Friday, January 13, 2012

तीसरा रास्ता\ \ आनंद प्रधान



Wednesday, January 11, 2012


विधानसभा चुनावों में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है...कोई शक?



कोई भी पार्टी नहीं चाहती है भ्रष्टाचार मुद्दा बने क्योंकि कहीं न कहीं सभी की पूंछ दबी है




पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां तेज होने लगी है. इन चुनावों खासकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश के नतीजों पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं. इन चुनावों से न सिर्फ इन राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारों और उन्हें चुनौती दे रही पार्टियों के भाग्य का फैसला होगा बल्कि इनसे केन्द्र की सत्ता और आगे की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होगी.


इन चुनावों को यूँ ही २०१४ के आम चुनावों के महासंग्राम से पहले का सेमीफाइनल नहीं माना जा रहा है. लेकिन ये चुनाव इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं कि पिछले साल अन्ना हजारे की अगुवाई में चले भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल समर्थक आंदोलन की छाया में हो रहे हैं.


इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पिछले साल जिस तरह से देश भर में आम जनमानस को झकझोरा और समूचे राजनीतिक तंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया, उसके राजनीतिक-सामाजिक और नैतिक प्रभाव की असली परीक्षा का समय आ गया है. सवाल यह है कि क्या इन चुनावों में भ्रष्टाचार मुद्दा है?


इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सभी राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश में बसपा की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा की प्रकाश सिंह बादल और उत्तराखंड में भाजपा की पहले रमेश पोखरियाल निशंक और अब भुवन चन्द्र खंडूरी की सरकार या फिर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत और इबोबी सिंह की सरकारें- भ्रष्टाचार के मामले में कोई किसी से पीछे नहीं है.


सभी ने पांच वर्षों तक जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया है और सार्वजनिक धन की लूट के नए रिकार्ड बना दिए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि इन सभी राज्यों में सत्ता चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन एक बात आम है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक छोटे से गिरोह के नेतृत्व में केंद्रीकृत और संगठित लूट की खुली व्यवस्था कायम कर दी गई है.


नतीजा, इन राज्यों में भ्रष्टाचार इस तरह संस्थाबद्ध हो चुका है कि आम नागरिकों खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों को हर छोटे-बड़े सरकारी काम के लिए कदम-कदम पर नेताओं, सत्ता के दलालों, छोटे-बड़े सरकारी अफसरों और अपराधियों की लूट-खसोट का शिकार होना पड़ता है.


यही नहीं, उनके वाजिब हकों और गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए बनी सरकारी योजनाओं के पैसे को ऊपर ही ऊपर लूट लिया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन राज्यों में आम लोगों के लिए यह भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है. लोग लूट-खसोट की व्यवस्था का अंत और इससे मुक्ति चाहते हैं.


यही कारण है कि इन सभी राज्यों में बदलाव का माहौल है. लेकिन आम वोटरों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वे किस पर भरोसा करें? सत्ता की दावेदार सभी पार्टियां, चाहे वे सरकार में हों या विपक्ष में, बिना किसी अपवाद के भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी हुई हैं.


यही कारण है कि आम वोटरों के बीच भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होते हुए भी पार्टियों के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है. असल में, सत्ता की दावेदार किसी भी पार्टी में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाने का नैतिक साहस नहीं है क्योंकि सभी के दामन पर भ्रष्टाचार के छींटें चमक रहे हैं.


आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से लेकर बसपा, सपा, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों तक सभी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगा रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर आम वोटरों को कोई भी दल उद्वेलित नहीं कर पा रहा है.


इससे सत्ता की होड़ में शामिल राजनीतिक पार्टियों को यह भ्रम हो गया है कि वोटरों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. इससे उनका हौसला इतना बढ़ गया है कि वे एक ओर धड़ल्ले से जातिवादी-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय कार्ड खेल रही हैं, वहीँ दूसरी ओर, वोटरों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है और अपराधियों-माफियाओं का सहारा लिया जा रहा है.


