Tuesday, September 28, 2021

व्यापार औऱ दया

 अनमोल सीख  /   व्यापार में दया नहीं औऱ दया me व्यापार नहीं


प्रस्तुति - राजेंद्र प्रसाद सिन्हा / उषा रानी सिन्हा

     


जब मैं छोटा था, तो मेरी मां एक प्रौढ़ सब्ज़ीवाली से हमेशा घर के लिए सब्जियां लिया करती थीं, जो लगभग रोज ही हमारे घर एक बड़े टोकरे में ढेर सारी सब्जियां लेकर आया करती थी,इस रविवार को वह पालक के बंडल भी लेकर आयी, और दरवाज़े पर बैठ गई।

 मां ने पालक के दो चार बंडल हाथ में लेकर सब्ज़ीवाली से पूछा:-पालक कैसे दी?"

 "सस्ता है दीदी, एक रुपया बंडल।" सब्ज़ीवाली ने कहा:

 

  माँ ने कहा "ठीक है, दो रुपये में चार बंडल दे दे।"

इसके बाद कुछ देर तक दोनों अपने-अपने ऑफर पर झिकझिक खिटपिट करते रहे।

 

सब्ज़ीवाली कुछ नाराज़गी जताते हुए बोली-इतनी तो मेरी खरीदी भी नहीं है, दीदी, फिर उसने एक झटके के साथ  अपना टोकरा उठाया और उठ कर जाने लगी।


लेकिन चार कदम आगे बढ़ने के साथ ही पीछे मुड़ी और चिल्लायी


चलो चार बंडल के 3 रु दे देना दीदी, आप से ज़्यादा क्या कमाऊंगी ,मेरी माँ ने अपना सिर "नहीं" में हिलाया।


2 रु में 4 बंडल मैं बिल्कुल ठीक बोल रही हूं, क्योंकि तू हमेशा की पुरानी सब्जीवाली है। चल अब दे भी दे,परंतु सब्जीवाली रुकी नहीं आगे बढ़ गई।


 *शायद वे दोनों एक-दूसरे की रणनीतियों को भली-भांति जानते थे। और यह खरीदने और बेचने वालों के बीच रोज ही होता होगा*

 

 8-10 कदम जाकर सब्ज़ीवाली मुड़ी और हमारे दरवाजे पर वापस आ गई,माँ दरवाजे पर ही इंतज़ार कर रही थी


सब्ज़ीवाली अपना टोकरा सामने रख कर कुछ ऐसे बैठ गयी, जैसे कि वह किसी सम्मोहन की समाधि में हो। 


 मेरी माँ ने अपने दाहिने हाथ से प्रत्येक बंडल को टोकरे से निकाल-निकाल कर कर दूसरे हाथ की खुली हथेली पर हल्के से मारा।

 

 और इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी के सीखे हुए मात्रात्मक, गुणात्मक और आलोचनात्मक मानदंडों से प्रत्येक बंडल की जाँच करके अपनी संतुष्टि से चार बंडलों का चयन किया।


सब्जी वाली ने पालक के बाकी बंडलों को फिर से अपने टोकरे में सजाया और भुगतान लेकर अपने बटुए में डाल लिए

  

सब्जीवाली ने बैठे ही बैठे टोकरा अपने सर पर रखा और उठने लगी, लेकिन टोकरा सिर पर रखकर जैसे ही वह उठने लगी, वह उठ न सकी और धप से नीचे बैठ गई।


 मेरी माँ ने उसका हाथ थाम लिया और पूछा


 क्या हुआ? चक्कर आ गया क्या? क्या सुबह कुछ नहीं खाया था?"

 

सब्जी-वाली ने कहा, "नहीं दीदी। चावल कल खत्म हो गया था। आज की कमाई से ही मुझे कुछ चावल खरीदना है, घर जाकर पकाना है। उसके बाद ही हम सब खाना खाएंगे।


मेरी माँ ने उसे बैठने के लिए कहा। फिर फुर्ती से अंदर चली गई,चपाती व सब्ज़ी के साथ तेजी से वापस आई,और सब्ज़ीवाली को दी।

 

एक गिलास में पानी उसके सामने रखा। और सब्जीवाली से कहा "धीरे-धीरे खाना, मैं तेरे लिए चाय बना रही हूं।


 सब्जी वाली भूखी थी। उसने कृतज्ञतापूर्वक रोटी खायी, पानी पिया और चाय समाप्त की।  

   

मेरी माँ को बार-बार दुआएं देने लगी।  मां ने टोकरा उनके सिर पर रखने में उसकी सहायता की। फिर वह सब्ज़ीवाली चली गई।


 मैं हैरान था,मैंने माँ से कहा:


 मां, आप ने दो रुपये की पालक की भाजी के लिए मोलभाव करने में इतनी कठोरता दिखाई, लेकिन उस सब्जीवाली को इतने अधिक मूल्य का भोजन देने में कई गुना अधिक उदार बन गयीं। यह मेरे समझ में नहीं आया!


 मेरी माँ मुस्कुराई और बोली:

 

 बेटा ध्यान रखना

 ''व्यापार में कोई दया नहीं होती''

और 

''दया में कोई व्यापार नही होता।"🙏🙏🙏🙏

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