मीडिया महारथियों की लडख़ड़ाती उर्दू
मो. इफ्तेख़ार अहमद,
गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक उर्दू ज़ुबान में जितनी अदब और लिहाज़ है, उतनी ही ये बोलने और समझने में भी आसान है। भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग हर जगह समझी जाने वाली इस जु़बान की मीडिया की दुनिया में अपनी अलग ही पहचान है। भारतीय मीडिया के लिए सफल संवाद स्थापित करने में उर्दू ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिन्दी अख़बार, रेडियो और टीवी चैनलों में तो उर्दू अल्फ़ाज़ के बिना काम ही नहीं चलता है। चाहे हेडलाइन की बात हो या मामला किसी रिपोर्ट को दिलकश अंदाज़ में पेश करने का। उर्दू के बिना कहीं भी निखार नहीं आता है। रेडियो और टीवी चैनलों में इस्तेमाल होने वाली भाषा तो निहायत ही सरल, सहज और आम बोल-चाल की उर्दू प्रधान भाषा होती है। न तो ये पूरी तरह से हिन्दी होती है और न ही उर्दू। इसी लिए रेडियो और टीवी की भाषा को हिन्दी या उर्दू न कह कर हिंदुस्तानी जु़बान कहा जाता है।
उर्दू के व्यापक इस्तेमाल के बावजूद अख़बारों, रेडियो और टीवी चैनलों में उर्दू के कुछ शब्दों का बिना सोचे समझे इस्तेमाल किया जाता है। जिसकी वजह से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उर्दू के कुछ अल्फ़ाज़ आमतौर पर ग़लत इस्तेमाल होते हैं। विडम्बना ये है कि मीडिया के बड़े-बड़े दिग्गज भी इस ग़लती को दोहराते हैं। एक लफ्ज़ है खि़लाफ़ जिसके माना है विरुध। इसे क्रिया के रूप में जब बदलते हैं तो हो जाता है मुख़ालफत। यानी विरोध करना, लेकिन टीवी चैनलों या फिर अख़बारों में मुख़ालफत की जगह जो लफ्ज़ इस्तेमाल होता है वह है खि़लाफ़त, जबकि खि़लाफ़त के मायने है पैरोकारी यानी हुक्म बजा लाना। ये शब्द ख़ास है इस्लामी शासन के लिए। जो शख्स इस्लामी शरीअत के मुताबिक शासन करता है उसे ख़लीफ़ा और उसके शासन को खि़लाफ़त कहते हैं, लेकिन मीडिया में मुख़ालफ़त की जगह धड़ल्ले से खि़लाफ़त शब्द का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है।
इसी तरह दो शब्द है महरूम और मरहूम। महरूम शब्द का अर्थ है वंचित, जबकि मरहूम शब्द मरे हुए व्यक्ति के नाम से पहले लिखा जाता है, लेकिन अकसर रिपोर्टों में महरूम की जगह मरहूम शब्द का इस्तेमाल होता है। जिससे बचने की ज़रूरत है।
इसी प्रकार दो और शब्द हैं मुज़ाहिर और मुहाजिर। इसमें भी पत्रकार बन्धू घूम जाते हैं और कभी-कभी गढ-मढ कर देते हैं। मुज़ाहिर का अर्थ होता है मुज़ाहिरा यानी प्रदर्शन करने वाला और मुहाजिर शब्द शरणार्थी के लिए इस्तेमाल होता है। यानी वह व्यक्ति जो अपना घर-बार सब छोड़ कर एक जगह से दूसरी जगह या एक देश से दूसरे देश में चला गया हो, उसे मुहाजिर कहते हैं। जैसे विभाजन के वक्त जो भारतीय मुसलमान पाकिस्तान चले गए, उसे आज भी वहां मुहाजिर कहते हैं। इसी प्रकार कश्मीर छोड़कर आने वाले पंडितों को भारत में भी शरणार्थी (मुहाजिर) कहा जाता है।
