Wednesday, July 13, 2011

टैगोर को नोबल प्राइज मिला, महात्मा गांधी को क्यों नहीं? महेश दत्त शर्मा अकसर बीचबीच में यह सवाल उठता रहता है कि महात्मा गांधी को नोबल प्राइज क्यों नहीं मिला? इसके लिए कहना यह होगा कि लोग नोबल प्राइज मिलने पर चर्चा में आते हैं, वहीं जब गांधी जी को नोबल प्राइज देने की सुगबुगाहर शुरू हुई, वे उससे काफी पहले संसार भर में एक चर्चित और सर्वमान्य शख्यिसत बन चुके थे जिसे किसी ‘नोबल’ प्राइज के ठप्पे की आवश्यकता नहीं थी। स्वयं फकीराना तबीयत के गांधी को व्यक्तिगत भी इसकी आवश्यकता नहीं थी। भारत ही नहीं बल्कि एशिया में सबसे पहले सन 1913 में ‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ के लिए गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबल प्राइज मिला था। इस रचना संग्रह को हम ‘गीतांजलि’ के नाम से जानते हैं। प्राइज मिलने से पहले तक टैगोर हालाँकि अपने पाठकों में खासे लोकप्रिय थे। लेकिन फिर भी उन्हें इसकी दरकार थी। इसमें कोई शक नहीं कि उनकी रचनाएँ उस योग्य थीं, लेकिन नोबल प्राइज उन्हें वैसे ही नहीं मिल गया। इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत प्रयास करने पड़े। उनकी ख्याति वैसे ही नोबल कमिटी तक नहीं पहुँच गई। दरअसल, रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे अवनींद्रनाथ की विदेशों में अच्छी साख थी। उन्होंने कला के क्षेत्र में काफी नाम कमाया था। वे लंदन में रहते थे। प्रसिद्ध ब्रिटिश कलाकार रोथेंस्टाइन उनके परम मित्रों में से थे। वहाँ के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों से भी उनका परिचय था। उन्होंने अपने चाचा रवींद्रनाथ की भेंट रोथेंस्टाइन से कराई। उन्होंने रवींद्रनाथ की कविताओं को स्थानीय (लंदन) साहित्यकारों के सामने सुनाने का कार्यक्रम तय किया। 7 जुलाई, 1912 को रोथेंस्टाइन के घर एक साहित्य सभा हुई जिसमें अमेरिकी कवि एजरापौंड, सुप्रसिद्ध कवि विलियम बटलर यीट्स, कवयित्री सिनक्लैर तथा सी.एफ. एंड्रूज शामिल हुए। सी.एफ. एंड्रूज गांधी जी के शिष्य थे और टैगोर के शांतिनिकेतन से भी जुड़े हुए थे। इसके पहले ही रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने विभिन्न बांग्ला काव्य संग्रहों में से 103 कविताओं का चयन करके उनका अंग्रेजी में अनुवाद कर लिया था। इस संग्रह में बांग्ला पुस्तक ‘गीतांजलि’ से पचपन, ‘गीतिमाल्य’ से सोलह तथा बत्तीस कविताएँ अन्य पुस्तकों से ली गई थीं। इस संग्रह को ‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ नाम दिया गया था। साहित्य सभा में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया और जल्दी ही वे ब्रिटिश समाज में प्रसिद्ध हो गए। सिनक्लैर ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा, ‘काव्य के रूप में ये बिलकुल पूर्ण हैं, अपितु इन कविताओं के माध्यम से मुझे एक अनुपम तत्त्व मिला है। टैगोर ने अंग्रेजी में ऐसी प्रस्तुति की है जो अंग्रेजी या अन्य पाश्चात्य भाषा में सुनने की उम्मीद ही नहीं थी।’ रवींद्रनाथ टैगोर को अनेक प्रशंसा पत्र मिले। 12 जुलाई, 1912 को उनके सम्मान में एक सभा का आयोजन किया गया। उस सभा की अध्यक्षता कवि यीट्स ने की। उसमें इंगलैंड के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति शामिल हुए जिनमें विली पियर्सन, रोथेंस्टाइन, एच.