आंकड़ों में उलझी हुई गरीबी
सतीश सिंह
हमारे देश में गरीबों की पहचान करने के दो तरीके प्रचलित हैं। पहला तरीका योजना आयोग का है और दूसरा तेंदुलकर समिति का, पर अफसोस की बात यह है कि हम दोनों तरीकों के रास्तों पर चलकर भी गरीबों की वास्तविक संख्या के बारे में पता नहीं लगा पा रहे हैं। इसके बावजूद भी फिलवक्त भारत में योजना आयोग तथा तेंदुलकर समिति के आंकडों को प्रमाणिक माना जाता है।योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति दोनों बढ़-चढ़कर भारत में गरीबी की दर में कमी आने की बात कर रहे हैं। उनके दावों को निम्न आकड़ों से समझा जा सकता है-
योजना आयोग के अनुसार गरीबी की दर में गिरावट
1983-2007-08 अनुपात प्रतिशत में दिये गए हैं | ||||
क्षेत्र/राज्य | 1983 | 1993-94 | 2004-05 | 2007-08 |
आंध्रप्रदेश | 30.1 | 18.5 | 11.5 | 3.6 |
बिहार | 59.3 | 49.9 | 33.3 | 27.2 |
छत्तीसगढ़ | 31.8 | 22.3 | ||
गुजरात | 26.0 | 19.0 | 11.8 | 3.8 |
मध्यप्रदेश | 47.1 | 35.5 | 32.4 | 19.2 |
उत्तरप्रदेश | 44.3 | 36.0 | 25.5 | 20.3 |
बीमारु राज्य € | 47.2 | 37.1 | 28.0 | 20.5 |
उत्तर-पूर्व | 22.8 | 10.5 | 9.0 | 2.1 |
भारत | 41.6 | 30.4 | 21.8 | 14.0 |
तेंदुलकर समिति के अनुसार गरीबी की दर में गिरावट 1983-2007-08/अनुपात प्रतिशत में दिये गए हैं | ||||
क्षेत्र/राज्य | 1983 | 1993-94 | 2004-05 | 2007-08 |
आंध्रप्रदेश | 58.8 | 43.9 | 29.7 | 17.12 |
बिहार | 76.0 | 68.8 | 54.4 | 48.6 |
छत्तीसगढ़ | 50.4 | 38.8 | ||
गुजरात | 53.8 | 43.0 | 31.8 | 20.8 |
मध्यप्रदेश | 62.1 | 50.3 | 48.7 | 36.5 |
उत्तरप्रदेश | 58.8 | 50.5 | 40.8 | 36.0 |
बीमारु राज्य € | 62.5 | 53.1 | 44.2 | 37.1 |
उत्तर-पूर्व | 37.4 | 25.2 | 19.7 | 8.7 |
भारत | 58.5 | 47.8 | 37.1 | 27.3 |
योजना आयोग के आंकड़ों पर यदि विश्वास किया जाए तो वित्तीय वर्ष 2007-08 में मात्र 14 फीसदी गरीब हिन्दुस्तान में बच गए थे। इसी के बरक्स में अगर तेंदुलकर समिति के आंकड़ों को सच मानें तो वित्तीय वर्ष 2007-08 में कुल 27.3 फीसदी गरीब भारत में बचे थे।
योजना आयोग के गरीबी को मापने वाले पैमाने को बेहद ही संकीर्ण माना जा सकता है, क्योंकि यह आयोग समझता है कि प्रति दिन 18-19 रुपयों की आय से एक आम आदमी अपने पूरे परिवार का पेट भर सकता है। तेंदुलकर समिति का भी गरीबी को मापने का पैमाना योजना आयोग से भले ही थोड़ा सा व्यापक है। फिर भी उसके द्वारा बताये गये प्रति दिन के आय से एक परिवार के पेट को भरने की बात करना तो बेमानी है ही, साथ ही एक व्यक्ति के पेट को भरने के बारे में सोचना भी मूर्खता है।
बावजूद इसके इसमें दो राय नहीं है कि योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति ध्दारा अपनाए गए तरीकों के अनुसार गरीबी की दर में कमी आई है।
उल्लेखनीय है कि योजना आयोग ने 2004-05 के मूल्य सूची को आधार मानते हुए 359 रुपया प्रति माह के आय को ग्रामीण क्षेत्र में और 547 रुपया प्रति माह के आय को शहरी क्षेत्र में गरीबी का पैमाना माना है, वहीं तेंदुलकर समिति ने 447 रुपये प्रति माह के आय को ग्रामीण क्षेत्र में और 579 रुपये प्रति माह के आय को शहरी क्षेत्र में गरीबी का पैमाना माना है।
यहाँ विसंगति यह है कि 2010 में भी योजना आयोग और एवं तेंदुलकर समिति 2004-05 के मूल्य सूची को आधार मानकर गरीबों की संख्या का निर्धारण कर रहे हैं। जबकि आज की तारीख में हर चीज की कीमत आसमान को छू रही है। 2010 की बात न भी करें तो 2004-05 में भी महँगाई इस कदर कड़वी थी कि 15 से 20 रुपयों के प्रति दिन के आय से किसी भी तरीके से एक आदमी पेट नहीं भर सकता था।
आंकड़े भले कुछ भी कहें, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि गरीबी का प्रतिशत योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति द्वारा बताए जा रहे आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। दरअसल सरकार अपनी ऐजेंसियों के माघ्यम से गरीबों की संख्या को कम बताकर अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है। वह समझती है कि गरीबों की संख्या कम बताकर वह अपने सामाजिकर् कत्ताव्यों से बच जाएगी।
देश को विकसित बनाने के सपने को देखना तो अच्छी बात है, लेकिन शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर को छुपाने से सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। जिस देश में कुपोषण से प्रतिवर्ष हजारों-लाखों की संख्या में लोग मर रहे हैं। लाखों-करोड़ों लोग आसमान के नीचे भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं, वैसे देश में इस तरह के आयोग और समिति की पड़ताल और आंकड़े हास्याप्रद तो हैं ही साथ में आमजन के लिए क्रूर मजाक के समान भी हैं।
जरुरत आज यह है कि गरीबों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए नये सिरे से मानकों का निर्धारण किया जाए। आज महँगाई का स्तर जिस मुकाम पर पहुँच गया है, वहाँ कम से कम शहरी क्षेत्र के लिए प्रति दिन की आमदनी 150 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 100 रुपये होनी चाहिए।
गरीबी का खात्मा सिर्फ प्रति दिन पेट भरने से नहीं हो सकता है। स्वास्थ, षिक्षा और रोजगार की गारंटी जब तक इस देश में सरकार की तरफ से नहीं दी जाती है, तब तक गरीबी का आंकड़ा 50-60 फीसदी से कभी भी कम नहीं हो सकता है। लिहाजा सरकार का यहर् कत्ताव्य बनता है कि वह पूरे मामले में फिर से पड़ताल करके नई दृष्टि से गरीबी के वर्तमान पैमाने पर पुर्नविचार करे और सुधारात्मक उपायों को अमलीजामा पहनाये। झूठे आंकड़ों से किसी का भला नहीं हो सकता है।
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