Monday, December 20, 2010

पत्रकारिता-- अभी बहुत कुछ बाकी है



अभी बहुत कुछ बाकी है : जय शंकर


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समाज और राजनीति में पत्रकारिता का क्या महत्व और योगदान है, यह इसी से साबित होता है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता को चौथा स्तंभ कहा जाता है। पत्रकारिता एक मिशन है तो एक उद्योग भी है, प्रोफेशन भी है। वहीं एक ऐसे समय में जब बाजारीकरण का प्रभाव हमारे जीवनशैली पर साफ झलकता हो तो भला मीडिया ही उससे कैसे अछूता रह सकता है। आखिरकार पत्रकार भी तो समाज से ही आते है।
हालांकि बाजारीकरण के इसी प्रभाव में पत्रकारिता में बाजार और मुनाफे को जरूरत से ज्यादा समझ लिया है। इसलिए जिस राजनैतिक सत्ता पर निगरानी करना उसका प्रमुख काम था उसी सत्ता की चापलूसी करना उसके मुनाफे का स्त्रोत बने। कॉरपरेट कंपनियों का मीडिया संस्थानों में दखल बढता गया है। जिसका स्पष्ट प्रभाव आज हम मीडिया के काम-काज पर देख सकते है। लेकिन याद रहे इतना सबकुछ होने के बावजूद पत्रकारिता मरी नहीं है। वह आज भी एक व्यापक दायरे के साथ, एक सकारात्मक नयापन लिये हुए विभिन्न रूपों में हमारे सामने है। पत्रकारिता ने भी नए माहौल के हिसाब से खुद को सजा लिया है। आज वह केवल राजनीति में ही न सिमट कर अर्थव्यवस्था, जीवनशैली, चिकित्सा, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान आदि विषयों को खुद में संजोए हुए है।
मीडिया की सकारात्मक भूमिका के कारण ही कितने अपराधियों, राजनेताओं और घोटालों आदि का कच्चा-चिटठा हमारे सामने है, भले ही वह रूचिका-राठौर मामला हो या जेसिकालाल मर्डर केस। मीडिया की भूमिका के कारण ही एक आम आदमी न्याय की उम्मीद लगा सकता है। वर्तमान समय में भी मीडिया के कारण ही एक गरीब की आवाज़ सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुच सकती है। आज हम विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न विचारों को अपना नज़रिया दे पा रहे है। यह केवल मीडिया की सफल भूमिका का घोतक है।
यह तो अपने देश में एक चलन सा निकल पडा है कि “कमियां खोजों”। लेकिन यदि समाज का बुद्धिजीवी वर्ग मीडिया की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करें तो कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में शुरूआत करने वाले युवा मजबूती से पत्रकारिता का दायित्व निर्वहन कर पाऐंगे। समय है आने वाले पत्रकारों को प्रभाष जोशी, माखनलाल चतुवॅदी की पत्रकारिता से कुछ सिखाए क्योंकि अभी बहुत कुछ बाकी है...
"क्या हुआ जो हो गया फिर से अंधेरों का चलन।
रोशनी दिवार से हर बार टकराती तो है।।"

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