Wednesday, January 26, 2011

MEDIA/ REALFACE OF ELECTRONICCHANNEL



Added 23 January · Like · Comment
·                                  
·                                 .मीडिया-पत्रकारिता/  हंस/
·                                 खबरिया चैनल अंक/ चैनलों का सही चेहरा

मीडिया-पत्रकारिता हंस खबरिया चैनल अंक में चैनलों का सही चेहरा


अजय नाथ झा  

मीडिया मंथन[

हंस नामक नामचीन साहिति्यक पत्रिका में जनवरी 2007 में एक विशेषांक छपा जो अचानक कहीं से हाथ लगा और उसको पढ़ने के बाद फौरन उसकी समीक्षा करने की ललक जाग उठी। सोचा, शायद इसी बहाने हिंदी में लिखने की आदत लग जाए। मैंने उस पत्रिका में छपे लेखों के संकलन पर एक समीक्षा लिख मारी। और उसकी एक प्रति हंस पत्रिका के संपादक के दफ्तर में छोड़ आया। कई वरिष्ठ पत्रकारों के मुंह से सुन रखा था कि हंस के संपादक सही मायने में सरस्वती पुत्र हैं और वो सच छापने से कभी नहीं डरते। मगर मैं सच का इंतजार करता ही रहा....खैर, एक दो और नामचीन अखबरों के संपादकों को भी मैंने इसकी प्रति प्रकाशन के लिए भेजी। कुछ का जवाब नहीं आया, पर एक दो संपादकों ने वापस फोन कर के कहा, ‘बन्धुवर आपकी समीक्षा कमाल की है पर छपने योग्य नहीं। मैं इसे छापकर उन लोगों से बैर मोल नहीं ले सकता। आखिर उनके चैनलों में भी तो जाना पड़ता है मैं हैरान था कि इस समीक्षा के अंदर कौन सा बम या विस्फोटक था जो इतना खतरनाक हो गया। मेरे विचार में या सोचने के तरीके में मतभेद हो सकता है मगर पत्रकार विरादरी में किसी से कोई झगड़ा या दुश्मनी तो है ही नहीं। फिर क्या बात हो गई? क्या समीक्षा लिखना इतना बड़ा संगीन अपराध हो गया? फिर एनडीटीवी में ही एक साथी ने राय दी कि ये जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी जी को भेज दो। मगर एक हफ्ते के बाद उनका फोन आया- महराज ये क्या किया है आपने?  इसे पढ़कर आगे आपको नौकरी कौन देगा? अपने पांव पर क्यों कुल्हाड़ी मार रहे हो भाई?’ फिर मन खराब हो गया और मैंने ठान लिया कि हिंदी में दोबारा कुछ नहीं लिखूंगा। दो दिन पहले अचानक उसकी पांडुलिपी कमरे में पड़े कागज के ढेर में नज़र आई।फिर मैंने सोचा कि इसके पहले ये किसी कबाड़ी के यहां या किसी परचून की दूकान पर ढोंगाके तौर पर अपनी इज्जत नीलाम करे, इसको अपने ब्लॉग पर जस की तसडाल देना ही श्रेयकर है। कम से कम पत्रकारों की इस पीढ़ी में तो इस पर निगाह डालेगा और इसे हस्ताक्षरनहीं तो हाशिय़ेका एक कोना तो मानेगा। वो समीक्षा यूं है...एक अप्रकाशित समीक्षा- खबरिया चैनलों की कहानी-हंस पत्रिका का जनवरी-2007 का अंक पढने में अच्छा लगा। राजेंद्र यादव बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ऐसे विषय पर खट्टी-मीठी, तीखी-फीकी-हर किस्म के व्यंजन एक साथ परोसने की हिम्मत जुटाई।-इसमें कोई दो राय नहीं कि श्री यादव ने अपने संपादकीय के माध्यम से कई ज्वलंत प्रश्न अपने पाठकों के समक्ष रखें हैं, मगर उनकी लेखनी में कहीं न कहीं प्रसार भारती से निकाल दिए जाने का दर्द और नौकरशाही के साथ धींगामुश्ती में बहुत कुछ न कर पाने की टीस भी साफ दिखाई दे जाती है।-श्री यादव और उनकी संपादकीय टीम ने बहुत ही सशक्त ढंग से विभिन्न चैनलों द्वारा कितना बडा चमत्कार या चुतियापा` परोसने के रिवाज पर बज्र प्रहार तो किया, लेकिन वह समाजिक शिक्षा व जागरुकता के लिए कोई प्रभावशाली औजार या विकल्प परिभाषित नहीं कर पाए। अगर उनके जैसा अनुभवी और प्रखर साहित्यकार इस दिशा में संजीदगी से सोचने में डरता है, तो शायद यह हिन्दी पत्रकारिता के लिए बुरे दिनों का आगाज है।-ऐसा कहा जाता है कि जब घर के बडे-बुजुर्ग चले जाएं, तो घर की मिठास कम हो जाती है। अगर आज के टीवी चैनलों को मानव जीवन के प्रति क्रूरता की अद्भुत प्रयोगशालाएं बना दिया गया है... अगर आजकल के बहुत से पत्रकार आडंबर और दिमागी दिवालियापन के चलते-फिरते इस्तहार या फिर...पत्र के आडे-तिरछे आकार बनकर रह गए हैं, तो इस अधोपतन के लिए श्री यादव जैसे महामहिम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं क्योंकि वह अगर नई पीढी का सही मार्गदर्शन कर पाते तो षायद आज के अखबारों व टीवी चैनलों में प्रयोग किए जा रहे है शब्द समूहों के साथ हिन्दी भाषा का सामूहिक बलात्कार देखने की त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती।-सनसनी जैसी खबरें `हर कीमत पर` जैसे तकियाकलाम ने भाषा तथा शब्दों एवं मुहावरों के प्रयोग ने हिन्दी भाषा... हमारी सुरुचि, संस्कार तथा सोच...इन सभी पर कुठाराघात किया है और वह आज भी बदस्तूर जारी है।-इस संदर्भ में इस पत्रिका के तकियाकलाम ` खबरिया चैनलों की कहानियां` पर भी प्रश्नचिह्न लगाने के लिए मजबूर होना पडता है। अमूमन खबरिया शब्द नकारात्मक दिशा की ओर संकेत करता है। मानो एक खबरिया `कोई मुखबिर हो और किसी साम्राज्य के बारे में किसी अनिष्ठ की आशंका की तरफ इशारा कर रहा हो`। खबरें हमेशा नकारात्मक व अफसोसनाक नहीं होती हैं।... खबरें हमेशा अनारा गुप्ता का बलात्कार या बुढिया की गुडिया ही नहीं...वह सानिया मिर्जा की शानदार जीत और प्रीति जिंटा का पुरस्कार भी हो सकती हैं।-कहानी संग्रह में विजय विद्रोही की `प्रेत पत्रकारिता` उनकी आपबीती जैसी ही लगी। उनके जैसे दबंग पत्रकार का शब्दों के माध्यम से यह गुहार शायद आने वाली पीढी के लिए एक चेतावनी साबित हो। मगर प्रेत पत्रकारिता की परिपाटी को बढावा देने की बजाए एक स्वाभिमानी पत्रकार को उसे लात मारकर बाहर आने का हौसला रखना चाहिए।