हैरानी की बात नहीं है कि हमेशा ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की दुहाई देनेवाली और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ मुक्त राजनीति के दावे करनेवाली भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा राज में घोटालों के प्रतीक बन गए बाबू सिंह कुशवाहा समेत बसपा सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए कई पूर्व मंत्रियों को न सिर्फ पार्टी में ससम्मान शामिल किया है बल्कि उनमें से अधिकांश को चुनाव मैदान में भी उतार दिया है.


साफ़ है कि भाजपा के लिए चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. उनके लिए यह सिर्फ प्रचार का मुद्दा है, व्यवहार का नहीं. उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा किसी भी तरह से चुनाव जीतना है. चुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है.


लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि कुछ हद तक वामपंथी पार्टियों को छोडकर इस बीमारी से भाजपा ही नहीं, कोई भी पार्टी अछूती नहीं है. फर्क यह है कि इस बार भाजपा व्यावहारिक राजनीति के नाम पर उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही नंगी और बेशर्म हो गई है.


निश्चय ही, इस स्थिति को भांप कर ही अन्ना हजारे ने इन चुनावों से दूर रहने का फैसला किया है क्योंकि उनके कांग्रेस विरोधी प्रचार की धार भ्रष्टाचार के मामले में उसी तरह नंगे और बेशर्म विपक्ष ने कुंद कर दी है.


लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शुरू हुई लड़ाई मंजिल पर पहुँचने से पहले ही लड़खड़ाने लगी है? ऐसा सोचना थोड़ी जल्दबाजी होगा. सच यह है कि इस देश में वोटरों ने अपने फैसले से राजनीतिक तंत्र को हमेशा चौंकाया और छकाया है.


इसलिए इन चुनावों में बहुत संभव है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटरों के गुस्से का निशाना सत्तारूढ़ पार्टियां बनें और विपक्ष को इसका नकारात्मक फायदा मिल जाए. इस देश में सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का वोटरों का अपना ही तरीका है.


लेकिन इस आधार पर किसी पार्टी विशेष के जीतने से यह निष्कर्ष निकालने की भूल न की जाए कि आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. अलबत्ता, उसके लिए भ्रष्टाचार चुनाव से ज्यादा सड़क की लड़ाई बन गई है क्योंकि चुनावों में सभी पार्टियों ने एक नापाक गठजोड़ बनाकर एक मुद्दे के बतौर भ्रष्टाचार को बेमानी बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा है.


(दैनिक 'नया इंडिया' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

Tuesday, January 10, 2012


भ्रष्ट और अपराधी तत्वों की आखिरी शरणस्थली बन गई है भाजपा

दागियों पर पर्दा डालने के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति को आड़ की तरह इस्तेमाल करती है भाजपा  


दूसरी और आखिरी किस्त


असल में, भाजपा की राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण कोई पहली घटना नहीं है और न ही यह कोई अपवाद है. पार्टी की राजनीति को नजदीक से देखने वाले जानते हैं कि ९० के दशक में कांग्रेसी नेता और तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम के भ्रष्टाचार के आरोपों में पकडे जाने के मुद्दे पर कार्रवाई की मांग को लेकर संसद ठप्प कर देनेवाली भाजपा को हिमाचल प्रदेश में सत्ता के लिए सुखराम के साथ हाथ मिलाने में कोई शर्म नहीं आई.


इसी तरह, यू.पी.ए सरकार के मंत्री शिबू सोरेन को दागी बताकर मंत्रिमंडल से निकलने की मांग को लेकर भाजपा ने संसद के अंदर और बाहर खूब हंगामा किया लेकिन झारखण्ड में जोड़तोड़ करके उन्हीं शिबू सोरेन के साथ सत्ता की मलाई चाट रही है.




यही नहीं, भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पहले कल्याण सिंह के नेतृत्व में दलबदलुओं, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और दागियों के साथ सबसे बड़ा मंत्रिमंडल बनाके और फिर मायावती के नेतृत्व में बसपा के साथ सत्ता की साझेदारी करके राजनीतिक अवसरवाद का नया रिकार्ड बनाया. भाजपा के छोटे से राजनीतिक इतिहास में ऐसे अवसरवादी राजनीतिक समझौतों की एक पूरी श्रृंखला है.


