बहसतलब पांच में जुटे हिंदी सिनेमा के दिग्गज
24 SEPTEMBER 2010 14 COMMENTS
मेरी रिपोर्ट पढ़ने के दौरान बार-बार सिनेमा शब्द आने से आप भी सोचेगें कि इन सिरफिरों को सिनेमा की अच्छी ठरक चढ़ी है। जहां पूरा देश राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मसले पर आनेवाले फैसले को लेकर सुलगने-बुझने की स्थिति में है, सब जगह चौक-चौबंद लगा दिए गए हैं, दूसरी तरफ दिल्ली का हर शख्स बाढ़ और कॉमनवेल्थ की खबरों के बीच डूब-उतर रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जब ये देश दो सबसे बड़े मुद्दों के बीच अटक सा गया है, ये लोग उससे मुक्ति सिनेमा में जाकर खोज रहे हैं। जिस सूरजकुंड के रिसॉर्टों के बीच लोग चिल्ल होने आते हैं, वो सिनेमा के पचड़ों को लेकर क्यों चले गए? मौजूदा हालातों से अगर ये पलायन है तो फिर ये योग और आध्यात्म की गोद में गिरने के बजाय सिनेमा के बीच जाकर क्यों गिरे? इसे आप खास तरीके का बनता समाज कहें, तारीखों का संयोग या फिर देश की राजनीति और खेल की तरह ही सिनेमा का भी उतना ही जरुरी करार दिया जाना, ये आप तय करें। फिलहाल…
ये कोई नई बात नहीं है कि सिनेमा को लेकर अपने-अपने दौर में हममे से अधिकांश लोग पागल होते आए हैं। कोई किसी खास हीरो हीरोईन को लेकर, कोई सीन को लेकर तो फिर कोई खालिस सिनेमा देखने को लेकर। तब हीरो-हीरोईन, फिल्म स्टोरी चाहे जो भी हो क्या फर्क पड़ता है? लेकिन सिनेमा को लेकर इस पागलपन में अगर उससे जुड़ी बहसें और विमर्श भी शामिल हो जाएं तो क्या कुछ मामला बदल सकता है? हम अपने मिजाज का सिनेमा होने की मांग को, सिनेमा बनानेवालों के बीच एक दखल के तौर पर रख सकते हैं, कुछ इसी नीयत से बहसतलब 5 में “सपने दिखाता सिनेमा, सिनेमा देखता समाज” के आयोजन में हम शामिल हो गए। सिनेमा को लेकर कुछ सपने तो हमें इस बहस में शामिल होते ही पूरे होते दिख गए कि जिन फिल्मकारों की फिल्मों को देखने के दौरान हम सिनेमाघरों में रुमाल नचाने और सिटी बजानेवाले का काम करते आए, कभी सीरियस हुए तो कभी अपने भीतर उनके बनाए चरित्र खोजने लग जाते, वे कई फिल्मकार हमें चाय पीते, मौसम का हाल पर बात करते नजर आ गए। बहरहाल,
निर्धारित समय से करीब पच्चीस मिनट की देरी पर करीब 11 बजे सुबह सिनेमा पर इस बहसतलब की शुरुआत हो जाती है।
कार्यक्रम को लेकर औपचारिक परिचय देते हुए यात्रा बुक्स की संपादक नीता गुप्ता जून में हुई बहसतलब के बीच से छिटककर आए इस विषय पर बात करती है और इन सब बातों की चर्चा करते हुए वो माइक मोहल्लालाइव के मॉडरेटर अविनाश की ओर माइक बढ़ाती है।
सिनेमा ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक हो, मुंबई से बाहर निकले सिनेमाः अविनाश
अविनाश इस कार्यक्रम की जरुरत को सीधे-सीधे आम आदमी की बेचैनी से जोड़ते हैं। लोगों के पास बहुत सारे सवाल हैं। इन सवालों का जबाब देने के लिए लोग भी हैं। लेकिन सवाल कायदे से पहुंच नहीं पाते। बहुत सारे सवाल फुसफुसाहट बनकर रह जाते हैं। मई में हमने बहसतलब की शुरुआत की। जून में विषय रखा था – अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी। अनुराग अचानक से आए, सवालों की बारिश शुरु हो गयी। लगा कि पहली बार ऐसा आदमी फंसा है, सारे सवाल इन्हीं पर उतारो। दोनों ने इन्ज्वॉय किया। लगा की बात अधूरी रह गयी लेकिन इंडिया हैबिटेट में समय की बंदिश थी। फिर इसे बड़े फलक पर कराने का मन बनाया।
हमने फिल्मकारों को बुलाने की सोची। सिनेमा को लेकर जो कॉमन पीपल के दिमाग में सवाल होता है वो फिल्मकारों से सीधे बात करे। जो अलग किस्म का मेनस्ट्रीम बन रहा है, हम चाहते हैं कि सिनेमा मुंबई से कभी पटना में चला जाए, जयपुर चला जाए। सिनेमा में लोकतांत्रिककरण हो, हम इसे कितना बेहतर कर पाते हैं, इस पर फोकस करेंगे।
हमने इन कार्यक्रमों के संचालन के लिए बिल्कुल नए लोगों को चुना है। सारे मॉडरेटर नौजवान हैं, सीधे सिनेमा में नहीं है लेकिन सिनेमा पर बात करते हैं। सिनेमा देखते हुए उनकी अपनी समझ है। हम चाहते हैं कि बहस इन्हीं लोगों से बीच होकर आगे बढ़े।
पहला सत्रः किसके हाथ में वॉलीवुड की कंटेंट फैक्ट्री की लगाम
कंटेट फैक्ट्री की लगाम किसके हाथ में होती है, इस पर तो वक्ताओं ने अलग-अलग राय जाहिर किए ही जिनके मत एक-दूसरे से विल्कुल अलग रहे लेकिन करीब तीन घंटे तक चलनेवाले सत्र की लगाम मिहिर के हाथ में रही। मिहिर नये दौर की फिल्म समीक्षा में एक जरुरी नाम हैं, इस सत्र के मॉडरेटर के तौर पर उन्होंने बहस का माहौल ‘हरीश्चंद्राची फैक्ट्री’ सिनेमा की उस सीन से बताया जहां दादा साहेब फाल्के सिनेमा को पर्दे के सामने बैठकर देखने के बजाय उल्टा होकर देखने लगते हैं प्रोजेक्टर की तरफ। उन्हें समझ में आ जाता है कि असल में वहीं फिल्म की चाबी है। कई मायनों में यही हिन्दुस्तानी सिनेमा के जन्म का बिंदु है। इसी मेटाफर को बदलकर देखें तो पर्दे के आगे का सच क्या है, इसे समझकर हम पर्दे पर चलनेवाली फिल्म के कंटेंट की लगाम को समझ सकते हैं। यानी ऑडिएंस कौन है, उसकी क्या पहचान है, उसके क्या सवाल हैं? साथ ही बहस शुरु होने से पहले ही एक संभावित सवाल उठाए कि मल्टीप्लेक्स के आने के बाद से क्या सिनेमा का कंटेंट तेजी से बदल रहा है? और यदि बदला है तो वो सिनेमा के कंटेंट के लिए किस हद तक साकारात्मक या नकारात्मक है? इसे भी समझना दिलचस्प होगा। अपनी इस छोटी सी नोट्स के बाद मिहिर ने वॉलीवुड की कंटेंट फैक्ट्री की लगाम विषय पर बहस के पहले उसकी जमीन तैयार करने के लिए अजय ब्रह्मात्मज को बुलाया।
