Wednesday, July 13, 2011

भाषा और संस्कृति








जब एक भाषा मरती है तब उसकी संस्कृति भी उसके साथ मर जाती है
’लिविंग टंग्ज़ इंस्टिट्यूट फ़ार एन्डेन्जर्ड लैन्गवेजैज़’ इन सैलम, ओरेगान के भाषा वैज्ञानिक डेविड हैरिसन तथा ग्रैग एन्डरसन कहते हैं कि जब लोग अपने समाज की‌ भाषा में बात करना बन्द कर देते हैं, तब हमें मस्तिष्क के विभिन्न विधियों में कार्य कर सकने की अद्वितीय अंतर्दृष्टियों को भी‌ खोना पड़ता है। आगे एन्डरसन कहते हैं कि लोगों को अपनी भाषा में बात करते हुए उऩ्हें वास्तव में अपने इतिहास से पुन: सम्पर्क करते देखने में जो संतोष होता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यह निश्चित ही हमारे मस्तिष्क की कार्य विधि तथा मातृभाषा के बीच गहरे संबन्ध को तथा उसका हमारे जीवन पर पड़ रहे प्रभाव को दर्शाता है।
पिछले वर्षों हुऎ अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि जब हम अपनी मातृभाषा सीखते हैं तब एक सोचने की विधि भी सीखते हैं जो हमारे अनुभवों को ढ़ालती है।
मैन्चैस्टर विश्व विद्यालय के भाषा, भाषा विज्ञान तथा संस्कृति स्कूल के अवैतनिक अनुसंधान फ़ैलो गाई डायश्चैर ने एक पुस्तक लिखी है – “भाषा- चश्में से देखते हुए : अन्य भाषाओं में विश्व अलग क्यों दिखता है?” वे प्रश्न करते हैं, क्या भाषा, सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि, एक सांस्कृतिक निर्मिति है ?” या कि यह मुख्यत: मानव के जैव विज्ञान द्वारा निर्धारित की जाती है?” गाई डायश्चैर ने अपनी पहली पुस्तक” द अनफ़ओल्डिंग आफ़ लैन्ग्वैजैक्ष” में दावा किया था कि भाषा एक सांस्कृतिक निर्मिति है। अपनी नई पुस्तक में वे जैव विज्ञान पर अधारित भाषा के सिद्धांतों पर और भी अविश्वास पैदा करते हैं।
प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक रोमन जैकब्सन ने भाषाओं में अन्तर समझाने के लिये एक जगमगाते हुए तथ्य की ओर इंगित किया है : “ भाषाओं में अनिवार्य अंतर इससे स्पष्ट होता है कि उऩ्हें अवश्य ही क्या अभिव्यक्त करना चाहिये न कि वे क्या अभिव्यक्त करती हैं।” यह कथन मातृभाषा की‌ सही शक्ति दर्शाता है।यदि हमें भिन्न भाषाएं भिन्न विधियों से प्रभावित करती हैं, तब यह इसलिये नहीं है कि वह भाषा हमें क्या सोचने की अनुमति या सुविधा देती‌ है, वरन यह कि वह हमें अधिकतर क्या सोचने के लिये बाध्य करती है।”
’यदि हमें कोई यह बतलाए कि वह आज शाम अपनी ’कज़िन’ के साथ शाम बिता रहा है; तब भारतीय (फ़्रैन्च, जर्मन आदि भी) सोच सकता है कि यह कज़िन पुरुष है या महिला, और वह चचेरी है या ममेरी या बुआ की तरफ़ से है। यदि आप उस अंग्रेज़ से पूछेंगे, तब वह यह उत्तर दे सकता है इससे आपको कोई मतलब नहीं। इंग्लैण्ड में कोई भी ऐसे प्रश्न नहीं करेगा। वहां वे इसे निजी व्यवहार मानेंगे, या अन्य के व्यवहार में अनावश्यक खलंदाजी। हम सांस्कृतिक प्रभाव के कारण बहुत से व्यवहार सीख जाते हैं जो हमें स्वाभाविक लगते हैं। और यह सब भाषा में दिखता है, उसके द्वारा आता है।’ भाषा तथा संस्कृति में अटूट तथा गहरा संबन्ध है।
’दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ी‌ भाषा वह बतलाने के बाध्य करती‌ है जो शायद अन्य भाषाएं न करें।यदि अपने पड़ोसी के साथ मैं (अंग्रेज़) ’डिनर’ की‌ बात बतलाना चाहता हूं, तब मैं अपने पडोसी का लिंग चाहे न बतलाऊं, किन्तु मुझे उसके समय के विषय में अवश्य ही कुछ बतलाना होगा। मुझे बतलाना होगा कि – we dined, have been dining, are dining, will be dinning इत्यादि। जब कि चीनी भाषा में उस कार्य के समय को बतलाने की‌ कोई भी बाध्यता भाषा की त� ��फ़ से नहीं होती, क्योंकि वही क्रिया का रूप सभी‌ कालों के लिये होता है। वह स्वतंत्र है चाहे तो समय की जानकारी‌ भी दे सकता है, किन्तु अंग्रेज़ी‌ में‌ बतलाना ही होगा।’