-राणा यशवंत की `ब्रेकिंग न्यूज` हर न्यूज चैनल की धमनियों में बहते हुए खून की गरमी का बैरोमीटर है। साथ ही अपने आप को मान-मंडित करने की नई तरकीब भी है।-राकेश कायस्थ नई पीढी के खबरिया पत्रकारिता के आयामों को चित्रित करने की कोशिश में न्यूज रूम की नौंटकी में खो जाते हैं। वैसे जो बात वह कहना चाहते हैं, वह काफी कडवी है, मगर शायद वह अंततः यह नहीं तय कर पाते कि पहले मुर्गी का जिक्र करें या अंडे का।-संगीता तिवारी का `खेल` न्यूज रूम के ठेकेदारों द्वारा उठाना-गिराना और नए-नए बॉस की करतूतों का पर्दाफाश करती है। साथ ही एक लडकी की त्रासदियों का सजीव और मर्मस्पर्षी चित्रण भी है।-रवीश कुमार का अंदाजेबयां कुछ और ही है। कई महिला पत्रकारों के बारे में उनके मर्द साथियों द्वारा दिमागी मैथून की प्रवृति पर करारी चोट की है दीवार फांदते स्पाइडरमैन ने। मिस टकटकका किरदार प्रायः कुकुरमुत्ते की तरह हर चैनल में पाया जाता है। यह अलग बात है कि कई बार मिस टकटकन्यूज रूम की चौपड में द्रौपदी की तरह बिछ या बिछा दी जाती हैं तो कई बार वह अपने बॉस के प्रकोष्ठ से सत्ता के गलियारे तक शोले की धन्नो की तरह हिनहिनाते दिखाई दे जाती हैं।-क़मर वहीद नकवी अपने लेख में पत्रकार की नहीं, बल्कि एक उद्योगपति की भाषा बोलते दिखाई देते हैं। `बकवास दिखाना उनकी मजबूरी है` और यही उनके चैनल का सरमाया है। मगर सच्चाई यह भी है कि आज का दर्शक किसी चैनल को पांच मिनट या दस मिनट से ज्यादा नहीं झेल पाता है। अगर नकवी साहब यह समझते हैं कि उनका चैनल ही समाज का सही और सच्चा आइना है तो उनको यह भी याद रखना चाहिए कि आइने में भी बाल उगने में देर नहीं लगती।-राजदीप सरदसाई का लेख `हम पागल हो गए हैं` शायद बहुत हद तक सच है। बहुत कम पत्रकार ही अपनी मूर्खता पर हंसने की हिम्मत करते हैं। यह सच है कि `कैमरा अब हजारों लोगों की आवाज व चेहरा बनता जा रहा है`। मगर पहले कैमरे के पीछे `एजेंडा के साथ खडे लोगों की नीयत का क्या करें?` कालिख लगे हाथों में दस्ताने पहनकर पत्रकारिता की शालीनता और मानवाधिकारों का मापदंड तय करने की बात वैचारिक दीवालियापन ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक बड़ बोलापन निशानी है।-उदय शंकर अपनी बात हमेशा `ओशो-रजनीश-` के अंदाज में ही करते हैं और `आमने-सामने` में भी उन्होंने यही रुख बरकरार रखा है। क्रियटिविटी के दोमुंहेपन से उन्हें गुरेज़ है और वह इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा? आजकल के दौर में ` कुछ ही समय के लिए क्यों न हो, मगर ऐसी सोच काम कर जाती है।-इन सब के बीच दिवांग ने अपने लेख में शब्दों की शालीनता बरकरार रखी है और उनका रामबाण हमेशा `दर्शकों का भरोसा है।` उनके अनुसार टीवी चैनलों की अंगडाई अब तक अपने शबाब पर नहीं आ पाई है और आने वाले दिनों में अपनी हद खुद ढूंढ लेगी`। यह एक आदर्शवादी और रोमानी सोच है। मगर पत्रकारिता की नंगी हकीकत अक्सर बदनुमा और भयानक दिखाई देती रही है।-शाजीजमां ने अपने लेख में `फास्ट फारवर्ड` में चलती जिंदगी के कुछ खुरदुरे तथा संकरे पहलुओं को बेबाकी से छुआ है तो प्रियदर्शन ने टीवी चैनलों में एंकर की सोच तथा ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा से लवरेज न्यूज रूम में सफलता की कुंजी और ताला खोजने और खोलने के महामंत्र पर अच्छा व्यंग्य किया है। प्रियदर्शन की लेखनी में ओज है।-`बम विस्फोट` नामक लेख में संजीव पालीवाल ने शायद अपने कार्यस्थल की नंगी सच्चाई का बखान कर डाला है। मगर किसी भी पाठक को उनकी भाषा पर ऐतराज हो सकता है। पता नहीं, आज से कुछ साल बाद इस लेख को पढकर लोग किसका ज्यादा आंकलन कर पाएंगे-घटना विशेष का या फिर लेखक का? क्योंकि कोई भी छपा दस्तावेज कभी-कभार बम से ज्यादा विस्फोटकारी हो जाता है।-दीपक चौबे ने `काटो काटो काटो` नामक लेख में बडे ही इंकलाबी अंदाज में न्यूज रूम में `काटना` शब्द की महत्ता और उपयोगिता का पर्दाफाश किया है। काटना न्यूज रूम के कामकाज का एक अहम हिस्सा है, जिसमें बात काटने से लेकर एक-दूसरे की जड काटने तक की कवायद शामिल होती है। चैनल के एसाइनमेंट डेस्क में हरकारा `नागर` एक ऐसा किरदार है जो अपने ध्रुतराष्ट्र के लिए घटोत्कच से लेकर भीम तक भी भूमिका निभाने का स्वांग रचने में शुक्राचार्य को भी मात दे सकता है। पत्रकार यानी...दोधारी तलवार...चौतरफा वार...एक तीर-तेरह शिकार...। चौबे ने पत्रकारों की ऐसी नई परिभाषा देकर जैसे अपनी बिरादरी का सरेआम पोल खोल दिया। दूसरी तरफ उन्होंने चोली और दामन का साथ यह कहते हुए निरस्त कर दिया ` चोली कसती है, तंग होती है, भीगती है, उतरती है, कुछ छुपाती है तो कुछ दिखाती है। दामन तो सिर्फ पकडा या छोडा जा सकता है। चोलियां मांगी जाती है, दी जाती हैं, डिजाइनर होती हैं और धरती की तरह रंगीन भी, जबकि दामन में सिर्फ आसमान सा नीलापन व सूनापन है। चोली-दामन के बीच का फासला सिक्योरिटी की कसौटी पर समझाते हुए दीपक चौबे का तर्क है कि ` फैशन के तूफान में दामन-दुपट्टे उडते जा रहे हैं, पर चोली कम होगी तो टॉप बनेगी और क्या...यही न कि साइज की गारंटी नहीं, मगर टॉपलेस होने तक फ्यूचर तो सेफ है।...चौबे का अंदाजेबयां कि `काटना सबके बस की बात नहीं...चाहे राखी सावंत लाइव ही क्यों न मिल रही हो।` न्यूज रूम का सबसे बडा और अकाट्य सत्य है। इतने ज्वलंत तथा मर्मस्पर्शी चित्रण के लिए वह बधाई के पात्र हैं।...