कर्नाटक में पार्टी ने खनन माफिया के बतौर कुख्यात रेड्डी बंधुओं की बगावत के बाद उनके आगे घुटने टेक दिए और बाद में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे येद्दियुरप्पा ने भी भाजपा नेतृत्व की पूरी फजीहत कराने के बाद ही इस्तीफा दिया.


सच पूछिए तो आज भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धनबलियों को राजनीतिक संरक्षण और प्रोत्साहन देने में भाजपा किसी भी मध्यमार्गी पार्टी से पीछे नहीं नहीं है. किसी भी अन्य पार्टी की तरह भाजपा में भी सत्ता के दलालों, भ्रष्ट और लुटेरे ठेकेदारों/कंपनियों, माफियाओं और अवसरवादी तत्वों की तूती बोल रही है.


पार्टी की राज्य इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व में भी ऐसे तत्वों की पैठ बहुत गहरी हो चुकी है. यह बहुत बड़ा भ्रम है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बहुत साफ़-सुथरा है और इसलिए निचले स्तर पर ऐसे भ्रष्ट/अपराधी/अवसरवादी तत्वों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सच यह है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हैं.


भाजपा के नेता भले स्वीकार न करें लेकिन तथ्य यह है कि इन भ्रष्ट और अपराधी तत्वों के आगे शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से लाचार हो चुका है. उसकी लाचारी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि आडवाणी से लेकर सुषमा स्वराज तक और उमा भारती से लेकर आर.एस.एस की कथित नाराजगी के बावजूद पार्टी बाबू सिंह कुशवाहा और अन्य दागियों को निकालने के लिए तैयार नहीं है?


आखिर भाजपा किसे धोखा दे रही है? क्या यह संभव है कि पार्टी के शीर्ष नेता और यहाँ तक कि आर.एस.एस भी जिस फैसले से नाराज हो, उसे पलटना इतना मुश्किल हो? यह तभी संभव है जब या तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की कथित नाराजगी सिर्फ सार्वजनिक दिखावे के लिए हो या फिर उन्होंने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हों?


भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के लिए ये दोनों ही बातें सही हैं. असल में, वे गुड भी खाना चाहते हैं और गुलगुले से परहेज का नाटक भी करते हैं. सच यह है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर भाजपा की राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता जैसे-जैसे उजागर होती जा रही है, उसके लिए सत्ता, साधन के बजाय साध्य बनती जा रही है.


जाहिर है कि जब सत्ता ही साध्य बन जाए तो उसे हासिल करने के लिए पार्टी को कोई भी जोड़तोड़ करने, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने और भ्रष्ट/अपराधी तत्वों के साथ गलबहियां करने में कोई संकोच नहीं रह गया है. इसलिए उत्तर प्रदेश में जो रहा है, वह भाजपा के इसी राजनीतिक-वैचारिक स्खलन से पैदा हुए अवसरवाद की राजनीति का नया मुकाम है.


इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता और स्खलन एक ऐसी सर्वव्यापी और सर्वग्रासी परिघटना बन चुकी है जिससे सत्ता के खेल में शामिल कोई भी पार्टी अछूती नहीं बची है. हैरानी की बात नहीं कि दागी तत्व बहुत सहजता के साथ एक से दूसरी पार्टी और तीसरी से चौथी पार्टी में प्रवेश, सम्मान और निर्णायक मक़ाम हासिल करने में कामयाब होते हैं.


एक पार्टी के लिए दागी, दूसरे के लिए राजनीतिक सफलता की कुंजी है. यहाँ तक कि सिद्धांतत: मान लिया गया है कि यही व्यवहारिक राजनीति है और व्यावहारिक राजनीति, विचार, सिद्धांत और मूल्यों से नहीं चलती है. मतलब यह कि इसमें अगर आप सफल हैं तो सब कुछ जायज है.


जाहिर है कि भाजपा भी इस नई व्यावहारिक राजनीतिक संस्कृति की अपवाद नहीं है. लेकिन भाजपा के साथ खास बात यह है कि वह राजनीतिक नैतिकता, शुचिता और सदाचार की जितनी ही अधिक डींगे हांकती है, उतनी ही बेशर्मी से उनकी धज्जियाँ भी उड़ाती है. इसमें उसे कोई संकोच या असुविधा महसूस नहीं होती है. इस मामले में उसके साहस का शायद ही कोई और पार्टी मुकाबला कर पाए.