सिनेमा हिन्दी का और विमर्श अंग्रेजी में, ये सही नहीं है – अजय ब्रह्मात्मज
अजय ब्रह्मात्मज के हिसाब से फिल्में अच्छी हिन्दी में बनती है लेकिन विमर्श अंग्रेजी में होता है। कुछ लोगों ने साजिशन सिनेमा को अपनी की तरफ किया है। ये वैसे लोग (मंच पर बैठे लोगों की तरफ इशारा करते हुए) हैं, जो सिनेमा में सेंध मार चुके हैं, अपनी एक जगह भी बना रहे हैं। मैं इसे ऐतिहासिक कदम मानता हूं। हर लंबे सफर की शुरुआत एक छोटे कदम से होती है। इस बहसतलब में ऐसे लोगों को चुना है, जो सवाल हिन्दी में सुनकर जबाब अंग्रेजी में नहीं देते, वो आपकी भाषा में बात करेंगे। अजय ब्रह्मात्मज की अपनी समझ है कि इस तरह के विमर्श से मेनस्ट्रीम की सिनेमा के बीच नई तरह की स्थितियां पैदा हो सकती है। उनकी इस समझ और विषय प्रवर्तन (सब्जेक्ट इन्ट्रोडक्शन) के साथ पहले सत्र की बहस की शुरुआत हो जाती है जिसे आगे पहले वक्ता के तौर पर अनुराग कश्यप और गर्माते चले जाते हैं।
सिनेमा की लगाम मेरे ही हाथ में होती हैः अनुराग कश्यप
मेरे सिनेमा की लगाम मेरे हाथ में है। वैसे बजट डिसाइड करता है कि सिनेमा की लगाम किसके हाथ में होगी। प्रोड्यूसर का पेट कितना मजबूत या कमजोर है, किसे जल्दी बबासीर हो जाता है और किसे नहीं होता, ये भी बहुत निर्भर करता है। इसमें फंड भी एक जरुरी मसला है। अलग-अलग देशों में इसके लिए ग्रांट हैं। दीपा मेहता को कनाडा से ग्रांट मिलता है। कई देश इसे टूरिज्म के हिस्से का मानकर ग्रांट देते हैं। हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
अपने पर्सनल अनुभवों को शेयर करते हुए उन्होंने आगे कहा कि उड़ान बहुत अच्छा नहीं कर पायी लेकिन उस वक्त सेटेलाइट का मार्केट अच्छा था उस वक्त तो रिकवरी हो गयी। मैं पब्लिक स्कूल का पढ़ा हूं, मेरे कुछ दोस्त हैं जिनके पास पैसे हैं तो उनसे उधार मिल जाती हैं। लेकिन अनुराग के फंड के इस तरीके को हम एक ढांचा तो नहीं ही मान सकते हैं। बस इतना है कि आप पर्सनल लेवल पर फिल्म बनाने के साथ-साथ उसके बनाने के साधन और खर्चे किस तरह से जुटा पाते हैं, ये एक जरुरी सवाल बनकर सामने आता है। मतलब ये कि फिल्म बनाने की कामना के साथ-साथ इस बारीकी को भी समझना अनिवार्य है कि सिर्फ आइडिया ही काफी नहीं है, उसे फिल्म की शक्ल देने के लिए बाकी के भी ताम-झाम समझने होंगे।
एक समस्या और भी है कि जब मैं फिल्म बनाने की सोचता हूं तो उस समय तो कोई फंड देने को तैयार नहीं होता लेकिन वही बन जाने पर रिलीज करने के वक्त लड़ाई शुरु हो जाती है। वैसे रिस्क कोई नहीं लेना चाहता। आगे उन्होंने कहा कि मेरे ख्याल से कंटेंट की जब बीज डाली जाती है तब प्रोड्यूसर की भूमिका होती है लेकिन चूल्हे पर चढ़ने पर मसाला बदल जाता है। हम वही फिल्म हूबहू नहीं बनाते जो स्क्रिप्ट हम सुनाते हैं। हमें ये करना पड़ता है। एक भी फिल्म अच्छी चल गयी तो कई बाहरी फायदे हैं लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता। कई बार एक फिल्म के सक्सेस होने से 2-3 साल तक छूट मिल जाती है। आप उसके नाम की कमाई खा सकते हो लेकिन ये काम लंबे समय तक नहीं चल सकता। रामू यानी रामगोपाल वर्मा के साथ फिलहाल वही स्थिति है, अब वो ऐसा नहीं करने की स्थिति में नहीं हैं।
फिल्म में जो सबसे बड़ी बात है वो ये कि बजट ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है लोगों के आइडियाज बंटने लग जाते हैं। बजट बढ़ने से ओपिनियन मेकर की भूमिका बढ़ जाती है। मतलब साफ है जिसे कि अनुराग बहुत जोर देकर बताते हैं कि जैसे-जैसे आपकी फिल्म का बजट बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे उसमें बाकी लोगों की मर्जी और इच्छाएं शामिल होती जाएगी, सिनेमा की लगाम बंटती चली जाएगी। फिर कोई एक यूनिनेमस तरीके से लगाम नहीं रह जाती है।
एक और जरुरी बात कि हमारे हिन्दी सिनेमा का प्रॉब्लम इटरवल है। आप हिन्दुस्तान में बिना इन्टर्वल के फिल्म बना नहीं सकते। इसमें फूड एंड वेवरेज का बड़ा बिजनेस हैं। इन्टर्वल होने से कहानी के दो भाग हो जाते हैं। इस इन्टर्वल के दौरान विज्ञापन का स्पेस तो जरुर बन जाता है लेकिन कई ऐसी चीजें बिखरती जाती है। लेकिन हमें ये बात समझनी होगी कि ये आर्ट फार्म तो है लेकिन बिजनेस का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल है। इसलिए कल के लिहाज से आज के सिनेमा में उसी तरह से आर्ट को देखना मुश्किल हो गया है और आज उसी रुप में सिनेमा को बनाना मुश्किल काम है।
इंडियन सिनेमा का ये सबसे खराब फेज हैः जयदीप वर्मा
जयदीप अपनी बात की शुरुआत एक प्रसंग से करते हैं। सुधीर मिश्रा, सईद मिर्जा औऱ कुंदन साह बैठे थे। 45 मिनट से बात कर रहे थे… उनकी बाते… मतलब बहुत ही मजा आ रहा था। कुछ देर के बाद मैंने उनसे पूछा कि इस तरह की बातें कर रहे हो तो इस किस्म की फिल्में क्यों नहीं बनाते। उन्होंने कहा कि पैसा कौन देगा?