अगर `स्याह-सफेद` में शालिनी जोशी ने बडी ही शालीनता से टेलीविजन पत्रकारिता से जुडी महिलाओं की मानसिक स्थिति, डर तथा सामाजिक शंकाओं का चित्रण किया है तो अलका सक्सेना `आधी जमीन` महिला पत्रकारों का अब तक नहीं दिए जाने से परेशान और हैरान हैं। उनकी राय में महिलाओं को भी उनकी सही उपयोगिता को आंकने तथा उनकी भूमिका के सही चयन के पहले पत्रकारिता के कुछ सालों तक उबड-खाबड रास्तों की खाक छानकर तपने का सुझाव तो बडा ही अच्छा और आदर्शवादी है। मगर सच्चाई यह है कि नई उमर की नई फसल सब कुछ चुटकी बजाकर ही पा लेना चाहती है और ऐसे में वरिष्ठ पत्रकारों का गुरुमंत्र बीच सडक पर पडे गोबर का ढेर बनकर रह जाता है।...`तमाशा मेरे आगे` स्तंभ में वर्तिका नंदा से लेकर श्वेता सिंह, ऋचा अनिरुद्व, शाजिया इल्मी तथा रुपाली तिवारी ने अपने काबिलियत की कील ठोंकने की भरपूर कोशिश की है। वर्तिका जहां `औरतें करती हैं मर्दें का शो` की बात करती है, वहीं औरतों के लिए मर्द बॉस का हमेशा दोधारी तलवार घुमाने की आदत ऋचा अनिरुद्व के लिए आलोचना व खीज का सबब है। खासकर शाजिया इल्मी द्वारा `शक्ल और अक्ल के बीच` छिडी जंग में इल्म की दुहाई पढने में भले ही अच्छा लगे, मगर वह भी जानती हैं कि धुआं वहीं उठता है, जहां आग जलती है। वैसे भी ......उम्र की अक्ल से निस्बत हो, ये जरुरी नहीं इतने घने बाल तो धूप में भी पक सकते हैं।...अजीत अंजुम फ्राइडे नामक लेख में शब्दों के चयन तथा मुहावरों के इस्तेमाल में शालीनता बरतने के आदी कहीं से भी दिखाई नहीं देते। चैनल के बॉस को नर-पिशाच के रंग में रंगने तथा टीआरपी को इस सदी की सबसे बडी `संयोगिता` की संज्ञा देने से लेकर अपने-आप का मानमंडित करने और बौद्विक आतंकवाद फैलाने के प्रयास में वह खुद ही `मूतो कम-मगर चीखो और हिलाओ ज्यादा` परंपरा और संस्कृति के ध्वजवाहक बने दिखाई देते हैं। ग्यारह पेज लंबी उनकी कहानी का सरमाया यह है कि `तुम एक ऐसे ढोल की तरह हो, जिस पर हर समय बॉस की थाप पडती रहेगी। बजना तुम्हारी मजबूरी है और बजाना उसकी...`खबरों को पकाना, सेकना, तानना और बेचना...यह जैसे कई टेलीविजन पत्रकारिता के कीचक से लेकर कर्ण तक के महारथियों की पहचान है। वह भी इसी संस्थान की देन है। जहां का महामंत्र `सबसे तेज` होना है, चाहे वह `अश्त्थामा हतः-नरो वा कुजरो वा...क्यों न हो।और वैसे भी बबूल के पेड से आम की अपेक्षा बेवकूफ ही कर सकता है।...राजेश बादल का `उसका लौटना` उनकी अपनी कहानी जैसी दिखाई देती है। किसी चैनल में लंबा समय बिताने के बाद जब वह आदमी मुडकर पीछे देखता है और जब उसके साथ किए गए विश्वासघात का उसे बोध होता है तो वह स्थिति बडी अजीबोगरीब होती है। बादल द्वारा मारुति का चित्रण जिंदगी के किसी मोड पर लगभग हर पत्रकार के सामने आता है और वह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि एक अदद नौकरी के लिए उसने क्या-क्या खोया। घटिया पत्रकारिता, ओछी राजनीति तथा थोथी दलीलों के साथ मूल्य, सिद्वांत और नैतिकता की लडाई लडता हुआ हर संवेदनशील पत्रकार अपने आप को कभी-कभार अकेला भले ही महसूस करने लगे, मगर अंततः जीत सच की होती है। राजेश बादल का लेख दिल को छू जाता है और इसी बात को इंगित करता है कि-मनसब तो हमें मिल सकते थे, लेकिन शर्त हुजूरी थी।यह शर्त हमें मंजूर नहीं, बस इतनी ही मजबूरी थी।।...मुकेश कुमार की कहानी भी कुछ हद तक उनकी अपनी जिंदगी की किताब के पन्ने की तरह दिख जाती है। `मिशन से प्रोफेशन से कमीशन तक` पत्रकारिता के नए युग में अक्सर ही विवेकशील संपादक ही `टारगेट` बनते हैं और उसमें कई प्रबंध रिपोर्टरों का भी बडा रोल होता है।राजेश बादल तथा मुकेश कुमार की कहानियों के किरदार न्यूज चैनल के मालिकों की सामंती सोच और आतताई व्यवहार के खिलाफ कुनमुनाते इंकलाब को रेखांकित तो करते हैं, मगर उससे लडने का सही विकल्प नहीं तलाश पाते।... यह इंकलाब जाडे की सुबह नंगी पीठ पर खिंचती बेंत की तरह तल्ख है, जो शाम होते-होते दाल-रोटी के जुगाड में अपनी पीडा भूलकर पेट की दहकती आग की ज्वाला में दफन हो जाती है।...इस इंकलाब की गुहार उस गडरिए की बीन की तरह है, जो अपनी तान से भेडों को एक साथ इकट्ठा तो कर लेती है, मगर चारागाहों की मल्कियत का बदलने का लावा नहीं खोल पाती है।...प्रमिला दीक्षित ने `एक-दूजे के लिए` के माध्यम से टीवी चैनल द्वारा जिंदगी और मौत के खेल को भी नाटकीय ढंग से एक खबर की तरह इस्तेमाल करने के रिवाज पर चोट किया है।...अविनाश दास की `गुरुदेव` न्यूज रुम के उस विशेष किरदार का चित्रण है जो मोहल्ले की मिट्टी के महानगर तक पहुंचते हुए कई हकीकतों का साक्षात्कार करता हैं और आखिर में सांप-छछूंदर के बीच कुछ और ही बनकर रह जाता है। हैरानी यह है कि इतिहास में जीने के आदी और खबरों के महासागर के बीच में थोथे आदर्श तथा चोचलों के दर्शन की पतवार पकड कर सब की नैय्या पार करने का सपना देखने वाले ऐसे कृपाचार्यों की पूंछ आज भी घटी नहीं है। गुरुदेव जैसे किरदार चोंचलिस्ट प्रथा की सबसे ऊंची कूद लगाने वाले मेढक हैं जो पलक झपकते ही सांमती कोट की जेब में कूद कर पहुंच जाते हैं और वहीं से पूरी दुनिया की चौहद्दी मांपने लगते हैं।...अमिताभ ने `होता है शबे-रोज तमाशा मेरे आगे` शीर्षक कहानी के जरिए अपने कार्यस्थली के कर्णधारों और धुंधरों की भिनभिनाती सोच का भांडाफोड किया है। जो खबर जैसी चीज को `खेल` तथा संजीदगी व सच्चाई को बाजीचा-ए-अत्फाल और करोडों का कारोबार समझते हैं। अमिताभ का अंदाजेबयां कि `दोस्ती नहीं, स्ट्रेटजिक पार्टनर ढूंढते हैं लोग। मर्द हो या औरत, तफरी भी इसी स्ट्रेटजी के तहत होती है।` न्यूज रूम व चैनलों की संस्कृति का असली चेहरा है। यह कितना कटु क्यों न हो, परंतु बहुत हद तक सच है।...