जी. वेल्स, वटेंर्ड रसेल, ब्रुक्स, लोयेस डिकंसन, फॉक्स स्ट्राँगवेज, एजरा पाउंड, अर्नेस्ट रीहूस, एवलिन अंडरहिल आदि प्रमुख थे। सभा में सबसे उनका परिचय कराया गया। उनकी कविताओं का पाठ भी हुआ। यीट्स ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, ‘रवींद्रनाथ प्रकृति प्रेमी हैं। इनकी कविताएँ प्रकृति की सुंदर प्रेरणाओं को इंगित करती हैं और ये इनकी निरीक्षण शक्ति और प्रकृति के प्रति इनके लगाव की परिचायक हैं। यह काव्यसंग्रह प्रचुर मात्रा में सौंदर्य का कोष है। मैं मेरे समकालीन किसी ऐसे लेखक से परिचित नहीं हूँ जिसकी तुलना रवींद्रनाथ की इन कविताओं से कर सकूं।’ इसी सभा में यह निश्चय किया गया कि उस संग्रह को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाए और उसकी भूमिका कवि यीट्स लिखें। अंततः वर्ष 1912 के अंतिम माह में पुस्तक प्रकाशित हुई। वह पुस्तक विलियम रोथेंस्टाइन को समर्पित की गई। ॔गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ के संबंध में एक छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना का वर्णन आवश्यक है क्योंकि यह घटना वह बताती है कि अगर वैसा होता तो क्या होता? रवींद्रनाथ ने ॔गीतांजति’ के अंग्रेजी संस्करण के लिए जो कविताएँ अंग्रेजी में अनूदित कीं, उन्हें एक पुस्तक के रूप में क्रमबद्ध करके वे लंदन पहुँचे। लंदन में टयूब रेलवे स्टेशन से वे ब्लूम्सबरी शहर पहुँचे। वहाँ से वे रोथेंस्टाइन से मिलने जाने लगे तो उन्हें ‘गीतांजति’ की वह प्रति नहीं मिली। जब दौड़भाग की और स्टेशन पर पता किया तो वह प्रति उस कार्यालय में मिली जहाँ यात्रियों के छूटे सामान को सुरक्षित रखा जाता है। तब जाकर रवींद्रनाथ को राहत मिली। इस विषय में बाद में उन्होंने लिखा, ‘गीतांजति’ की वह प्रति अगर भूलवश खो जाती, तब क्या स्थिति होती।’ ‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ की प्रसिद्धि इतनी तेजी से चारों और फैली कि प्रकाशन के एक वर्ष के भीतर (वर्ष 1913 के नवंबर महीने में) ही उसने उन्हें साहित्य का नोबल दिलवा दिया। और रवींद्रनाथ टैगोर भारत सहित दुनिया भर में लोकप्रिय हो गए। रवींद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबल प्राइज दिलाने में सबसे पहला श्रेय उनके भतीजे अवनींद्रनाथ को जाता है जिसने उनके लिए ब्रिटेन में मंच तैयार किया। उसके माध्यम से उन्हें ब्रिटेन के चुनिंदा और लोकप्रिय साहित्यकारों का आत्मस्फूर्त समर्थन हासिल हो गया और बाकी कमी उनकी बेजोड़ कविताओं ने पूरी कर दी और वे भारत के पहले नोबल विनर बन गए। उनके विपरीत महात्मा गांधी शुरू से ही ब्रिटिश लोगों की आँख की किरकिरी रहे थे। मोहनदास से महात्मा बनने की शुरुआत ही उन्होंने अफ्रीका में अंग्रेजों को पटखनी देकर की इसलिए नोबल प्राइज कमेटी में कोई भी व्यक्ति उनका समर्थक नहीं था। ब्रिटेन में कोई भी उनका पैरोकार नहीं था जो वहाँ उनके लिए मंच तैयार करता। सबसे पहले सन 1937 में गांधी जी का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। इसके बाद 1938, 1939, 1947 और 1948 में उनका नामांकन हुआ, लेकिन उन्हें नोबल शांति पुरस्कार प्रदान नहीं किया गया, क्यों? अकसर यह प्रश्न पूछा जाता रहा कि क्या नॉर्वे की नोबल समिति का दृष्टिकोण इतना संकुचित था कि वह गैरयूरोपीय लोगों के स्वतंत्रता संघर्ष के लिए उनकी प्रशंसा नहीं कर सकती? या वह किसी ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार देने से डरती है, जिसके कारण ग्रेट ब्रिटेन से उनके रिश्तों में खटास पैदा हो सकती हो। सन 1947 में नोबल शांति पुरस्कार के लिए चुने गए छह नामों में गांधी जी का नाम भी शामिल था, लेकिन उनके नाम को लेकर पुरस्कार समिति के सदस्यों में गंभीर मतभेद थे। इसी बीच गांधी जी ने एक प्रार्थनासभा में देश में सांप्रदायिक तनाव की आशंकाओं को देखते हुए कहा कि, ॔अगर ऐसा ही अनाचार चलता रहा तो दोनों देशों (भारतपाकिस्तान) में युद्ध छिड़ जाएगा।’ उनके इस बयान को लंदन के ॔द टाइम्स’ अखबार ने नमकमिर्च लगाकर प्रकाशित किया। इस समाचार ने आग में घी का काम किया और पाँच में से तीन नोबल कमेटी सदस्यों ने गांधी जी के विरुद्ध मतदान किया और इस तरह उन्हें वर्ष 1947 का नोबल शांति पुरस्कार नहीं मिला। सन 1948 में पुनः गांधी जी का नाम अंतिम रूप से चुने गए तीन नामों में शामिल था और इस बार उन्हें पुरस्कार मिलने की प्रबल संभावना थी। लेकिन नामांकन की अंतिम तिथि से दो दिन पूर्व ही उनके प्राण हर लिए गए। अब तक किसी को मरणोपरांत नोबल पुरस्कार नहीं दिया गया था लेकिन तब यह प्रावधान था कि विशेष परिस्थितियों में मरणोपरांत भी नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया जा सकता था। लेकिन गांधी जी न तो किसी संस्था से संबद्ध थे, न कोई संपित्त या वसीयत छोड़ गए थे, तो पुरस्कार कौन ले? तब नोबल संस्था के निदेशक अगस्ट स्चोऊ ने संस्था के वकील और अन्य पदाधिकारियों से पूछा कि क्या मरणोपरांत पुरस्कार प्रदान किया जा सकता है? उत्तर नकारात्मक मिला। मरणोपरांत पुरस्कार केवल तभी प्रदान किया जा सकता था जबकि गांधी जी के नाम की घोषणा उनकी मृत्यु से पूर्व कर दी गई होती। इस प्रकार, उस वर्ष किसी को भी वह पुरस्कार प्रदान नहीं किया गया। और ॔गांधी को नोबल क्यों नहीं’ नाम का वह अध्याय समाप्त हो गया। बाद में, सन 1969 में गांधी जी की जन्म शताब्दी के स्मरणस्वरूप इंगलैंड ने उनकी तस्वीरवाला एक डाकटिकट छापकर उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की। सन 1913 में जब रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल प्राइज मिला, वे 52 वर्ष के थे और शांतिनिकेतन में अपना आश्रम स्थापित कर चुके थे। नोबल प्राइज मिलने के बाद उन्होंने देशविदेश में खूब यात्राएँ कीं और लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँच गए। इसी दौरान गांधी जी अफ्रीका में थे और वहाँ अश्वेतों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे। सन 1915 में जब गांधी जी दक्षिणी अफ्रीका से वापस भारत लौटे, तब यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता था लेकिन 1918 में ॔चंपारण आंदोलन’ और ॔खेड़ा सत्याग्रह’ के बाद देश का बच्चाबच्चा उनके नाम से परिचित हो गया। उनका सत्याग्रह शांति और अहिंसा की सबसे बड़ी मिसाल था। इसी का प्रयोग करके उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों को उनका हक दिलाया था। बाद के वर्षों में उन्होंने हमेशा शांति और अहिंसा का समर्थन किया और देशविदेश के लोगों ने उन्हें महात्मा का दरजा प्रदान किया जो नोबल प्राइज से कहीं ब़कर था। अंग्रेज सरकार और अनेक यूरोपीय देश यह बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके मुखर आलोचक महात्मा गांधी को नोबल शांति पुरस्कार मिले। यही कारण था कि बारबार नामांकन के बावजूद उन्हें वह पुरस्कार नहीं मिला।


टैगोर को नोबल प्राइज मिला, महात्मा गांधी को क्यों नहीं?