ऐसे ही एक और लफ्ज़ है तमाम। इसके कई मायने हैं। इनमें से एक है काम का पूरा हो जाना । दूसरी तरफ मुहावरे में तमाम का इस्तेमाल किसी को जान से ख़त्म करने के लिए भी होता है। जैसे आम तौर पर लोग बोलते हैं कि उसका काम तमाम या किस्सा तमाम कर दिया गया। यानी जान से मार दिया गया। तमाम के एक और मायने है सब या सभी। इस तमाम का भी मीडिया ने काम तमाम कर दिया है। मीडिया में ज्य़ादातर मौकों पर तमाम लफ्ज़ का इस्तेमाल सभी के बजाए कई के लिए किया जाता है, जो तमाम के अर्थ के बिल्कुल ही खि़लाफ़ है। जैसे जब किसी व्यक्ति पर कई तरह के आरोप लगते हैं तो कई लोग लिखते हैं कि उक्त व्यक्ति पर तमाम तरह के आरोप लगे हैं। या जब जनता कई तरह की परेशानियों का सामना कर रही होती है, तो कहा जाता है कि जनता तमाम तरह की परेशानियों को झेलने के लिए मजबूर है। इस प्रकार तमाम शब्द का इस्तेमाल सभी के बजाए कई के लिए किया जाता है, जो पूरी तरह ग़लत है। इस ग़लती की आदत कभी भी परेशानी में डाल सकती है। साल 2009 में उत्तराखण्ड के विकासनगर विधानसभा उप-चुनाव के वक्त कांग्रेस के कई क्षेत्रिय नेताओं ने बीजेपी का दामन थाम लिया था। मेरे एक सहयोगी ने इसकी ख़बर बनाई और लिखा कि कांग्रेस के तमाम नेता बीजेपी में शामिल हो गए। मैं नेशनल बुलेटिन करता था और मेरे ये सहयोगी उत्तराखण्ड का बुलेटिन बनाते थे। मेरी निगाह उनकी इस ख़बर पर गई, तो मैंने कहा, भाई आपने ये क्या लिखा है? तमाम शब्द का प्रयोग सभी के लिए होता है। यहां पर तो ये पूरी तरह ग़लत है। इस पर उन्होंने स्क्रिप्ट तो सही नहीं की, मुझसे कहने लगे कि यार मैं भी बुलेटिन प्रोड्यूसर हूं और इतनी उर्दू तो मैं भी जानता हूं। इतना सुनना था कि मैं ख़ामोश हो गया और उस साहब ने ये ख़बर ऐसी ही चला दी। इत्तेफ़ाक़ की बात है कि उनके बुलेटिन की ऐंकरिंग आउटपुट हेड ने की। ख़बर पढऩे के दौरान जब उनकी निगाह इस ख़बर की ओर गई तो उन्होंने ख़बर पढऩे के बाद बुलेटिन प्रोड्यूसर साहब की जम कर क्लास ली। तब वो साहब बोले यार तूने ठीक कहा था। अगर मैं तेरी बात मान ली होती तो ये फटकार तो नहीं लगती।
एक और लफ्ज़ है लब्बे-लुआब यानी निचोर। इस शब्द का भी मीडिया में जमकर प्रयोग किया जाता है, लेकिन बोलने और लिखने वाले अकसर लब्बे-लुआब की जगह लुब्बे-लुबाब बोलते और लिखते हैं। इस तरह एक शब्द के ग़लत इस्तेमाल से पूरे किए कराए पर पानी फिर जाता है। जिसी वजह से एक आम आदमी भी पत्रकारों की मज़ाक़ उड़ाने लगता है।
ख़बर बनाने और पढऩे वाले बेख़बर और बाख़बर के फर्क़ से भी अकसर बेख़बर दिखते हैं। आमतौर पर ऐंकरों को ये कहते हुए सुना जाता है कि इतने घंटे बीत जाने के बाद भी पुलिस मामले से बाख़बर है। दरअसल ये ग़लतियां हम इसलिए करते हैं, क्योंकि हम इन अल्फ़ाज़ की मायने-मतलब समझने की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते हैं। बस किसी को बोलते हुए सुना और सुनने में अच्छा लगा और लिख दिया या बोल दिया। असल में ये दोनों शब्द एक दूसरे के विरोधी हैं। बेख़बर यानी किसी मामले से अनजान और बाख़बर यानी मामले से पूरी तरह वाकिफ़ होना होता है।
