनल द्वारा उनको जो भी भूमिका दी जाती है उसका वे सफलतापूर्वक निर्वाह कर पाने में सफल होते हैं। कहने का मतलब यह है कि टेलीवीजन पर एंकर होने का मतलब सीधे-सीधे किसी एक पहलू के रूप में नहीं बताया जा सकता। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि एंकर मतलब होने का मतलब होता है हर किसी समय नई चुनौती का मुकाबला करने के लिए हर लिहाज से पूरी तरह तैयार रहना। और यह तभी सम्भव है जब आप खबरों की नब्ज़ पहचानते हों। ऊपर हमने अनुभवहीनता शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि टी.वी. चैनल अभी प्रयोग के दौर में हैं, परिपक्वता नहीं आई चैनल की पहचान क्या हो या किनके जरिए हो, यह अबूझ बना हुआ है। उम्र-समझ-या अनुभव के समानान्तर कच्ची उम्र, ग्लैमर, बेबाक होना भी एंकर बना दे रहा है। यह प्रक्रिया ‘एंकर’ को न्यूज रीडर से आगे तो ले जा रहा है, लेकिन समाज के एक छोटे से आकर्षक दिखनेवाले तबके की नुमाइन्दगीकराने लगी है।

एंकर होना अपने आप में कोई गुण नहीं होता है। इसका सम्बन्ध कई कौशलों के सफलतापूर्वक प्रदर्शन से जुड़ा होता है। आप कह सकते हैं कि सफल एंकर वहीं हो सकता है जो आला दरजे का पत्रकार हो उसे प्रश्नाकुल होना चाहिए, यानी उसे उन पहलुओं के हिसाब से सवाल पूछने में सक्षम होना चाहिए, जिससे दर्शकों की जिज्ञासा को शान्त किया जा सके। कहने का मतलब है कि अगर आप बेहतर एंकर होना चाहते हैं, तो केवल इतना ही काफी नहीं कहा जा सकता है कि आप अपने विषय में महारात रखते हों, बल्कि आपको इस बात की भी पूरी समझ होनी चाहिए कि आपका दर्शक क्या जानना चाहता है ? आप ऐसा क्या कह सकते हैं ? आप स्टूडियो में मौजूद मेहमान या अपने रिपोर्टर या फोन इन के माध्यम से ऐसा क्या पूछ सकते हैं कि दर्शकों को यह लगे कि इस एंकर ने मेरे दिल की बात कह दी। अगर आप यह समझते हों कि एंकर की भूमिका महज इतनी होती है कि वह डेस्क के लोगों द्वारा लिखे गए आलेख का सही तरह वाचन कर दे, तो ध्यान रखिए कि इससे दर्शकों पर आपका प्रभाव नहीं जमेगा। प्रभाव उसका जमने लगेगा जिसने आपकी पटकथा लिखी होगी। मेरा तो मानना है डेस्क पर लिखने वालों का प्रभाव नहीं जमेगा क्योंकि वह सिनेमा नहीं है। सिनेमा में सलीम जावेद की जोड़ी अपनी पठकथा के जरिए अमिताब बच्चन को इसलिए नायक बना देती है क्योंकि पटकथा लिखने वाले को मालूम है कि कहानी कहाँ से शुरू होती है और उसे कहाँ खत्म करना है। यानी तीन घंटे में पोएटिक जस्टिस। यह समझ किसी आधे या एक घंटे की प्रोग्रामिंग के लिए तो ठीक है। लेकिन लगातार आ रही खबरों के दौर में जिसमें कोई ओर छोर नहीं होता, वहाँ डेस्क पर चाहे सलाम-जावेद की जोड़ी ही क्यों न बैठ जाए, एंकर हिट नहीं हो सकता है। टी.वी., रेडियो की तरह केवल बोलने और सुनने का ही माध्यम नहीं होता है। उस पर आप बोलते हुए दिखाई भी देते हैं, इसलिए भले आप दूसरों की पटकथा ही पढ़ें, तो भी आपकी शैली इस तरह की होनी चाहिए कि आपकी अपनी छाप भी दर्शकों पर पड़ती दिखाई दे। यही नहीं, आप जो टी.वी. के परदे पर पढ़ रहे होते हैं, उसे लिखने में आपको महारत हासिल होनी चाहिए। वास्तव में एंकर का काम चैनल की ओर से संवाद बनाने का होता है, इसलिए अगर वह पक्के तौर पर उस्ताद नहीं है तो मानकर चलिए कि न तो उसकी समाज में कोई पैठ बननेवाली है, न ही उस चैनल की जिसके कार्यक्रम को वह प्रस्तुत कर रहा होता है। यहाँ यह समझना होगा कि ‘एंकर’ कलाकार नहीं है। उसे अदाकारी के जरिए तालिबान द्वारा मारे गए भारतीय इंजीनियर की खबर पर शोकाकुल नहीं होना है। सरकार की विदेश नीति पर आक्रोश भी नहीं दिखाना है। बाप का साया उठने वाले बच्चों को लेकर हमदर्दी भी नहीं जतानी है। अगर यह सब हो रहा है तो उसे बताना भी है। सही मायने में एंकर एक ऐसी नाजुक डोर को थामे हुए होता है कि हर देखनेवाला भावनाओं की रौ में लगातार बहता जाए लेकिन आगे बढ़ते रहने की शर्त पर पीछे लौटने के लिए नहीं। साफ है, हमेशा बहुत कुछ नया चाहिए एंकर को। उसके शब्द, उसकी समझ, अनुभव सब कुछ जितना नायाब होगा उतनी पैठ उसकी बढ़ेगी।

इतना तो स्पष्ट है कि एंकर का काम बहुत मुश्किल होता है। यह महज कोई चमक-दमकवाला काम नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का भी काम होता है। यही कारण है कि अमेरिका और यूरोप के टी.वी. चैनलों में एंकरों को लेकर खूब मारामारी चलती रहती है। किसी चैनल को मुकाबले में कमजोर करने के लिए अक्सर उनके प्रमुख एंकरों को तोड़ने का हथकंडा चैनलों द्वारा अपनाया जाता है। समाचार चैनलों या मनोरंजन चैनलों में एंकर की भूमिका इस रूप में दुनियाभर में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। अन्तरराष्ट्रीय जगत की एक प्रमुख हस्ती रुपर्ट मर्डोक के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि अपने प्रतिद्वन्द्वी चैनलों को कमजोर करने के लिए उन्होंने उनके प्रमुख एंकरों को अपने चैनलों में काम पर तो रख लिया, लेकिन उनको दिखाया नहीं और साल भर तक उनको पैसा देते रहे। उसी तरह हमारे देश में भी कई चैनलों की जब शुरूआत हुई और जब उनके विज्ञापन दिखाए जाने लगे, तो उनमें जो बात सबसे प्रमुखता से उभरती थी वह यह थी कि उनके यहाँ कितने अनुभवी एंकर हैं। याद कीजिए, वह चाहे अंग्रेजी चैनल ‘ट्वेंटी फोर इनटू सेवन’ के आरम्भिक विज्ञापन और प्रोमो रहे हों या ‘इंडिया टी.वी.’ या ‘चैनल सेवन’ के आरम्भिक विज्ञापन। मतलब यह है कि एंकर की भूमिका, उसकी जिम्मेदारी टी.वी. के कार्यक्रमों में इतनी अधिक होती है कि उसे हरफनमौला या ऑलराउंडर कहा जा सकता है।

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