Monday, July 4, 2011

मीडिया विमर्श

बहादुर सेना, कमजोर सरकार और बेबस लोग !


देशतोड़क राजनीति से सावधान होने की जरूरत
- संजय द्विवेदी


दिल्ली में क्या इससे कमजोर सरकार कभी आएगी ? कमजोर इसलिए क्योंकि इस सरकार के लिए देश के सम्मान, देश की जनता के जान-माल और हमारे सेना-सुरक्षा बलों की जान की कोई कीमत नहीं है। हो सकता है कि हालात इससे भी बुरे हों। किंतु अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दिल्ली में इतनी बेचारी, लाचार और कमजोर सरकार आज तक नहीं आयी। थोपे गए नेतृत्व और स्वाभाविक नेतृत्व का अंतर भी इसी परिघटना में उजागर होता है। दिल्ली में एक ऐसे आदमी को देश की कमान दी गयी है जो आर्थिक मामलों पर जब बोलता है तो दुनिया सुनती है (बकौल बराक ओबामा)। किंतु उसके अपने देश में पिछले छः सालों से उसके राज में महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है किंतु वह आदमी अपने देश की महंगाई पर कुछ नहीं बोलता। परमाणु करार विधेयक पास कराने के लिए अपनी सरकार तक गिराने की हद तक जाने वाले हठी प्रधानमंत्री को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी सरकार के कार्यकाल में लोगों का जिंदगी बसर करना कितना मुश्किल है और कितने किसान उनके राज में आत्महत्या कर चुके हैं। यह एक ऐसी सरकार है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता नहीं पिछले पांच सालों में अकेले नक्सली आतंकवाद में ग्यारह हजार लोग मारे जा चुके हैं। वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो। क्या ऐसा इसलिए कि नक्सली आतंक एक ऐसे इलाके में है जहां आम आदिवासी रहते हैं जिन्हें मिटाने और समाप्त करने का साझा अभियान नक्सली नेताओं और सरकार ने मिलकर चला रखा है। झारखंड से लेकर बस्तर तक की जमीन जहां उसके असली मालिक वनपुत्र और आदिवासी रहते हैं, एक युद्ध भूमि में तब्दील हो गयी है। जहां विदेशी विचार(माओवाद) और विदेशी हथियारों से लैस लोग 2050 तक भारतीय गणतंत्र पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। फिर भी हमारी सरकार को इस इलाके में सेना नहीं चाहिए। भले नक्सली तीन माह में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों को अकेले बस्तर में ही न मार डालें। वे हजारों करोड़ की लेवी वसूलते हुए इन जंगलों में लैंड माइंस बिछाते रहें और हमारा राज्य रोम के जलने पर नीरो की तरह बांसुरी बजाता रहे।
अब थोड़ा देश के मस्तक पर नजर डाल लें। यह जम्मू कश्मीर का इलाका है जो कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। आज इस क्षेत्र को हमारी सरकारों की घुटनाटेक और कायर नीतियों ने घरती के नरक में बदल दिया है। हमारी सेना के अलावा इस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कोई नहीं बचा है। कश्मीर के पंडितों के विस्थापन के बाद इस पूरे इलाके में पाकपरस्त आतंकी संगठनों का हस्तक्षेप है। उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधक भारतीय सेना है। हमारी महान सरकार अब सेना के हाथ से भी कवच-कुंडल छीनने पर आमादा है ताकि कश्मीर में भारतीय राज्य की एक और पराजय सुनिश्चित की जा सके। इस काम में दिल्ली की सरकार बराबर की भागीदार है। कश्मीर के मुख्यमंत्री और उनके पिता का सर्वाधिक दबाव इस बात पर है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव किया जाए। यह बदलाव क्यों किया जाए इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। किंतु बदलाव होने जा रहा है और प्रधानमंत्री ने उसे मंजूरी भी दे दी है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। यह एक ऐसी सूचना है जो हर भारतीय को हतप्रभ करने के लिए काफी है। देश के साठ सालों बाद भी हमारी सरकार अपनी ही सेना के खिलाफ खड़ी है। क्या भारतीय की राजनीति इतनी दिशाहारा और थकाहारा हो चुकी है? क्या हमारी सरकारें अपना विवेक खो चुकी हैं? वे सेना को मानवता और संवेदनशीलता सिखा रही है। नए बदलाव में सेना शत्रु को पकड़ने और गोली चलाने का अधिकार खो देगी। फिर सेना की जरूरत ही क्या है। ऐसे हालात में कहीं यह कश्मीर को पाक को सौंप देनी की एक लाचार कवायद तो नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जब हमें कड़े संदेश देने की जरूरत है तब हम अपनी सेना को ही कमजोर बनाना चाहते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना ने अनेक अवसरों पर अपने अप्रतिम साहस के प्रदर्शन से भारत के मान को बचाया है।जबकि राजनैतिक नेतृत्व सदा जमीनें छोड़ता, युद्धबंदियों को छोड़ता और समझौते करता आया है। इन्हीं समझौतों और वोट की कथित लालच ने हमारे नेताओं को इतना बेचारा बना दिया है कि हमारे नेता ही कहते हैं कि अगर अफजल गुरू को फांसी दी गयी तो कश्मीर सुलग जाएगा। तो आप बताएं इस समय कश्मीर क्यों सुलग रहा है। किसे फांसी दी गयी है। कश्मीर के नेता भारत के साथ रहने की कीमत वसूल रहे हैं। उन्हें इस देश से कोई लेना-देना नहीं है। नहीं तो वे विस्थापित हिंदुओं की वापसी की बात क्यों नहीं करते, पर उन्हें तो सेना की वापसी चाहिए ताकि वे आराम से पाकिस्तानी हुक्मरानों की गोद में जा बैठें। जो अब्दुला परिवार सालों से कश्मीरी राजनीति का सिरमौर बना है, भारत ने उनका इतना सम्मान किया पर वे आज अफजल गुरू की फांसी रोकने की अपीलें कर रहे हैं। दूसरा मुफ्ती परिवार भारतीय संविधान की शपथ लेकर देश का गृहमंत्री बनता है तो अपनी ही बेटी का अपहरण करवाकर आतंकियों की रिहाई का नाटक रचता है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोग भारत भाग्य विधाता बनकर बैठे हैं। इसी तरह पूर्वांचल के सात राज्यों का बुरा हाल है। असम से लेकर मणिपुर तक बुरी खबरें हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हालात बदतर कर रखें हैं। हमारी सरकारें उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं। राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ पांच साल और वोट बैंक दिखता है। सो वे घुसपैठियों के राशन कार्ड बनवाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने और अवैध बस्तियां बसाने में सहयोगी बनते हैं। जाहिर तौर पर इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बहुत विकराल स्वरूप ले चुका है।
हम अपनी सेना और सुरक्षा बलों को लाचार बना कर पहले से तैयार बैठे शत्रुओं को अवसर सुलभ करा रहे हैं। अभी पाक प्रेरित आतंकवाद के लिए भी हमारी अपनी ताकत क्या है। हमारी सरकार को हर शिकायत लेकर अमरीका के दरबार में जाना पड़ता है। कल अगर सेना का भी मनोबल टूट गया तो उस दृश्य की कल्पना करना भी मुश्किल है कि हमारा क्या होगा। देश इस देश के लोगों का है, जो इसे बेबस निगाहों से देख रहे हैं। यह देश अगर दलित, मुस्लिम और ईसाई जैसी राजनीतिक बोलियों से चलाया जाएगा तो इसे कोई बचा नहीं सकता। शायद इसीलिए हम देश का तेजी से विघटन होता देख रहे है। यह विघटन चरित्र का है, नैतिकता का है, देशभक्ति का भी है। देश का राजनीतिक नेतृत्व किसी भी प्रकार का आर्दश प्रस्तुत कर पाने में विफल है। सारे संकटों में मौन ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व का आर्दश बन गया है। आप देखें तो हाल के तीन बड़े संकटों भोपाल गैस त्रासदी, कश्मीर संकट और महंगाई पर देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी का कोई बयान नहीं आया है। ऐसा नेतृत्व क्या आपको संकटों से निजात दिला सकता है या आपकी जिंदगी के अँधेरों से मुक्ति दिला सकता है। प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है क्योंकि उनकी नजर में हम भारत के लोगों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे घने अंधेरे में आशा की कोई किरण नजर आती है तो वह शक्ति जनता के पास ही है कि वह अपने राजनीतिक नेतृत्व पर कोई ऐसा दबाव बनाए जिससे वह कम से कम देश के हितों, सुरक्षा के साथ सौदेबाजी न कर सके। देश में एक ऐसा अराजनैतिक अभियान शुरू हो जहां देश सर्वोपरि है, इस भावना का विस्तार हो सके। वरना हमारी राजनीति हमें यूं ही बांटती,तोड़ती और कमजोर करती रहेगी।

