Friday, September 24, 2021

जन्मदिन, मंदिर और जुर्माना! / ऋषभदेव शर्मा

सुना आपने?  कर्नाटक के मियापुर गाँव में बच्चे के मंदिर मेंप्रवेश करने पर दलित परिवार पर 25 हज़ार का जुर्माना ठोक दिया गया! 


जी हाँ, यह इक्कीसवीं शताब्दी के विश्वगुरु बनने जा रहे भारत की ही बात है। यह दुख और अफसोस नहीं, दुर्भाग्य और लज्जा का विषय है कि आज भी कर्नाटक जैसे सब प्रकार से अग्रणी और आधुनिक राज्य के किसी अंचल में जातिभेद के नाम पर दलितों को मंदिर में जाने से रोका जाता है। ऐसे अवसरों पर लोग आम तौर पर कानूनों का हवाला देने लगते हैं और दोषी लोगों को दंडित किए जाने की माँग करने लगते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि जातिगत अहं का ज़हर लोगों के मनों में भरा हुआ है और कानूनों के सहारे दंड देकर जनमानस को सुधारा या बदला नहीं जा सकता। सामाजिक हृदय परिवर्तन के लिए तो नवजागरण आंदोलन जैसी व्यापक हलचल चाहिए। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि आजादी मिलते ही समाज सुधार और सामाजिक परिवर्तन के शिक्षामूलक जिन आंदोलनों को दुगुने वेग से चलाए जाने की ज़रूरत थी, वे सब या तो ठप्प हो गए या राजनीति के शिकार। लोकतांत्रिक समाज में जिन भेदभावों के लिए तिल भर भी जगह नहीं होनी चाहिए थी, दुर्भाग्यवश वोट की राजनीति ने उन सबको हवा देने का काम किया। क्रमशः धर्म और जाति चुनावों के निर्णायक तत्व बना दिए गए। इससे लोगों में इन विषयों से जुड़े कानूनों के प्रति असम्मान और तिरस्कार के भावों को विस्तार मिला। परिणाम हमारे सामने है। लोकतंत्र के मंदिर से लेकर भगवान के मंदिर तक के कपाट जातिगत शक्ति के मुहताज हो रहे हैं! जिसके पास शक्ति नहीं, वह तो कानून की शरण में भी जाने से डरता है। पानी में रहना है तो मगरमच्छों से बैर कैसे मोल लिया जा सकता है? इस मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ।


सयाने अचरज जता रहे हैं कि जिस दलित परिवार पर उच्च जाति के लोगों ने जुर्माना लगाया था, उसने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से इनकार कर दिया! लेकिन इसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि विवशताजन्य समझदारी है! अच्छा यह है कि दोनों ही पक्षों ने आपसी समझ दिखाई और मामला वैसा तूल न पकड़ सका, जैसे उदाहरण कई अन्य प्रांतों में अगड़े-पिछड़े के विवादों के प्रायः मिलते हैं।


खैर। हुआ यों कि कोप्पल जिले के मियापुर गाँव के एक दलित परिवार पर अकारण इसलिए जुर्माना किया गया था कि अनुसूचित जाति के चेन्नदास समुदाय के दो वर्षीय बच्चे ने गत 4 सितंबर को गांव के मंदिर में प्रवेश किया था!  उस दिन बच्चे का जन्मदिन था।  उसके पिता उसे पूजा के लिए ले गए। मंदिर में प्रवेश वर्जित होने के कारण वे हमेशा की तरह बाहर से ही हनुमान जी को नमस्कार कर रहे थे। इस बीच उन्हें पता ही नहीं चला कि कब चपल बच्चा मंदिर में घुस गया और प्रतिमा को प्रणाम करके वापस भी आ गया! भगवान ने तो कोई आपत्ति नहीं की! लेकिन भगवान का स्वरूप समझे जाने वाले बालक के इस निर्मल-निश्छल आचरण पर उच्च जाति का अहं आहत होकर फुफकार उठा। मंदिर के पुजारी और दबंग लिंगायत समाज की उप-जाति गनीगा समुदाय के दो और लोगों ने बच्चे के 'कृत्य' पर आपत्ति जताई। बाद में उन्होंने अपने पक्ष में कुछ और लोगों को इकट्ठा किया और 11 सितंबर को बैठक कर बच्चे के परिवार पर 25,000 रुपये जुर्माना लगा दिया, जिसमें से 10,000 रुपये दलित बच्चे के प्रवेश से कथित रूप में अपवित्र हो गए मंदिर के 'शुद्धीकरण' के लिए खर्च किए जाने थे!


दलित परिवार इतनी राशि कहाँ से लाता? उसने अपने समुदाय के मुखियाओं के द्वार पर दस्तक दी और किसी  तरह बात  पुलिस और प्रशासन तक पहुँच गई। परिवार की अनिच्छा के कारण  प्राथमिकी तो  दर्ज नहीं की गई; लेकिन प्रशासन ने  मंदिर परिसर में सभी समुदायों के प्रतिनिधियों की एक बैठक की और ग्रामीणों को इस तरह की प्रथाओं की पुनरावृत्ति पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी। चूँकि गनीगा-लिंगायत नेताओं ने खुद अपना अपराध स्वीकार कर लिया और भविष्य में ऐसा न होने देने का वादा किया, इसलिए  चेन्नदास समुदाय ने इस अध्याय को वहीं बंद करने का फैसला किया।


यहाँ तो विवाद टल गया। लेकिन इस सामाजिक सच्चाई को कैसे टाला जाए कि हमारा देश आज भी जाति आधारित ऐसी मूढ़ताओं से मुक्त नहीं हुआ है, जिन्होंने भगवान तक को  बेड़ियों में जकड़ रखा है! 000

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