महेश दत्त शर्मा
अकसर बीचबीच में यह सवाल उठता रहता है कि महात्मा गांधी को नोबल प्राइज क्यों नहीं मिला? इसके लिए कहना यह होगा कि लोग नोबल प्राइज मिलने पर चर्चा में आते हैं, वहीं जब गांधी जी को नोबल प्राइज देने की सुगबुगाहर शुरू हुई, वे उससे काफी पहले संसार भर में एक चर्चित और सर्वमान्य शख्यिसत बन चुके थे जिसे किसी ‘नोबल’ प्राइज के ठप्पे की आवश्यकता नहीं थी। स्वयं फकीराना तबीयत के गांधी को व्यक्तिगत भी इसकी आवश्यकता नहीं थी।
भारत ही नहीं बल्कि एशिया में सबसे पहले सन 1913 में ‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ के लिए गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबल प्राइज मिला था। इस रचना संग्रह को हम ‘गीतांजलि’ के नाम से जानते हैं। प्राइज मिलने से पहले तक टैगोर हालाँकि अपने पाठकों में खासे लोकप्रिय थे। लेकिन फिर भी उन्हें इसकी दरकार थी। इसमें कोई शक नहीं कि उनकी रचनाएँ उस योग्य थीं, लेकिन नोबल प्राइज उन्हें वैसे ही नहीं मिल गया। इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत प्रयास करने पड़े। उनकी ख्याति वैसे ही नोबल कमिटी तक नहीं पहुँच गई।
दरअसल, रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे अवनींद्रनाथ की विदेशों में अच्छी साख थी। उन्होंने कला के क्षेत्र में काफी नाम कमाया था। वे लंदन में रहते थे। प्रसिद्ध ब्रिटिश कलाकार रोथेंस्टाइन उनके परम मित्रों में से थे। वहाँ के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों से भी उनका परिचय था। उन्होंने अपने चाचा रवींद्रनाथ की भेंट रोथेंस्टाइन से कराई। उन्होंने रवींद्रनाथ की कविताओं को स्थानीय (लंदन) साहित्यकारों के सामने सुनाने का कार्यक्रम तय किया।
7 जुलाई, 1912 को रोथेंस्टाइन के घर एक साहित्य सभा हुई जिसमें अमेरिकी कवि एजरापौंड, सुप्रसिद्ध कवि विलियम बटलर यीट्स, कवयित्री सिनक्लैर तथा सी.एफ. एंड्रूज शामिल हुए। सी.एफ. एंड्रूज गांधी जी के शिष्य थे और टैगोर के शांतिनिकेतन से भी जुड़े हुए थे।
इसके पहले ही रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने विभिन्न बांग्ला काव्य संग्रहों में से 103 कविताओं का चयन करके उनका अंग्रेजी में अनुवाद कर लिया था। इस संग्रह में बांग्ला पुस्तक ‘गीतांजलि’ से पचपन, ‘गीतिमाल्य’ से सोलह तथा बत्तीस कविताएँ अन्य पुस्तकों से ली गई थीं। इस संग्रह को ‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ नाम दिया गया था।
साहित्य सभा में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया और जल्दी ही वे ब्रिटिश समाज में प्रसिद्ध हो गए। सिनक्लैर ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा, ‘काव्य के रूप में ये बिलकुल पूर्ण हैं, अपितु इन कविताओं के माध्यम से मुझे एक अनुपम तत्त्व मिला है। टैगोर ने अंग्रेजी में ऐसी प्रस्तुति की है जो अंग्रेजी या अन्य पाश्चात्य भाषा में सुनने की उम्मीद ही नहीं थी।’
रवींद्रनाथ टैगोर को अनेक प्रशंसा पत्र मिले। 12 जुलाई, 1912 को उनके सम्मान में एक सभा का आयोजन किया गया। उस सभा की अध्यक्षता कवि यीट्स ने की। उसमें इंगलैंड के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति शामिल हुए जिनमें विली पियर्सन, रोथेंस्टाइन, एच.जी. वेल्स, वटेंर्ड रसेल, ब्रुक्स, लोयेस डिकंसन, फॉक्स स्ट्राँगवेज, एजरा पाउंड, अर्नेस्ट रीहूस, एवलिन अंडरहिल आदि प्रमुख थे। सभा में सबसे उनका परिचय कराया गया। उनकी कविताओं का पाठ भी हुआ।
यीट्स ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, ‘रवींद्रनाथ प्रकृति प्रेमी हैं। इनकी कविताएँ प्रकृति की सुंदर प्रेरणाओं को इंगित करती हैं और ये इनकी निरीक्षण शक्ति और प्रकृति के प्रति इनके लगाव की परिचायक हैं। यह काव्यसंग्रह प्रचुर मात्रा में सौंदर्य का कोष है। मैं मेरे समकालीन किसी ऐसे लेखक से परिचित नहीं हूँ जिसकी तुलना रवींद्रनाथ की इन कविताओं से कर सकूं।’
इसी सभा में यह निश्चय किया गया कि उस संग्रह को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाए और उसकी भूमिका कवि यीट्स लिखें। अंततः वर्ष 1912 के अंतिम माह में पुस्तक प्रकाशित हुई। वह पुस्तक विलियम रोथेंस्टाइन को समर्पित की गई।
॔गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ के संबंध में एक छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना का वर्णन आवश्यक है क्योंकि यह घटना वह बताती है कि अगर वैसा होता तो क्या होता?