असल में, भाजपा जिस उग्र हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी पर आधारित राजनीति करती है, उसमें उसके पास दागियों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे छुपाने की अवसरवादी सुविधा है. यह सुविधा किसी भी और पार्टी के पास नहीं है.


सैमुएल जानसन ने कहा था कि ‘राष्ट्रवाद और देशभक्ति लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है.’ भाजपा के मामले में यह बात सौ फीसदी सच है. भ्रष्ट/अपराधी और दागी तत्वों को भाजपा इसीलिए बहुत आकर्षित करती है. ऐसे तत्व भाजपा में आ कर न सिर्फ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के झंडे के नीचे अपने सभी पापों को ढंकने-छुपाने में कामयाब हो जाते हैं बल्कि बड़े आराम से अपने काले कारबार को भी जारी रख पाते हैं.


जाने-अनजाने मुख्तार अब्बास नकवी ने भाजपा की गंगा से तुलना करते हुए हिंदुत्व के प्रतीक का ही इस्तेमाल किया. भाजपा की राजनीति की यही असलियत है. लेकिन हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की संकीर्ण और घृणा आधारित राजनीति से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है.


('जनसत्ता' के ९ जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी किस्त)

Monday, January 09, 2012


भाजपा के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की असलियत



अवसरवाद का दूसरा नाम भाजपा है


पहली किस्त
 
भारतीय जनता पार्टी को दाग अच्छे लगने लगे हैं. पार्टी के आशीर्वाद से इन दिनों उत्तरप्रदेश की राजनीति में दागियों की चांदी हो गई है. विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भ्रष्टाचार के आरोपों में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा सहित कई और मंत्रियों और विधायकों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं.


इन दागी मंत्रियों, विधायकों और नेताओं को न सिर्फ ससम्मान भाजपा में शामिल कराया जा रहा है बल्कि उनमें से अधिकांश को पार्टी टिकट से भी नवाजा जा रहा है. इनके अलावा बलात्कार से लेकर घूस लेकर संसद में सवाल पूछने के दोषी नेताओं के नाम भी भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में शामिल हैं.


भाजपा के इस फैसले ने उसके बहुतेरे समर्थकों को स्तब्ध कर दिया है, विश्लेषकों को चौंका दिया है और ये सभी हैरानी जाहिर कर रहे हैं. इसकी वजह यह है कि जो पार्टी खुद को अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ के आधार पर सभी पार्टियों से अलग (पार्टी विथ डिफ़रेंस) बताती है और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ लड़ने का नारा लगाते नहीं थकती है, वह दूसरी पार्टियों से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए दागियों को थोक के भाव में पार्टी में कैसे और क्यों शामिल कर रही है?


सवाल यह भी उठ रहा है कि जो भाजपा दूसरी पार्टियों के दागियों के मुद्दे पर सिर आसमान पर उठाए रहती है, हप्तों संसद नहीं चलने दिया है और रामराज्य और सुशासन के दम भरती रहती है, वह किस मुंह से दागियों का बचाव कर रही है? दूसरी पार्टियों के दागी भाजपा में आकर पार्टी के लिए तिलक कैसे बन जाते हैं?


मजे की बात यह है कि भाजपा नेता किरीट सोमैया ने सिर्फ चार दिन पहले जिन बाबू सिंह कुशवाहा को उत्तर प्रदेश में दस हजार करोड़ रूपयों से अधिक के बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम) घोटाले का सूत्रधार बताया था और जो सी.बी.आई जांच के घेरे में फंसे हैं, उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की पूरी सहमति से ससम्मान पार्टी में शामिल करा लिया गया.


लेकिन कुशवाहा अकेले दागी नेता नहीं हैं, जिन्हें भाजपा ने इस तरह बाहें फैलाकर स्वागत किया है. ऐसे बसपाई मंत्रियों, विधायकों और नेताओं की तादाद अच्छी खासी है जिन्हें उनकी चुनाव जीतने की काबिलियत के आधार पर पार्टी में शामिल कराया गया है.


