Monday, December 20, 2010

गंभीर कंटेंट के भी दर्शक हैं


गंभीर कंटेंट के भी दर्शक हैं
उमेश चतुर्वेदी
First Published:31-07-10 09:54 PM
Last Updated:31-07-10 10:00 PM
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टेलीविजन कंटेंट की जब भी चर्चा होती है, हमारे हिंदी चैनलों पर फामरूलेबाजी और सनसनीखेज होने का आरोप अपने आप लग जाता है। खबरिया चैनलों पर आरोप है कि वे खबरों की बजाय मनोरंजन पर जोर दे रहे हैं तो सामान्य मनोरंजन श्रेणी यानी जनरल इंटरटेनमेंट कैटेगरी के चैनलों के बारे में कहा जा रहा है कि हिंदी फिल्मों की तरह वे भी एक फार्मूले पर चल पड़े हैं।
फार्मूला सफल तो हर जगह उसकी नकल शुरू हो जाती है। खबरिया चैनलों के कार्यक्रमों के कंटेंट स्तर में गिरावट के जब भी  आरोप लगते हैं, टीआरपी का बहाना लेकर बैठ जाते हैं। लेकिन पिछले दिनों डिस्कवरी चैनल की दर्शक संख्या को लेकर जो रिपोर्ट आई, उसने भारतीय टेलीविजन कंटेंट की दुनिया की आंखें खोल दी हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक गैर समाचार और नॉन-फिक्शन श्रेणी के दर्शकों के बाजार पर डिस्कवरी का करीब 95 फीसदी का कब्जा है। टैम के आंकड़ों के मुताबिक डिस्कवरी देश का 13वां सबसे बड़ा चैनल बन गया है। इसके साथ ही उसने हिंदी और अंग्रेजी के खबरिया चैनलों, म्यूजिक चैनलों, अंग्रेजी मूवी और इंटरटेनमेंट चैनलों को भी पछाड़ दिया है। दर्शक संख्या के लिहाज से वह जिस चैनल से प्रतिद्वंद्विता कर रहा है, वह भी नॉन फिक्शन और नॉन न्यूज चैनल नेशनल ज्योग्राफिक है। नेशनल ज्योग्राफिक के पास डिस्कवरी के तकरीबन एक तिहाई दर्शक ही हैं।
हिंदी चैनलों की अब तक जो रेटिंग आती रही है, उसने यही साबित किया है कि हिंदी के दर्शकों को गंभीर खबरों और कार्यक्रमों से कोई लेना-देना नहीं है। टेलीविजन चैनलों के नियंताओं से जब भी कंटेंट और गंभीर विषयों के चुनाव और उन पर गंभीरता से काम करने की अपेक्षा की जाती है, वे एक ही राग अलापते हैं। वे साफ कहते हैं कि बाजार में टिके रहने के लिए हिंदी दर्शकों के मानस के मुताबिक कार्यक्रम और खबरें पेश करना उनकी मजबूरी है।
लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि डिस्कवरी भी बाजार में भारी-भरकम पूंजी के साथ मौजूद है। उसका भी काम जनकल्याण करना नहीं है। फिर भी वह स्तरहीन खबरें या कंटेंट के आधार पर कमजोर कार्यक्रम भी पेश नहीं करता। उसके कार्यक्रम निर्माण और कंटेंट के स्तर पर देश के मौजूदा खबरिया और मनोरंजन चैनलों से कई गुना बेहतर हैं।
डिस्कवरी पर झटपट लोकप्रियता हासिल करने के लिए सतही विषयों पर सतही कार्यक्रम भी पेश नहीं किए जाते। इसके बावजूद अगर उसे बाजार में इतनी बड़ी हिस्सेदारी मिली हुई है, तो मानना पड़ेगा कि हिंदीवाले भी गंभीर सामग्री को पसंद करते हैं और उनके लिए गंभीर सामग्री पेश करना घाटे का सौदा नहीं है।
जब टीआरपी मापने वाली टैम कंपनी भारत में नहीं थी और इतने सारे निजी और सेटेलाइट चैनल नहीं थे, दूरदर्शन के एकाधिकार का जमाना था। तब कार्यक्रमों की रेटिंग दूरदर्शन की ऑडिएंस रिसर्च यूनिट करती थी। उसमें अक्सर सुरभि नाम का कार्यक्रम नंबर एक पर आता था। इस कार्यक्रम में सिर्फ सांस्कृतिक खबरें ही पेश की जाती थीं। भाषा भी शालीन और कसी हुई होती थी। तब अक्सर बुधवार की शाम घरों की चाय सुरभि कार्यक्रम के साथ पी जाती थी।
आज डिस्कवरी की भी हालत कुछ वैसी ही है। डिस्कवरी पर सतही मनोरंजन और जानकारी की चीजें पेश नहीं की जातीं। वहां शब्दों तक के इस्तेमाल के लिए बाकायदा स्टाइलबुक बनी हुई है। हिंदी की स्टाइलबुक बनाने के लिए आज से करीब डेढ़ दशक पहले डिस्कवरी ने पांच लाख रुपए खर्च किए थे।
डिस्कवरी नेटवर्क्स एशिया-प्रशांत के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट राहुल जौहरी के मुताबिक दर्शक चैनलों के प्रोग्राम को सर्च करते हैं और डिस्कवरी द्वारा दिखाये जाने वाले कंटेंट को अपने अनुकूल पाते हैं। लेकिन एक बार उन्हें अच्छे कार्यक्रम मिल गए तो उन्हें आंखें गड़ाकर बैठे रहने में दिक्कत नहीं होती। टैम के अनुसार इस साल के शुरुआती छह महीनों में डिस्कवरी के दर्शकों की संख्या में 15 प्रतिशत की बढ़त देखी गई है, जबकि हिंदी न्यूज चैनल के दर्शकों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है।
यहां तक कि प्राइम टाइम में डिस्कवरी ‘आज तक’ से 21 प्रतिशत और स्टार न्यूज से 53 प्रतिशत आगे है। क्या यह मान लिया जाय कि इन भारत के चैनलों के कंटेंट की दुनिया बदल रही है। सच तो यह है कि यह दुनिया कभी बदली ही नहीं थी। बल्कि टैम के दबाव में कंटेंट की जिम्मेदारी संभालने वाले लोग खड़े नहीं रह पाए और उनकी टैम लोकप्रियता ऊपर-नीचे होती रही, लेकिन डिस्कवरी ने अपने कंटेंट से कोई समझौता नहीं किया और वह आज साबित करने के लिए सफलता के पायदान पर मजबूती से खड़ा हुआ है।
 

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