Tuesday, June 29, 2010


बाजार के हवाले ‘हम भारत के लोग’


बढ़ती कीमतों ने जाहिर किया आम आदमी की चिंता किसी को नहीं
-संजय द्विवेदी

एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है। इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है। पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं। जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं। केंद्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था – ‘कांग्रेस का हाथ,गरीब के साथ।’ जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है- ‘कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ।’ पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है। महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है। महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे। वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषिमंत्री सब महंगाई कम होने का वादा करते रहते हैं, किंतु घर की रसोई पर भी उनकी बुरी नजर है।
जिस देश में खाने-पीने की चीजों में आग लगी हो, वहां ऐसे कदम निराश करते हैं। भुखमरी, गरीबी का सामना कर रहे लोगों को राहत देना तो दूर सरकार उनकी दुश्वारियां बढ़ाने का ही काम कर रही है। भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेगें। हमें अपनी व्यवस्था के छिद्रों को ढूंढकर उनका समाधान करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्यक्रम बनाने के बजाए आम जनता को इसका शिकार बनाना ज्यादा आसान लगता है। नेताओं और नीति-निर्माता अधिकारियों की पैसे के प्रति प्रकट पिपासा ने देश का यह हाल किया है। हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है। सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वन में लगा है। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग 20 रूपए से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती। किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है। आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं है जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए। सरकार सही मायने में अपने कार्य-व्यवहार से एक जनविरोधी चरित्र का ही परिचय दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है। पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियां उस कलावती या दलितों के पक्ष में हैं जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं। दरअसल यह द्वंद ही आज की राजनीति का मूल स्वभाव हो गया है।
आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है। भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिंदगी में कड़वाहटें घोल रहा है। तेल की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उसपर ड्यूटी लगती है। इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है। सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगें। सरकार भले अपने इस कदम को तर्कों से सही साबित करे किंतु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं। किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती हैं। भ्रष्टाचार और जमाखोरी के खिलाफ कोई कारगर नीति बनाने के बजाए सरकारी तंत्र जनता से ही दूसरों की गलतियों की कीमत वसूलता है। आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं। ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है। सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं। तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं। सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्र में जनता का एजेंडा नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्त बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में हैं। देश ने नई आर्थिक नीतियों के बाद जैसे भी शुभ परिणाम पाएं हों उसका आकलन होना शेष है किंतु आम जनता इसके बाद हाशिए पर चली गयी है। राजनीति के केंद्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है। देश में आंदोलनों का सिकुड़ना और तेजी से उच्चमध्यवर्ग के उदय ने चिंताएं बहुत बढ़ा दी हैं। देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संधर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित है। हमारे इस कठिन समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा। किंतु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं.