`चालाक और हमलावर मीडिया` में रामशरण जोशी के संकेत को संजीदगी से लेने की आवश्यकता है। बाजारवाद मीडिया पर पहले ही हावी हो चुका है और अगर कहीं मीडिया की मादकता और स्वतंत्रता की हद तय नहीं की गई तो वह दिन दूर नहीं, जब मीडिया खुद ही भस्मासुर का रुप अख्तियार कर ले।...आनंद प्रधान का आलेख `मीडिया की वर्तमान छवि` न्यास तथा नए प्रयोगों का सारगर्भित दस्तावेज है।...पंचायतनामा स्तंभ में समाज व बाजार के बीच समाचार शीर्षक लेख में पुष्पेद्र पाल सिंह ने आशुतोष के दृष्टिकोण से परिचय कराया है जिसे कई नवोदित पत्रकार सफलता का मूल मंत्र मानने लगे हैं। `हम करे तो सरकारी और तुम करो तो गद्दारी` जैसी बीमारी से ग्रसित कई के पत्रकारों की सोच व्यक्तिगत व्यवहार की नैतिकता और व्यवसाय की विभीषिका के बीच `मृगमारिचिका` बनकर रह जाती है। अर्वाचीन पीढी को पुर्न मूषिको भवः की शिक्षा देने वाले तथा अपने आप को इस विधा में अरस्तु मानने वाले पत्रकारों की विडंबना यह है कि न तो वह कौवा बन पाते हैं और न ही हंस। खोजी पत्रकारिता का दं उन्हें लोकप्रियता की यमुना में एक हद तक प्रवाहित तो कर देता है मगर उसके बाद भ्रमक गंथियों के महाकुंभ में समाह्ति भी हो जाते हैं।...कितने मरे शीर्षक कहानी में विनोद कापडी ने न्यूज से जुडे एक महत्वपूर्ण- मगर टीवी पर्दें पर कभी नहीं दिखने वाला ओबी ड्राइवर भगवान सिंह के किरदार को बखूबी जिया है। खबरखोरी की होड में भगवानसिंह जैसे किरदार अक्सर मारे जाते हैं और उसके बाद उसके नाम पर `शीतल` जैसे चहेते फनकार एक सेकेंड तक खर्च करना भी गंवारा नहीं समझते...। चैनल के लिए अपनी जान पर खेल कर रातदिन ओबी भगाने वाले भगवान सिंह की मौके पर मौत होने के बाद भी...यह खबर भी दूसरी खबरों की तरह एक कान से जाकर दूसरे कान से बाहर निकल आती है। हैरानी की बात यह है कि भगवान सिंह की मौत को चैनल में दस सेकेंड के लिए भी स्क्राल तक में भी जगह नहीं मिल पाती। खबरों के खेल की यही सबसे बडी विडंबना है कि जब तक जिन्दा रहे...कोल्हू के बैल की तरह चलते रहे और जब मौत हो गई...तो उस पर रोने वाला एक कुत्ता भी नहीं...क्योंकि घर की मुरगी हमेशा दाल बराबर ही रह जाती है। मानवीय संवेदना के भौंडेपन की यह सबसे भद्दी मिसाल है।...वीरेंद्र मिश्र प्रसार भारती की हयां से बेहयाई तक के सफर का आइनादार रहे हैं। डीडी न्यूज की रामकहानी में उन्होंने मंडी हाउस की महाभारत के महारथियों के चेहरे से नकाब हटाने का प्रयास तो किया है, मगर बीच में जाकर उन्होंने दरवाजे का एक किवाड जैसे बंद कर दिया है। लिहाजा पाठक आधे-अधूरे वाक्यातों और दस्तावेजों से ही रूबरू हो पाता है। मगर जितना भी उन्होंने लिखा, वह इस बात का संकेत है कि समाज या देश का आइना दिखाने वालों के लिए उसी आइने में अपनी शक्ल खुद देखने का वक्त आ गया है। प्रसार भारती शायद अपनी पुरानी पहचान इस लिए कायम नहीं कर सकेगा क्योंकि-साहिल पर जो आब गजीदा थे सबके सबदरिया का रुख बदला तो तैराक हो गए ।...ट्रैक शॉट में संजय नंदन तथा सिंडीकेट में प्रभात शुंगलू ने उन्ही किरदारों और उनकी खास अदाओं का जिक्र किया है, जिनके बिना न्यूज रुम की रामायण अक्सर अधूरी लगती है। लल्लोचपो की लंका में सुरसा तथा लंकिनी जैसे किरदार रिपोर्टिंग व एंकरिंग की चकाचौध में कुछ समय के लिए भले ही रंभा और मोहिनी की तरह जी लें, मगर उसके बाद उनकी स्थिति किसी विधवा की मांग की तरह सीधी व सफेद हो जाती है, जिसका कोई वजूद नहीं बचा रह पाता है।...नीरेंद्र नागर, रवि पराशर, पम्मी बर्धवाल, रवींद्र त्रिपाठी, गोविंद पंत राजू तथा देवप्रकाश ने अपनी दुनिया से जुडी कुछ किरदारों की कारस्तानी को लफ्जों का लबादा ओढाकर उन्हें जीवंत करने की कोशिश की है। मगर सुधीर सुधाकर की विस्फोटक, पंकज श्रीवास्तव की दिव्या मेरी जान और इकबाल रिजवी के मैनेजर जावेद हसन में जिक्र किए गए किरदारों को खुली आंखों से देखा और समझा भी जा सकता है। ऐसे पात्र अक्सर चैनल के दफ्तर के किनारे पर चाय वाले की दुकान के सामने दोपहर से शाम तक, `आकांक्षा से मीमांसा` तक का फासला मिनटों में तय करते दिखाई दे जाते हैं।...पूरी पत्रिका पढ जाने के बाद दिल में खुशी नहीं होती, बल्कि उसका स्थान क्षोभ ले लेता है और इस पेशे के बारे में आत्म-विवेचना पर मजबूर हो जाता है। हादसा, हत्या, बलात्कार, विभीषका जैसी खबरों पर अट्टाहास कर खेलने वाले समाज के इन ठेकेदारों की विकृत सोच तथा हमलावर की मानसिकता पर सवालिया निशान लगना अभी से शुरु हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब माइक्रोफोन और कैमरा लिए समाचार के सिपहसालारों की हर गली-नुक्कड पर पिटाई होने लगे क्योंकि उनके लिए यह जानना महत्वपूर्ण नहीं होगा कि एक जवान लडकी के साथ सामूहिक बलात्कार किए जाने के बाद उसके बाप की मानसिक स्थिति क्या होगी, बल्कि वह यह जानना और रिकार्ड करना चाहेंगे कि उसके बाप की `बॉडी लैग्वेंज` क्या है।...वाह रे खबरिया चैनलों की न्यूज रूम की महाभारत,...वाह रे सामाजिक संवेदना और मानव मूल्यों के परिसीमनकर्ताओं की फौज...एक तो चोरी, उस पर से सीनाजोरी...न्यूज चैनलों की महाभारत के महापात्रों की दलील निहायत बेहूदी और बचकानी है कि हम वही दिखाते है जो जनता देखना चाहती है... अगर ऐसा होता तो फिल्म तथा समाचार में कोई फर्क ही नहीं रह जाता और लोग नौंटकियों को ही जिंदगी की नंगी सच्चाई समझकर संतोष कर लेते।