Friday, January 13, 2012

'ऐसे थे प्रेमचंद


कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 125वीं जयंती देशभर में धूमधाम से मनाई गई। 'हिन्दी भवन' ने भी एक विशेष आयोजन किया। 'धर्मवीर स्मृति हिन्दी महिमा व्याख्यानमाला' के अंतर्गत 'ऐसे थे प्रेमचंद' विषय पर बुधवार 21 सितम्बर, 2005 को सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ0 निर्मला जैन की अध्यक्षता में इतिहासवेत्ता एवं चिंतक प्रो0 शाहिद अमीन ने अपना प्रभावशाली एवं विशिष्ट व्याख्यान दिया।
डॉ0 शाहिद अमीन के 'ऐसे थे प्रेमचंद' शीर्षक व्याख्यान का अविकल आलेख आपके लिए प्रस्तुत है-
"मैं हिन्दी भवन का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि आप लोगों ने मुझे यहां आने की दावत दी, न्यौता दिया, निमंत्रण दिया। न्यौता, निमंत्रण और दावत- ये तीनों पर्याय मैं गला-खंखारू अंदाज़ में नहीं, एक ख़ास वज़ह से इस्तेमाल कर रहा हूं। और वह इसलिए कि ये तीनों अल्फाज़, तीन अलग-अलग परिवेश से संबंध रखते हैं- ग्रामीण या आम-फ़हम, क्लिष्ट और अब रायज हिन्दी, और अपनी चौधराहट खोई हुई 'अलगू उर्दू'। प्रेमचंद की यह खूबी है- उनकी पहचान भी- कि ताउम्र वो इन तीनों दुनियाओं के बाशिंदे रहे। आज मैं कुछ हद तक इस तिरभुजिया आवाजाही पर रोशनी डालने की कोशिश करूंगा, और लगे हाथ कुछ अपनी बात भी आपके सामने रखूंगा।
मैं हिन्दी भवन का इसलिए भी आभारी हूं कि उन्होंने मुझे दावत देकर इतिहास और साहित्य की अकादमिक मैत्री को बढ़ावा दिया है। आपने मुझे यहां बुलाकर हालिया भारतीय इतिहास लेखन की भी इज्ज़त अफ़ज़ाई की है।
इससे पहले कि मैं कुछ और कहूं, मैं माज़रत चाहता हूं इस बात की कि प्रेमचंद पर मैंने कुछ ज्यादा नहीं सोचा है, और हिन्दी में तो मैंने अभी तक बहुत कम सोचा-बोला या लिखा है। हां, हिन्दी या फिर भोजपुरी रेज़गारी अंग्रेज़ी अकादमिक इतिहास लेखन में अवश्य भुनाई है। हो सकता है- इसका इमकान भी है- कि आप में से कइयों को मेरी भाषा या विचार कुछ अटपटे लगें। कोशिश कर रहा हूं प्रेमचंद के बहाने कुछ कहने की इस सभा में : "हिम्मत-ए-मरदां, मदद-ए-ख़ुदा।''
माज़ी, हाल और इतिहास (पास्ट, प्रेजेंट एंड हिस्ट्री) का रिश्ता हमेशा से पेचीदा रहा है। पिछले दो दशकों से हिन्दुस्तान में 'माज़ी का हाल' घोर चिंता का विषय रहा है। इतिहास को अभी कल तक देश के सांस्कृतिक, अकादमिक और राष्ट्रीय अखाड़े में अज़ब धोबियापाट तरीके से दांव पर लगाया जा रहा था, और आगे भी लगाया जाता रहेगा। एशियन पेंट्स के 'मेरा वाला पिंक' विज्ञापन की तरह 'मेरा वाला इतिहास' या अब 'मेरा वाला मंगल पांडे' की दुकान खुल चुकी है, जो अन्य 'मॉलों' की तरह अब देर शाम तक खुली रहेगी।
इस बदलते परिवेश में नए शोध, नई भाषा, नई प्रस्तुति की ज़रूरत है, और इसका एक ज़रिया है नए इतिहास और नए साहित्यिक दृष्टिकोण का एक नवीन सामंजस्य। ज़रूरत है कि हम दोनों प्रवृत्तियों, इन दोनों तहरीकों की नई उपलब्धियां हासिल कर एक नई दोस्ती की पहल करें। 'सुबह-ए-बनारस, शाम-ए-लखनऊ' की तर्ज़ पर। इसके लिए गरेबान में नहीं, अपने-अपने अकादमिक झोलों में पुनः झांकने की ज़रूरत है।
अपने इस बेतरतीब से आलाप को मैं 'फ़िराक़' की एक रुबाई और एक शेर के साथ ख्त्म कर अपने मूल वक्तव्य की तरफ़ झुकूंगा। फ़िराक़ साहब की रुबाई इस मायने में और मौजूं है कि फ़िराक़ और प्रेमचंद दोनों ने ही 8 फ़रवरी,1921 को गोरखपुर के बाले मियां (गाजी मियां) के मैदान में महात्मा गांधी को सुना और सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे, अपने लिए सृजन की नई राह चुनी।
'माज़ी' और 'दोश' दो शब्द हैं जिन पर इस रुबाई का दारोमदार है- माज़ी की तो बात हो ही रही है, दोश, यानि कंधा- इसी से बंजारों को ख़ाना-ब-दोश कहते हैं-अपना ख़ाना (घर) अपने दोश पर रखे घूमने वाले लोगः
"दामन उनका माज़ी से अटका सौ बार,
माज़ी ने दिया है उनको झटका सौ बार,
आए थे माज़ी के दोश पर चढ़ने,
माज़ी ने उठा-उठा के पटका सौ बार।"
फ़िराक़ अपने मख़सूस अंदाज़ में शायद यहां माज़ी और इतिहास का भेद समझा रहे हैं। इतिहास किसी भी समाज के अतीत की विवेचनात्मक और सवाल दागू समझ है। इतिहास तो अपने कांधे से दूर तलक दिखला सकता है, अतीत नहीं। और शायद यही सत्यजित राय के 'अपराजितो' के उस आख़री सीन-"बाप अपू के कांधे पर चढ़े बेटे''-का मर्म भी है। लेकिन दूर देखते हुए अपू और उसका बेटा ग्रामीण जीवन की प्रतिबद्धता से नाता तोड़ शहर बनारस आ चुके हैं। जैसा मशहूर-ओ-मारुफ़ फ्रांसीसी इतिहासकार मार्क ब्लॉक ने कहा है- "नई, युवा पीढ़ी, वो पीढ़ी जो किसी भी परिवर्तन से पहले रू-ब-रू होती है, उसकी उभरती हुई नवीनतम बाल-पीढ़ी की शिक्षा-दीक्षा में कोई अहम भूमिका नहीं होती।''
इतिहासकार बीती गतिविधियों, गुज़रे अहसासों, बीते दिनों के प्रमाणों और यादों की टोह में रहता है, और फिर इन्हें अपने फ़न के तहत एक वृत्तांत में संजोता है। इस तरह इतिहास-रचना और साहित्यिक रचना दोनों ही पाठक की हुंकारी की मोहताज हैं, पर दोनों की तर्ज़े बयान ज़ुदा है। इतिहास लेखन, हर हालत में दूसरों के अहसास पर आधारित हक़ीक़ी, न कि काल्पनिक नज़्म है। अतीत पर किए गए रियाज़ की बंदिश है-
"फ़िराक़' एहसास की ऐसी रियाज़त
हक़ीक़ी शायरी भी है बड़ा काम ।"
जब मुझे यह सूचित किया गया कि आज का विषय 'ऐसे थे प्रेमचंद' रहेगा, तो मैंने झिझकते हुए हामी तो भर दी, फिर सोचा कि ऐसे थे कि जगह 'ऐसे हैं प्रेमचंद' पर कुछ कहने की कोशिश करूंगा। कैसे थे मुंशीजी ये तो बुज़ुर्गान-ए-सुख़न ही जानें, जिन्होंने फ़िराक़ की तर्ज़ में प्रेमचंद को देखा था। इशारतन-
"आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी ऐ हम-असरो,