इस मामले में अनुराग से अलग लगता है मेरा व्यू- इंडियन सिनेमा का सबसे खराब फेज है। सुधीर मिश्रा ने कहा कि हजारों ख्वाहिशें जैसी फिल्म फिर नहीं बना सकते। अगर वो नहीं बना सकते तो बाकी के क्या चांस हैं? कुछ नहीं. कुछ देर के लिए मैं बाहर जा रहा हूं, मेरे को नहीं करना है ये? जिस लेबल पर जाना पड़ता है, ये सिर्फ इंडिया में नहीं हो रहा है, ये दुनियाभर में जारी है.
सिनपेन ने इनटू दि वाइल्ड फिल्म बनायी लेकिन वही शख्स इस तरह की फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। ये बहुत ही भयावह है। इंडिया में और भी बुरा है, बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं। मेरे ख्याल से सब कुछ होना चाहिए लेकिन सबसे बड़ी बिडंबना है कि ये सबसे डायवर्स कंट्री है लेकिन सबसे कम विविधता वाली स्टोरी आती है। सबसे इम्पार्टटेंट लोग प्रोड्यूसर है लेकिन… अपने यहां वो अवार्ड नहीं देते… शायद इससे मोटिवेशन चेंज हो जाए। प्रोड्यूसर के पास ये स्कोप है, लेकिन वो ऐसा नहीं करते। स्टार में सिर्फ ऐसा आमिर खान ही करते हैं।
लेकिन क्या, इस देश में सिर्फ पल्प फिक्शन बनकर रहेगा, क्या लिटरेचर पर कोई फिल्म नहीं बन पाएगी। जिनके पास पैसा है उनके पास स्पिरिट क्यों नहीं है कि कुछ अलग प्रोजेक्ट पर काम करें। रिलांयस के पास पैसा है, इतना बड़ा वेंचर है लेकिन वो चींटी को भी बुरी तरह पीस कर खा जाएंगे। ये बहुत बुरी चीज है इनके पास इतना पैसा है लेकिन सबको पीस डालने की जो प्रवृति है वो चिंताजनक है।
ये बड़ी समस्या है, ये सिर्फ फिल्म का इश्यू नहीं है। ये समाज के बाकी क्षेत्रो में भी है। मुझे लगता है कि हमारे देश में कल्चर नहीं है, सेवा की कोई फीलिंग नहीं है। ये चीजें जेनरेशन में कैरी करती चली आ रही है।
हम कम्पीलिटली कॉलोनियलाइज हैं, पहले हम इतने नहीं थे। ये जो क्रिएटिविटी को लेकर आत्मविश्वास की कमी है, वो हमारे यहां साफ तौर पर दिखाई देती है। कॉलोनियलाइज हैं, हम खुद नहीं बना सकते हैं। एक कॉम्प्लेक्स है कि हम नहीं कर सकते, इसलिए हम कहानियां नहीं दे पाते। जिनके पास पैसे हैं वो हम पर हंसते हैं। जिस तरीके से वो पेश आते हैं बेसिकली वो आपको-हमें गदहे समझते हैं।
जो लोग (मंच पर बैठे लोगों की तरफ इशारा करते हुए) ब्रेक थ्रू कर रहे हैं, बहुत लोग समझते हैं कि नई फिल्म आ रही है लेकिन ये सिनेमा के दिखाए जाने के तरीके के हिसाब से अलग लग रहा है, कंटेंट के लिहाज से बहुत नया और अलग नहीं है। उस इन्टेक्चुअल कोलोनियलिज्म से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। ऐसा तो हमेशा से होता आया है। अस्सी में बनी 90 में बनी… मैं तो कभी नहीं इस तरह से नॉन फिक्शन पर फिल्में बनाउंगा। जयदीप ने दरअसल इसी साल के अप्रैल महीने में इंडियन ओशियन बैंड पर जो लिविंग होम नाम से फिल्म बनायी थी उसे लेकर उनका बहुत ही कड़वा अनुभव रहा। रिलांयस की बिग सिनेमा के साथ जो कुछ भी हुआ, जयदीप को इस घटना ने बुरी तरह झकझोरा है। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के लिए जो हमें सहना पड़ा, वो बर्दाश्त के बाहर है। पीपली लाइव को आमिर खान ने सपोर्ट किया, अच्छी बात है लेकिन उसके वाबजूद कितनी ऐसी फिल्में बनेगी।
मैं फिर कह रहा हूं कि ये लोग जो कुछ अलग कर रहे हैं वो एक स्लाइट रिग्रेट है वो स्टाइल के लेबल पर ब्रेक थ्रू हो रहे हैं, कंटेंट के लेबल पर नहीं हो रहा। वो तब होगा जब आपको करने दिया जाएगा, वो स्टेप बाइ स्टेप होंगे। आप एक लॉजिक लेकर चलें कि वर्ल्ड लेबल पर वो स्टैंड कर पाएंगे कि नहीं। लेकिन मुझे जो लगता है जो ब्रेक थ्रू है वो स्टैंड नहीं कर पाएंगे। हम स्टोरी टेलर टाइप सम हो गए हैं।
ये शायद पहला जेनरेशन है – जो स्टूपिड है… मीडिया इज दि रिप्रजेंटटर ऑफ दि यंगर पार्ट ऑफ दि सोसायटी. मेरी समझ है कि यूथ की जिस आइक्यू लेबल के नाम पर फिल्में बनायी जा रही है वो इतनी भी खराब नहीं है। लेकिन इनके नाम पर तमाम तरह की नॉनसेंस फिल्में बनायी जा रही है। एक शैलोनेस प्रॉपगेट हो रहा है। ए सेंस ऑफ डिस्कवरी खत्म हो रही है। स्टैन्डर्ड गोइंग डाउन, ये टेक्लनलॉजी में हो रहा है, समाज में हो रहा है, ड्यूरिबिलिटी खत्म हो रही है।