सच्चाई यह है कि टीआरपी का हौआ खडा करने वाले और `जनता जो चाहे उसे दिखाने वाले` न्यूज चैनल के अधिकारियों की सकारात्मक सोच लगभग मरती जा रही है। वह अपना दायित्व ही नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन भी खोते जा रहे हैं। तभी तो प्राइम टाइम में `सांप से शादी, एक और झांसी की रानी तथा काल कपाल महाकाल जैसी उलजलूल क्रार्यक्रमों को क्विंटल भर नमक-मिर्च के साथ दिखाया जा रहा है। न्यूज रुम की महाभारत के यह पात्र शायद इस बात का अहसास नहीं कर पा रहे कि जनता के साथ वह कितना बडा विश्वासघात कर रहे हैं। अगर यह तर्क है कि जनता वही देखना चाहती है जो हम दिखाना चाहते हैं तो फिर जेसिका, प्रियदर्शिनी मट्टू, मधुमिता शुक्ला, जाहिरा शेख सहित कई अन्य विषयों पर टीआरपी आसमान क्यों छूने लगता है? मध्यमवर्गीय परिवार बिन ड्राइवर की गाडी जैसे कार्यक्रम देखने के लिए मजबूर इसलिए होता है क्योंकि उसके समक्ष विकल्प ही नहीं होते। अब देखना यह है कि कैस लागू होने के बाद चैनल प्रमुख और संपादकों की फौज ढोल पीटना बंद करेगा या ढोल की तरह खुद पिटेगा? वातानुकूलित कमरों में बैठे हुए यह सरस्वतीपुत्र किस आधार कह सकते हैं कि आज की जनता जागरुक नहीं है और सच नहीं देखना चाहती। अगर ऐसा होता तो बीबीसी देखना कबका बंद कर दिए होते या लोग हिन्दू अखबार का प्रयोग चूल्हा जलाने के लिए करते। सच्चाई यह है कि मौलिकता और खबरों की संजीदगी की दुनिया में यह दो उदाहरण आज भी ध्रुवतारा के समान हैं। गुजरात दंगों को देखने के बाद भी नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में नहीं होती। संजय जोशी की सीडी ने उनका राजनीतिक भविष्य समाप्त कर दिया होता, जो नहीं हुआ। इस कडी में निठारी कांड का सच सबसे ज्वलंत उदाहरण है।टेलीविजन न्यूज के ठेकेदार और सरमाएदार शायद खून, हत्या, बलात्कार दिखाकर अपनी पीठ जरुर थपथपाते हैं, मगर वह यह नहीं जानते कि इस खेल का शिकार उनकी अपनी औलाद भी हो सकती है। क्या पता कल वह दिन भी आ सकता है, जब किसी टेलीविजन न्यूज संपादक या रिपोर्टर का बच्चा अपने स्कूल बस्ते में कलम-किताब की बजाए चाकू-छूरी ले जाता हुआ दिखाई दे और उन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्ति करता पाया जाए जो उसने अपने बाप के टेलीविजन चैनल में देखा और सीखा था। शायद यही वजह है कि आज भी छोटे कस्बों में रहने वाले दर्शक डीडी न्यूज पर `जायका, मेरे देश की धरती और अहसास` जैसे कार्यक्रम देखना पसंद करते हैं। इन कार्यक्रमों का प्रोडक्शन स्तर भले ही कितना खराब क्यों न हो, मगर कार्यक्रम पेश करने वाले की नीयत पर तो शक नहीं किया जा सकता। एक और बात...वह यह है कि टीआरपी का खेल खेलने वाले वह कौन से बुद्विमान प्राणी हैं, जिनको यह भ्रम होने लगा कि भारत -इंडिया नहीं- की 107 करोड जनता की पसंद-नापसंद चंद हजार डिब्बों -दर्शक कोष्ठ- में कैद है? सच्चाई तो यह है कि टीआरपी का खेल चंद नगरों में साप्ताहिक सट्टे की तरह खेला जाता है और कई मीडिया समीक्षक `कुं के मेढक` की तरह उसे ही `शाश्वत सत्य` मान लेते हैं। इस तरह के भ्रामक और नीम-हकीम खतरे जान वाली सोच से लवरेज बुद्वि के महारथियों के साथ दर्शक क्या सलूक करेंगे, यह तो आने वाला कल ही बताएगा, फिलहाल इतना तो सच है कि इस पीढी की आबादी का एक बडा हिस्सा खबरों के पीछे खबरों का खेल समझने लगा है। इसीलिए कई ऐसे चैनलों की गिनती आदर से नहीं, बल्कि मजाक के तौर पर की जाती है। विडंबना यह है कि आज पत्रकार उसी को माना जाता है जो लिखता है या फिर दिखता है। लिखने वालों की फौज में अभी भी कुछ ऐसे लोग है, जिनकी लेखनी सामयिक विषयों पर द्रवित और उद्वेलित करती है। मगर खबरिया न्यूज चैनलों में अक्सर दिल व दिमाग के बीच पैदल चलने वालों का हुजूम दिखाई देता है। किसी बडे विषय को सबसे कम शब्दों में समझाना बहुत बड़ी कला है, लेकिन न्यूज रुम के महारथी अक्सर देश-विदेश की सबसे बडी और संजीदा खबरों के साथ कुछ ही सेकेंड में ऐसा सलूक करते हैं, जिसे देख-सुनकर लोगों की रूह फना हो जाए। रोना यह है कि किसी भी विषय के साथ न्याय करने के बदले यह सरस्वतीपुत्र उसकी ऐसी-तैसी करना अपना जन्मसिद्व अधिकार समझते हैं। नुक्ताचीनों के इस फौज को इस बात का अहसास नहीं कि सिर्फ नुक्ता के उपर-नीचे होने से ही खुदा, जुदा हो जाता है और अमानत `ख्यानत` बन जाती है। पूरे 256 पेज के भारी-भरकम विशेषांक का लब्बोलुआब यह है कि हंस पत्रिका के माध्यम से टेलीविजन की तिलस्मी दुनिया के नामचीन से लेकर नुक्ताचीनी पत्रकारों की टोली ने न्यूजरूम के चंडूखाने में पक रही खिचडी का ऐसा लोमहर्षक वर्णन किया है, मानो मई महीने की दोपहर में चिलचिलाती धूप में मल्लिका शेहरावत को किसी चौराहे पर खडा कर दिया हो...`न्यूजरूम की मंडी` में नंगी हकीकत दिखाने की होड में जैसे कई लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार खुद नंगे दिखाई दे रहे हों...ऐसे में जनता-...उनके दर्शक और पाठक उनपे ताने या सीटी नहीं मारेंगे?...उनकी च्यूटीं नहीं काटेंगे?...तो क्या उनकी पूजाकर `आशीर्वाद` मांगेंगे?...अफसोस तो इस बात का है कि-क्या नहीं होता इस तरक्की के जमाने में अफसोस मगर आदमी, इंसान नहीं होता। आखिर में...जब खबर खेल बनना शुरू हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि प्रजातंत्र की चूलें हिलने में अब ज्यादा देर नहीं।यह सही है कि मुझे हमेशा अंग्रेजी पत्रकार के रुप में ही जाना गया और दिल्ली में पत्रकारों के गोल व गिरोहों से भी मेरा कोई वास्ता नहीं रहा, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं अपनी घर की भाषा में अपनी बात न कर पाउं। इसलिए हिन्दी में लिखने की यह मेरी पहली कोशिश है।