जब उनको मालूम ये होगा तुमने 'फ़िराक़' को देखा था।"
वैसे भी, 'ऐसे थे प्रेमचंद' शीर्षक पर बात करने का एक मतलब होगा मुंशीजी को किसी तख्ते पर चढ़ा देना, या कम-अज़-कम उनके गले में एक तख्ती तो लटका ही देना, जिससे दूर ही से पता चल जाए कि 'कैसे थे प्रेमचंद'! या फिर आज की उपभोगी बोल-चाल में, उनके वाङमय को किसी 'फ्रॉस्ट-फ्री-डीप फ्रीजर' में डाल देना, जिससे वह हमेशा के लिए जस-का-तस बना रहे, और वोल्टेज स्टैबिलाइज़र की मदद से एक नियंत्रित सर्द वातावरण, एक ठंडी शितोली, उसे समय की गर्मी और नज़र-ए-बद से हमेशा के लिए महफ़ूज़ रखे।
आलोक राय ने अभी हाल में एक अख़बार में इस किस्म की, प्रेमचंदियत से ऊब मुंशीजी को नए सिरे से पढ़ने की ख्वाहिश जाहिर की है, मैं ऐसा कुछ भी करने की क़ाबिलियत नहीं रखता। आप लोगों में से जो मेरे काम से थोड़ा-बहुत परिचित हैं और वैसे भी इस सभा में घोषणा करने की ज़रूरत नहीं कि मैं प्रेमचंद पर किसी भी क़िस्म की महारत नहीं रखता हूं। 'छाया' फ़िल्म का तलत महमूद का गाना है-
"मेरी ख़ता मुआफ़ मैं भूले से आ गया यहां,
वरना मुझे भी है ख़बर मेरा नहीं है ये जहां।"
'ऐसे हैं प्रेमचंद' से मेरी मुराद इतिहास करते हुए उनसे मेरी भेंट के कुछ तास्सुरात को क्रमबद्ध करने की है। 'इतिहास करना' मैं इसी तरह प्रयोग कर रहा हूं जैसे हमारी तरफ़ 'बाज़ार करना' जुमले का इस्तेमाल होता है।
एक सरजूपारी इतिहासकार होने के बाइस मेरा नाता तो बस उस गोरखपुर से है जहां प्रेमचंद ने काफ़ी अरसा बिताया और जहां के 1920-22 के राष्ट्रीय आंदोलन, सन्‌ तीस के बाद फैलती चीनी मिलों और 400-500 साल से लोकप्रिय सैयद सालार (या गाज़ी मियां) से वो भली-भांति परिचित थे। प्रेमचंद से मेरी पहली भेंट सन्‌ 78 में गोरखपुर के ग्रामीण इतिहास पर अपने काम के दौरान हुई।
मैं गोरखपुर से 32 मील पूरब एक छोटे से शहर देवरिया में पैदा हुआ था और हर गर्मी की छुट्टी में ननिहाल जाया करता था। दर्ज़ा छह और सात में मैं वहां के सरकारी स्कूल में पढ़ा भी। उस बालपन में दो ही चीज़ें अहम लगती थीं-एक तो हर स्टेशन पर चीनी मिल और वह मख़सूस स्टेशन 'चौरीचौरा'। क्योंकि सन्‌ 70 का ज़माना आर्थिक इतिहास लेखन का दौर था-शायद इस कारण मैंने उपनिवेशी गोरखपुर में किसानों द्वारा गन्ने की काश्त पर रिसर्च करने का तहैया किया।
ख़ुशनसीब था-रिसर्च के सब संसाधन थे- कहां नहीं गया, कौन सा रिकॉर्ड नहीं देखा, किस अभिलेखागार या मुहाफ़िज़खाने की ख़ाक नहीं छानी- लंदन, दिल्ली, लखनऊ, गोरखपुर, देवरिया, बरहज, बाज़ार, रामपुर, करखन्ना, बैतालपुर और सरदार नगर, कमिश्नर, कलक्टर, अंग्रेज़ी रिकॉर्ड रूम, कलक्टरी से ख़सरा-खतौनी, वाजिब-उल-अरज़ खसरा डीह बसगित.........................।
किस-किस नाजिर, बड़े बाबू, बंडल-लिटर की चिरौरी नहीं की और (अपने हिसाब से) नायाब रिकॉर्ड नहीं दस्तयाब किए। सन्‌ तीस के ज़माने के किस जानकार के पीछे मैं नहीं भागा। गोरखपुर गन्ना कृषक आंदोलन से उभरे बड़े नेता बाबू गैंदा सिंह, सन्‌ 1935 के ईख संघ के सचिव, बाबू अक्षैबर सिंह, ट्रेड यूनियन नेता और गोरखपुर के गन्ना-शाह, संविधान सभा के सदस्य और सांसद-शिब्बनलाल सक्सेना।
पांच साल में मैंने अच्छा-ख़ासा मोटा शोध-प्रबंध लिख लिया था। जिसमें अपने हिसाब से मैंने कई नई बातें कहने की कोशिश की थी-मसलन-छोटे किसानों की अपनी विशेषताएं और मजबूरियां, चीनी मिलों के फैलाव के कारण, किसानों का गन्ना-पेर गुड़ बनाने की जगह मिल को खड़ी ईख देने की तेज़ी से फैलती प्रक्रिया, गुड़ के बाप कोल्हू का दरकिनार किया जाना और गन्ना-मिलों के ठेकेदारों (जो अमूमन ज़मींदार और महाजन थे) का पेशगी के एवज़ में मिल के कांटों पर किसानों की भुगतान-पुरजी हथिया लेना, गन्ना गाड़ी पर लादने और पूस की रात में मिल के बाहर अगोर इत्यादि।
तब तक मैंने 'गोदान' नहीं पढ़ा था। दिल्ली विश्वविद्यालय की हिन्दी-क्लास में तो 'ग़बन' लगा था। उसके और बाद में मैंने प्रेमचंद का और कुछ पढ़ने की ज़हमत गवारा न की। सन्‌ 78 में मैंने 'गोदान' के ठीक बीचों-बीच यह पाया- "इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया। उसके कारिन्दे और दलाल गांव-गांव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिन्दा इस गांव में आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया तो मालूम हुआ गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है तो पेरने की मेहनत क्यों उठाई जाए ? सारा गांव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया। अगर कुछ कम भी मिले तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बाकी चुकाना था। कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अब की ऊख की पैदावार अच्छी न थी, इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन ? सभी ने बयाने ले लिए। होरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी। इतने में एक मामूली गोई आ जाएगी। लेकिन महाजनों को क्या करें ! दातादीन, मंगरू, दुलारी, झिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा तो सौ रुपये सूद भर को भी न होंगे। कोई ऐसी जुगत न सूझती थी कि ऊख के रुपये हाथ आ जाएं और किसी को खबर न हो। जब बैल घर आ जाएंगे तो कोई क्या कर लेगा ? गाड़ी लदेगी तो सारा गांव देखेगा ही। तौल पर जो रुपये मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जाएंगे। संभव है, मंगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपये, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी।
शाम को गिरधर ने पूछा- "तुम्हारी ऊख कब तक जाएगी होरी काका ?"