Monday, June 21, 2010


बाजार की चुनौतियों से बेजार हिंदी पत्रकारिता



-संजय द्विवेदी
आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल से एक ऐसा वातावरण बना है जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित होकर काम करने के लिए हमने यह पथ चुना था? क्या अखबार को ‘प्रोडक्ट’ बनने और संपादक को ‘ब्रांड मैनेजर’ या ‘सीईओ’ बन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?
आप लाख कहें लेकिन ‘विश्वग्राम’ के पीछे जिस आर्थिक चिंतन और नई प्रौद्योगिकी पर जोर है क्या उसका मुकाबला हमारी पत्रकारिता कर सकती है? बाजारवाद के खिलाफ गूंजें तो अवश्य हैं, लेकिन वे बहुत बिखरी-बिखरी, बंटी-बंटी ही हैं। वह किसी आंदोलन की शक्ल लेती नहीं दिखतीं। बिना वेग, त्वरा और नैतिक बल के आज की हिन्दी या भाषाई पत्रकारिता कैसे उदारीकारण के अर्थचिंतन से दो-दो हाथ कर सकती है?
बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं। भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है। दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं।
असंतुलित विकास भी इसी व्यवस्था की नई देन है। शायद इसलिए अर्थशास्त्री प्रो. ब्रम्हानंद मानते है कि आने वाले वर्षों में ‘स्टेट बनाम मार्केट’ (राज्य बनाम बाजार) का गंभीर टकराव होगा। सो विकसित राज्यों व बाजारवादी व्यवस्था से लाभान्वित हुए राज्यों औसे आंध्र, कनोटक, गुजरात, महाराष्ट्र के खिलाफ अविकसित राज्यों का एक स्वाभाविक संघर्ष शुरू हो गया है। प्रो. ब्रम्हानंद के मुताबिक ‘‘उदारीकरण के बाद स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, सार्वजनिक यातायात, शिक्षा हर जगह दोहरी व्यवस्था कायम हो गई है। एक व्यवस्था निजीकरण से जुड़ी है, जहां उपभोक्ताओं के पास समृद्धि है और ‘निजीकरण’ से लाभ लेने की क्षमता भी। दूसरी ओर व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाओं से जुड़ी हैं, जहां निवेश के लिए सरकार के पास जैसा नहीं है पर करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। केन्द्र की नीतियों से भी भेदभाव प्रायोजित हो रहा है। बीमारू राज्य और बीमारू होते जा रहे हैं।’’ ये संकट देश के भी हैं और पत्रकारिता के भी।
दुर्भाग्य है बीमारू राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों में बोले जानी वाली भाषा हिन्दी है। अंग्रेजी के मुकाबले उसकी दयनीयता तो जाहिर है ही परन्तु सूचना की भाषा बनने की दिषा में भी हिन्दी बहुत पीछे है। साहित्य-संस्कृति, कविता-कहानी के क्षेत्रों में शिखर को छूने के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है। विज्ञान, प्रबंधन, प्रौद्योगिकी, उच्च वाणिज्य, उद्योग आदि क्षेत्रों में हिन्दी बेचारी साबित हुई है, जबकि यह युग सत्य है कि आज के दौर में जब तक भाषा बहुआयामी अभिव्यक्ति व विशेष सूचना की भाषा न बने उसे सीमा से अधिक महत्व नहीं मिल सकता। वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की मानें तो – ‘‘हिन्दी को आज देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप सूचना की सम्पन्न भाषा बनाना जरूरी है। आज की हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही सीमा ही सबसे बड़ी चुनौती है। बाजारवाद की चुनौतियों के खिलाफ हिन्दी पत्रकारिता का यह सृजनात्मक उत्तर होगा। आधुनिक राजसत्ता, तंत्र, बाजारवाद, विश्वग्राम की सही अंदरूनी तस्वीर लोगों तक पहुंचे, यह सायास कोशिश हो। इसके अंतर्विरोध-कुरूपता को हिन्दी या भाषाई पाठक जानें, यह प्रयास हो। यह काम अंग्रेजी प्रेस नहीं कर सकता। अंग्रेजी की नकल कर रहे भाषाई अखबार भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सभी माडर्न सिस्टम की उपज हैं। यही बाजारवाद इनका शक्तिस्रोत हैं।’’
अंग्रेजी के वर्चस्ववाद के खिलाफ हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की शक्ति को जगाए व पहचाने बिना अंधेरा और बढ़ता जाएगा। अंग्रेजी अखबार इस लूटतंत्र के हिस्सेदार बने हैं तो मुख्यधारा की हिन्दी-भाषाई पत्रकारिता उनकी छोड़ी जूठी पत्तलें चाट रही हैं। हिन्दी की ताकत सिर्फ सिनेमा में दिखती है, जबकि यह भी बाजार का हिस्सा है। सच कहें तो हिन्दी सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा बनकर रह गयी है।
बाजारवाद में मुक्त बेचने वाले हाते हैं – खरीदने वाले नहीं। हमारा पाठक यहीं ठगा जा रहा है। उसे जो कुछ यह कहकर पढ़ाया जा रहा है कि यह तुम्हारी पंसद है – दरअसल वह उसकी पसंद नहीं होती। जिस तरह एक ओर बाजार इच्छा सृजन कर रहा है, आपकी जरूरतें बढ़ी हैं और नाजायज चीजें हमारी जिन्दगी में जगह बना रही हैं। अखबार भी बाजार के इस षडयंत्र का हिस्सा बन गया है। सो पाठक केन्द्र में नहीं है, विज्ञापनदाता को मदद करने वाला ‘संदेश’ केन्द्र में है। हमने कहा – ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पूरा विश्व एक परिवार है। ‘विश्वग्राम’ कहता है – ‘पूरा विश्व एक बाजार है।’ जाहिर है चुनौती कठिन है। विज्ञापन दाता ‘कंटेंट’ को नियंत्रित करने की भूमिका में आ गया है – यह दुर्भाग्य का क्षण है। आज हालात यह है कि पाठक ही यह तय नहीं करते कि उन्हें कौन सा अखबार पढ़ना है, अखबार ही यह भी तय कर रहे हैं कि हमें किस पाठक के साथ रहना है। कई अंग्रेजी अखबार इसी भूमिका का काम कर रहे हैं।
हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अखबारों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करें। वे यह सोचें कि क्या वे सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने के अपने बुनियादी धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ ‘विशिष्ठ’ कर सकते हैं? क्या हमने अपने प्रस्थान बिन्दु से नाता तोड़ लिया है, क्या हम जनोन्मुखी और सरोकारी पत्रकारिता से हाथ जोड़ लेंगे। देह और भोग (बाडी एंड प्लेजर) की पत्रकारिता के पिछलग्गू बन जाएंगे? अपने समाज जीवन को प्रभावित करने वाले सवालों से मुंह चुराएंगे? उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा तक नहीं करेंगे। अपने पाठकों तक सांस्कृतिक पतन की सूचनाएं नहीं देंगे? क्या हम यह नहीं बताएंगे कि मैक्सिकों का यह हाल क्यों हुआ? थाईलैंड की वेश्यावृत्ति का बाजावाद से क्या नाता है? पत्रकारिता सार्थक भूमिका के निर्वहन में हमारे आड़े कौन आ रहा है?
हमारे एकता-अखंडता क्या पश्चिमी सांचों की बुनावट पर कायम रह सकेगी? सुविधाओं एवं सुखों के नाम पर क्या हम आत्म-समर्पण कर देंगे? ऐसे तमाम सवाल पत्रकारिता के सामने खड़े हैं। उनके उत्तर भी हमें पता है लेकिन ‘बाजावाद’ की चकाचैंध में हमें कुछ सूझता नहीं। इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कठघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का साहस पालें। हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें यही प्रेरणा देती है। यही प्रस्थान बिन्दु हमें जड़ों से जोड़ेगा और ‘वैकल्पिक पत्रकारिता’ की राह भी बनाएगा।