जयदीप सिनेमा की इस हालत पर बात करते हुए मीडिया पर भी टिप्पणी करते हैं और साफ तौर पर कहते हैं कि – सबको पता है कि मीडिया किस लेबल पर गिर चुका है लेकिन दुख की बात है कि जिनके पास मौके हैं, जो इन्फ्लूएंस कर सकते हैं उनमें वो स्पिरिट ही नहीं। आपका योगदान एक बदलाव लाने का है लेकिन वो नहीं करते। वो ट्राय भी नहीं करते। सबसे खराब बात है कि वो चैम्पीयन नहीं करते। बूस्ट अप नहीं करते। ब्रिटिश सिनेमा में कहा जाता है कि अगर क्रिटिक से ऐसा सपोर्ट नहीं मिला होता… तो नहीं करते। आलोचना और समीक्षा के स्तर पर भी कुछ खास और बेहतर नहीं हो रहा। रिव्यू में प्रेज एफर्ट नहीं दिखता, आलोचना के लिए सबसे ज्यादा दिखता है, लॉक करने के लिए लिखा जाता है, ये सैड चीज हैं, प्रॉब्लम दिखता है। अच्छे जो राइटर हैं उनको स्पेस नहीं दिया जाता।
बड़ी कंपनी यशराज फिल्मस, बिग कंपनी, यू टीवी कहेंगे – हैव टू गो थ्रू स्क्रिप्ट बोर्ड। लेकिन मुझे कहीं दिखा नहीं कि कोई फिल्म इस तरह से स्क्रिप्ट बोर्ड से डिसाइड होकर आय़ी हो। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि जिन्होंने रगड़ा है उन्हें वो इज्जत तो मिले। वो पैसे बनाने के लिए फिल्में नहीं बना रहे हैं।
काफी डायरेक्टर को मिलता हूं, वो भी प्रोड्यूसर के लैंग्वेज में बात करते हैं, बताते हैं कि एक्सपेंसिव मीडियम है, प्रोड्यूसर की तरह समझाते हैं। प्रोड्यूसर को हम बिजनेसमैन क्यों कहें वो तो रिस्क लेता ही नहीं। बाकी लोग रिस्क लेते हैं। प्रोड्यूसर को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये खराब बात है कि ये टैलेंटेड लोग ऐसे बात करते है कि रिटर्न भी देखना पड़ेगा।
और वास्तविक सच में दो जरुरी बिंदुओं को जोड़ा।
सिनेमा की कंटेंट को मार्केटिंग और पीआर तय करने लग गए हैः अनुषा रिजवी
जयदीप ने बहुत सही बात कही कि प्रोड्यूसर को बिजनेसमैन क्यों कहें, वो तो रिस्क नहीं ले रहा। तो फिर फिल्म का कंटेंट उसके नाम पर क्यों जाए।
दो एस्पेक्ट- मार्केटिंग, एक खास तरह की टीम है-30 साल तक के लोगों की। वो तीन-चार शहरों में जाकर एक फाइल बना देते हैं और तय कर देते हैं कि किस तरह की फिल्म देखेंगे किस तरह की नहीं। पीपली लाइव के साथ यही किया। इंदौर, अहमदाबाद और मुंबई में गए बाकी के हिन्दुस्तान को छोड़ दिया।
दूसरा- पीआर जो कि कंटेंट को काफी हद तक फिल्म को डिसाइड करने लगा है कंटेट इससे भी डिसाइड होता है। ये दोनों बहुत ही पॉवरफुल हो गया, इसे चेक किया जाना चाहिए।
अनुषा रिजवी के बोलने के बाद महमूद फारुकी ने साफ कर दिया कि मुंबई में रहकर जिन लोगों ने स्ट्रगल किया, हम उनमें शामिल नहीं है। इसलिए उनकी तरह इस मसले पर बात करने की स्थिति में नहीं है।
सिनेमा में कला की समस्या अलग है, बाजार की समस्या अलग हैः महमूद फारुकी
बहुत लोग हमें खुशकिस्मत समझ रहे हैं। बहुत सारे लोग बंबई में खड़े होकर लगातार संघर्ष करते हुए काम कर रहे हैं। मैं अपने को मिसफिट पाता हूं। ये अलग जर्नी है, जो लोग कर रहे हम उनसे अलग हैं। ये लोग ज्यादा बेहतर बता सकते हैं। इसलिए ज्यादा बात नहीं कर रहे।
मेरे हिसाब से कला की समस्या अलग है, बाजार की समस्या अलग है।
1970 से ये स्ट्रगल चल रहा है कि सिनेमा ऐसा हो जो कि कला और साहित्य के बरक्स खड़ा हो सके। कला की समस्या तीस-40 साल से वहीं की वहीं है। हम कैसे एक ऐसा सिनेमा बनाएं जो कि कम पढ़े लिखे लोगों के लिए भी बना सकें।
बिजनेस के मॉडल हमेशा बदलते रहते हैं। तो सिनेमा वैसा नहीं रह जाता है जैसा पहले होता है।
दर्शक के नंबर की अहमियत नहीं रह गयी है। क्रांति को लोगों ने ज्यादा देखा 3 इडियट से। लेकिन सबके वैल्यू अलग हो गये। ये 70-80 वाले दौर से अलग है।
क्या हम सिनेमा को थिएटर लाइफ से जोड़ रहे हैं। हम थिएटर रिलीज से जोड़कर देख रहे हैं। मुझे लगता है इस पर बात होनी चाहिए।
चंद्रप्रकाश द्विवेदी काशीनाथ सिंह की रचना कासी का अस्सी पर फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसकी अभी से ही चर्चा होनी शुरु हो गयी है। चंद्रप्रकाश शुरु से ही अतीत को विवेक का आधार मानते आए जिसे लेकर स्त्री-पुरुष सत्र में काफी विवाद भी हुए, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। फिलहाल वो जयदीप वर्मा की तरह मौजूदा स्थिति को बहुत खराब नहीं मानते।