ऐसे नेताओं में मायावती सरकार के एक और पूर्व मंत्री बादशाह सिंह हैं जिन्हें लोकायुक्त जांच में दोषी पाए जाने के कारण हटाया गया था. कुछ और मंत्रियों जैसे अवधेश वर्मा, ददन मिश्र आदि को भी मायावती ने ऐसे ही आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया. भाजपा ने इन सभी को हाथों-हाथ लिया है. कई और पूर्व बसपाई मंत्री/विधायक और सांसद कतार में हैं.


कहने की जरूरत नहीं है कि थोक के भाव में दागियों को पार्टी में शामिल करने और उन्हें चुनावों में उम्मीदवार बनाने के फैसले की मीडिया और बौद्धिक हलकों में खूब आलोचना हुई है. यही नहीं, भाजपा में पार्टी के अंदर भी निचले स्तर पर विरोध के इक्का-दुक्का स्वर उभरे हैं और अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, लालकृष्ण आडवाणी समेत कई वरिष्ठ नेता भी नाराज हैं.


लेकिन घोषित तौर पर पार्टी प्रवक्ता और उनके नेता भांति-भांति के तर्कों से इस फैसले को जायज ठहराने में जुटे हैं. पार्टी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी के मुताबिक, ‘भाजपा वह गंगा है जिसमें कई परनाले गिरते हैं लेकिन उससे गंगा की निर्मलता पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.’


दूसरी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के अनुसार, ‘यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं बल्कि बहुत सोच-समझकर लिया गया है. इसका उद्देश्य पिछड़ी खासकर अति पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को आगे बढ़ाना है.’ वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को बाबू सिंह कुशवाहा में मायावती की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ ‘व्हिसल-ब्लोवर’ दिख रहा है.


लेकिन भाजपा नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को अहसास है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देशव्यापी जनमत और राजनीतिक माहौल में पार्टी का मध्यमवर्गीय आधार इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है.


उसकी बेचैनी को भांपते हुए टी.वी चर्चाओं में कई भाजपा नेता और बुद्धिजीवी मध्यमवर्गीय जनमत को इस आधार पर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि चूँकि ये दागी पार्टी में निचले स्तर के नेता हैं और रहेंगे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व साफ़-सुथरा है, इसलिए ये दागी पार्टी की नीतियों और सरकार को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं.


इस फैसले का बचाव ‘व्यावहारिक राजनीति के तकाजों’ के आधार पर भी किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस के माफियाओं और भ्रष्ट उम्मीदवारों से निपटने के लिए भाजपा को भी ऐसे तत्वों को मैदान में उतारना जरूरी है जो चुनाव जीत सकें.


कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा की इन दलीलों में कोई दम नहीं है. ये तर्क उसके चरम राजनीतिक अवसरवाद पर पर्दा डालने की कोशिश भर हैं. सच पूछिए तो भाजपा के इस फैसले पर हैरानी से अधिक हंसी आती है.


भाजपा के लिए यह कोई नई बात नहीं है. पार्टी इस खेल में माहिर हो चुकी है. उसके लिए अवसरवाद अब सिर्फ रणनीतिक मामला भर नहीं है बल्कि उसके राजनीतिक दर्शन का हिस्सा बन चुका है.


आश्चर्य नहीं कि भाजपा तात्कालिक राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए अपने घोषित राजनीतिक सिद्धांतों और मूल्यों की बिना किसी अपवाद के बलि चढ़ाती आई है. यह उसकी राजनीति की सबसे बड़ी पहचान बन गई है.


जारी...


('जनसत्ता' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त...बाकी कल)

Tuesday, January 03, 2012


२०११ में अर्थव्यवस्था:महंगाई की सुरसा के आगे लाचार सरकार

सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता




यही हाल महंगाई यानी मुद्रास्फीति का है जो साल भर अर्थव्यवस्था और आम आदमी दोनों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनी रही. लेकिन मजा देखिए कि सरकार महंगाई के साथ लाल बुझक्कडों की तरह निपटने की कोशिश करती रही. प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्रालय के अफसर तक मुद्रास्फीति दर के काबू में आने की तारीख पर तारीख घोषित करते रहे लेकिन महंगाई बेकाबू बनी रही.


सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजर महंगाई के मर्ज को कभी ठीक से समझ नहीं पाए और आखिरकार महंगाई से निपटने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप कर खुद हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए.




रिजर्व बैंक के पास मौद्रिक उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं था. नतीजा, रिजर्व बैंक ने इस साल आधा दर्जन से अधिक बार ब्याज दरों में वृद्धि की लेकिन मुद्रास्फीति की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. लगभग पूरे साल मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों के आसपास बनी रही.


हालांकि साल के आखिरी सप्ताहों में खाद्य मुद्रास्फीति की दरों में अच्छी खासी गिरावट दर्ज की गई है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस गिरावट का आम मुद्रास्फीति दर पर कितना असर पड़ा है क्योंकि नवंबर महीने तक मुद्रास्फीति की दर ९.११ फीसदी पर टिकी हुई है.




दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का मतलब यह नहीं है कि महंगाई कम हो रही है. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर में यह कमी सांख्यिकीय चमत्कार है जो पिछले वर्ष के ऊँचे आधार के कारण संभव हुई है. इसके अलावा मुद्रास्फीति की दर में यह कमी कुछ खाद्य वस्तुओं खासकर फलों, सब्जियों आदि की कीमतों में आई सीजनल कमी के कारण है.


इससे उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत जरूर मिली है लेकिन इसके स्थाई होने में संदेह है क्योंकि आम खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है. इसके अलावा महंगाई मैन्युफैक्चरिंग वस्तुओँ को अपने लपेटे में ले चुकी है.


लेकिन इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के विरोधाभास भी खुलकर सामने आने लगे हैं. एक ओर सब्जियों आदि की कीमतों में कमी के कारण खाद्य मुद्रास्फीति दर में कमी पर खुशियाँ मनाई जा रही हैं लेकिन दूसरी ओर, पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक और गुजरात से लेकर उत्तराखंड तक के किसान अपने उत्पादों खासकर आलू, प्याज और टमाटर की उचित कीमत न मिलने के कारण रो रहे हैं. नाराजगी में अपनी फसल सडकों पर फेंक रहे हैं. कल तक आम आदमी महंगाई से त्रस्त था और आज किसान लुटा-पिटा महसूस कर रहा है.


हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर देश के कई हिस्सों से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. किसानों की हताशा का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आंध्र प्रदेश में पहली बार पूर्वी गोदावरी जिले के किसानों ने ‘कृषि अवकाश’ यानी खेत खाली छोड़ने का फैसला किया है. इस सामान्य घटना नहीं है.


यह खतरे की घंटी है खासकर यह देखते हुए कि सरकार ने आख़िरकार काफी ना-नुकुर और दाएं-बाएं करने के बाद भोजन के अधिकार का कानून बनाने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया है. सरकार जितनी जल्दी हो, यह समझ जाए ले कि भोजन के अधिकार का कानून कृषि और किसानों की उपेक्षा करके लागू नहीं किया जा सकता है.


लेकिन सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है और वह है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता. आप भले सिर खुजाते रहें लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर युवराज राहुल गाँधी तक सभी पूरी तरह से मुतमईन हैं कि कृषि, किसानों और आम उपभोक्ताओं सभी की समस्याओं को अब वाल मार्ट और टेस्को जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ ही सुलझा सकती हैं.


वैसे ही जैसे सरकार ने मान लिया कि देश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी जैसी सभी समस्याओं के हल की कुंजी तेज विकास दर में है. मुद्रास्फीति से मुक्ति का जिम्मा रिजर्व बैंक के मत्थे है.


जैसे इतना ही काफी नहीं था. सरकार यह भी माने बैठी है कि गिरती वृद्धि दर खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट से निपटने का जिम्मा भी उद्योग जगत का है. उद्योग जगत ही अर्थव्यवस्था में नया निवेश करेगा और उसे गति देगा.


सरकार और उद्योग जगत दोनों की राय है कि सरकार का असली काम सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाना और निजी पूंजी निवेश के अनुकूल माहौल बनाना है. गोया आर्थिक सुधार नहीं हुए, जादू की छड़ी हो गई जिसे घुमाते ही अर्थव्यवस्था की सारी दिक्कतें दूर हो जाएँगी.