Sunday, June 20, 2010


मीडिया में माओ


-अनिल सौमित्र
आउटलुक पत्रिका के ताजे अंक में अरुंधती रॉय का लंबा आलेख प्रकाशित हुआ है। कुछ ही दिनों पूर्व पश्चिम बंगाल में उन्होंने एक साक्षात्कार भी दिया। लगे हाथों एक टीवी चैनल ने भी उनका साक्षात्कार प्रसारित किया। जाहिर है अरुंधती का लिखा-कहा काफी पढ़ा और सुना जाता है। वर्तमान मीडिया में क्या लिखा गया, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके द्वारा लिखा गया। अरुंधती के पाठक और दर्शक-श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग भी है। जाहिर है सबका अपना नजरिया होगा। अरुंधती का लिखा – ‘भूमकालः कॉमरेडों के साथ-साथ’ पढ़ने वाले एक मित्र ने कहा – इस आलेख में जबर्दस्त माओवादी अपील है, जैसे शोभा-डे के लिखे में सेक्स अपील होता है। पाठक ने स्मरण दिलाया- हजार चैरासी की मां’ फिल्म में भी ऐसा ही माओवादी अपील था। पाठक ने बताया अरुंधती को पढ़कर माओवादी बन जाने का मन करता है। विकास, आदिवासी और जंगल की बात करने का मन करता है। माओवादियों-नक्सलियों की तरह हत्या, लूट, डाका, वसूली, बलात्कार और अत्याचार करने का जी करता है। ऐसी प्रेरणा तो पहले कभी नहीं मिली, पहले राष्ट्रवादियों से लेकर समाजवादियों तक को पढ़ा।
अरुंधती के पास कौन-सा स्वप्न है! क्या उनका स्वप्न आदिवासियों या आम लोगों का दुःस्वप्न है? विकास के नाम पर विनाश और हिंसा को जायज ठहराने वाले ये भी तो बतायें कि आखिर माओवादी किसका विकास कर रहे हैं? भले ही माओवादी-नक्सली विकास की आड़ लेकर विनाश का तांडव कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक सरकारी कार्यवाई की निंदा यह कह कर कर रहे हैं कि माओवाद-नक्सलवाद पिछड़ेपन, विषमता और गरीबी के कारण पैदा हुआ है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से लेकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट और आंध््राप्रदेश तक माओवादियों के मार्फत किसका विकास हुआ है, किसका विकास रुका है? ये विनाश का कॉरीडोर किसके लिए बन रहा है यह भी देखा और पूछा जाना चाहिए। दंतेवाड़ा में इंद्रावती नदी के पार माओवादियों के नियंत्रित इलाके में सन्नाटा पसरा है। जिन बच्चों को स्कूल में किताब-कॉपियों और कलम-पेंसिल के साथ होना चाहिए था, वे माओवादियों के शिविरों में गोली-बारुद और इंसास-एके 47-56 का प्रशिक्षण लेकर विनाशक दस्ते बन रहे हैंं। स्कूलों में भय के कारण पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों ही नदारद हैं।
निश्चित तौर पर खनिज और वन संसाधनों से भरपूर वन-प्रांतर में संघर्षरत पुलिस बल और माओवादी-नक्सली हर लिहाज से परस्पर भिन्न और असमान हैं। एक तरफ माओवादियों की पैशाचिक वृत्ति, मानवाधिकारों से बेपरवाह, देशी लूट और विदेशी अनुदान से संकलित असलहे, मीडिया का दृश्य-अद्श्य तंत्र, भय पैदा करने के हरसंभव हथकंडों से लैस तथा छल-बल से अर्जित निर्दोष-निरीह आदिवासियों का समर्थन प्राप्त, अत्यन्त सुसंगठित व दुर्दांत प्रेरणा से भरा हुआ माओवादी लडाकू छापामार बल। वहीं दूसरी ओर निर्दोंषों पर बल प्रयोग न करने की नैतिक जिम्मेदारी लिए, संसाधनों और सुविधाओं की कमी झेल रहे, राजनैतिक नेतृत्व की उहापोह से ग्रस्त, नौकरशाही के जंजाल से ग्रस्त, मानवाधिकार संगठनों के दुराग्रहों से लांछित, राज्य और केन्द्र की नीति-अनीति का शिकार, वन-प्रांतरों की भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक ढांचे से अंजान या बेहद कम जानकार सरकार के अद्र्ध-सैनिक बल। बेहतर जिंदगी की लालसा दोनों को है। एक परिवार की देश-समाज की बेहतरी चाहता है दूसरा माओवादियों का जत्था है जो किसकी बेहतरी और सुरक्षा के लिए मार-काट मचा रहा है उसे खुद नहीं मालूम। बस हत्या अभियान में मारे गए शवों और लूटे गए हथियारों की गिनती ही उन्हें करनी है। माक्र्स, लेनिन और माओ को कौन जानता है उन सुदूर वनवासी क्षेत्रों में, जानते हैं तो बस उनके नाम से चलाए जाने वाले भय को। जो वनवासी योद्धा अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर रहा था, उसकी तुलना इन माओवादियों से नहीं की जा सकती जिनका स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व में कोई विश्वास नहीं।