प्रस्तुति- ममता शरण 

अजय नाथ झा 1980 के दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं. इन्होने हिंदुस्तान टाइम्स के सहायक संपादक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। उसके बाद आज तक, बीबीसी, दूरदर्शन और एनडीटीवी में भी काम किया. फिलहाल लोकसभा टीवी में बतौर कंसल्टेंट कार्यरत हैं
osted by Anami Sharan Babal at 1:02 AM 0 comments [Image] [Image]
Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Google Buzz

jp/ भी जयप्रकाश नारायण का गांव


FRIDAY, JANUARY 15, 2010

जेपी का गांव


जब भी जयप्रकाश नारायण के बारे में पढ़ता था, मन में यह बात उठती थी कि एक बार उनके गांव जाकर देखना चाहिए। बचपन से ही यह सुनता आया था कि मेरे अपने गांव से जयप्रकाश नारायण का गांव बहुत दूर नहीं है। पिछले साल 28 अक्टूबर को जेपी के गांव जाने का सपना साकार हुआ। यात्रा में दो भतीजियां, जया और विजया, भी साथ थीं, दोनों ही गांव में खुले कान्वेंट स्कूल में पढ़ाती हैं। उनमें जेपी के गांव जाने का उत्साह इतना था कि दोनों ने स्कूल से एक दिन का अवकाश ले लिया। बहरहाल, अपने गांव शीतलपुर बाजार से मांझी तक सड़क ऐसी थी कि नीतीश कुमार पर बहुत गुस्सा आ रहा था। नीतीश ने उत्तरी बिहार पर बहुत कम ध्यान दिया है। स्थानीय नेता तो बस चुनाव जीतने और हारने के लिए ही आते हैं। कई नेता तो यह मानकर लूट मचाते हैं कि अगली बार जनता मौका नहीं देगी। कहीं सड़क पर खड्ढे हैं, तो कहीं खड्ढे में सड़क। ऐसी सड़कों पर पैदल चलना भी चुनौतीपूर्ण है। सात किलोमीटर दूर मांझी पहुंचने में लगभग पैंतालीस मिनट लग गए। फिर सरयू पर बना नया पुल पार किया, यह पुल भी लगभग बीस साल में तैयार हुआ है। खराब सड़कों की वजह से पुल से वाहनों की आवाजाही अभी कम ही है। खैर, आगे भी सड़क कहने को राजमार्ग है, हालत खस्ता है।
जेपी के गांव सिताब दीयरा के लिए छपरा-बलिया सड़क मार्ग से बाईं ओर मुड़ना होता है। दीयर का इलाका भी मैंने पहली बार देखा। दूर-दूर तक सपाट खेत, ऊंची सड़क से कहीं कहीं धूल उड़ाती गुजरती कार। सिताब दीयरा बहुत बड़ा गांव है, शायद 27 टोलों का। सड़क की बाईं ओर समानांतर लगभग पांच सौ मीटर दूर गांव शुरू हो चुका है, अपेक्षाकृत अच्छी, लेकिन सूनी सड़क पर पूछते-पूछते हम आगे बढ़ रहे हैं। जेपी ने चंबल में डकैतों से समर्पण करवाया, लेकिन उनका खुद का इलाका हमेशा से चोरों-लुटेरों से परेशान रहा है। जिस सड़क से हम गुजर रहे हैं, वह सुरक्षित नहीं है। बाईं ओर कई टोलों को पार करते हुए दाईं ओर एक टोला नजर आता है, पूछने पर पता चलता है, हां, इधर ही जयप्रकाश नारायण का घर है। उनके टोले में प्रवेश करते हुए लगता है कि किसी पॉश कॉलोनी में आ गए हैं। कई शानदार भवन, बागीचे, द्वार, अच्छी सड़कें। कोई भीड़भाड़ नहीं है। टोले के ज्यादातर लोग शायद बाहर ही रहते हैं। बाहर से भी यहां देखने के लिए कम ही लोग आते हैं। इस टोले का नाम पहले बाबुरवानी था, यहां बबूल के ढेरों पेड़ थे। जेपी के जन्म से काफी पहले जब सिताब दीयरा में प्लेग फैला, तो बचने के लिए जेपी के पिता बाबुरवानी में घर बनाकर रहने आ गए।
दीयर इलाका वह होता है, जो नदियों द्वारा छोड़ी गई जमीन से बनता है। सिताब दियरा गांव गंगा और सरयू के बीच पड़ता है। नदियां मार्ग बदलती रहती हैं। कभी यह गांव बिहार में था, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में है, हालांकि बताया जाता है, राजस्व की वसूली बिहार सरकार ही करती है। वैसे भी ऐसी जमीनें हमेशा से विवादित रही हैं। जेपी के दादा दारोगा थे और पिता नहर विभाग में अधिकारी, अतः जेपी के परिवार के पास खूब जमीन थी। आजादी के बाद भी काफी जमीन बच गई। चूंकि दीयर इलाके में हर साल बाढ़ आती है, इसलिए मजबूत घर बनाना मुश्किल काम है, अतः जेपी के घर की छत खपरैल वाली ही थी। आज भी उनका घर बहुत अच्छी स्थिति में रखा गया है। देख-रेख बहुत अच्छी तरह से होती है। जेपी के गांव जाने से दो दिन पहले मैं डॉ राजेन्द्र प्रसाद के गांव भी गया था। जेपी का गांव मेरे गांव से 34 किलोमीटर दूर, तो राजेन्द्र बाबू का गांव 52 किलोमीटर दूर है। राजेन्द्र जी के गांव में उनकी उपेक्षा हुई है, जबकि सिताब दीयरा में जेपी सम्मानजनक स्थिति में नजर आते हैं।