यह और बात है कि अर्थव्यवस्था की बहुतेरी समस्याएं इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पैदा हुई हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट के पीछे एक बड़ा कारण सरकार का वित्तीय घाटे को कम करने के प्रति अतिरिक्त मोह है जिसके कारण अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गई. नतीजा सबके सामने है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में २०११ में इससे कोई सबक सीखा है.


('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३१ दिसम्बर'११ में प्रकाशित आलेख की दूसरी और आखिरी किस्त)

Monday, January 02, 2012


२०११ में अर्थव्यवस्था:लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और लाल बुझक्कड़ सरकार

लेकिन नव उदारवादी सुधारों के प्रति व्यामोह से स्थिति और बिगड़ रही है  


 पहली किस्त


उम्मीदों के विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह साल कोई खास अच्छा नहीं रहा. अर्थव्यवस्था के लिए इस साल की शुरुआत उम्मीदों के साथ हुई लेकिन साल का मध्य आते-आते अर्थव्यवस्था को जैसे झटके लगने लगे, उससे यह साफ़ होने लगा कि स्थिति कोई खास बेहतर नहीं रहनेवाली है.


अमेरिका से लेकर यूरोप तक में गहराते आर्थिक और वित्तीय संकट के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों से यह स्पष्ट हो चुका था कि हालात बद से बदतर होनेवाले हैं. डी-कपलिंग के तमाम दावों के बावजूद २००८ की अमेरिकी मंदी के अनुभव से यह साफ़ हो चुका था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की दोबारा डावांडोल होती स्थिति के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहनेवाली है.


रही-सही कसर देश के अंदर भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरी और अपने ही अंतर्विरोधों में फंसी यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और नव उदारवादी सुधारों के प्रति व्यामोह ने पूरी कर दी. नतीजा, साल के खत्म होते-होते अर्थव्यवस्था को लेकर एक गहरी निराशा का माहौल बन गया है.


अर्थव्यवस्था से आ रहे अधिकांश संकेत इस निराशा को गहरी कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है जो पिछले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.


हालांकि अमेरिका से लेकर यूरोप तक दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में यह फिर भी बेहतर प्रदर्शन है लेकिन अगर साल की शुरुआत खासकर फ़रवरी में पेश बजट में इस साल जी.डी.पी के ८.७५ प्रतिशत रहने के अनुमान से इसकी तुलना करें तो साफ़ है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हुई है.


यही नहीं, साल की शुरुआत में वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक सभी इतने अपबीट थे कि जी.डी.पी के नौ प्रतिशत तक पहुँचने के दावे किये जा रहे थे. लेकिन अब हालत यह है कि खुद वित्त मंत्री चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी के ७.५ फीसदी रहने की उम्मीद जता रहे हैं.


लेकिन अर्थव्यवस्था के अधिकांश स्वतंत्र विश्लेषकों की राय है कि वित्त मंत्री के भाग्य अच्छे हुए तो वृद्धि दर ६.५ फीसदी से ७ फीसदी के बीच रह सकती है. अन्यथा स्थिति और भी बदतर हो सकती है. इसके संकेत भी मिल रहे हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर फिसलकर अक्टूबर में नकारात्मक – ५.१ प्रतिशत हो गई है.


पिछले २८ महीनों में औद्योगिक क्षेत्र का यह सबसे बदतर प्रदर्शन है. इसका सीधा असर शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक- सेंसेक्स पर भी दिखाई पड़ रहा है जो पिछले साल की तुलना में इस साल कोई २३ फीसदी नीचे लुढ़क चुका है.


यही नहीं, डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में भी अच्छी-खासी लगभग १५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. तथ्य यह है कि एशिया की अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपये का प्रदर्शन सबसे बदतर है. रूपये की कीमत में गिरावट की एक बड़ी वजह यह है कि विदेशी निवेशक बाजार से डालर निकाल रहे हैं और नया विदेशी निवेश नहीं आ रहा है.