माओवादी लेखक और बुद्धिजीवी माओवादी-नक्सलियों को आदिवासियों और शोषितों का प्रतिनिधि बताते थकते नहीं। लेकिन कोई उनसे यह क्यों नहीं पूछता कि चारू मजूमदार और कानू सान्याल से लेकर गणपति, कोटेश्वर राव, पापाराव, रामन्ना, हिदमा, तेलगू दीपक और कोबाद गांधी जैसे कथित क्रांतिकारियों की पृष्ठभूमि आदिवासी-किसान की है या उनके विरोधी की। ये माओवादी भले ही शोषितों की लड़ाई की बात करते हों लेकिन इनके भीतर भी जातीय श्रेष्ठता का दुराग्रह भरा हुआ है। माओवादी नेता कोटेश्वर राव के नजदीकी गुरुचरण किस्कू ने एक साक्षात्कार में कहा था कि बंगाल में किशनजी की अगुआई में जारी आंदोलन आदिवासी समर्थक नहीं, आदिवासी विरोधी है।
हत्या पसंद उन क्रूर और निर्मम माओवादियों द्वारा चुनावों को पाखंड और संसद को सुअड़बाड़ा कह देने से काम नहीं चल जाता। अरुंधती को उसके आगे भी पूछना चाहिए। आखिर उनका बूचड़खाना कोई विकल्प तो नहीं हो सकता। रॉय यह भी तो बताएं कि वे भारतीय राजतंत्र का समर्थन करती हैं कि माओवादियों की तरह खुल्लम-खुल्ला तख्ता पलट का इरादा रखती हैं। अपने इस इरादे पर उन्हें राजतंत्र के इरादे की परवाह है भी या नहीं! पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी अब माओवादी क्यों हो गए? आखिर वहां से नक्सलवादी क्यों चले गए थे, क्या नक्सलवादियों का स्वप्न पश्चिम बंगाल में पूरा हो गया था। ये कैसा स्वप्न है जो बार-बार दु :स्वप्न में बदल जाता है। बंगाल की माक्र्सवादी-कम्युनिस्ट सरकार तो नक्सलियों के स्वप्न साकार करने के लिए ही बनी थी। फिर 20-30 वर्षों के माक्र्सवादी राज में उनके स्वप्न दिवास्वप्न क्यों हो गए? अभागे नक्सली, माओवादी बनने पर क्यों मजबूर हुए। बंगाल में असफल नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के सफल माओवादी कैसे हो सकते हैं?
बकौल अरुंधती मान लिया जाए कि भारतीय संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया संविधान जन-जातियों और वनवासियों के लिए दुःख भरा है। संविधान ने उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया और राज्य को जन-जातियों की आवास-भूमि का संरक्षक बना दिया। रातों-रात उसने जन-जातीय आबादी को अपनी ही भूमि का अतिक्रमण करने वालों में तब्दील कर दिया। मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकर छीन लिए। संसद द्वारा अपनाए गए संविधान से जन-जातीय समाज ही नहीं अन्य बहुत लोगों को दुःख हो सकता है तो क्या लाखों-करोड़ों लोग माओवादियों की तरह हथियार उठा लें और लाखों-करोड़ों को अपना शत्रु बना लें? निश्चित तौर पर बड़े बांधों से विस्थापन होता है। सबसे अधिक प्रभावित वनवासी-आदिवासी ही होते हैं। लेकिन सिर्फ बांधों की उंचाई का विरोध निषेधात्मक काम है, अरुंधती या मेधा पाटकर विकल्प भी तो बतांए-कुछ करके भी दिखाएं। सरकार के कल्याणकारी बातों से सिर्फ चिंता करने से नहीं होगा। सरकार और आमलोगों को भी तब चिंता सताने लगती है जब अरुंधती वन-प्रांतर में माओवादियों से मिलने जाती हैं। आदिवासियों का विकास उद्योगपति-पूंजीपति समर्थक गृहमंत्री पी. चिदंबरम वैसे ही नहीं कर सकते जैसे माओवादी समर्थक अरुंधती राय नही कर सकती. एजेंट होने का आरोप दोनों पर लग सकता है। एक पूंजीपतियों का, दूसरा माओवादियों का। वर्षों से कब्जे की जद्दोजहद गरीब और संसाधन विपन्न क्षेत्रों में नहीं हो रही है, बल्कि गरीब और संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में हो रही है। माओवादी वहीं हैं जहां खनिज संसाधनों की मलाई है। वे वहीं अपना पैर पसार रहे हैं जहां कंपनियां उत्खनन को बेताब हैं। क्योंकि उगाही और वसूली के लिए यही उर्वर क्षेत्र है। उड़ीसा के कालाहांडी में भी गरीबी है। वहां सरकार नहीं पहुची, तो क्यों नहीं माओवादी वहां भूखमरी समस्या खत्म कर देते। अपने बौद्धिक समर्थको के साथ रेड कोरीडोर की तरह क्यो नही कोइ विकास का कोरीडोर बना देते. दुर्भाग्य से इन सर्वहारा लडाकों के वे सभी वर्ग-मित्र हैं जो इन्हें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए असलहा, पूंजी और साधन उपलब्ध कराते हैंं। बाकी सब वर्ग शत्रु। उनके नियम में लिखा है – शत्रु को नष्ट कर ही दिया जाना चाहिए, उसके हथियार छीन लेने चाहिए और उसे अशक्त कर दिया जाना चाहिए…’’ तो इस संघर्ष में सिर्फ वहीं बचेंगे जो वर्ग मित्र बन सकेंगे, बाकी सब मिटा दिए जायेंगे।