होरी ने झांसा दिया- "अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे ?"
गिरधर ने झांसा दिया- "अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका।"
और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयां बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था। झिंगुरीसिंह के सभी रिनियां (ऋणी) थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपये न पड़ने पाएं, नहीं वह सब हज़म कर जाएगा। और जब दूसरे दिन आसामी फिर रुपये मांगने जाएगा, तो नया कागज़, नया नज़राना, नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आकर बोला-"दादा, कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरी को हैजा हो जाए। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।....................."
"मेरी तो हालत और भी ख़राब है भाई, अगर रुपये हाथ से निकल गए तो तबाह हो जाऊंगा। गोई के बिना तो काम न चलेगा।"
"अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुंच जाए, ज़मादार से कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे, दाम पीछे देना। इधर झिंगुरी से कह देंगे, अभी रुपये नहीं मिले।"
शोभा ने धूर्तता के साथ कहा- "मैं तो दादा, इन सबों को अभी चकमा दूंगा। ज़मादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राजी कर लूंगा कि रुपये के लिए हमें खूब दौड़ाएं। झिंगुरी कहां तक दौड़ेंगे।"
होरी ने हंसकर कहा- "यह सब कुछ न होगा भैया ! कुसल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ-पांव जोड़ो। हम जाल में फंसे हुए हैं। जितना फड़फड़ाओगे उतने ही जकड़ते जाओगे।''
"मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊंगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।''
होरी का मन भी विचलित हुआ- "हां ,यह ठीक है।"
"ऊख तुलवा देंगे। रुपये दांव-घात देखकर ले आएंगे।"
"बस-बस यही चाल चलो।"
दूसरे दिन प्रातःकाल गांव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गंड़ासा लेकर पहुंचा। उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, धनिया, सोना सभी खेत में जा पहुंची। कोई ऊख काटता, कोई छीलता, कोई पूले बांधता था। महाजनों ने ऊख कटते देखी तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ़ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ से मंगरूशाह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के प्यादे। दुलारी हाथ-पांव में मोटे-मोटे चांदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झुमका, आंख में काजल लगाए, बूढ़े यौवन को रंगे-रंगाए आकर बोली- "पहले मेरे रुपये दे दो, तब ऊख काटने दूंगी। मैं जितना ही ग़म खाती हूं, उतना ही तुम सेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास रुपये तो मेरे सूद के होते हैं।"
होरी ने घिघियाकर कहा- "भाभी, ऊख काट लेने दो, इसके रुपये मिलते हैं तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूंगा। न गांव छोड़कर भागा जाता हूं, न इतनी जल्दी मौत ही आई जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपे न देगी।"
झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवा के नाव पर पहुंचा रहे थे। नदी गांव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह बहुत किफ़ायत पड़ती थी। इस सुविधा का इंतज़ाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।
तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर एक की ऊख तौलते थे, दाम का पुरजा लेते थे, खजांची से रुपये वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे देते थे। असामी कितना ही रोए, चीखे, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उसका क्या बस !
होरी को एक सौ बीस रुपये मिले ! उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किए।
होरी ने धीरे से रुपये उठा लिए और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके हाथ में रख दिए और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था।
शोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला तो पटेश्वरी ने घेरा।
शोभा बरस पड़ा। बोला- "मेरे पास रुपये नहीं हैं, तुम्हें जो करना हो,कर लो।"
पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा-"ऊख बेची कि नहीं ?"
"हां, बेची है।"
"तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेचकर दूंगा।"
"हां ,था तो।"
"फिर क्यों नहीं देते ! और सब लोगों को दिए हैं कि नहीं ?"
"हां , दिए हैं।"
"तो मुझे क्यों नहीं देते ?"
"मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है।"
पटेश्वरी ने बिगड़कर पूछा- "तुम रुपये दोगे शोभा, और हाथ जोड़कर आज ही। हां, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छः महीने को, पूरे छः महीने को, न एक दिन बेस, न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जाएगा। मैं ज़मींदार का नौकर नहीं हूं , सरकार बहादुर का नौकर हूं , जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मींदार दोनों का मालिक है।"
पटेश्वरी लाल आगे बढ़ गए। शोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा- "शोभा, इसके रुपये दे दो। समझ लो ऊख में आग लग गई थी। मैंने भी यही सोचकर मन को समझाया है।"
शोभा ने आहत कंठ से कहा- "हां, दे दूंगा दादा ! न दूंगा तो जाऊंगा कहां ?"
मिस्टर खन्ना की मिल- एक पंजाबी सरमायादार सन्‌ 1930 के गोरखपुर में। यह बस्ती जिले में नारंग परिवार की तीन मिलों और सरदार नगर के मज़ीठिया-जन की भारी दोमुहिया गन्ना मिल की ओर इशारा हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में कितना सार्थक है मिस्टर खन्ना, यह नाम !
गन्ना-लघु कृषक प्रणाली और चीनी मिलों पर अपनी किताब जब मैंने प्रकाशक के हाथ सौंपी तो उसकी शुरूआत ही इस लंबे उद्धरण से की और फिर अपने इस आर्थिक इतिहास को ख़त्म करते हुए यह लिख दिया- "होरी और शोभा किसी निरी साहित्यिक काल्पनिकता के पात्र मात्र नहीं हैं।" ऐसे लगे मुझे प्रेमचंद। ऐसे हैं प्रेमचंद किसानी खेतिहास को कलमबंद करने की लालसा लिए 1970 के दशक के एक इतिहासकार के लिए।
सन्‌ 80 में मैंने अपनी 'चौरीचौरा' पुस्तक के शोध-कार्य के दौरान 'प्रताप', 'आज' और 'स्वदेश' जैसे समाचार पत्रों के अवराक़ पलटने शुरू किए और सरकारी दस्तावेज़ों और रिपोर्टों को भी खंगाला। 1919 से आगे तीन साल उत्तर प्रदेश के मुख्तलिफ़ इलाकों में भांति-भांति के किसान आंदोलनों का युग कहा जा सकता है। प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली में नज़राना और बेदख़ली को लेकर बाबा रामचंद जैसे नेता की नुमाइंदगी में अवध किसान आंदोलन, हरदोई और उसके अतराफ़ 'एका' आंदोलन, नागपुर कांग्रेस के बाद दिसंबर, 1920 से फरवरी, 1921 तक गांधी का मुख्तलिफ़ जिलों का दौरा, जिसमें गोरखपुर भी शामिल था।