यहां यह उल्लेख जरूरी है कि राजेन्द्र प्रसाद और जेपी के बीच रिश्तेदारी भी थी। राजेन्द्र बाबू के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद और जेपी साढ़ू भाई थे।
जेपी का घर, दालान, उनका अपना कमरा, उनकी वह चारपाई जो शादी के समय उन्हंे मिली थी, उनकी चप्पलें, कुछ कपड़े, वह ड्रेसिंग टेबल जहां वे दाढ़ी बनाया करते थे, सबकुछ ठीक से रखा गया है, जिन्हें देखा और कुछ महसूस किया जा सकता है। उनके घर की बाईं ओर शानदार स्मारक है। जहां उनसे जुड़े पत्र, फोटोग्राफ इत्यादि संजोए गए हैं। पत्रों में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रपति रहते हुए भोजपुरी में लिखा गया पत्र भी शामिल है। इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू इत्यादि अनेक नेताओं के पत्र व चित्र दर्शनीय हैं। दरअसल, बलिया में सांसद रहते चंद्रशेखर ने जेपी के प्रति अपनी भक्ति को अच्छी तरह से साकार किया है। चंद्रशेखर की वजह से ही बाबुरवानी का नाम जयप्रकाश नगर रखा गया है। उन्हीं की वजह से बाहर से आने वाले शोधार्थियों के पढ़ने लिखने के लिए पुस्तकालय है, तीन से ज्यादा विश्राम गृह, स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए कुटीर उद्योग हैं। काश, राजेन्द्र प्रसाद को भी कोई चंद्रशेखर जैसा समर्पित प्रेमी नेता मिला होता। चंद्रशेखर वाकई धन्यवाद के पात्र हैं। उजाड़ दीयर इलाके में उन्होंने जयप्रकाश नगर बनाकर यह साबित कर दिया है कि अपने देश में नेता अगर चाहें, तो क्या नहीं हो सकते।
लेकिन न जेपी रहे और न चंद्रशेखर। तो क्या जयप्रकाश नारायण नगर का वैभव बरकरार रह पाएगा? मोटे तोर पर जयप्रकाश नगर का विकास चंद्रशेखर की ही कृपा से हुआ, सांसद निधि से भी कुछ पैसा मिला करता था। स्मारक इत्यादि के लिए सरकार ने कभी कोई बजट नहीं दिया। जो नेता या पदाधिकारी आते थे, अपने विवेक से कुछ दान की घोषणा कर जाते थे। चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर, जो अब बलिया से सांसद हैं, स्मारक का ध्यान रख रहे हैं, लेकिन जयप्रकाश नगर में कुछ न कुछ बदलेगा, लेकिन जो भी बदलाव हो, उससे वैभव में वृद्धि ही हो, ताकि यहां आने वालों को सुखद अहसास हो।
यह पावन भूमि जेपी जैसे महान नेता की जन्मभूमि है। एक ऐसे नेता की भूमि है, जो महात्मा गांधी को चुनौती देने की हिम्मत रखता था। जिसमें पंडित नेहरू भी प्रधानमंत्री होने की सारी योग्यताएं देखते थे। जिन्होंने सदैव दलविहीन लोकतंत्र की पैरोकारी की। वे चाहते थे कि प्रतिनिधि सीधे चुनाव जीत कर आएं, राजनीतिक दलों के चुनाव लड़ने को वे गलत मानते थे। वे किसी भी क्षण सत्ता के चरम पर पहुंच सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता के बजाय जन-संघर्ष का रास्ता चुना। सरकारी लोग उनके नाम से कांपते थे। उनका प्रभाव सत्ता में बैठे नेताओं से भी ज्यादा था। उन्होंने संपूर्ण क्रांति से देश की भ्रष्ट सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को संभव बनाया। उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। जीवन में सदैव नैतिक ऊंचाइयों को छूते रहे। उनके योगदानों की बड़ी लंबी सूची है। उनको चाहने वाले दुनिया के हर कोने में थे। अमेरिकी उन्हें पसंद करते थे, क्योंकि जेपी को बनाने में तब के जुझारू व मेहनतकश अमरीका का भी योगदान था, जेपी ने 1922 से 1929 तक अमरीका में रहकर मजदूरी करते हुए अध्ययन किया था। जब उनका निधन हुआ, तब सात दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा हुई थी। पटना में उनके अंतिम दर्शन के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चलाई गई थीं। निस्संदेह, उनकी यादों व स्मारकों की अहमियत हमेशा बनी रहेगी।
वाकई याद रहेगा जेपी का गाँव, मौका मिला तो फिर आयेंगे।