अरुंधती को कॉमरेड कमला की बार-बार याद आती है। वे कई बार उसके बारे में सोचती हैं। वह सत्रह की है। कमर में देशी कट्टा बांधे रहती है। उस 17 वर्षीय कॉमरेड की मुस्कान पर वे फिदा हैं। होना भी चाहिए। लेकिन वह अगर पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो वे उसे मार देंगे। हो सकता है कि वे पहले उसके साथ बलात्कार करें। अरुंधती को लगता है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जायेंगे। क्योंकि वह आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। ऐसा तो सब प्रकार की असुरक्षा के प्रति कोई भी करेगा। क्या आंतरिक, क्या बाह्य असुरक्षा। केांई पुलिस की सिपाही सत्रह वर्षीय कमला होगी तो माओवादी क्या करेंगे? क्या वे उसे दुर्गारूपिणी मान उसकी पूजा करेंगे? बाद में वे ससम्मान उसे पुलिस मुख्यालय या उसके मां-बाप के पास पहुचा देंगे? अरुंधती उन माओवादी कॉमरेडों से पूछ लेती तो देश को पता चल जाता। अगर वो पुलिस की सिपाही कमला 17 वर्षीया आदिवासी भी होती तो हत्थे चढ़ने पर माओवादी निश्चित ही पहले बलात्कार करते और उसे उसके परिवार वालों के सामने जिंदा दफन कर देते। आदिवासी क्षेत्रों की कितनी ही कमलाएं माओवादियों के हत्थे चढ़कर बलात्कार और जिंदा दफन की शिकार हो चुकी हैं। डर के मारे आंकड़े भी संकलित नहीं होते। पुलिसिया हिंसा या आतंक के खिलाफ तो मानवाधिकार भी है और लेखक-बुद्धिजीवी भी, लेकिन माओवादी हिंसा और आतंक के खिलाफ कौन बोलेगा? बोलने वाले जाने कब एम्बुश के शिकार बना दिये जाये.
चाहे हथियारबंद माओवादी हों या कलमबंद माओवादी, देश की अनेक समस्याओं का वास्ता देकर हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता। माओवाद समर्थकों के दोगले चरित्र को समाज और सरकार को समझना ही होगा। आखिर किस बिना पर हथियारबंद माओवादी तख्ता पलट की योजना बना रहे हैंं। क्या ये कलमबंद समर्थक उनके इशारे पर चल रहे हैं? देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर, सत्ता को बंदूक की नली से प्राप्त करने की रणनीति का एक हिस्सा तो नहीं ये कलमबंद माओवादी? आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि बीच का कोई रास्ता नहीं दिखता। न तो सरकार के लिए और ना ही आम लोगों के लिए। फिर ये माओवादी बुद्धिजीवी विकास की कमी, मानवाधिकार, आदिवासी उत्पीड़न की बात लिख-कहकर देश के आमलोगों को गुमराह क्यों कर रहे हैं? आप अगर माओवादी हिंसा का खुलेआम विरोध नहीं करेंगे, उन्हें ग्लैमराइज करेंगे, उसके पक्ष में माहौल बनायेंगे, सरकार की नीतियों का विरोध करेंगे बिना कोई वैकल्पिक नीति बताये तो आप भी माओवादियों के संरक्षक, उनके समर्थक और उनके मददगार के रूप में क्यों न चिन्हित किए जाएं? आपके साथ भी माओवादी-नक्सलियों जैसा बर्ताव क्यों न किया जाए? जिस दिन दंतेवाड़ा में पुलिस बल और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हो रही थी उसी दिन दिल्ली के जंतर-मंतर पर कुछ बुद्धिजीवी माओवाद विरोधी अभियान का विरोध कर रहे थे। बाद में खबर आई कि देश की राजधानी नई दिल्ली में केन्द्र सरकार के नाक के नीचे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ कथित क्रांतिकारी छात्रों ने माओवादियों द्वारा देश के पुलिस जवानों की हत्या पर जश्न मनाया। कुछ छात्रों द्वारा विरोध करने पर झड़प की नौबत आ गई। क्या लोकतंत्र, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का यही मतलब है? क्या देश की जनता और सरकार विश्वविद्यालय को करोड़ों की सब्सिडी इसलिए देती है कि वहां से पढ़कर छात्र देश विरोधी कार्य करें। ऐसे छात्र, छात्र संगठनों और विश्वविद्यालय पर सरकार ने क्या कार्यवाई की, सरकार की क्या नीति है? देश का कानून माओवाद-नक्सलवाद समर्थकों और देश के सुरक्षा बल के विरोधियों के बारे में क्या कहता है, देश को जानने का हक है। क्या ये मीडिया के माओवादी है जो आतंक को, हिंसा को और भय को ग्लैमराइज कर रहे हैं और इसे स्वप्न में देखने लायक बना कर परोस रहे हैं। ये कलमबंद माओवादी जो हथियारबंद होने, राज्य के खिलाफ आंतंक और हिंसा का तांडव करने और समाज को क्षत-विक्षत कर देने की प्रेरणा दे रहे हैं इनके बारे में राज्य और समाज क्या सोचता है? यह कलमबंद और हथियारबंद माओ का कैसा ताना-बाना है।
(मीडिया एक्टिविस्‍ट व सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सौमित्र का जन्‍म मुजफ्फरपुर के एक गांव में जन्माष्टमी के दिन हुआ। दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता में स्‍नातकोत्तर डिग्री हासिल कीं। भोपाल में एक एनजीओ में काम किया। इसके पश्‍चात् रायपुर में एक सरकारी संस्थान में निःशक्तजनों की सेवा करने में जुट गए। भोपाल में राष्‍ट्रवादी साप्‍ताहिक समाचार-पत्र 'पांचजन्‍य' के विशेष संवाददाता। अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जालों पर नियमित लेखन। इनसे इनके मेल anilsaumitra0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