इन सबके बीच एक अहम मुद्दा जो बार-बार उठ रहा था 'रसद' और 'बेगार' का था। हाकिमों के शीतकालीन दौरे और किसानों पर ज़मीदारों की चौतरफ़ा पकड़,न सिर्फ़ लगान-पोत, बल्कि किसान के हर प्रकार के गृह-उत्पादन पर निजी उपभोग हेतु उगाही। साथ ही अपने कार्य-काज के साथ-साथ साहब के लिए भी बेगार मुहय्‌या करने की ज़रूरत। जो ज़मींदार परगना हाकिम या 'जंट साहब' के पड़ताली दौरे के वक्त अपनी छावनी पर अपने सभी असामियों को, क्या छोटे-क्या बड़े, लाइन हाजिर न करा सके, वो क्या ख़ाक ज़मींदार कहलाता ! साहब का अपनी ज़मींदारी में पड़ाव डालना किसी भी 'ठाकुर' के लिए इज्ज़त अफज़ाई का बाइस था। साथ ही, साहब के लिए की गई हर प्रकार की श्रमिक और माली उगाही ज़मींदार के अपने रौब-दबदबे को और सुदृढ़ बनाना था। इस प्रकार साल भर 'परजा' से की हुई भांति-भांति की उगाही- क्या दूध, मलाई, घी, शक्कर, क्या मुर्गा, अंडा और बकरी, क्या भूसा, घास, घड़ा और रस, क्या बांस, हरेठा और लकड़ी ........ सब ज़मींदारी ठाठ पड़ा रह जाता, अगर इस सबको साहब का 'ऑन टुअर' अवलंब न मिलता।
रसद और बेगार के ख़िलाफ सुगबुगाहट या फिर ग्राम या उससे ऊपरी स्तर पर आंदोलन 'जिमीदार' और सरकार दोनों ही के रौब और दबदबे को आहत करता था। और यह बात साहब-ए-दौरा कह लीजिए- तात्कालिक फ़ाइलों और नोटिंग्स में लिखी भी हुई है।
हर पड़ाव पर साहब के लिए 'जिनिस' और अन्य वस्तुओं और 'लेबर' मुहय्‌या कराने की जिम्मेदारी उस पड़ाव पर नियुक्त चौधरी की होती थी, और ज़मींदार अमूमन आढ़तियों और व्यापारियों से महसूल किए पैसे से चौधरी के माली नुक़सान की भरपाई करता था। पड़ाव के चौधरी की काफ़ी सांसत होती और नुक़सान तो उठाना ही पड़ता था, चाहे जो कुछ भी बाद में मुआवज़े के तौर पर हासिल होता। साहब के दल के अग्रिम हमलावर चपरासी, सबको उल्टे उस्तरे से मूंड़ डालते थे। बनारस जिले में, सरकारी रिपोर्टों के अनुसार अन्य अहलकार या तो बाज़ार निर्ख़ से कम दामों पर माल उठा ले जाते या स्थानीय बटखरे से भारी 'सरकारी सेर' से तौल लगाते। और इस प्रकार कुछ माल फ्री ही हो जाता। ग़ाजीपुर में तो पड़ाव के चौधरियों की यह हालत थी कि जिले के हर पड़ाव पर बनियों को उन्हें चार सौ रुपये जमा कर चौधरियों के नुकसान की भरपाई करनी पड़ी थी। ज़ाहिर है बनिया भी कुछ तो अपनी टेंट से निकालते और कुछ बाज़ारियों से 'इन्डायरेक्ट टैक्स' के तौर पर ऐंठ लेते।
सुलतानपुर के देवनारायण और टांडा में ख़लील अहमद सन्‌ 20-21 में हर जिले में रसद और बेगार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले प्रमुख स्थानीय नेता उभरे, जिनका नाम पुलिस रिपोर्टों में आज भी दर्ज़ पड़ा है।
इस आंदोलन के कारण सरकार को थोड़ा-बहुत नर्म रुख़ अपनाना पड़ा। 1920-22 में हर जिले में रसद कमेटियों का गठन हुआ, पड़ावों पर हो रहे जुल्म सरकारी फ़ाइलों तक पहुंचे और कुछ रियायत हुई। साहबों के टेंट का साइज़ कम किया गया, दौरों की अवधि घटाई गई, पड़ाव के साथ कम से कम एक बनिए की हाजिरी खत्म हुई। गाड़ी और गाड़ीवान अब एक-एक महीने के लिए किराए पर ली जानी थी ( न कि धर-पकड़ कर गाड़ीवानों को लाना) और उनको उस समय का वाजिब भाड़ा दिया जाना था।
इस सबका भार अंततः किसान पर ही पड़ता था। हर किस्म की उगाही की जड़ किसानों के खेतों तक पहुंचती थी, चाहे वह पालो, गोइड़, मांझा हो या उसमें जौ-किराव, जौन्हरी, गोजई या फिर गन्ना लगा हो।
सन्‌ 20 के रसद और बेगार विरोधी 'कबीर' गायन में तो हाकिम जिला अफ़सरान और उनके चपरासियों को ही मख़सूस अंदाज़ में निशाना बनाया गया-
"रर......अर...ररर...सुनि कबीर लेउ मोरी कबीर
दौरे में परजा के दुःख की तनिक न पूछें बात,
पकरि बेगारी गरीबन मारें जूता, घूंसा, लात-भला
ये हाकिम नमकहराम बड़े।
चपरासिन से भले आदमिन की ऊखड़ावैं मूंछ,
ऐसे अफसर नहीं सुधरेंगे, ज्यों कुकुर की पूंछ-भला
इनकी नस-नस में जुलुम भरा।
धनवानन की डाली खा कर सौवैं पैर पसार
नीलगाए, कुकुर, हिरनन का बिनि-बिनी करै सिकार-भला-
यें हाकिम नमकहराम बड़े।"
अब इसके बरअक्स 'प्रेमाश्रम' को उठाकर देखें -उपन्यास ही रसद-बेगार से शुरू होता है और उपसंहार में एक पात्र डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में बेगार प्रश्न पर किसी 'गर्मागर्म बहस' के बाद बेगार और रसद में रियायतें-जैसा कि यूपी बेगार कमेटी की रिपोर्ट के गज़ट हो जाने के बाद होना था-लागू करता है, और सबके बीच है एक रैयतों का खैरखवाह ज़मींदार।
उपन्यास की कुछ सतरें पढ़ देता हूं। पहले पन्ने का तीसरा ही जुमला हैः "लखनपुर में आज परगने के हाकिम की पड़ताल थी।" (नोट किया जाए कि उस समय गांव का हर शख्स एसडीएम को हाकिम परगना कहता था। प्रेमचंद ग्रामीण, क्या सामयिक बोली ही नहीं, औपचारिक ख़िताब को भी अपने पात्रों के लिए बनाकर लिख रहे हैं। मैं प्रेमचंद के उनके ग्रामीण पात्रों की रोज़मर्रा बोलचाल की हिन्दी में रूपांतरण पर थोड़ी देर में कुछ और भी कहूंगा।)
दूसरे पन्ने पर ही 'गिरधर महाराज'- यह महाराज ज़मींदार के चपरासी हैं-लखनपुर में अवतरित होते हैं। तीसरे पेज पर तमाम असामियों से बाज़ार निर्ख़ से कम दर पर घी के लिए पेशगी बांट उन्हें बाध्य करते हैं।
आठवें अध्याय में प्रेमचंद रसद-प्रथा पर लिखते हैं- "इसमें संदेह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्याय-प्रार्थी के द्वार तक पहुंचना, प्रजा के दुःखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना।..............
किन्तु जिस भांति प्रकाश की रश्मियां पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भांति सदिच्छाएं भी बहुधा मानवी दुर्बलताओं के संपर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है। अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भांति इस सुख- काल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है, तो बहुत कम ! वहां प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किंतु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोटे पर होता है या किसी दीन किसान की गर्दन पर ! जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मांस-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों की यहां केवल जिह्‌वा और बाहु के बल पर रेल-पेल हो जाती है।
लखनपुर शहर से दस मील दूरी पर था। हाकिम लोग आते-जाते यहां ज़रूर ठहरते। अगहन का महीना लगा ही था कि पुलिस के एक बड़े अफ़सर का लश्कर आ पहुंचा। तहसीलदार स्वयं रसद का प्रबंध करने के लिए आए। चपरासियों की एक फ़ौज साथ थी। लश्कर में सौ-सवा सौ आदमी थे। गांव के लोगों ने यह जमघट देखा तो समझा कि कुशल नहीं है। मनोहर ने बलराज को ससुराल भेज दिया कि इसे चार-पांच दिन न आने देना। लोग अपनी-अपनी लकड़ियां और भूसा उठा-उठाकर घरों में रखने लगे। लेकिन बोवनी के दिन थे, इतनी फुरसत किसे थी ?