इससे रूपये पर दबाव बढ़ा है. कई बाजार विश्लेषकों का मानना है कि रूपये की कीमत में आई तेज गिरावट इस बात का सबूत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति विदेशी निवेशकों का विश्वास कमजोर हुआ है.


लेकिन दूसरी ओर सरकार का दावा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरियों और समस्याओं के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी हुई है पर चिंता की कोई बात नहीं है. अर्थव्यवस्था के बुनियादी आधारतत्व (फंडामेंटल्स) मजबूत हैं और जल्दी ही अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ जायेगी और तेज रफ़्तार से दौड़ने लगेगी.


कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के दावे में एक तरह की निश्चिन्तता और खुशफहमी दिखती है जबकि बाजार विश्लेषकों के आकलन में जरूरत से ज्यादा घबराहट और निराशा दिखाई पड़ती है.


सच्चाई इन दोनों से अलग है. निश्चय ही, मौजूदा वैश्विक और घरेलू माहौल में ६.५ से लेकर ७ फीसदी की जी.डी.पी वृद्धि दर भी पर्याप्त है बशर्ते आप जी.डी.पी वृद्धि दर को ही अर्थव्यवस्था की मुक्ति न मानते हों और हमेशा नौ से दस फीसदी वृद्धि दर का राग अलापने में न जुटे रहते हों.


मुश्किल यह है कि मनमोहन सिंह सरकार खुद ही मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह नौ से दस फीसदी की ऊँची वृद्धि दर के सपने देखती और दिखाती रहती है. ऐसे में, उसकी खुद की बनाई कसौटी पर अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कमजोर है, इस तथ्य को वह कैसे नकार सकती है?


इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन उसकी क्षमताओं और उम्मीदों से कहीं कम है. लेकिन मुद्दा केवल अर्थव्यवस्था की विकास दर नहीं है और न ही अकेले यह उसकी सेहत और बेहतरी का सबूत है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज दर के बावजूद पिछले वर्षों में आम लोगों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ है और न ही उनकी परेशानियां और तकलीफें कम हुई हैं.


उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष जी.डी.पी की अपेक्षाकृत ८.५ फीसदी की तेज रफ़्तार के बावजूद आम लोगों को आसमान छूती महंगाई रुलाती रही. यही नहीं, एन.एस.एस.ओ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००४-०९ के बीच ऊँची विकास दर के बावजूद यह ‘रोजगारविहीन विकास’ था जिसके कारण इन पांच वर्षों में रोजगार में वृद्धि दर लगभग नगण्य रही.


आश्चर्य नहीं कि इस साल विकसित देशों के संगठन – ओ.ई.सी.डी द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वर्षों में जब देश में जी.डी.पी तेज वृद्धि दर के साथ बढ़ रही थी, उसी दौरान देश में अमीर-गरीब के बीच खाई भी तेजी से बढ़ रही थी.


इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जहां नव उदारवादी सुधारों के इस दौर में तेज विकास दर के बावजूद सबसे अधिक गैर बराबरी बढ़ी है. इसका सबसे बड़ा सबूत तो गरीबी रेखा के बारे में योजना आयोग का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया वह हलफनामा है जिसमें ग्रामीण इलाकों में प्रति दिन २६ और शहरी इलाकों में ३२ रूपये से ऊपर की आमदनी वाले लोगों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया गया.


हैरानी की बात नहीं है कि गरीबी का मजाक उड़ानेवाली इस गरीबी रेखा को लेकर इस साल खूब हंगामा हुआ. सरकार ने भी माना कि यह गरीबी की वास्तविक रेखा नहीं है. लेकिन विडम्बना देखिए कि जिस गरीबी रेखा को ख़ारिज करने की बात की गई, वही गरीबी रेखा साल के बीतते-बीतते भोजन के अधिकार विधेयक में एक बार फिर आधिकारिक रेखा बनकर करोड़ों लोगों की रोटी का फैसला करने आ गई. कहते हैं कि ‘चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले की तरह रहती हैं.’ गरीबी की परिभाषा पर इतनी सारी बहसों और चर्चाओं के बावजूद गरीबी रेखा जस की तस बनी हुई है.


कल भी जारी...


('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप के ३१ दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)

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