अतिवादी लाल दलाल और वाम मीडिया से पिटता आवाम


जयराम दास

बुद्धत्व से पहले:- एक थी सुजाता। संस्कारों में पली-बढ़ी राजकुमारी। वनदेवता का पूजा करना और उन्हें पत्र पुष्पाजंलि के साथ प्रसाद समर्पित करना उसका दैनिक कार्य था। अपने इसी कार्य के सिलसिले में वो सारी पूजा सामग्री के साथ वन देवता के समर्पण को पहुंची. वहां देखती है कि एक युवक निस्तेज सा पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा है. तन पर नाम मात्र को वस्त्र, पेट और पीठ एकाकार. बिना देर किये सुजाता ने उस युवक का परिचार करना शुरू कर दिया. अपने साथ लाये जल से उन्हें होश में लाकर वनदेवता के लिए लाये भोजन सामग्री से उसकी क्षुधातृष्टि की. बाद में पता चला कि उस युवक का नाम सिद्घार्थ है, जो महलों का राज-वैभव ठुकरा अपनी पत्नी यशोधरा को छोड़ बुद्घत्व की तलाश में निकला है. अपने साधना को कठोरतम बनाकर आज इस हालत में पहुंच गया है कि शायद कुछ देर में इसके प्राण पखेरू उड़ जाते.

