Wednesday, July 13, 2011

स्‍वाधीनता संग्राम और मुसलमान



इस साल कांग्रेस अपना 125वां स्थापना दिवस मना रही है. भारत के सभी धर्मों के नागरिकों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज़रिए स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान दिया, परंतु हमारे नेताओं की बहुसंख्यकवादी मानसिकता और स्कूली पाठ्‌यक्रम तैयार करने वालों के संकीर्ण दृष्टिकोण के चलते भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अल्पसंख्यकों की भूमिका को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. भारत कभी उस अर्थ में राष्ट्र नहीं रहा, जिस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पश्चिम में किया जाता है. पश्चिमी राष्ट्रों का आधार है एक भाषा और एक संस्कृति. इसके विपरीत भारत कभी एक भाषा, धर्म या संस्कृति वाला देश नहीं रहा. धार्मिक, भाषाई, नस्लीय और सांस्कृतिक विविधताएं हमेशा से भारत की विशेषता रही हैं. जब हमने ब्रिटिश राज की अपरिमित शक्ति को चुनौती देने का निर्णय किया, तभी हमारे नेताओं को यह अहसास हो गया था कि देश के लोगों-विशेषकर हिंदुओं और मुसलमानों में एकता कितनी महत्वपूर्ण है. स्वाधीनता संग्राम का एक नारा था, दीन-धरम हमारा मज़हब, ये ईसाई (अर्थात अंग्रेज) कहां से आए.
आम मुसलमानों ने कांग्रेस की स्थापना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया और कांग्रेस के सभी आंदोलनों को अपना समर्थन दिया. कांग्रेस के निर्माण से लेकर भारत के स्वतंत्र होने तक मुसलमान कांग्रेस के साथ बने रहे. इस लेख में हम इसी विषय पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे. सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि किसी समुदाय के कुछ सदस्यों के कामों या गतिविधियों से पूरे समुदाय के संबंध में कोई राय नहीं क़ायम करनी चाहिए.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का देश के मुसलमानों ने पूरे उत्साह से स्वागत किया था. इस तथ्य को हमारे इतिहासविदों ने कभी पर्याप्त महत्व नहीं दिया. हमारे इतिहासविद् हमेशा इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सर सैय्यद ने मुसलमानों को यह सलाह दी थी कि वे कांग्रेस की सदस्यता न लें. तथ्य यह है कि यह मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग के एक छोटे से हिस्से की राय थी. यह वह तबका था, जिसने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों के हाथों बहुत अत्याचार सहे थे और जो अंग्रेजों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता था. हिंदुओं में भी ऐसे तत्व थे, विशेषकर जमींदारों, राजाओं एवं महाराजाओं में. इसके अलावा सर सैय्यद का कांग्रेस के प्रति दृष्टिकोण शत्रुता का नहीं था. वह तो केवल यह चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन पर ज़्यादा ध्यान दें. सर सैय्यद की भूमिका के बारे में बहुसंख्यक सांप्रदायिक तत्वों ने कई तरह के भ्रम फैलाए हैं. इस सिलसिले में यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि सर सैय्यद ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को भारत रूपी दुल्हन की दो आंखें निरूपित किया था. यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सर सैय्यद आम जनता के नेता नहीं थे. वह तो केवल उत्तर भारत के मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग को सामाजिक एवं शैक्षिक सुधारों के लिए प्रेरित करना चाहते थे. पूरा मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग भी सर सैय्यद के साथ नहीं था. इस वर्ग के एक सदस्य एवं बंबई हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बदरुद्दीन तैय्यबजी ने बंबई अधिवेशन के दौरान अपने 300 साथियों के साथ कांग्रेस की सदस्यता ली थी. वह बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए.
