Wednesday, January 18, 2012

मझधार में फँसे बस्तर के आदिवासी


 बुधवार, 18 जनवरी, 2012 को 11:21 IST तक के समाचार
छत्तीसगढ़ में माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे संघर्ष के कारण राज्य के बस्तर संभाग से बड़े पैमाने पर आदिवासियों का पलायन हो रहा है.
सरकार के पास कोई आंकड़े नहीं है जिससे पलायन कर जाने वालों की सही संख्या का आंकलन किया जा सके.
मगर ग़ैर सरकारी संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो इस क्षेत्र में चल रही हिंसा की वजह से एक लाख से भी ज़्यादा आदिवासी अपने गाँवों को छोड़ सुरक्षित स्थानों पर जाने को मजबूर हो रहे हैं.
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लेकिन जिन स्थानों को वह अपने लिए सुरक्षित मानकर जा रहे हैं वहां भी इनकी ज़िन्दगी नारकीय बन कर रह गई है.बस्तर के दंतेवाड़ा और बीजापुर से आदिवासी आंध्र प्रदेश के खम्मम और भद्राचलम में जाकर बस रहे हैं.
सूरज ढल रहा था और मेरी गाड़ी छत्तीसगढ़ में सुकमा से कोंटा वाली खस्ताहाल सड़क पर बमुश्किल से चल पा रही थी.
जंगलों, पहाड़ों की इस ज़मीन को प्रकृति ने भी बहुत कुछ दिया है. यहाँ की मिट्टी सोना, हीरा, कोयला, लोहा सब उगलती है.
सिर्फ इतना ही नहीं यह देश के धन का कटोरा भी कहलाती है. मगर अपनी इस मीट्टी से लोगों के जुदा होने का सिलसिला शुरू हो गया है.
शक़ के घेरे में
राज्य के उत्तरी इलाके में जहाँ बड़े बड़े उद्योगों के आने से बड़े पैमाने पर विस्थापन शुरू हो रहा है वहीं दक्षिणी छोर यानी के बस्तर संभाग में सरकार और माओवादी छापामारों के बीच चल रहे संघर्ष की वजह से लोग अपने अपने गावों को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में शरण लेने को मजबूर हो गए हैं.
हालांकि बस्तर से आदिवासियों के पलायन का कोई सरकारी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि मगर ग़ैर सरकारी संगठनों और सामाजिक विश्लेषकों का अनुमान है कि जाने वालों की संख्या एक लाख से भी अधिक हो सकती है.
कुछ सीमा को पार कर आंध्र प्रदेश के जंगलों में बस रहे हैं तो कुछ देश के दूसरे इलाकों में मज़दूरी कर अपना पेट पालने की कोशिश कर रहे हैं.
कमसकम इसके सहारे वह खुद को और अपने परिवारवालों को सुरक्षित तो रख पा रहे हैं. दुर्गम इलाकों से अपने परिवार वालों को साथ लेकर मीलों का पैदल सफ़र तय कर यह शरणार्थी आंध्र प्रदेश की सीमा पार कर वहां खुद को सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे है.
"माओवादियों के खिलाफ़ चल रहा अभियान उन्हीं इलाकों में ज़्यादा व्यापक है जहाँ ज़मीन के नीचे खनिज प्रचुर मात्र में है और जहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित है"
शशिभूषण पाठक, सामाजिक कार्यकर्ता
अपने पीछे वह अपने खेत-खलिहान, अपनी ज़मीन और अपनी संस्कृति छोड़ एक नए आशियाने की तलाश में निकल पड़े हैं.
मैंने भी सोचा कि आंध्र प्रदेश के भद्राचलम और खम्मम के इलाकों में जाकर इन शरणार्थियों की जिंदगियों को करीब से देखा जाए.
बस्तर का दौरा करते हुए इतना तो समझ में आया कि पलायन का एक बड़ा कारण है प्रशासन और लोगों के बीच में अविश्वास का माहौल.
जंगली इलाकों से हाट बाज़ारों में आने वाले हर शख्स पर पुलिस की कड़ी नज़र या यूँ कहिये, शक की नज़र रहती है.
जंगलों के इलाकों से कस्बाई बाज़ारों में आने वालों की जगह जगह पर तलाशी और फिर उनके नाम ना रजिस्टरों में पंजीयन एक रोज़ मर्रा की बात बन गई है.