प्रातःकाल बिसेसर साह दुकान खोल ही रहे थे कि अर्दली के दस-बारह चपरासी दुकान पर आ पहुंचे। बिसेसर ने आटे-दाल के बोरे खोल दिए, जिन्हें तौला जाने लगा। दोपहर तक यही तांता लगा रहा। घी के कनस्तर खाली हो गए। तीन पड़ाव के लिए जो सामग्री एकत्र की थी, अभी समाप्त हो गई। बिसेसर के होश उड़ गए। फिर आदमी मंडी दौड़ाए। बेगार की समस्या इससे कठिन थी। पांच बड़े-बड़े घोड़ों के लिए हरी घास छीलना सहज नहीं था। गांव के सब चमार इस काम में लगा दिए गए। कई नोनिये पानी भर रहे थे। चार आदमी नित्य सरकारी डाक के लिए सदर दौड़ाए जाते थे। कहारों को कर्मचारियों की ख़िदमत से सिर उठाने की फुरसत न थी। इसलिए जब दो बजे साहब ने हुक्म दिया कि मैदान में घास छीलकर टेनिस कोर्ट तैयार किया जाए तो वे लोग भी पकड़े गए जो अब तक अपनी वृद्धावस्था या जाति-सम्मान के कारण बचे हुए थे। चपरासियों ने पहले दुखरन भगत को पकड़ा। भगत ने चौंककर कहा- "क्यों मुझसे क्या काम है ?"
चपरासी ने कहा- "चलो लश्कर में घास छीलनी है।"
भगत-"घास चमार छीलते हैं, यह हमारा काम नहीं है।"
इस पर एक चपरासी ने उनकी गरदन पकड़कर आगे धकेला-"चलते हो या यहां कानून बघारते हो ?"
भगत-"अरे तो ऐसा क्या अंधेर है ? अभी ठाकुरजी को भोग तक नहीं लगाया।"
चपरासी-"एक दिन में ठाकुरजी भूखे न मर जाएंगे।"
भगत ने वाद-विवाद करना उचित न समझा, झपटकर सिपाहियों के बीच से निकल गए और भीतर जाकर किवाड़ बंद कर दिए। सिपाहियों ने धड़ाधड़ किवाड़ पीटना शुरू किया। एक सिपाही ने कहा, "लगा दे आग, वहीं भुन जाय।" दुखरन ने भीतर से कहा, "बैठो, भोग लगा कर आ रहा हूं।" चपरासियों ने खपरैल फोड़ने शुरू किए। इतने में कई चपरासी कादिर ख़ां आदि को साथ लिए आ पहुंचे। डपटसिंह पहर रात रहे घर से गायब हो गए। कादिर ने कहा-"भगत, घर में क्यों घुसे हो ? चलो, हम लोग भी चलते हैं।"
भगत ने द्वार खोला और बाहर निकल आए। कादिर हंसकर बोले-"आज हमारी बाजी है। देखें कौन ज्यादा घास छीलता है।" भगत ने कुछ उत्तर न दिया। सब लश्कर के मैदान में आए और घास छीलने लगे।
मनोहर ने कहा-"ख़ां साहब के कारण हम भी चमार हो गए ।"
दुखरन-"भगवान की इच्छा। जो कभी न किया, वह आज करना पड़ा।"
कादिर-"ज़मींदार के असामी नहीं हो ? खेत नहीं जोतते हो ?"
मनोहर-"खेत जोतते हैं तो उसका लगान नहीं देते हैं ? कोई भडुआ एक पैसा भी तो नहीं छोड़ता।"
कादिर- "इन बातों में क्या रखा है ? गुड़ खाया है तो कान तो छिदाने पड़ेंगे। कुछ और बातचीत करो। कल्लू, अबकी तुम ससुराल में बहुत दिन तक रहे। क्या-क्या मार लाए ?''
यह उद्धरण किसानों के बीच ऊंच-नीच और कंठी-भगत लोगों का निम्न जाति के प्रति जातीय घृणा का बहुत अच्छा नमूना है।
समाज की आंतरिक तरतमता और विषमता की ओर इशारा और किस प्रकार साहब बहादुर और उनके अमला का किसान मानवियत पर प्रहार, बेइंसाफ़ी इस मायने में समझी जाती है जो जातिबद्ध हो। इसके लिए 'प्रेमाश्रम' के पात्र अगर जातिगत गालियां नहीं देते, जो वास्तव में वे उस समय क्या बहुत बाद तक देते रहे हैं- तो कम से कम अपनी बेइज्ज़ती जातिगत बेगैरियत के रूप में ही देखते हैं।
"उपनिवेशवाद ने सबको अमुक निचली जाति जैसा बनाकर छोड़ा, वरना हम भी.." यह भावना एक जातिगत राष्ट्रवाद की अहम पहचान है। 'आर्थिक राष्ट्रवाद' के चलते देसी शोषण को एक तरह से पिछले- अगले पर रख दिया गया था, ताव पर आया था ग्रामीण समाज का उपनिवेशी शोषण। इस प्रकार के विश्लेषण में जब ग्रामीण भारत पर आर्थिक भार की बात होती थी, तो सरकार को ज़मींदार द्वारा दिया गया लगान, जो कि किसानों से अर्जित पोत का मात्र अठन्नी भाग था, उसी को रेखांकित किया जाता था।
इसी प्रकार अभी हाल तक भारतीय आर्थिक इतिहास लेखन में भूमिहीनों की समस्या उपनिवेशी सरकार की आर्थिक नीतियों का ख़ामियाज़ा भोगते हुए मध्यम जाति के किसान इकाइयों की चरमराहट और खेतिहरों के भूमिहीन मजूर होने की प्रक्रिया के रूप में ही देखी जाती थी। 1960 के दशक तक यह बात कि भूमिहीनता का एक लंबा जातीय इतिहास है और यह ऊंची जाति के हल जोतने को एक नीच कार्य समझना, इससे बाज़ाप्ता जुड़ा हुआ है। इस पर इतिहासकार सोचने को तैयार ही नहीं थे। कारण यह था कि आर्थिक संबंधों को निजी आर्थिकता के बाहर सामाजिक और जातिगत संबंधों के साथ जोड़कर देखने का अकादमिक प्रचलन ही नहीं हुआ था और न ही इस मामले में पुरानी राष्ट्रवादी सोच किसी भी दायरे से प्रश्नचिन्हित हुई थी। यह कि ज्यादातर बंधुआ मज़दूर ऐसी दलित जातियों से थे जिन्हें किसानी का नहीं, वरन दूसरों के लिए हल जोतने का अधिकार था, और यह कि भारत के कई इलाकों में इनको हलपति (गुजराती) हलवाहा या हरवाहा कहा जाता था।
इसी प्रकार अभी हाल तक भारतीय आर्थिक इतिहास में नारी का शुमार नहीं के बराबर रहा है। जितना ही हम उपनिवेशकालीन किसान की कौटुम्बिक इकाई और उस पर दबाव की बात करते रहें, यहां मैं किसान गृहस्थी अर्थव्यवस्था की बात कर रहा हूं, जितना हम गृहस्थ की बातें करते हैं ,उतना ही हम गृहिणी के आर्थिक योगदान को नज़रअंदाज करते जाते हैं। कहां है उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ब्रिटिश मशीन-निर्मित धागे के आयात से आहत सूत-कातनहारियों का इतिहास ?