आम मुसलमानों ने कांग्रेस की स्थापना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया और कांग्रेस के सभी आंदोलनों को अपना समर्थन दिया. कांग्रेस के निर्माण से लेकर भारत के स्वतंत्र होने तक मुसलमान कांग्रेस के साथ बने रहे. इस लेख में हम इसी विषय पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे. सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि किसी समुदाय के कुछ सदस्यों के कामों या गतिविधियों से पूरे समुदाय के संबंध में कोई राय नहीं क़ायम करनी चाहिए. हर व्यक्ति की अपनी प्राथमिकताएं और अपना एजेंडा होता है. कई लोगों को यह जानकर हैरत होगी कि मुसलमानों में कांग्रेस के सबसे उत्साही समर्थक हैं देवबंद के पुरातनपंथी उलेमा. यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि उलेमाओं ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लिया था और उसमें अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी. इन उलेमाओं ने 1857 की क्रांति में बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दीं और उनमें से सैकड़ों को कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया. कई को इटली के दक्षिण में स्थित माल्टा नामक द्वीप में निर्वासित कर दिया गया. मैंने माल्टा के कब्रिस्तान में सैकड़ों उलेमाओं की कब्रें देखी हैं. उन्हें अपने महबूब वतन की मिट्टी में दफन होना भी नसीब नहीं हुआ. जिन उलेमाओं को निर्वासित किया गया था, उनमें से कई तो बहुत जाने-माने थे. ऐसे ही एक उलेमा थे मौलाना फज़ल काहिराबादी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद दारूल उलूम देवबंद के संस्थापक मौलाना कासिम अहमद नानोटवी, जो स्वयं एक जाने-माने आलिम थे, ने एक फतवा जारी कर मुसलमानों को कांग्रेस की सदस्यता लेने और अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करने के लिए कहा. न केवल यह, उन्होंने इस तरह के एक सौ फतवों को इकट्ठा कर उनका संकलन प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था नुसरत अल-अहरार (स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के लिए). उक्त उलेमा आम मुसलमानों के नेता थे और देश से अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध थे. एक अन्य जाने-माने आलिम मौलाना महमूद उल हसन ने हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश पूरे देश में फैलाने की एक योजना, जिसे रेशमी रूमाल षड्‌यंत्र कहा जाता है, में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मौलाना महमूद उल हसन के अलावा अन्य कई उलेमाओं और आम मुसलमानों ने इस षड्‌यंत्र में भाग लिया था. मौलाना हसरत मोहानी एक प्रतिष्ठित उर्दू कवि एवं बुद्धिजीवी थे. इसके साथ-साथ वह एक महान क्रांतिकारी भी थे, जिन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई में हिस्सा लिया और बहुत कष्ट भोगे. वह बाल गंगाधर तिलक और उनके प्रसिद्ध नारे स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है के घोर प्रशंसक थे. वह तिलक को तिलक महाराज के नाम से पुकारते थे. एक मौलाना होते हुए भी वह 1925 में स्थापित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. मौलाना कई बार जेल गए और उन्हें कड़ी सजाएं दी गईं. इनमें शामिल थी रोज 40 किलो अनाज पीसने की सजा, परंतु मौलाना ने कभी हार नहीं मानीं. गांधी जी तक देश के दूरगामी हितों की ख़ातिर कुछ समय के लिए होमरूल के लिए राजी हो गए थे, परंतु मौलाना इस मामले में किसी प्रकार के समझौते के पक्षधर नहीं थे. जब कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में होमरुल प्रस्ताव पेश किया गया, उस समय मौलाना को एक मुशायरे की तैयारी के बहाने अधिवेशन स्थल से दूर रखा गया, क्योंकि यह तय था कि वह प्रस्ताव का कड़ा विरोध करेंगे. यह थी मौलाना की भारत की संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता.
ख़िला़फत आंदोलन के संबंध में भी अनेक भ्रांतियां हैं. ख़िला़फत आंदोलन, महात्मा गांधी की अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्ण रणनीति का हिस्सा था. इसके ज़रिए गांधी जी ने सफलतापूर्वक लाखों आम मुसलमानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा. दुर्भाग्यवश, हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस आंदोलन को सही दृष्टिकोण से नहीं देखता, परंतु इस तथ्य को कोई नहीं नकार सकता कि इस आंदोलन के कारण ही बड़ी संख्या में मुसलमान स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बने. यह अलग बात है कि कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में हुई क्रांति के कारण यह आंदोलन समाप्त हो गया. अली बंधु-मौलाना मोहम्मद अली एवं शौकत अली इसी आंदोलन की उपज थे. अली बंधुओं ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उनकी मां भी स्वतंत्रता संघर्ष के प्रति उतनी ही प्रतिबद्ध थीं. जब उनकी मां को इस अ़फवाह की जानकारी मिली कि अली बंधु माफी मांग कर जेल से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं (यह कोरी अ़फवाह ही थी) तो एक पर्दानशीन महिला होने के बावजूद उन्होंने एक सार्वजनिक मंच से घोषणा की कि अगर मेरे पुत्रों ने ऐसा कुछ किया तो मैं उनका दूध माफनहीं करूंगी. जीवन के अंतिम समय में मौलाना मोहम्मद अली के गांधी जी से गंभीर मतभेद हो गए थे, परंतु अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि उन्हें येरूशेलम में दफनाया जाए, क्योंकि वह गुलाम भारत में नहीं दफन होना चाहते. ख़िला़फत आंदोलन के दौरान कुछ मुसलमानों ने ब्रिटिश भारत को दारूल हर्ब (युद्ध का घर) घोषित करके अ़फग़ानिस्तान पलायन करना शुरू कर दिया, ताकि वहां निर्वासित सरकार स्थापित कर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का संचालन किया जा सके. इस पलायन के मुख्य प्रेरणास्रोत थे मौलाना उबेदुल्ला सिंधीं. उन्होंने अ़फग़ानिस्तान में स्वतंत्र भारत की अंतरिम निर्वासित सरकार बनाई. राजा महेंद्र प्रताप इस सरकार के राष्ट्रपति थे और मौलाना उबेदुल्ला प्रधानमंत्री. दुर्भाग्यवश अफगानिस्तान के बादशाह ने ब्रिटिश सरकार के दबाव में आकर वहां पहुंचे मुसलमानों को अपने देश से निकाल दिया. इस कार्यवाही में हज़ारों मुसलमान मारे गए. ऐसी थी आज़ादी के प्रति मुसलमानों की दीवानगी.