तो बुद्घत्व से भी पहले सिद्घार्थ को यह ज्ञान मिला कि चाहे तपस्या ही क्यूँ ना हो, अति सर्वथा त्याज्य है. फिर उनका बुद्घत्व और मध्यमार्ग इस तरह एकाकार हो गया कि उसका अवलंबन कर संपूर्ण एशिया ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है. इसी विचार को एक सिद्घांत का रूप दिया बुद्घ ने और अपने शिष्य आनंद को बताया कि वीणा की तार को इतना मत कसो कि वो टूट जाये, और इतना ढीला मत छोड़ो कि उससे राग ही न निकले. आशय यह कि किसी भी तरह का अतिवाद बुराई या विनाश का पहला सोपान है. हर तरह के मीमांसक चाहे वो किसी भी देश काल परिस्थिति में हो, अति को बुरा ही मानते आये हैं.एक संस्कृत श्लोक है अति दानी बलि राजा, अति गर्वेण रावण, अति सुंदरी सीता, अति सर्वत्र वर्जयेत, अंग्रेजी में भी कहा गया है एकसिस एवरीथिंग इज बैड. तो इस उद्धरण के बहाने मीडिया द्वारा अतिवादी तत्वों को दिए जा रहे प्रश्रय पर भी गौर फरमाना समीचीन होगा.
मीडिया और अतिवाद-
किसी भी तरह के अतिवाद और मीडिया पर विमर्श मुख्यतया दो बिन्दु पर की जा सकती है। पहला संप्रेषण माध्यमों के स्वयं के द्वारा फैलाया गया अतिवाद और दूसरा अतिवादी, उग्रवादी तत्वों को मंच प्रदान करना, उन्हें समर्थन देना। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और उसके विरूद्घ चलने वाले अभियान में मीडिया की भूमिका एक ऐसा उदाहरण है जिसमें आपको दोनों तरह के अतिवाद से एक साथ परिचय होगा. आप ताज्जुब करेंगे कि देश में ऐसे भी अभागे-अभागियां हैं जो खुलेआम नक्सली प्रवक्ता बन लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न इस सबसे बड़ी चुनौती का औचित्य निरूपण के लिए अपना मंच प्रदान करता है. इस संभंध में एक विवादास्पद लेखिका के लिखे लंबे-लंबे आलेख को प्रकाशित-प्रसारित प्रकाशित करना निश्चय ही उचित नहीं है. जिन नक्सलियों ने वनवासियों का जीना हराम कर रखा हो, जहाँ युद्घ की स्थिति हो. जहां सरकार ने जनसुरक्षा कानून लगाकर नक्सली संगठन को प्रतिबंधित करने के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया हो, वहां बावजूद उसके आम जनमानस को किंकर्तव्यविमूढ़ हो झेलना पड़े नक्सलियों के महिमामंडल को, आखिर क्या कहा जाय इसे?
आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी जो अपने ही बाप-दादाओं के खून से लाल हुए हाथ को मंच प्रदान कर रहा है. दुखद यह कि ऐसा सब कुछ “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के संवैधानिक अधिकार की आड़ में हो रहा है. अफ़सोस यह है कि जिन विचारों के द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धर्मनिर्पेक्षता, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव आदि शब्दों का ही दुरूपयोग कर आज का मीडिया विशेष ने इस तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है. यूँ तो राष्ट्रीय कहे जाने वाले माध्यमों के इस तरह के दर्जनों हरकतों का जिक्र कर इस तरह के अतिवाद की चर्चा की जा सकती है. परंतु नक्सलवाद के माध्यम से ही विमर्श करना इसलिए ज़रूरी है कि देश के सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर में चल रहे इस कुकृत्य पर आजतक किसी भी बाहरी मीडिया ने तवज्जो देना उचित नहीं समझा. अभी हाल ही में 76 जवानों की शहादत के बावजूद सानिया-शोएब प्रकरण ही महत्वपूर्ण दिखा इन दुकानदारों को. कुछ मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी भी तो नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये लाल चश्मों से देखकर ही.खास कर सबसे ज्यादा इस सन्दर्भ में अरुंधती राय द्वारा इस हमलों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले आलेख की ही चर्चा हुई. तो सापेक्ष भाव से एक बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विमर्श और उसका विश्लेषण आवश्यक है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम माध्यमों की उच्छृंखलता
यह सच है कि मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर वर्तमान तक अभिव्यक्ति से सुंदर चीज आज तक नहीं हुई. ‘अभिव्यक्ति’ ही वह अधिकार है जो आपको ‘व्यक्ति’ बनाता है. यही आपको बेजूबानों से अलग भी करता है. इस स्वतंत्रता का सम्यक उपयोग ही किसी समाज के सभ्य होने की निशानी है, इसमें भी दो राय नहीं. भारतीय साहित्य में भी इसका बहुत सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है. रामायण में सीता को हनुमान, भगवान राम का संदेश सुनाते हुए करहते हैं :-कहेहु ते कछु दुःख घटि होई, काह कहौं यह जान न कोई…. यानि तुमसे बिछडऩे का जो दुख है, वह कह देने से कुछ कम अवश्य हो जायेगा, लेकिन किसको कहूं? मानस का यह चौपाई ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याख्या करने हेतु काफी है. जब रहीम कहते हैं कि ‘‘निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय’’ तो यह कहीं से भी तुलसी के कहे का विरोधाभास नहीं है. मतलब यह कि या तो आप अपनी अभिव्यक्तियों को कुछ मर्यादाओं के अधीन रखें अथवा चुप ही रहना बेहतर. किसी ने कहा है कि “कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है”. अगर पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी क्या,क्यूं, कैसे, किस तरह, किसको, किस लिए इस 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए. इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है.
भारतीय संविधान ने उपरोक्त वर्णित इसी सांस्कृतिक आत्मा का इस्तेमाल कर हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है. मीडिया को इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दो खास चीज का ध्यान रखना चाहिए. जिसका अंजाने या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है. अव्वल तो यह कि अनुच्छेद 19 (1) ‘‘क’’ किसी प्रेस के लिए नहीं है. यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए. लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना भी इसकी शर्त होनी चाहिए. जैसा छत्तीसगढ़ का ही एक अखबार बार-बार एक चुने हुए मुख्यमंत्री को तो ‘‘जल्लाद’’ और ‘‘ऐसा राक्षस जो मरता भी नहीं है’’ संबोधन देता था और ठीक उसी समय नक्सल प्रवक्ता तक सलाम पहुंचाकर उसे जीते जी आदरांजलि प्रदान करता था. इस तरह की बेजा हरकतों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं. साथ ही राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि स्व अनुशासन नहीं लागू कर पाये ऐसा कोई मीडिया समूह तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें. यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे. उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई यह महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है, यह आपकी इच्छा का मुहताज नहीं है। जबरदस्ती ही सही, आपको इसे आत्मार्पित करना ही होगा.
आपको उसी अनुच्छेद (19) ‘‘2’’ से मुंह मोडऩे नहीं दिया जाएगा कि आप “राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ” कुछ लिखें या बोलें. आप किसी का मानहानि करें , भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें. ‘‘बिहार बनाम शैलबाला देवी’’ मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ‘‘ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।’’ न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ‘‘संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन’’ मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ‘‘ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है.’’ आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते. इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति, दंड प्रक्रिया की धारा ‘499’ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है. प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है. इसके अलावा संविधान के 16 वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते. ‘‘यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं’’ कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा. हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने आलेखों द्वारा ‘‘कानून हाथ में लेने’’ का आव्हान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा. मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थूँ-थूँ नहीं चलेगा. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ‘‘दवा’’ लेनी ही होगी. आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ‘‘आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है. आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना.’’
(प्रवक्ता डाट काम से साभार)
(मधुबनी (बिहार) में जन्म। माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की उपाधि। अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर सतत् लेखन से विशिष्‍ट पहचान। कुलदीप निगम पत्रकारिता पुरस्‍कार से सम्‍मानित। संप्रति रायपुर (छत्तीसगढ़) में 'दीपकमल' मासिक पत्रिका के समाचार संपादक। इनसे jay7feb@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

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