मैं एक घटना का इसी प्रसंग में वर्णन करना चाहता हूं। बात उन्नीस सौ साठ के प्रारंभिक वर्षों की है। अमैरिकी उस समय भारत से मेंढकों के निर्यात का प्रयत्न कर रहे थे और उऩ्हें सभी प्रदेशों से नाहीं ही मिल रही थी। तब उऩ्होंने (अपने शत्रु ) केरल के मुख्य मंत्री नम्बूदरी पाद से बात की। वे समझ गए थे कि हिन्दू मुख्य मंत्री‌ धार्मिक भावनाओं के कारन ऐसी अनुमति नहीं देंगे । और केरल के मुख्य मंरी‌ ने वह अनुमति दे दी। मुख्य मंत्री को मिलियन्स डालरों की आमदनी हुई, किन्तु उस चावल के कटोरे में फ़सल बरबाद हो गई। तब उऩ्हें शायद कुछ समझ में आया। हमारी‌ संस्कृति में पारिस्थितिकी ( एकोलोजी) , पर्यावरन , प्रकृति संरक्षण, सर्वमंगल की‌ भावना सदा ही निहित रहती है। देवताओं के वाहन चाहे वह लक्ष्मी का उल्लू हो, या सरस्वती का हंस, या या गंगा जी का घड़ियल या उनके अलंकरण हों – चाहे शंकर जी  सांप हो या कृष्ण जी का मकराकृति कुण्डल, सभी‌में प्रकृति संरक्षण का वैज्ञानिक संदेश है। एक और उदाहरण हिन्दी भाषा में निर्जीव वस्तुओं के लिंग का है जो निर्जीव वस्तुओं के साथ संवेदनशीलता सहित व्यवहार करनॆ का संदेश देता है। वैसे तो पृथ्वी हमारी माता है।
जब भाषा किसी को जानकारियों को एक विशिष्ट रूप में‌ही देने के लिये बाध्य करती है, तब वह उसे उन कुछ विवरणों के प्रति तथा कुछ अनुभवों के विशेषरूप से अवलोकन करने के लिये बाध्य करती‌ है, जिन के लिये अन्य भाषा में वह विशेष अवलोकन आवश्यक न हो । और यह भाषा की बाध्यता बचपन से ही कार्य करती‌ है, ऐसा अवलोकन या भाषा उसका स्वभाव बन जाता है जो उसके अनुभवों, दृष्टिकोणों, भावनाओं, सहचारिताओं, स्मृ� �ियों और यहां तक कि उसकी‌ जीवन दृष्टि को प्रभावित करता है।
किन्तु क्या इस अवधारणा के लिये कोई प्रमाण हैं? ताजे प्रयोगों ने दर्शाया है कि व्याकरणीय लिंग के उपयोग करने वालों की वस्तुओं के प्रति अनुभूतियों और सहचारिताओं पर ऐसे उपयोग का प्रभाव पड़ता है। क्या दैनंदिन जीवन में वस्तुओं के प्रति लिंग की भाषा का उपयोग उनके संवेदनात्मक व्यवहारों को तुलनात्मक रूप से और ऊँचे धरातल पर ले जाता है ? क्या वे पसंद, फ़ैशन, आदतों और वरीयताओं पर प्रभाव डाल ता है ? इस समय इसका निर्धारण मनोवैज्ञानिक की प्रयोगशालाओं में‌नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि ऐसा नहीं सिद्ध हुआ तो आश्चर्य तो होगा।
ताजे तथा मेधावी प्रयोगों की शृंखला ने यह दर्शाया है कि हम रंगों तक को अपनी मातृभाषा के लैंस के द्वारा देखते हैं। उदाहरन के लिये हरे और नीले रंगों के लिये हिन्दी‌ में ( कुछ अन्य में भी) नितांत अलग शब्द हैं, किन्तु कुछ भाषाओं में उऩ्हें एक ही रंग की भिन्न छवियां ही माना जाता है। और यह समझ में आया कि अपनी‌ भाषा जिन रंगों को निश्चित ही अलग नाम देकर अलग रंग मानने के लिये बाध्य करती है, वह हमारी रंगों के प्रति संवेदनशीलता को सचमुच परिष्कृत करती है, और हमारे मस्तिष्क भिन्न छवियों की‌ दूरियों को अत्यंत स्पष्टरूप से देख सकते हैं।