प्रेमचंद भी एक राष्ट्रवादी लेखक हैं, पर मेरे नज़दीक उनकी रचनाओं में किसानों द्वारा राष्ट्रवाद के लौकिकीकरण की बहुत कम झलक मिलती है। राष्ट्रवादी समझ आपसी द्वंद्व और आंचलिकता को नज़रअंदाज करती हुई आगे बढ़ती है। प्रेमचंद भी लोक को मांजकर अन्य हिन्दी-पट्टी के शहरी लोगों के सामने पेश करते हैं। 'गोदान' को ही लें- भोजपुरी क्षेत्र में स्थित इस उपन्यास में भोजपुरी नहीं के बराबर है। भोजपुरी संज्ञाएं बहुतेरी मिलेंगी, कुछ शब्दों का भोजपुरीकरण भी मिलेगा-जैसे शायद की जगह 'साइत'। "चलो मैं तुम्हारे घर पहुंचा दूं, साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्ते में दिक करें।" या फिर "कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहां......एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफा कैसे करे।"
यहां मैं कैसानिक शब्दागार की कुछ बुनियादी बातों पर दो मिनट लेते हुए प्रेमचंद की भाषा पर वापस आऊंगा। 'साइत' (शायद) और 'जाफा' (इज़ाफा) दोनों ही अरबी-फ़ारसी उर्दू के रास्ते किसानों की ठेठ भाषा में अरसे पहले प्रवेश कर चुके थे। 'कृषि संबंधी शब्दावली' अंबिकाप्रसाद सुमन की अलीगढ़ जिले की बोली पर आधारित दो जिल्दों में छपी ज़बरदस्त पुस्तक का शीर्षक है। पर सुमन के बरक्स, कृषि से मुताल्लिक़ अल्फ़ाज़ ग्रामीण बोलियों में न ही संस्कृत से अपितु फ़ारसी-अरबी से भी आए हैं, अमूनन एक प्रकार के अनिवार्य तद्भवीकरण के पश्चात। शायद इस प्रक्रिया को किसानीकरण, या फिर हमारे परिप्रेक्ष्य में, भोजपुरीकरण कहना बेहतर होगा।
मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि कई बार शब्द में कुछ भी परिवर्तन न आए हुए भी किसान जगत्‌ में उसका मानी बिलकुल बदल सा जाता है। यह महज़ गंवारूपन नहीं है, और अगर है, तो उसका भी एक कारण, एक इतिहास है। किसी भारी-भरकम, या फिर सरकारी या अदालती शब्द किसानों की दुनिया में एक मख़सूस इस्तेमाल के कारण होते हैं।
'मुसम्मात' अरबी-फ़ारसी जगत्‌ से आया हुआ उर्दू शब्द है-मसलन औरत या औरतें-पूर्वांचल में काफ़ी इस्तेमाल होता है। लेकिन हमारी गोरखपुर-देवरिया में (और बिहार में भी) किसी कृषक के द्वारा मेरे बचपन तक (और कदापि अभी भी) कैसे इस्तेमाल होता था (है) यह शब्द ? 'मुसम्मात' शब्द एक विधवा के लिए प्रयोग में लाया जाता है। वह इसीलिए कि कचहरी-इजलास में गांव की औरत दावा-नालिश करने ब्याहता या अहिवाती के रूप में बहुत कम, अधिकांश बेवा के रूप में ही प्रकट होती थी।
सैकड़ों शब्द मिलेंगे फ़ारसी, अरबी और बाद में अंग्रेज़ी से या फिर ठेठ शब्द किसी 'अंग्रेज़ी' चीज़ के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है। जैसे आज़मगढ़िया शब्द 'गोड़ांव'-पतलून के लिए गोड़ 'पांव' से, या फिर गांधी, प्रेमचंद और फ़िराक़ के ज़माने से चौरीचौरा के राष्ट्रवादी किसानों द्वारा इस्तेमाल किया-'ओटियर' जो (कांग्रेसी) वॉलंटियर का ठेठ भोजपुरीकरण है। या फिर प्रकाश झा की फ़िल्म वाला, और बहुत ही आम-फ़हम शब्द 'दामुल' ही को लें। दामुल-फांसी अकसर साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं, छोटकी डुमरी गांव के अस्सी-साला सीता अहीर (जिसके चाचा को चौरीचौरा कांड में फांसी हुई थी) ने 1989 में इन दोनों शब्दों को इस तरह तोड़कर याद किया।"'जजमेंट हम्मन लिहल बानी.... जे जेहल रहल तौनो छूट गहल-कांग्रेस के राज भइल त-अ-जे 'दामुल' रहल तौनो छूट गइल, बाकी जे-के फांसी हो गइल ऊ न आइल........ऊ लोग अइलां-फांसी ही गइल त ऊ नाई आइल।"
यहां डामुल या डामल काला पानी, यानी आजीवन कारावास के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं वृद्ध सीता अहीर। लेकिन काला पानी, सेलुलर जेल या फिर अंडमान द्वीप की हलकी सी भी भनक नहीं है इस शब्द डामुल में। कहां से आकर बस गया डामुल पूर्वांचलीय लोकमानस में ? इसका, जवाब है कि डामुल/दामुल, सक़ील उर्दू 'हब्स-ए-दयाम ब अबूर-ए-दरया-ए-शोर' का भोजपुरी और (ज़रूरी) सरलीकृत रूप है। जब सन्‌ 1860 की भारतीय दंड संहिता का पहले पहल तर्जुमा हुआ (उर्दू में : हिन्दी में तो बहुत बाद में) तो कहा जाता है कि डिप्टी नज़ीर अहमद साहब ने इसका बहुत ही गाढ़ी उर्दू में रूपांतरण किया - हब्स, जो अपने आप में खुद एक गला-घोंटू शब्द है -"'यहां बड़ा हब्स हो रहा है", 'दयाम-दायम' यानी हमेशा, जिस शब्द का बहुत सुंदर इस्तेमाल ग़ालिब का एक शेर है :
दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं
ख़ाक ऐसी जिंदगी पे कि पत्थर हूं मैं।


और इसी प्रकार 'दरया-ए-शोर' यानी नमकीन दरया, अर्थात्‌ सागर और अबूर माने पार-हमेशा के लिए नमकीन-पानी समंदर के पार, यानी काला पानी। किसानों ने नज़ीर अहमद साहब की, इस लच्छेदारी-जैसे पूर्वांचल में कहते हैं, "एते बड़े ग़ाजी मियां, हेंतहत लंबी पूंछ"- की छंटनी कर डामल बना छोड़ा।
तो प्रेमचंद किसानों की इस शाब्दिक आवाज़ाही को बखूबी दर्शाते हैं : 'गोदान' में न सिर्फ़ 'हाकिम' शब्द है, अपितु 'गोदान' के किसान 'हाकिम हुक्काम' (हाकिम का बहुवचन) भी कहते हैं।
लेकिन प्रेमचंद में किसानी भाषा के प्रयोग की भी एक सीमा है। आप 'गोदान' में ठेठ कृषक शब्द संज्ञाएं पाएंगे, लेकिन भोजपुरी क्रियाएं, वाक्य या उपवाक्य नहीं के बराबर पाएंगे : गोया, प्रेमचंद बनारस-गोरखपुर के गांवों का यथार्थ तो पेश कर रहे हैं, पर उस ख़ित्ते की भाषा से एक हद तक गुरेज़ करते हुए ! भोजपुरी को प्रधानता देना पाठकवर्ग और पात्रों के बीच की दूरी और बढ़ा देगा-स्थानीय, राष्ट्रीय पर भाषाई तौर से हावी हो जाएगा, 'मैला आंचल', 'आधा गांव' या 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' की तरह। भोजपुरियत का आयात हिन्दी को हिन्दी नहीं रहने देगा। यह भी राष्ट्रवादी हिन्दी उपन्यास होने की एक पहचान है।
होरी और धनिया या फिर झुनिया और गोबर के बीच प्रेमालाप की भाषा और 'आधा गांव' के सैफुनिया और मिग़दाद के बीच बातचीत की भाषा बिल्कुल अलग है, क्योंकि राही मासूम रज़ा ग़ाज़ीपुर के एक गांव की कहानी बांच रहे हैं, राष्ट्र के एक गांव की कहानी कलमबंद नहीं कर रहे हैं।
"हमारे पास पचास रुपया है''। मिग़दाद ने कहा, "चल, कलकत्ता भाग चलें।''
"ई तूं का कह रह्‌यो !'' सैफुनिया ने आंख खोले बिना कहा, "ई गांव से हम लोगन का रिश्ता अटूट है। तूं ब्याह कर ल्यो। हम त तिहरे हैय्‌ये है।''.....