हिन्दी सिनेमा के मौजूदा दौर को लेकर निराशा नहीः चंद्रप्रकाश द्विवेदी
मैं भी कह सकता हूं कि मैंने कभी भी किसी ऐसे विषय पर काम नहीं किया जो किसी ने करने के लिए मजबूर किया। किसी ने अब तक मजबूर नहीं किया। मैं तय करता हूं, क्यों तय करता हूं। किस तरह के विषयों को छूता है उस पर बात होती है। सब अलग फिल्म बनाते हैं इससे साफ है कि हिन्दी में इतनी जगह है कि हम अलग-अलग किस्म की फिल्म बनाते हैं। वर्तमान में संभवाना है मैं इससे निराश नहीं हू।
कुछ लोगों के हाथ में है-अजय ने कहा, नाम गिनाए थे मैं नाम लेना चाहता। हम यहां राज्याभिषेक और निंदा करने नहीं आए हैं। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कोई भी व्यक्ति आपसे नहीं कह रहा है कि ऐसा बनाइए, आप खुद लेकर आते हैं कि ऐसा बनाएं। चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने बहुत ही कम समय में लगभग सूत्र वाक्य में अपनी बात रखी और उम्मीद जतायी कि ऐसी स्थितियां हैं कि हम अपनी मर्जी से अपने तरीके का काम कर सकते हैं। हां ये जरुर है कि उसके लिए हमें कोशिश करनी होगी।
फिल्म बनाने के लिए खुद को लड़ना पड़ेगाः सुधीर मिश्रा
जयदीप बहुत अच्छा बोला, जो व्यथा है… मुझमें ऐसा नहीं है। मैंने ऐसा माना नहीं। मुझे लगता है कि मेरे साथ कुछ अच्छा ही हुआ। इस मुल्क में मैं जहां कलाकारों को आम आदमी से अलग दर्जा नहीं देता, इस मुल्क में जहां प्रवीण तोगड़िया रहता है, प्रणव मुखर्जी की फिलास्फी है, पी चिंदरबम अपने प्लेन से लोगों का खात्मा करना चाहते हैं तो इस मुल्क में सुधीर मिश्रा के साथ कुछ बुरा नहीं हुआ।
अलग-अलग दौर में लगाम अलग-2 लोगों के हाथ में होती है। क्या ऐसा है कि मेरे भीतर इतनी काबिलियत है कि हमेशा लगाम मेरे हाथ में होती। अगर होती तो कोई हल ढूंढ़ न लेते। अनुराग की तरह बाकी लोग क्यों नहीं?
दो तरह के आर्टिस्ट होते हैं- एक बचकानी ख्वाहिशें होती है औऱ दूसरा कि कुछ लोग बहुत कम को अपील करना चाहते हैं। ऐसे लोगों के लिए टेकनलॉजी फायदेमंद हैं।
अब लगाम बहुतों के हाथ में है। कार्पोरेट के हाथ में है। लेकिन कार्पोरेट में स्क्रिप्ट नहीं सुनी जाती। मेरे हिसाब से सात-आठ स्टार के हाथ में है।
लोग मुझे अक्सर कहा करते हैं कि तुम अपने फैन्स के बीच फंस गए हो सुधीर, उससे निजात पा लो। सिनेमा के लिए सबसे जरुरी चीज है इंडीपेंडेंसी। जब तक आपमें इंडीपेंडेसी नहीं होगी काम नहीं कर सकते। मेरे पास न्यूकमर आते हैं कि आप मुझे फिल्म सिखा दो। मैं कहता हूं 100 करोड़ लाओ.सिखा दूंगा फिल्म बनाना। फाइनेंस मोड समझना होगा। आज आपको मॉल का माहौल है, आप सिंगल स्क्रीन में नहीं देखते। फिल्म के बहाने मॉल में लाएं जाते हैं। सिंगल स्क्रीन में सिर्फ फिल्म देखने जाते थे। कान हर फिल्म को इज्जत देता है। फिल्ममेकर को इज्जत देता है। हमारे लिए इज्जत खत्म हो गयी है इसलिए हमलोगों ने ऐसी फिल्में बनायी ही नहीं। विमल ने अपनी तरह से की, मणि कौल ने अपने तरीके से की थी, राजकपूर ने अपने तरीके से की थी। लगाम के लिए लड़ना पड़ेगा, समस्याओं से जूझना पड़ेगा नहीं तो फिल्म नहीं बनाने के कई बहाने हैं।
बहसतलब के चारो सत्र में हस्तक्षेप का प्रावधान है जो कि ऑडिएंस के सवाल से अलग मसला है। इस सत्र में अतुल तिवारी और भूपेन ने हस्तक्षेप किया।
आज सिनेमा की सीढ़ियां बाजार की तरफ खुलती हैः अतुल तिवारी
कश्मीर के बाद हस्तक्षेप बड़ा डेनजरस शब्द हो गया। 24 को जिरह हो रही है वहां बहस नहीं हो रही है। बहस में क्रिएटिवनेस होती है। मैं कश्यप संहिता की बात करना चाहूंगा। दोनों भाइयों को देखिए एक ऑडिएंस के हिसाब से फिल्म बनाता है, दूसरा कि एक ऑडिएंस से कहने के लिए फिल्म बनाता है। मैं बहसतलब की इस लाइन से डिफर कर रहा हूं कि दर्शकों का सिनेमा हो जाए। सिनेमा में सबका विजन शामिल होता है। कैमरामैन का भी विजन शामिल होता है, उसका अपना इन्टरप्रटेशन है। क्या थीअरिटकली कंटेंट की लगाम किसी किसी एक के हाथ में रह पाएगा।