इतना ही नहीं आए दिन इस्तेमाल होने वाले शब्दों और नामों का भी हिन्दी मीडिया में ग़लत इस्तेमाल किया जाता है। मुसलमानों के दो बड़े त्यौहारों में से एक है बक़-र-ईद यानी ईद-उल-अज़ह़ा है, लेकिन कुछ पत्रकार भाई बक़-र-ईद को बकरी ईद कहते हैं। जो सुनने पर बहुत ही बुरा लगता है। बक़-र-ईद के मौके से एक वाकिय़ा भी याद आता है। सद्दाम हुसैन को अमेरिका के इशारे पर तत्कालीन इराक़ सरकार ने बक़-र-ईद के दिन ही फांसी के फंदे पर लटका दिया था। यह कितना सही और कितना ग़लत था? ये एक अलग बात है, लेकिन भारत में टीवी चैनलों ने पूरे दिन इस ख़बर को दिखाया और दिखाना भी चाहिए। इस वाकिय़ा को बताने की ख़ास वजह ये है कि टीवी चैनल के एक दिग्गज जो उन दिनों आजतक में थे और अब स्टार न्यूज़ में हैं। उन्होंने इस प्रोग्राम की ऐंकरिंग की और पूरे दिन यही बोलते रहें कि आखिऱ सद्दाम हुसैन को बकरी ईद वाले दिन ही क्यों फांसी दी गई? इसे सुन कर बड़ा अफसोस हो रहा था कि ये बेचारे उस देश के प्रतिष्ठित पत्रकार है, जहां दस-बीस करोड़ मुसलमान रहते हैं, लेकिन इन्हें मुसलमानों के त्यौहारों के नाम का सही उच्चारण तक नहीं पता है। बक़-र-ईद की जगह ये बेचारे बेधड़क बकरीईद, बकरीईद, बकरीईद… रटे जा रहे थे।
हो सकता है कि इन गलतियों से बचने के लिए कुछ लोग उर्दू शब्दों के इस्तेमाल से बचने की हिदायत दे दें, लेकिन ये नसीहत ऐसी ही होगी, जैसे लड़ाई के मैदान में हथियार डाल देना। जिस प्रकार लड़ाई के मैदान में हथियार डालने को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार उर्दू के शब्दों के प्रयोग से बचने की नसीहत को सहीं नहीं माना जा सकता है। किसी ने ठीक ही कहा है “गिरते है शह सवार ही मैदान-ए-जंग में, वह क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें” और यहां भी कुछ ऐसा ही होता है कि उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल नहीं करने वालों से ज्यादा इसके इस्तेमाल करने वालों पर तलवार लटकी रहती है। इसके बावजूद बिना किसी भय के वाक्यों को सरल सहज और दिलकश बनाने के लिए हमें उर्दू के शब्दों का ख़ू़ब इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि उर्दू शब्दों के इस्तेमाल से जहां वाक्यों में आकर्षण और कशिश पैदा होती है, वहीं पाठकों और श्रोताओं को पढऩे और सुनने में भी एक अलग ही लुत्फ मिलता है। बस ज़रूरत है तो थोड़ी सी सावधानी की। अगर किसी शब्द का अर्थ पता न हो तो दो-चार लोगों से पूछी जा सकती है। पूछने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।
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