"हम ई कह रहीं कि जहां मियां कह रहें तिहां कर ल्यो। फिर हमहूं से दो बोल पढ़वा लीहो, जैसे दादा तोरी दादी से पढ़वा लिहिन रहा।''
"न !'' मिग़दाद ने कहा, "हम इक्के ठो ब्याह करेंगे, नहीं त करबे न करेंगे। मामू की ऊ भस्सड़ लड़कियों के वास्ते हमहीं रह गए हैं !''
"त का ख़ाली एही मारे तूं ब्याह न कर रह्‌यो कि ऊ बदसूरत है !... जौन ई बात है त जा, हम तूं से ब्याह न करेंगे।''
"ना करबे ?''
"ना करेंगे।''
"ना करबे ?''
"ना करेंगे, ना करेंगे, ना...''
मिग़दाद ने इतने ज़ोर का थप्पड़ मारा कि उसकी गर्दन फिर गई। इस थप्पड़ ने कई दीवारें गिरा दीं। वह मिग़दाद से लिपट गई और बच्चों की तरह रोने लगी......
"करेंगे रे..... तो से न करेंगे त और के से करेंगे !''
इसके बरक्स गोदान से उस सीन, जिसमें होरी बीमारी से उठा है, के संवाद की नज़र-ए-सानी करते हैं-
होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था। एक दिन धनिया ने कहा- "तुम्हें इतना ग़ुस्सा कैसे आ गया ? मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही ग़ुस्सा आए, मगर हाथ न उठाऊंगी।"
होरी लजाता हुआ बोला- "अब उसकी चर्चा मत कर धनिया ! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। उसका मुझे कितना दुःख हुआ, वह मैं ही जानता हूं।"
"और जो मैं भी उस क्रोध में डूब मरी होती !''
"तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता ? मेरी लाश भी तेरे साथ चिता पर जाती।''
"अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत बको।" "गाय गई सो गई, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। मुनिया की फिकर मुझे मार डालती है।''
और अब आखिरी बात सैयद सालार, बाले मियां को लेकर, जिनसे कम-से-कम इब्न-बतूता (1340 के लगभग) के ज़माने से पूर्वांचल के लोग कमोबेश परिचित हैं। ग़ाज़ी मियां, यानी सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी, जिनको पूवार्चल में बाले मियां कहा जाता है, एक सिपहसालार सूफ़ी समझे जाते हैं। उनकी जीवनी और उनके बारे में प्रचलित तमाम किंवदंतियां यहां पेश करने का समय नहीं है। केवल यह बता दूं कि इनकी शहादत अपनी शादी के रोज़ तेल-उबटन सब छोड़, पीढ़े से उठ एक स्थानीय राजा से अपने ग्वालों की गायें छुड़ाने के लिए किए गए युद्ध में हुई। गौ-गुहार पर कान देते हुए उन्होंने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। सालार मसूद तब केवल 18 वर्ष के नौजवान थे- कुंवारे- उनकी शादी के दिन हुई मौत ने बाले मियां को न ही शहादत का ऊंचा दरजा प्रदान किया, बल्कि बहराइच स्थित उनके मज़ार को बरकतपूर्ण बना दिया। बड़े लंबे अरसे से बांझ, अंधे और कोढ़ रोग से ग्रस्त लोग आपकी बरकत से फ़ैजयाब होते रहे हैं- ऐसा आम इत्काद है लोगों में। और यह बहुत पुरानी श्रद्धा है, तुग़लक काल के बादशाहों से लेकर अब तक।
जेठ मास के पहले इतवार को बहराइच, गोरखपुर, इलाहाबाद के पास सिकंदरा, बनारस और कई जगह इनका बहुत बड़ा मेला लगता है। गोरखपुर शहर में पुलिस लाइन को छोड़कर सबसे बड़ा सार्वजनिक मैदान राप्ती के किनारे मियां का मैदान ही था, और इसलिए महात्मा गांधी 8 फरवरी, 1921 को गोरखपुर में राष्ट्रवाद का मंत्र फूंकने यहां ही पधारे। जैसा मैं पहले कह चुका हूं, यहीं बाले के मैदान में मुंशी प्रेमचंद और रघुपति सहाय (फ़िराक़) ने गांधी को सुना और स्कूल इंस्पेक्टरी और डिप्टी कलक्टरी से इस्तीफा दिया।
इस सबका लुब्बोलुवाब यही कि बाले मियां इस क्षेत्र के जनमानस और लोकजीवन में किसी भूमिका और तमहीद के मोहताज नहीं, बाले मियां तो बस हैं।
जब किसी की शादी बार-बार लगते-लगते टूट जाए तो उसको 'बाले मियां का बियाह' कहते हैं।
सूई-धागे की एक पहेली में भी उनकी जीवनी से संबंधित किंवदंतियों के लंबे सिलसिले को ही पिरोया गया है- "एते से गाज़ी मियां और मेहनत लंबी पूंछ।" या फिर :
"ताई ताई पूड़ियां घी में चपूड़ियां
बाले मियां रूठ गए धर कान मुड़ेड़ियां।"
बचपन से मुझे यह याद है, मतलब अभी भी पूरी तरह समझ नहीं पाया।
तुलसीदास का एक दोहा भी कहते हैं- जनमानस के बार-बार बहराइच के मज़ार पर 'दौड़ी लगाने' के बारे में :-
"लही आंख कब आंधरे बांझ पूत कब बियाए,
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाए।"
बाले या ग़ाज़ी मियां की पूर्वांचली जनता के रस्म-ओ-रिवाज़, सोच-ओ-फ़िक्र में एक स्वाभाविक सी पैठ का एक विलक्षण, तीखा और कटाक्षपूर्ण खाका प्रेमचंद के मित्र, गोरखपुर जिला निवासी, तहसीलदार एवं राष्ट्रवादी, कवि एवं व्यंग्यकार पंडित मन्नन प्रसाद द्विवेदी गजपुरी ने इलाहाबाद के मशहूर इंडियन प्रेस से छपे अपने उपन्यास 'रामलाल' (1917) में खींचा है।
गोरखपुर में महात्मा गांधी के आगमन और तदुपरांत उनके महात्म्य को ले उड़ी उड़नघाइयों पर भी मन्नन गजपुरी व्यंग्य करने से नहीं चूके, और स्थानीय राष्ट्रवादी साप्ताहिक 'स्वदेश' में 'मुच्छंदर नाथ' के उपनाम से तीखी फ़ब्तियां कसी थीं। प्रेमचंद मन्नन द्विवेदी से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे और 1921 में उनके निधन पर 'ज़माना' रिसाले में यूं श्रद्धांजलि दी थी-
"उर्दू को हज़रत अकबर (इलाहाबाद) मरहूम की मौत से जो नुकसान पहुंचा है क़रीब-क़रीब उतना ही ज़बरदस्त नुकसान हिन्दी साहित्य को मन्नन द्विवेदी गजपुरी की असामयिक मृत्यु से पहुंचा है..... आपके हास्य में एक ख़ास साहित्यिक चपलता थी,.... दो चार बार इन पंक्तियों के लेखक को आपकी दिल्लगी का निशाना भी बनना पड़ा, मगर आपकी चुटकियों में द्वेष की गंध भी न होती थी।''