यहाँ कोई किसी पर विश्वास नहीं करता है. सब एक दूसरे को शक की निगाहों से देखते हैं. कुछ जगहों पर तो हथियारबंद पुलिसवाले अपने मोबाइल फोने से लोगों की तस्वीरें भी खींचते हैं. ना जाने किसकी तस्वीर किस थाने के सूचना पट पर कब लग जाए.
बढ़ गया है पलायन
छत्तीसगढ़ पर कई सालों से नज़र रखने वाले पत्रकार शुभ्रन्ग्शु मानते हैं की रोज़गार की तलाश में बस्तर के आदिवासी पहले भी आंध्र प्रदेश जाते रहे हैं. मगर उनका कहना है कि सरकार और माओवादियों में चल रहे संघर्ष के बाद यहाँ से लोगों का पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है.
वह कहते हैं, “पिछले पांच सालों में आदिवासियों का पलायन बढ़ा है". यह वह अरसा है जबसे बस्तर के इलाकों में नक्सल विरोधी अभियान चल रहा है. शुभ्रांग्शु कहते हैं कि दोनों तरफ से बचने के लिए इस इलाके के आदिवासी अपने घर और जमीन छोड़ कर दूसरी जगहों पर जा रहे हैं. इनमे सबसे प्रमुख है आंध्र प्रदेश के भद्राचलम और खम्मम का इलाका.”
सामाजिक कार्यकर्ता शशिभूषण पाठक का कहना है कि माओवादियों के खिलाफ़ चल रहा अभियान उन्हीं इलाकों में ज़्यादा व्यापक है जहाँ ज़मीन के नीचे खनिज प्रचुर मात्र में है और जहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित है.
"पिछले पांच सालों में आदिवासियों का पलायन बढ़ा है. यह वह अरसा है जबसे बस्तर के इलाकों में नक्सल विरोधी अभियान चल रहा है. दोनों तरफ से बचने के लिए इस इलाके के आदिवासी अपने घर और जमीन छोड़ कर दूसरी जगहों पर जा रहे हैं. इनमें सबसे प्रमुख है आंध्र प्रदेश के भद्राचलम और खम्मम का इलाका."
शुभ्रांग्शु, पत्रकार
वे कहते हैं कि इन इलाकों में खौफ़ का माहौल बनाया जा रहा है. बेकुसूर लोगों को नक्सली कहकर गिरफ्तार किया जा रहा है या फिर उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मारा जा रहा है.
आदिवासी और पलायन के मुद्दों को लेकर संघर्ष कर रही सविता रथ को लगता है कि छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची हुई है. बड़ी कम्पनियाँ ज़मीन हथियाने के लिए हर हथकंडा अपना रहीं हैं जिस वजह से लोग अपनी ज़मीनें छोड़कर जाने को मजबूर हो रहे हैं.
उनका कहना है, "यहाँ कोयला है, लोहा है, हीरा है और सस्ते मज़दूर. यह इलाका बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चारागाह बन गया है जो यहाँ के लोगों को भागकर खनिज सम्पदा का दोहन करना चाहतीं हैं."
बस्तर के इलाके में चल रही हिंसा की चपेट में यहाँ के आदिवासी आ गए हैं.एक तरफ़ माओवादी तो दूसरी तरफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई. सामाजिक संगठनों के अनुमान के हिसाब से सलवा जुडूम की शुरुआत के बाद इस संभाग, खास तौर पर दंतेवाड़ा और बीजापुर के इलाकों से लगभग 600 गांव खाली हो चुके हैं.
कभी नक्सली इन आदिवासियों पर पुलिस का मुखबिर होने का शक करते हैं तो कभी पुलिस इन्हें माओवादी समर्थक मानती है.
ऐसे अविश्वास के माहौल में यहाँ चल रही हिंसा से प्रभावित शरणार्थी आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ.
आपसे बात करते करते अब मैं भी छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सीमायानी के कोंटा आ पहुंचा हूँ. अगली कड़ी में मैं आपको आंध्र प्रदेश और भद्राचलम के उन इलाकों में ले जाऊंगा जहाँ छत्तीसगढ़ के यह शरणार्थी रह रहे हैं.

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