लगता है आने वाले समय में अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक प्रत्यक्ष ज्ञान के सूक्ष्म क्षेत्रों पर भाषा के प्रभाव पर प्रकाश डाल सकेंगे । उदाहरण के लिये, कुछ भाषाएं, जैसी पेरु की मैत्सीज़ भाषा, अपने उपयोग करने वालों को जो तथ्य वे बतला रहे हैं, वे उऩ्हें कैसे प्राप्त हुए भी‌ परिशुद्ध बतलाने के लिये बाध्य करें। आप मात्र यह नहीं कह सकते, ”एक गाय यहां से गई”। आपको, एक विशेष क्रियापद का � �पयोग करते हुए, यह भी‌ बतलाना पड़ेगा कि क्या आपने उसे जाते हुए देखा था, या आपने उसके पदचिऩ्ह देखकर निष्कर्ष निकाला या केवल अनुमान किया कि वह तो अक्सर यहां से जाती है, या किसी से सुना था। यदि कोई कथन दिया गया जिसका प्रमाण गलत निकला तब उसे झूठ कहकर निंदित किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि आप मैत्सीज़ पुरुष से पूछेंगे कि उसकी कितनी पत्नियां हैं; तब जब तक कि वे पत्नियां उसे आँख के सामने नहं दिख रही हैं, वह कुछ ऐसा उत्तर देगा, “ जब मैने पिछली बार देखा था तब दो थीं।” चूंकि उसकी पत्नियां उस समय वहां नहीं‌ हैं, वह उनके विषय में बिलकुल निश्चित तो नहीं हो सकता, अतएव वह इस तथ्य को वर्तमान काल में नहीं कह सकता। क्या हमेशा सत्य के विषय में सोचने की आवश्यकता उसकी जीवन दृष्टि में सत्य तथा कार्य – कारण संबन्ध का महत्व दर्शाती है ? ऐसे प्रश्नों के अनुभवसिद्ध उत्तर प्राप्त करने लिये हमें प्रयोग करने के लिये सूक्ष्मतर उपकरणों की आवश्यकता है।
यह सोचना तो गलत ही है कि भिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति मूलरूप से एक ही तरह से सोचते हैं। हम दैनंदिन जीवन में सारे निर्णय क्या निगमनात्मक (डिडक्टिव) तर्कों द्वारा लेते हैं ? या आंतरिक भावनाओं, अंतर्दृष्टियों, संवेदनाओं, मनोवेगों या व्यावहारिक कौशलों के द्वारा लेते हैं? हमारे मन का व्यवहार, जैसा कि उसे हमारी संस्कृति ने बचपन से ढाला है, हमारी‌ जीवन – दृष्टि का, और वस्तुओं तथा परि्थितियों के प्रति हमारी संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं का निर्माण करता है; उनका हमारे जीवन मूल्यों, विश्वासों तथा आदर्शों पर भी मह्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अभी हम ऐसे प्रभावों को सीधी तरह नहीं नाप सकते या उनके द्वारा उत्पन्न सांस्कृतिक या राजनैतिक भ्रमों का आकलन भी नहीं कर सकते हैं। किन्तु भाषाओं की विविधता के रहते हुए, हम बेहतर आपसी समझ के लिये कम से कम इस विश्वास पर कि हम सभी क ही तरह से सोचते हैं, एक गंभीर प्रश्न तो कर ही सकते हैं।
’साइंटिफ़िक अमैरिकन – माइंड’ में भाषा वैज्ञानिक डा. कौरे बिन्स लिखते हैं कि इस विश्व में ७००० भाषाएं हैं, और प्रत्येक माह दो भाषाएं मर रही है, और उनके साथ अनेकानेक संततियों से प्राप्त सांस्कृतिक ज्ञान, तथा मानव मस्तिष्क का रह्स्यमय शब्द प्रेम भी सदा के लिये लुप्त हो रहा है।
हम यह तो देख ही रहे हैं कि भाषा और संस्कृति गहन रूप से, जैविक रूप से, संबन्धित हैं।आज की हमारे देश की शिक्षा पद्धति में अंग्रेज़ी माध्यम को प्राथमिक शालाओं से लादने की प्रवृत्ति को देखते हुए यह दिख रहा है कि भारतीय भाषाएं और उनके साथ भारतीय संस्कृति भी मृतप्राय होने वाली हैं। क्या हम अपनी संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं ? यदि हां तो अपनी‌ भाषाओं की रक्षा करें। हो सकता है कि कोई पश्न ही करे कि पश्चिम की सफ़ल और उत्तम संस्कृति के रहते, भारतीय संस्कृति की रक्षा क्यों करना है?‌ इस पर आगे विचार करेंगे ।

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