स्वाधीनता आंदोलन के एक अन्य चमकीले सितारे थे मौलाना हुसैन अहमद मदानी. उन्होंने देश के विभाजन का जमकर विरोध किया. वह महान कवि एवं चिंतक इक़बाल से तक भिड़ गए और राष्ट्रीयता के मुद्दे पर इक़बाल के विचारों को चुनौती दी. उन्होंने एक किताब भी लिखी, जिसका शीर्षक था मुत्तहिदा कौमीयत और इस्लाम (सांझा राष्ट्रवाद और इस्लाम). उन्होंने जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को भी चुनौती दी और कुरान और हदीथ से लिए गए उदाहरणों से यह साबित किया कि द्विराष्ट्र सिद्धांत को इस्लाम की मंजूरी नहीं है. उनकी इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. यह अनुवाद जमीयते उलेमा ए हिंद ने कराया है और अब इस पुस्तक का लाभ उर्दू न जानने वाले भी उठा सकते हैं. मौलाना हुसैन अहमद को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं ने कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया और उन्हें जूतों की मालाएं पहनाईं. स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद और सरहदी गांधी ख़ान अब्दुल गफ्फार खान के स्वर्णिम योगदान को कौन भुला सकता है. दोनों अपनी अंतिम सांस तक भारत की आज़ादी के दीवाने बने रहे. खान अब्दुल गफ्फार खान एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने देश के विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकों में विभाजन का तब भी विरोध किया, जब नेहरू और सरदार पटेल तक ने इसे अपरिहार्य मानकर स्वीकार कर लिया था. मौलाना आज़ाद ने विभाजन का विरोध करते हुए जो लेख लिखा था, इस विषय पर उससे बेहतर शायद ही कुछ लिखा गया होगा. इन मुस्लिम नेताओं को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे लायक़थे. हमारे कई शिक्षाविदों, इतिहासकारों, पाठ्यपुस्तक लेखकों और सबसे बढ़कर राजनीतिज्ञों की सांप्रदायिक सोच के कारण इन मुस्लिम नेताओं की स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका को भुला दिया गया या फिर उसे बहुत ही कम स्थान दिया गया. जब मैं मदुरई के गांधी संग्रहालय में गया, जो देश के सर्वश्रेष्ठ गांधी संग्रहालयों में से एक माना जाता है, तो मुझे यह देखकर बहुत दु:ख हुआ कि वहां सरहदी गांधी की स्वाधीनता संग्राम में भूमिका के नाम पर उनकी केवल एक तस्वीर थी. मैंने संग्रहालय के संचालक का ध्यान इस गंभीर कमी की ओर आकर्षित किया. उन्होंने वायदा किया कि वह इस कमी को दूर करेंगे.
आज एक आम हिंदू सोचता है कि मुसलमानों ने इस देश के दो टुकड़े करवाए और वह उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है. कांग्रेस ने इस भ्रांति को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया. मैं कांग्रेस के नेतृत्व से अनुरोध करता हूं कि वह कांग्रेस की स्थापना के इस 125वें वर्ष में तो कम से कम स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भागीदारी को जनता के सामने लाए. इससे देश की एकता मज़बूत होगी.
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं)

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