सुधीर ने कहा कि लड़ना पड़ेगा- नीतिश को भी लड़ना पड़ेगा भले ही सड़के बना ली हो। ये जीवन के हर हिस्से में शामिल है, हर फील्ड में लड़ना होगा।
फिल्म को पूरी तरह दर्शकों का हो जाने के सवाल पर अतुल तिवारी ने कहा कि ये भी गलत एप्रोच है, सिनेमा को लालू पासवान नहीं हो जाना चाहिए, जिस पर मिहिर ने आगे जोड़ा कि- मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह आल्हूवालिया भी नहीं हो जाना चाहिए।
अतुल तिवारी हस्तक्षेप को सिनेमा- एज ए स्पेस की बहस तक ले जाते हैं- हर कला का एक घर होता है, हर कला कहां बसती है उसका भी स्तर होता है। आज सिनेमा का एक घर नहीं बनता, एक बाजार होता है जिसमें इत्तफाकन एक सिनेमा भी होता है। भूखे-नंगे लोगों की फिल्म देखकर कौन बर्गर खा पाएंगे। सिनेमा की सीढियां बाजार की तरफ निकल जा रही है। इसमें जोड़ते हुए महमूद ने कहा कि- कोका कोला और बर्गर का वजन इतना भारी है कि वो अच्छी फिल्मों पर भी हावी हो सकती है।
सिनेमा में हमें हाशिए के लोगों और विकल्प की बात करनी होगीः भूपेन
भूपेन हस्तक्षेप के बहाने पूरी बहस को सिनेमा में विकल्प और सरोकार के सवाल से जोड़ने की कोशिश करते हैं और इसमें हाशिए के लोगों की अनिवार्यता पर जोर देते हुए फैज की इन पंक्तियों से अपनी बात की शुरुआत करते हैं।
सीसा हो कि जाम हो कि दुर
जो टूट गया सो टूट गया
सीसों का मसीहा कोई नहीं…
क्यों आस लगाए बैठे हो…
जो टूट गया सो टूट गया
सीसों का मसीहा कोई नहीं…
क्यों आस लगाए बैठे हो…
भूपेन ने साफ तौर पर कहा कि सुधीरजी से हमें आज निराश होना पड़ा है-
हिन्दुस्तान बहुत महान है, ग्रोथ रेट बढ़ रहा है
कौन कंटेट डिसाइड कर रहा है…
बड़ी पूंजी का कोई विकल्प है, बाहर निकलने का रास्ता है.
सरकार से क्या उम्मीदें हैं?
हिन्दुस्तान बहुत महान है, ग्रोथ रेट बढ़ रहा है
कौन कंटेट डिसाइड कर रहा है…
बड़ी पूंजी का कोई विकल्प है, बाहर निकलने का रास्ता है.
सरकार से क्या उम्मीदें हैं?
कौन फिल्म बना रहे हैं, पूरा आइडिया कहां से आ रहा है, सबसs डॉमिनेंट कौन होता है, वो किस सेंसिबिलिटी के साथ फिल्म बनायी है, ये मायने रखती है। अपर कास्ट, अपर क्लास, इंगलिश स्पीकिंग लोग फिल्म बनाते हैं, बाद में क्लास बदल जाते हैं। भूपेन ने कहा कि ऐसे में बल्ली सिंह चीमा – तय करो किस ओर हो, आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो की लाइनें याद आती है।
सारे वक्ताओं के बोल लेने और हस्तक्षेप करने के बाद सवाल-जबाब का जो दौर शुरु हुआ, उसके आगे लंच का इंतजार मद्धिम पड़ गया। मेरी इच्छा थी कि इससे व्यवस्थित तौर पर आपके सामने रखूं लेकिन दिनभर की लगातार व्यस्तता, लंबी थकान, इतनी गहरी रात और फिर अगले दिन फिर दिनभर बैठने का काम। थोड़ी हिम्मत तो बची है लेकिन इसे मैं बचाकर अगले दिन के लिए रख रहा हूं। फिलहाल मैं सत्र के दौरान जो जैसा नोट कर पाया-चिपका दे रहा हूं, कम से कम आप उस बातचीत की फ्लेवर का मजा ले सकेंगे।
सारे वक्ताओं के बोल लेने और हस्तक्षेप करने के बाद सवाल-जबाब का जो दौर शुरु हुआ, उसके आगे लंच का इंतजार मद्धिम पड़ गया। मेरी इच्छा थी कि इससे व्यवस्थित तौर पर आपके सामने रखूं लेकिन दिनभर की लगातार व्यस्तता, लंबी थकान, इतनी गहरी रात और फिर अगले दिन फिर दिनभर बैठने का काम। थोड़ी हिम्मत तो बची है लेकिन इसे मैं बचाकर अगले दिन के लिए रख रहा हूं। फिलहाल मैं सत्र के दौरान जो जैसा नोट कर पाया-चिपका दे रहा हूं, कम से कम आप उस बातचीत की फ्लेवर का मजा ले सकेंगे।
सवाल-जबाब सत्र
अजय ब्रह्मात्मज – मंच के तमाम लोगों से सवाल करते हैं। आप उन फिल्मों की चर्चा करें जो आप बना नहीं सकें। उससे निकलकर आएगा कि कौन फिल्म के कंटेंट तय करता है। कुछ के साक्ष्य रहा हूं… जो आपकी हार है उससे भी सामने लाएं, शर्माएं नहीं।
चंद्रप्रकाशजी का जबाब – मेरी यात्रा भारत के अतीत में रही है। बीच में किसी ने कला जीविका की बात की तो मैं हैरान हूं, प्राचीन भारतीय मनोविनोद में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि- कला जब जीविका हो जाती है तो वह कला नहीं रह जाती है, क्या हमलोग सचमुच कला के लिए काम कर रहे हैं। दूसरा अजय की बात!