तो कैसे पेश करते हैं सैयद सालार, उर्फ़ ग़ाज़ी मियां, उर्फ़ बाले मियां को मन्नन द्विवेदी अपने ग्रामीण जीवन के एक सामाजिक उपन्यास में ? ग्रीष्म ऋतु का जिक्र चल रहा है :
"अब गर्मी आ गई। कितनी लू चल रही है। पहले बाले मियां का विवाह हो गया। पहले-पहल बाले मियां के विवाह के रोज़ आम पकता है। आपकी शादी होती है जेठ के पहले इतवार को। कभी मुमकिन नहीं कि बाले मियां के शादी के पहले आम पक जाएं। लेकिन एक धनी और मानी सज्जन ने एक महीना पहले ही मज़ेदार लंगड़ा चखकर कहा- 'कहिए ? कहां गए आपके बाले मियां और कहां गई उनकी शादी ?' इसका क्या जवाब हो सकता था। शरमाकर जवाब दिया गया- 'भई आजकल आरियों (आर्य समाजियों) का ज़ोर है। आरिया लोग बिला साइत के ही सब काम कर लेते हैं। शुक्रास्त में इनके घर ब्याह के गीत सुने जाते हैं। मालूम होता है कि आपके आम आरिया समाजी आम होंगे।''
अब आपको ले चलते है प्रेमचंद की मशहूर कहानी 'पंच परमेश्वर' के उर्दू पाठ 'पंचायत' (नया ज़माना, मई-जून 1916), जहां हमारे सैयद सालार का एक हल्का-सा, लेकिन बहुत अहम जिक्र है। कहानी उस नाजुक मोड़ पर है जहां बूढ़ी खाला पंचायत के लिए 'पंचों' को जुटाने की मुहिम में लगी हुई है :
चारों तरफ़ से घूमघाम कर बुढ़िया अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम लेकर कहा-
"बेटा, तुम भी छन भर को मेरी पंचायत में चले आना।"
अलगू बेरुखी से बोले- "मुझे बुलाकर क्या करोगी। कई गांव के आदमी तो आएंगे ही।"
खाला ने हांफ कर कहा- "अपनी फ़रियाद तो सबके कान में डाल आई हूं। आने न आने का हाल अल्लाह जाने ? हमारे सैयद सालार गुहार सुनकर पेड़ से उठ आए थे। क्या मेरा रोना कोई न सुनेगा।''
आलोक राय और मुश्ताक अली की पुस्तक 'समक्ष' (प्रेमचंद की बीस उर्दू-हिन्दी कहानियों का समांतर पाठ) में पीढ़ा (पीढ़ी यानी चौकीनुमा छोटी सी बैठने की जगह) बिगड़कर 'पेड़' हो गया है, जो शब्द बेमानी है। इसमें न ही टंकनाचार्य, या फिर संपादक का ही कुछ ख़ास दोष है। उर्दू के बारे में तो यह तारीख़ी बोहतान है कि इसमें लिखा कुछ जाता है और पढ़ा कुछ और, शायद इसी कारण 'पीढ़ा' 'पेड़' बन गया। क्योंकि पूर्वांचली गांव और कस्बों के बाहर हममें से बहुत कम अब सैयद सालार (ग़ाज़ी मियां) के बारे में जानते हैं, इस कारण बेमानी-सा शब्द 'पेड़' छप भी गया।
लेकिन अगर हम इसी कहानी के हिन्दी पाठ को लें, जो 'सरस्वती' में 1917 में छपा, तो पीढ़ा तो पीढ़ा, खुद 'हमारे सैयद सालार' ही नदारद हैं।
अलगू- "मुझे बुलाकर क्या करोगी ? कई गांव के आदमी तो आवेंगे ही।"
खाला- "अपनी विपद तो सबके आगे रो आई। अब आने न आने का अख्तियार उनको है।''
मैं इसमें नहीं जाना चाहता कि उर्दू में छपने के एक साल बाद हिन्दी पाठ से यह प्रसंग क्योंकर हट गया। मैं आपका ध्यान उर्दू पाठ पर ही केंद्रित रखना चाहता हूं- "हमारे सैयद सालार गुहार सुनकर पीढे से उठ आए थे। मेरा रोना कोई न सुनेगा।"
यह जुमला बूढ़ी ख़ाला के मुंह से अनायास कहलवाते हैं प्रेमचंद, और इस वाक्य में वो हिन्दुस्तानी लोकमानस पर मानों एक पूरा लेख ही लिख जाते हैं। अलगू चौधरी और बूढ़ी ख़ाला एक ही लोकजगत के बाशिंदे हैं, जहां सैयद सालार (ग़ाज़ी मियां) एक मुहावरानुमा जिंदगी भी धड़ल्ले-से बसर कर रहे हैं।
एक अरसे की छान-बीन के बाद आज जब मैं सैयद सालार की अजीब-ओ-ग़रीब दास्तान और पिछले पांच-छह सौ साल से लोकमानस में उनकी छवि पर कुछ ठोस लिखने बैठता हूं, तो 'पंचायत' कहानी का यह एक वाक्य मुझे बल देता है- 'ऐसे हैं प्रेमचंद।'
कार्यक्रम की अध्यक्षा प्रो0 निर्मला जैन ने अपने भाषण में इतिहास और साहित्य में संबंध बताते हुए कहा कि "व्याख्या के समय इतिहासकार साहित्य में प्रवेश कर जाता है और साहित्यकार सभ्यताओं के इतिहास में प्रवेश करता है। अतः इतिहास और साहित्य दोनों ही यथार्थ पर मुठभेड़ करते हैं।'' उन्होंने बताया कि "प्रेमचंद का साहित्य यथार्थवादी है और यह सोचने पर विवश करता है कि क्या पारदर्शिता भी साहित्य में एक प्रतिमान हो सकती है।''
इस यथार्थपरक व्याख्यानमाला की विशिष्टता यह रही कि व्याख्यान किसी साहित्यकार के बजाय इतिहासकार द्वारा दिया गया।
इस अवसर पर प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानी 'बड़े भाईसाहब'' का सफल नाट्य मंचन 'मित्र सांस्कृतिक संस्था' द्वारा किया गया। व्याख्यानमाला से पूर्व कर्नाटक के राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने हिन्दी के निष्ठावानसेवी एवं हिन्दी भवन के संस्थापक कोषाध्यक्ष स्व0 महाबीरप्रसाद बर्मन की स्मृति में 'बर्मन दीर्घा' का उदघाटन किया।
व्याख्यानमाला सुनने के लिए राजधानी के पत्रकार, साहित्यकार काफी संख्या में उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख हैं- सर्वश्री राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, अर्चना वर्मा, अशोक वाजपेयी, प्रभा दीक्षित, पंकज सिंह, कमलकिशोर गोयनका, शरनरानी बाकलीवाल, मधुर शास्त्री, इन्दिरा मोहन, संतोष माटा, रत्ना कौशिक, रामकिशोर द्विवेदी आदि।
समारोह का संचालन डॉ0 प्रेम सिंह ने किया और हिन्दी भवन के मंत्री डॉ0 गोविन्द

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