Saturday, November 20, 2021

जीवन की व्यथा ही कथा हैं

प्रस्तुति - कृष्ण मेहता 

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      🛕 *कथा तो राम की होती है,*

   *जीव की तो व्यथा ही कथा होती है।*

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      पहली बार जब हनुमानजी से प्रभु श्री राम का मिलन हुआ तो हनुमानजी द्वारा परिचय पुछे जाने पर प्रभु ने परिचय में अपना चरित्र सुनाया जिसकी कथा हनुमानजी अपनी विलक्षण दिव्य शैली में करते हैं जिसे सुनकर प्रभु अत्यधिक प्रभावित हो गए, और यही कहा कि मैंने तो अपना चरित्र गा दिया, पर मैं समझ गया कि आप तो कथावाचक हैं, कोई साधारण व्यक्ति तो हैं नहीं। इसलिए-

    *कहऊ बिप्र निज कथा बुझाई* ४/१/५

     ब्राह्मण देवता ! अब आप अपनी कथा सुनाइए और हनुमान्जी की फिर पहलेवाली शैली प्रकट हुई। प्रभु पूछ रहे हैं कि तुम्हारा परिचय क्या है ? तो हनुमानजी कह सकते हैं कि मैं पवनपुत्र हूँ। अंजना के गर्भ से मेरा जन्म हुआ है और मेरा यह चरित्र है। जैसे प्रभु ने अपना परिचय दिया वैसे ही हनुमानजी भी दे सकते थे। पर कथावाचक की शैली बिल्कुल अलग है। उन्होंने एक ऐसी नई शैली में परिचय दिया कि जिस शैली में संसार में कोई परिचय नहीं देता। हनुमानजी सुनाने लगे कि महाराज ! मेरा तो इतना ही परिचय है कि --

*एकु मैं मंद मोह बस कुटिल हृदय अज्ञान।*

*पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान्॥* ४/२०

      प्रभु ने कहा, ब्राह्मण देवता ! यह तो परिचय की नई पद्धति का ज्ञान

हुआ। अरे! मैंने तो आपसे कथा सुनाने के लिये कहा, पर आप कथा सुना रहे हैं कि व्यथा सुना रहे हैं ? हनुमानजी ने कहा -- प्रभु ! *कथा तो राम की होती है, जीव की तो व्यथा ही कथा होती है।* पर हम चाहते हैं कि जीव आपकी कथा सुन ले और आप जीव की व्यथा सुन लें। *जीव जब ईश्वर की कथा सुनेगा तो उसके अन्तःकरण में प्रेम का संचार होगा। और ईश्वर जब जीव की व्यथा सुनेगा, तो उसमें करुणा का उदय होगा। इस प्रकार ईश्वर की करुणा और जीव के प्रेम का मिलन हो जाए, बस ! यही जीवन में परिपूर्णता का एक मात्र मार्ग है।* इस प्रकार ऐसी अद्भुत शैली में श्री हनुमानजी महाराज ने अपना परिचय दिया।

     आगे चल करके हनुमानजी महाराज भगवान् श्रीराम तथा लक्ष्मणजी को पीठ पर लेकर गए। घटना के रूप में कहें तो यही कहेंगे कि श्री हनुमानजी ने प्रभु और श्रीलक्ष्मणजी को पीठ पर बिठा लिया। पर कथावाचक का काम इतना ही कह देना नहीं है। जब श्रीराम और लक्ष्मणजी का भार श्रीहनुमान ने उठा लिया तो प्रभु ने हनुमानजी से कहा, चलो अच्छा हुआ, मैं भले ही पृथ्वी का भार उतारने आया था, पर मेरा भार उतारने का कार्य तो तुम्हीं को मिला है। इसलिए अपना और श्रीलक्ष्मण दोनों का भार मैंने तुम्हें दे दिया। पर कथावाचक (हनुमानजी) ने कहा -- न-न, सत्य तो यह है कि आपने अपना भार मेरे ऊपर दे दिया और मैंने जानबूझकर इसे ले लिया ; क्योंकि इस भार को उठाने में मुझे निश्चिन्तता है। हनुमानजी ने कहा -- प्रभु ! इस समय मुझे चलना है पहाड़ पर और पहाड़ पर चढ़ते समय व्यक्ति कहीं ऊपर से नीचे न गिर पड़े। प्रभु देख रहे हैं कि मैंने चुनाव कितना उचित किया। पहाड़ पर चढ़ते समय मैंने आपसे कहा कि पीठ पर बैठ जाइए। क्योंकि, मैं यह जानता हूँ कि ऊपर चढ़नेवाले को जितनी चिन्ता होती है, उससे अधिक चिन्ता चढ़नेवाले की पीठ पर जो बैठा हुआ हो, उसकी होती है, क्योंकि वह तो अपने पैर से चल नहीं रहा है। उसको तो यही डर लगता रहता है कि अगर कहीं यह गिर पड़ा तो क्या होगा ? हनुमानजी ने कहा, महाराज ! मैंने तो यह भार इसलिए लिया है कि जिससे आपको यह चिन्ता बनी रहे कि यदि हनुमान् का पतन होगा, तो चोट आपको ही लगेगी। और सही बात भी है ; क्योंकि अगर भक्त का पतन होगा तो ईश्वर की निन्दा होगी, ईश्वर की ही तो आलोचना होगी। इसलिए प्रभु ! मैं तो सारे जीवन का भार आपको सौंप करके निश्चित हो गया, अब मेरे जीवन में पतन का रंचमात्र भय नहीं रह गया। वस्तुतः *कथा का तत्त्व यही है कि घटित होनेवाली घटनाओं से हमें क्या प्रेरणा मिल रही है।*

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