मैंने ऐसी कई कहानियां लिखी जिसे मैं बाजार के पास लेकर गया
कुछ से सफलता मिली कुछ से असफलता मिली, कुछ सितारे हां कर चुके थे। उन पर पैसे लगानेवाले लोग भी तैयार हो गए, टेलीविजन से मेरा रिश्ता रहा है। मैं दोष देता था मार्केटियर की। बाजार तय करता है, हमसे पूछा जाता है कि क्या इससे समाज का कोई कनेक्ट है। लेकिन सच्चाई है कि जिन कहानियों पर बात नहीं करते वो हमारे पास है हम कार्पोरेट के पास जाते हैं, कुछ तैयार होता है कुछ नहीं।
फिर एक सवाल लागत की होती है कि क्या रिटर्न आ जाएगा। बाजार को मतलब लागत के वापस आने से हैं। अजय भाई जहां हम रुक जाते हैं वो ये कि हम वापस लाने की बात पर कनंविंस नहीं कर पाते। इसे मैं फिर भी कंटेंट की पराजय नहीं मानता हूं। यदि अगर अभिव्यक्त किए बिना नहीं जी सकते तो आपको माध्यम मिल जाएंगे।
फिर एक सवाल लागत की होती है कि क्या रिटर्न आ जाएगा। बाजार को मतलब लागत के वापस आने से हैं। अजय भाई जहां हम रुक जाते हैं वो ये कि हम वापस लाने की बात पर कनंविंस नहीं कर पाते। इसे मैं फिर भी कंटेंट की पराजय नहीं मानता हूं। यदि अगर अभिव्यक्त किए बिना नहीं जी सकते तो आपको माध्यम मिल जाएंगे।
सुधीर मिश्रा – डॉक्टर साहब से सहमत हूं। मैं क्रोसेबा साहब से बात करना चाहता था, किया। उन्होंने कहा हमेशा वही फिल्में बनाना जो तुम बनाना चाहते हो। अगर फिल्म मेकर बनना चाहते हो तो बहुत सारी फिल्में आपके पास होनी चाहिए। डॉयरेक्टर वो अच्छा है जो कि कन्विंस कर सके कि मेरे ख्बाब पर पैसे लगा सकते हो। मैंने एक फिल्म करनी चाही, दो बूढ़ो की कहानी है जो नहीं बनी।. बहुतों के हाथ में है लगाम. सिनेमा का डेमोक्रेटाइजेशन जरुरी है। हर आदमी को सिनेमा बनाने के लिए मुंबई न आना पड़े।टेक्नलॉजी ऐसा करेगा। अगर बनारस में रहकर बने तो वो ट्रू डेमोक्रेटाइजेशन होगा।
अनुराग – अपने-अपने जूतों में सब सही है। जयदीप से मैं डिस्एग्री हूं। रुलाते हैं लेकिन उदास कर देते। आपको यथार्थ को एक्सेप्ट करना पड़ेगा। समय बदल चुका है। अब पचास चैनल आते हैं-दो मिनट में बदल देते हैं। अगर आप फिल्म बनाना चाहते हैं तो इन हालातों को समझना होगा। अब फिल्म देखना इवेटं नहीं रह गया है। प्रॉब्लम होती है फिल्म मेकर की वो अलग तरह की चीजों में फंस जाता है। मैंने झूठ-झूठ बोल-बोलकर फिल्में बनायी है। कार्पोरेट को सीन स्क्रिप्ट समझ नहीं आता। तीन पिक्चर ऐसी बन गयी जिसमें कोई सपोर्ट नहीं- उड़ान, यलो बूट्स, माइकल… आपको एक्सेप्ट करना पड़ेगा कि आप कहां है, ऐसी फिल्में बनती जाएगी। बिहार बेस्ड बना रहा हूं, 16 करोड़ का बजट मिल रहा है। हर चीज पॉसिबल है, पहले सेल्फ/इगो हटाना पड़ेगा। तय करना होगा कि या तो फिल्म बनानी है या फिर पैसा कमाना है, हमें तय करना होगा- या तो फिल्म बनाओ, या बंगला बनाओ. तीन-चार पांच साल हमलोग कहीं रुकनेवाले नहीं है। फिल्म बनाते रहेंगे।
जयदीप – मैं निराशावादी नहीं हूं। मेरे पास स्क्रिप्ट है तीन-चार लेकिन इन्टरेस्ट नहीं है। मेरा प्राब्लम है कि मैं निकल जाता हूं। एक एस्केपिस्ट हूं मैं निकल जाता हूं। लेकिन फिर मैं वापस आ जाता हूं।
महमूद – आज सिनेमा सचमुच इंगलिश मीडियम पीपल के लोगों के लिए बन रही है लेकिन निकल कैसे सकेंगे। लेकिन फिर भी एक-पढ़े लिखे लोगों के लिए बना रहे हैं। भूपेन का जबाब दिया-हम जिससे निकलने की बात कर रहे हैं तो वो हमें तालिम से भी निकलने की कोशिश कर सकते हैं।
अनुषा – इस मामले में दबंग बहुत अच्छा स्टेप है, अंग्रेजी से निकलने की कोशिश है।
अनुराग – स्क्रिप्ट अलग थी, फिल्म अलग। जो स्क्प्टि थी वो आज की मदर इंडिया की थी। सलमान के साथ जो भी फिल्म बनाया वो अपनी फिल्म तो बनायी ही नहीं। फिर भी भाषा वही रही, कपड़े वही रहे, वातावरण वही रहा, सौ फीसदी तो नहीं लेकिन पचास फीसदी तो वो कर पाया औऱ सलमान से करवाया। भाषा बदली, एक्सप्रेशन वही रह गया।
रवीशः क्राइसिस स्टोरी टेलिंग को लेकर है
पूरी बहस ये मानकर चल रही है कि सब अच्छी फिल्म बन रही है। दबंग में सिटी बजाना नहीं सीखा। पीपली-फिल्म कम देखी लोगों को ज्यादा देखा। मैं आदमी एक हूं लेकिन दर्शक कई तरह का हो सकता हूं और हूं।
रेट बोल जवानी हो को आप-हम नहीं जानते लेकिन लोग देख रहे हैं, जबरदस्त पॉपुलर हो रहे हैं। हम विकल्प को अपने तरीके से फिक्स कर दे रहे हैं। कई तरह के बाजार हैं। क्राइसिस स्टोरी टेलिंग को लेकर है। स्टोरी टेलिंग बेजोड़ है दबंग में और पीपली लाइव में। टिनहिया हीरो है… दबंग है। हम वो ग्रैंड कहानियां नहीं दे रहे हैं। बहुत लिमिटेड रिएलिटी घूम रहा है। मल्टीरियलिटी दर्शक हूं मैं… ज्यादा से ज्यादा लोगों को छू जाए, ऐसी फिल्में कम बन रही है। कहानी के कहने में कमजोरियां है, गाने औऱ तकनीक को ठोस दे रहे हैं। लोगों का जब सपोर्ट नहीं होगा तो कार्पोरेट तो खेलेगा ही खेलेगा।
