Thursday, August 11, 2011

महाभारत



अपार हर्ष दु्र्लभ क्षण
अंग अंग में उमंग आवेग मानो तटबंध तोड़ने का उतावलापन।अहसास ऐसा कभी नहीं हुआ था पहले। नाचे मन मयूर और अंग प्रत्यंग में बसंती खुमार ज्वाला और जलाल जल जाने को या जला देने की बेताबी। आकाश को धरती से मिला देने को या धरती में खुद मिटा देने की लालसा। लगता है क्षीतिज पर आकाश और धरती का संयोग है या सुबह और सांझ का मिलन है। कैसे होगा क्या होगा कितना भावपूर्ण होगा आनंददायक होगा यह संवाद अधरों का मस्त स्वाद। खामोशी की वाचालता या धड़कनो का उबाल। बेला करीब था मगर मन आतुर होकर भी कंपित। देह में एक मूक तूफान। कल्पना की ढेरो सूरतों के बीच मन आशंकित और विह्वल।
नेह या प्रणय का वो लम्हा जिसमें कुछ नहीं रहता बाकी। धड़कने आपे से बाहर मन विह्वल कंपित सारा देह शून्य सा अहसास मानों साधना में मन भवंरगुफा में विचरण कर रहा हो। महाशून्य अंधकार में भी एक प्रकाश  समाधि की वह बेला भी निकट जब मन अहसास करे प्रियतम का, संयोग का अहसास का स्पंदन का आनंद का और समाधि में लीन हो जाने का।  नि: शब्द सूनापन घोर शांति के बीच हम। समाधि सी शांति और संभोग सा उतावलापन तनाव और उतेजना में भी मानों प्रणय का अहसास रहता है।
अंग अंग में तरंग उमंग अंग अंग में जंग एक साथ मन के जंग में एक दूसरे को परास्त करने का आवेग मंगल लहरों के बीच अपनापन की सबसे सार्थक परिभाषा। धीर सागर में उबाल लहरो का क्रंदण और नदी की तेज लहरों में सागर के साथ सागर में समाहित हो जाने की ब्यग्रता। रात भर चलता रहा मन में मन की चाहत का महाभारत। कभी कौरव कभी पांड़वों के बीच तकरार रार युद्ध कौशल की होती रही जटिल परीक्षा। कभी मन अर्जुन सा उदास तो कभी कौरवों सा करता रहा षड़यंत्र परास्त करने की साजिशों के बीच यक्ष प्रश्न बना रहा। कभी तीर धनुष से तो कभी गद्दा से हुआ मल युद्ध। कभी चोर सा छिपकर शिविर में सुनता रहा अंदर की बात तो कभी गुफा में खोकर घुसकर लेता रहा अंदर का स्वाद। चांद तारों के बीच नरम कोमल नाजुक सितारों में खोया, कभी मन बालक सा तो कभी दैत्य बनकर लेता रहा खाता रहा मुस्कुराता रहा और ध़ृतराष्ट्र सा लेता रहा अपने बेटो के विजय की कल्पना आनंद का बहुभोग। मन दुर्योधन ना माने ना जाने मनमोहन की सलाह या पांड़व को भी साथ लेकर साथ साथ का साथ का अनुरोध। भीम सा मन संहार में लगा रहा जुटा रहालगातार लगातार। पांचाली के विराम को भी गवारा नहीं माना यह आतुर मन। थमने की आकांक्षा का करता रहा प्रतिवाद। नहीं समय नहीं है युद्ध में थमकर रहना गवारा नहीं है।
आनंद से ज्यादा मंगल क्षण की अभिलाषा और क्षण से ज्यादा खुद को अभिव्यक्त करने का अजीब सा उतावलापन। थम नहीं रहा था मन का उबाल,चक्रव्यूह में मारा जाएगा अभिमन्यू यह जानते हुए भी मन ने रचा चक्र व्यूह। हर घड़ी हर पल हर बार युद्ध में साथ दिया, साथ मिला। ज्वार थम नही रहा था अभिमन्यू की तरह यह जानकर भी अंतिम उत्कर्ष क्या होगा। लड़ते लड़ते अभिमन्यू सारी कलाओ को भेद गया, मगर नहीं जानता था आखिरी अभेद किला को भेदने का राज। बस लड़ते लड़ते घिरकर आनंद उत्कर्ष उबाल के बीच अभिमन्यू का युद्ध । थम गया मानो युद्ध का तनाव बारम्बार के युद्ध में लड़ने का तेज हर बार की तरह । शिथिल पड़ से गए सारे सिपाही आज के युद्ध में। पस्त से हो गए मन के सारे विकार मार कर अभिमन्यू को। एक दूसरे के संग खोया रहा खोया रहा मन तन और सारे अंग अंग कुरूक्षेत्र के रण स्थल में। फिर भी एक अलग संवाद में मशगूल था अपना कृष्ण। गोपियों के संग नहीं दौपद्री से पूछ रहा था सवाल कहो पांचाली तुम खुश हो ? तब ठठाकर हंस पड़ी पांचाली सखा हास परिहास करते हो। भोग के बाद उपहास करते हो ? तुम बताओं युद्द के बाद शोक मना रहे हो। पांचाली समेत कौरवों को भी समझा रहे हो। मुझसे क्या यह छिपा है कि इस युद्ध को तुम रोक सकते थे। नहीं होता महाभारत यदि तुम चाहते। सारी लीला करके संतोष का परम स्वांग कर रहे हो या दिखा रहे हो योगी सा निरपेक्ष मन? कृष्ण ने मुस्कुराकर की परम संतुषि्ट का भाव किया प्रदर्शन। नहीं सखि यह जरूरी था। महाभारत के बगैर ना होता इनका नाश और ना होता मन का संहार।
पांचाली ने कहा हे जगदंबे अब बताओ मन की बात। दूसरों की थाह लेने वाले अपने मन की थाह जताओ। सखि रह लिए बहुत दिनों तक मित्रता के परम भाव में। दूर दूर बहुत दूर भले ही रहे मगर मुमकिन है संबंधों के भाव में अब रहे। मन ब्यग्र जब चाहे साथ रहे संग रहे। थाम ले वेग को जब चाहे। जब चाहे हो सपनों में मंगल परिहास ।
थक कर भी मन शांत सा जागा। सपनों के बीच सुदंर अहसास के साथ सुबह की मनभावन धूप के संग ली अंगड़ाई। मन नाच रहा है खिलखिला रहा है अंग अंग। एक होने का बसंत संग संग का तरंग। हल्की बारिश में साथ साथ संग चलने का सुदंर अहसास।

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