रवींद्रनाथ ने ॔गीतांजति’ के अंग्रेजी संस्करण के लिए जो कविताएँ अंग्रेजी में अनूदित कीं, उन्हें एक पुस्तक के रूप में क्रमबद्ध करके वे लंदन पहुँचे। लंदन में टयूब रेलवे स्टेशन से वे ब्लूम्सबरी शहर पहुँचे। वहाँ से वे रोथेंस्टाइन से मिलने जाने लगे तो उन्हें ‘गीतांजति’ की वह प्रति नहीं मिली। जब दौड़भाग की और स्टेशन पर पता किया तो वह प्रति उस कार्यालय में मिली जहाँ यात्रियों के छूटे सामान को सुरक्षित रखा जाता है। तब जाकर रवींद्रनाथ को राहत मिली। इस विषय में बाद में उन्होंने लिखा, ‘गीतांजति’ की वह प्रति अगर भूलवश खो जाती, तब क्या स्थिति होती।’
‘गीतांजलिरू साँग अॉफरिंग्स’ की प्रसिद्धि इतनी तेजी से चारों और फैली कि प्रकाशन के एक वर्ष के भीतर (वर्ष 1913 के नवंबर महीने में) ही उसने उन्हें साहित्य का नोबल दिलवा दिया। और रवींद्रनाथ टैगोर भारत सहित दुनिया भर में लोकप्रिय हो गए।
रवींद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबल प्राइज दिलाने में सबसे पहला श्रेय उनके भतीजे अवनींद्रनाथ को जाता है जिसने उनके लिए ब्रिटेन में मंच तैयार किया। उसके माध्यम से उन्हें ब्रिटेन के चुनिंदा और लोकप्रिय साहित्यकारों का आत्मस्फूर्त समर्थन हासिल हो गया और बाकी कमी उनकी बेजोड़ कविताओं ने पूरी कर दी और वे भारत के पहले नोबल विनर बन गए।
उनके विपरीत महात्मा गांधी शुरू से ही ब्रिटिश लोगों की आँख की किरकिरी रहे थे। मोहनदास से महात्मा बनने की शुरुआत ही उन्होंने अफ्रीका में अंग्रेजों को पटखनी देकर की इसलिए नोबल प्राइज कमेटी में कोई भी व्यक्ति उनका समर्थक नहीं था। ब्रिटेन में कोई भी उनका पैरोकार नहीं था जो वहाँ उनके लिए मंच तैयार करता।
सबसे पहले सन 1937 में गांधी जी का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। इसके बाद 1938, 1939, 1947 और 1948 में उनका नामांकन हुआ, लेकिन उन्हें नोबल शांति पुरस्कार प्रदान नहीं किया गया, क्यों?
अकसर यह प्रश्न पूछा जाता रहा कि क्या नॉर्वे की नोबल समिति का दृष्टिकोण इतना संकुचित था कि वह गैरयूरोपीय लोगों के स्वतंत्रता संघर्ष के लिए उनकी प्रशंसा नहीं कर सकती? या वह किसी ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार देने से डरती है, जिसके कारण ग्रेट ब्रिटेन से उनके रिश्तों में खटास पैदा हो सकती हो। सन 1947 में नोबल शांति पुरस्कार के लिए चुने गए छह नामों में गांधी जी का नाम भी शामिल था, लेकिन उनके नाम को लेकर पुरस्कार समिति के सदस्यों में गंभीर मतभेद थे। इसी बीच गांधी जी ने एक प्रार्थनासभा में देश में सांप्रदायिक तनाव की आशंकाओं को देखते हुए कहा कि, ॔अगर ऐसा ही अनाचार चलता रहा तो दोनों देशों (भारतपाकिस्तान) में युद्ध छिड़ जाएगा।’
उनके इस बयान को लंदन के द टाइम्स’ अखबार ने नमकमिर्च लगाकर प्रकाशित किया। इस समाचार ने आग में घी का काम किया और पाँच में से तीन नोबल कमेटी सदस्यों ने गांधी जी के विरुद्ध मतदान किया और इस तरह उन्हें वर्ष 1947 का नोबल शांति पुरस्कार नहीं मिला।
सन 1948 में पुनः गांधी जी का नाम अंतिम रूप से चुने गए तीन नामों में शामिल था और इस बार उन्हें पुरस्कार मिलने की प्रबल संभावना थी। लेकिन नामांकन की अंतिम तिथि से दो दिन पूर्व ही उनके प्राण हर लिए गए।
अब तक किसी को मरणोपरांत नोबल पुरस्कार नहीं दिया गया था लेकिन तब यह प्रावधान था कि विशेष परिस्थितियों में मरणोपरांत भी नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया जा सकता था। लेकिन गांधी जी न तो किसी संस्था से संबद्ध थे, न कोई संपित्त या वसीयत छोड़ गए थे, तो पुरस्कार कौन ले?