शेष नारायण सिंह – पहली फिल्म भाभी देखी- चल उड़ जा रहा रे पंछी, आखिरी फिल्म पीपली लाइव. पिंजर सात बार देखी, सबने कहा कि फिल्म बहुत अच्छी। दो लेड़ीज के साथ देखी जो 1947 में रेप होते-होते बची थी। हर फ्रेम में कंटेंट भरा पड़ा था। हर फ्रेम चट करने पर पेंटिंग बन सकती थी। ये फिल्म तूफान खड़ी करने में कामयाब क्यों नहीं रही। मार्केट के लिहाज से भी। टाइम, स्पेस, दलाली, भाषा हर पैमाने पर मैंने दुनियाभर के रैकेटियर के बारे में बात की तो कहा कि बेहतरीन फिल्म है। ये क्यों हीं बड़ी बन पायी।
अनुराग – लोगों ने फिल्म देखी नहीं। कई बार फिल्म लोगों की रडार में आती है कई लोगों के नहीं। फिल्म के टीवी पर बनी रहने से सर्वाइव करने से बनी रह जाती है।
सुधीर मिश्रा – हर फिल्म उसी वक्त सफल नहीं होती। पाथेर पांचाली के साथ भी ऐसे ही हुआ। कुछ फिल्मों के साथ अलग सा रिश्ता बनता है। कोई ऐसा मिला नहीं कि हजारों ख्वाहिशें ऐसी नहीं देखी हो लेकिन कहां देखी ये अलग बात है। सब फिल्म एमीडिएटली विकम फैशनेबुल लेकिन कुछ के साथ बाद में होता। वक्त गुजरने के साथ फिल्म क्या होता है, ये देखना होगा। दि मेजोरिटी इज नॉट आलवेज राइट, फिल्ममेकर के साथ ऐसा नहीं होता।
महमूद – सीरियस चीजें हमेशा कम होगी। पिक्चर की अच्छी का होना और चलना अलग है। मार्केटिंग का बड़ा रोल होता है। छोटी फिल्म को बनानेवाले का रास्ता बंद हुआ है एक स्टार के जुड़ने से पीपली लाइव से।
अजय – फिल्म का चलना क्यों जरुरी है, बल्कि बहुत जरुरी है।
अनुराग – अब फिल्मों को इतना सस्टेन करने के लिए समय ही नहीं मिलता। हमें बदलाव को समझना होगा। तकनीक तेजी से बदल रहे हैं।
अतुल तिवारी – हर फिल्म की एक कुंडली होती है। भाग्यवादी नहीं हूं फिर भी। मार्केट हमसे देखने का अधिकार छिन लेता है। एक ऐसा प्रयास हो जो कि कहीं देखी ही नहीं गयी।
चंद्रप्रकाश – ऐसा प्रयास हो चुका है, लेकिन सफल नहीं हुआ।
विप्लव राही – आमिर खान के आने से पीपली सक्सेस हुई है।
हमें इस बात का प्रयास करना चाहिए कि एक और जो दर्शक वर्ग है वो फिल्मकारों के बीच आ जाए।
पाणिनी आनंद – हम हमेशा उस किसान के बारे में ही क्यों सोच रहे हैं जहां किसान पांच फिट का है। उस गोरे-चिट्टे किसान पर फिल्म क्यो नहीं बनती। हम आज के विषय को क्यों नहीं उठा पा रहे हैं? इसको समझा जाए। नत्था लाचार ही क्यों दिख रहा है?
अनुराग – हमलोग कैपटलिज्म बना ही नहीं सकते। घोबी घाट नाम पर हंगामा मचा हुआ है। हम ऐसे देश में रहते हैं जहां मरने के बाद भी राजीव गांधी पर फिल्म बना ही नहीं सकते। इंडिया में करप्शन करने से करियर और बढ़ जाता है। असली नाम से कैरेक्टर इस्तेमाल करने से झमेले हो जाते हैं। मैं सीडब्ल्यूजी पर फिल्म बनाना चाहूंगा तो क्या फिल्म बनाना चाहेंगे।
राकेश कुमार सिंह – मुझे नहीं लगता कि यहां अनरियल चीजों पर फिल्म बनती है. फिल्म उन्हीं मसले पर बनती है जो कि रीयल होती है।
महमूद – दो तरह के किसान आते रहे हैं- एक रीयल, दूसरा मिथुन दादा की तरह। 80 तक किसान था फिर नहीं था। एक पैरलल, दूसरा कमर्शियल में। किसान क्यों नहीं आ रहा ये व्यापक सवाल है।
वरुण ग्रोवर – हिन्दी सिनेमा किस तरह के कंटेट को बनाता या नहीं बनाता है। हमारा जितना गुस्से में है… 70 में एंग्रैमैन निकला लेकिन सटायर क्यों नहीं निकला? सिनेमा में सटायर क्यों नहीं पहुंचा?
सटायर को लेकर हिन्दी सिनेमा इतना क्यों खाली है?
अनुषा – रीजनल सिनेमा में ये हैं। मुझे नहीं लगता कि पीपली सटायर फिल्म है। क्योंकि मैं सटायर में बहुत सारी चीजें देखता हूं।
सुधीर मिश्रा – जाने भी दो यारों, पोयर सटायर था। हम मेलोड्रामा में जाना ज्यादा पसंद करते हैं। आशीष नंदी जिस मेलोड्रामा की बात करते हैं। तो फिर उस तरह की फिल्में ज्यादा बनती है, मार्केट फिर उस प्रवृति को मार्केट बिगाड़ते भी है। फिल्ममेकर को कहानी कहनी है। आफ किसी का अंदाज ए बया तय नहीं कर सकते। एंड में क्राइसिस फिल्ममेकर का है।
अनुराग – मैंने जिस फिल्म में जो कहना चाहा वो मैंने कह दिया। आप उम्मीद ज्यादा कर लेंगे तो फिर आपको लगता है कि नहीं हो पाया।
(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्ण मीडिया विश्लेषक। ओजस्वी वक्ता। दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्लॉग राइटर। कई राष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सेदारी, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। ताना बाना औरटीवी प्लस नाम के दो ब्लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
विनीत कुमार की बाकी पोस्ट पढ़ें : mohallalive.com/tag/vineet-kumar
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