तब नोबल संस्था के निदेशक अगस्ट स्चोऊ ने संस्था के वकील और अन्य पदाधिकारियों से पूछा कि क्या मरणोपरांत पुरस्कार प्रदान किया जा सकता है? उत्तर नकारात्मक मिला। मरणोपरांत पुरस्कार केवल तभी प्रदान किया जा सकता था जबकि गांधी जी के नाम की घोषणा उनकी मृत्यु से पूर्व कर दी गई होती।
इस प्रकार, उस वर्ष किसी को भी वह पुरस्कार प्रदान नहीं किया गया। और गांधी को नोबल क्यों नहीं’ नाम का वह अध्याय समाप्त हो गया। बाद में, सन 1969 में गांधी जी की जन्म शताब्दी के स्मरणस्वरूप इंगलैंड ने उनकी तस्वीरवाला एक डाकटिकट छापकर उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की।
सन 1913 में जब रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल प्राइज मिला, वे 52 वर्ष के थे और शांतिनिकेतन में अपना आश्रम स्थापित कर चुके थे। नोबल प्राइज मिलने के बाद उन्होंने देशविदेश में खूब यात्राएँ कीं और लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँच गए। इसी दौरान गांधी जी अफ्रीका में थे और वहाँ अश्वेतों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे। सन 1915 में जब गांधी जी दक्षिणी अफ्रीका से वापस भारत लौटे, तब यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता था लेकिन 1918 में चंपारण आंदोलन’ और खेड़ा सत्याग्रह’ के बाद देश का बच्चाबच्चा उनके नाम से परिचित हो गया। उनका सत्याग्रह शांति और अहिंसा की सबसे बड़ी मिसाल था। इसी का प्रयोग करके उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों को उनका हक दिलाया था। बाद के वर्षों में उन्होंने हमेशा शांति और अहिंसा का समर्थन किया और देशविदेश के लोगों ने उन्हें महात्मा का दरजा प्रदान किया जो नोबल प्राइज से कहीं ब़कर था। अंग्रेज सरकार और अनेक यूरोपीय देश यह बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके मुखर आलोचक महात्मा गांधी को नोबल शांति पुरस्कार मिले। यही कारण था कि बारबार नामांकन के बावजूद उन्हें वह पुरस्कार नहीं मिला।

नोट-- अलबता गांधी की हत्या के बाद उनके सम्मान में नोबल समिति ने 1948 में किसी को भी यह प्राईज नहीं दिया। गांधी के सम्मान में नोबल समिति की यही खास महत्व है. उल्लेखनीय है कि नोबल समिति के पास केवल गांधी ही एक मात्र प्रत्याशी थे जिनको प्राईज देने के लिए समिति के पास दस दफा विचारार्थ नाम गया।इसके बावजूद गांधी को नोबल ना मिलना एक बड़ा  आश्चर्य से कम नहीं है।हालांकि नोबल देने से गांधी का कद बड़ा नहीं होता, मगर नोबल को लेकर लोगों में एक सम्मान जरूर बढ़ता, मगर इस मौके को चूका गया नोबल समिति की विश्नसनीयतापर आज भी सवालउठते रहते है, और हमेशा यह सवाल बना रहेगा कि आखिरकार नोबल समिति ने गांधी को क्यों यह पुरस्कात नहीं दिया ? गांधी जी की हत्या के 64 साल के बाद भी यदि यह सवाल जिंदा है तो निसंदेह लोगों के मन में आज भी नोबल की पारदर्शिता और चयन नीति पर आक्षेप है।

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