FRIDAY, JANUARY 1, 2010

जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी : पूज्य से भेंट



नव वर्ष में आकर जब पिछले को देखता हूं, तो सोचता हूं कि आखिर पिछले का क्या अगले में याद रह जाएगा या पिछले का क्या विशेष अगले में साथ रखने योग्य है। अगर किसी एक इंसान की चर्चा करूं, जिससे मैं लगातार मिलना चाहूंगा, तो वो हैं जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी। हत् भाग्य पत्रकारिता ने मानसिकता ऐसी बना रखी है कि मन में प्रश्न आवश्यकता से अधिक उपजते हैं। प्रश्नों ने जितना भला नहीं किया है, उससे ज्यादा कबाड़ा किया है। हालांकि खोज तो सदा रही है कि कोई मेरे कबाड़ व पूरी मानसिक अव्यवस्था को व्यवस्थित कर दे। शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी का धन्यवाद देता हूं और अफसोस भी जताता हूं कि उनके कई आग्रहों पर मैं ध्यान नहीं दे पाया, वरना अदभुतहस्ती रामनरेशाचार्य जी से मेरी भेंट बहुत पहले ही हो गई होती। इसी को सौभाग्य कहते हैं, वह तभी संभव है, जब भाग्य प्रबल हो, वरना दुर्भाग्य तो मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। ग्रेगोरियन कलेंडर के वर्ष 2009 को मैं इसलिए याद रखना चाहूंगा, क्योंकि इस वर्ष मेरी भेंट पूज्य रामनरेशाचार्य जी से हुई। 30 दिसंबर की वह दोपहर सदा मेरी स्मृति में अंकित रहेगी। गेरुआ चादर लपेटे लंबी कद काठी के लगभग छह फुट के पूज्य श्री की छवि सदैव स्मरणीय है। पांव में गेरुआ मोजे, सिर और कान को ढकते हुए बंधा गेरुआ स्कार्फ यों बंधा था, मानो किसी ईश्वर ने अपने इन योग्य सुपुत्र को अपने हाथों से बाँधा हो। चेहरे पर सहजता-सरलता ऐसी मानो कुछ भी बनावटी न हो, कुछ भी आडंबरपूर्ण न हो, कुछ भी छिपाना न हो, कुछ भी पराया न हो, सबकुछ अपना हो, सब सगे हों। मेरे साथ समस्या है, मेरी दृष्टि उस चेहरे पर नहीं टिक पाती, जो चेहरा मुझसे बात करता है, लेकिन पहली बार बिना बगलें झांके मैंने अनायास पूज्य श्री को देखा। मेरे बारे में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने उन्हें पहले ही बता रखा था। वे एक तरह से मेरे जैसे तुच्छ ब्यक्ति से मिलना चाहते थे । आदर -सत्कार के बाद पहले उन्होंने संपादन की चर्चा की। यहां यह बताना उचित होगा कि पूज्य श्री के श्रीमठ (जो वाराणसी में पंचगंगा घाट पर स्थित है) से स्वामी रामानन्द जी पर एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है, जिसके संपादन में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने मेरा सहयोग लिया है, जिसके लिए मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। जिस पावन श्रीमठ की स्थापना महान श्री स्वामी रामानन्द जी ने की थी, जिससे कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा, सैन, तुलसीदास जी जैसी अनगिन महान विभूतियां निकलीं। जिन्होंने न केवल राम के नाम को जन-जन तक पहुंचाया, बल्कि समाज में धर्म भेद और जाति भेद को भी गौण बनाया। ऐसी महान विभूतियों को समाहित करने का प्रयास करती पुस्तक के संपादन में कुछ समय देकर सहयोगी बनना निस्संदेह सौभाग्य की बात है।यह शायद मेरे भाग्य में लिखा था कि पहले मैं पूज्य रामानन्द जी को जानूं, उनके योगदान व शिष्यों को जानूं, उनकी छटांक भर सेवा करूं, उसके बाद ही मुझे पूज्य रामनरेशाचार्य जी के दर्शन सुलभ होंगे। देश में स्वतंत्र मन वाले जो कुछ सम्मानित धर्मगुरु हैं, उनमें रामनरेशाचार्य जी का नाम पूरी ईमानदारी के साथ समाहित है। राष्ट्र की मुख्यधारा राजनीति भी उनका महत्व जानती है। वे एक ऐसे गुरु हैं, जो किसी दलित को पुजारी बनाते हिचकते नहीं हैं, जो किसी मुस्लिम से मंदिर की नींव डलवाने का भी सु-साहस रखते हैं। तो संपादन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, कौन-सा लेख कहां जाना चाहिए, किसका लेख पहले जाना चाहिए, यह तय करना महत्वपूर्ण कार्य है। अच्छे संपादन से अखबार चमक जाते हैं। स्वामी रामानन्द जी पर मेरे स्वयं के लेख ,थोथा दिया उड़ाय, को सराहते हुए उन्होंने कहा कि पुस्तकों से उद्धरण देकर तो बहुत लोग लिख लेते हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है। साल दर साल यही सब चलता है। इतिहास पुरुषों पर मौलिक लेखन कम होता है।
बिहार चर्चा
पूज्य श्री के साथ हुई बिहार चर्चा विशेष रही। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि मेरी पैतृक भूमि बिहार है, तब उन्होंने उत्तर बिहार अर्थात पुराने छपरा जिला की विभूतियों को गिनाना शुरू किया। नामी संस्कृत विद्वानों के साथ-साथ उन्होंने कुंवर सिंह, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, भिखारी ठाकुर इत्यादि को याद किया। मैंने उन्हें बताया कि मेरे गांव से राजेन्द्र जी का घर 52 किलोमीटर दूर और जयप्रकाश नारायण का घर 34 किलोमीटर दूर स्थित है। मैंने यह भी बताया कि ठग नटवरलाल भी वहीं के थे, राजेन्द्र प्रसाद के गांव के बगल के, तो उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव भी वहीं के हैं। लेकिन उनका जोर उस भूमि की प्रशंसा पर था। उन्होंने बताया, सिकंदर ने पंजाब जीत लिया, लेकिन उसकी हिम्मत मगध या बिहार की ओर बढ़ने की नहीं हुई, क्योंकि वहां नंद वंश का शासन था। ऐसी धारणा थी कि अगर सिकंदर की सेना बिहार पर आक्रमण करती, तो कोई जीवित नहीं लौटता। इस बीच उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि हम भी वहीं से आते हैं। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि पूज्य श्री का गांव भोजपुर के जगदीशपुर के परसिया में पड़ता है। ईश्वर ने चाहा, तो कभी उनके गांव की यात्रा करूंगा।
मेरे पैर सो गए
उनके चरणों में बैठे-बैठे मेरे पैर सो गए, तो अनायास मन में भाव आया कि पैर ये संकेत दे रहे हैं कि अब यहां थमा जा सकता है, आगे चलने या आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यहां निश्चिंत हुआ जा सकता है, खुद को पूज्य श्री को समर्पित करते हुए। उनके साथ केवल धर्म नहीं है, उनके साथ एक राष्ट्रीय आंदोलन है, जो वास्तव में राष्ट्र को सशक्त करने की क्षमता रखता है। उनके साथ केवल कर्मकांडी नहीं, कर्मयोगी हुआ जा सकता है। ऐसा कर्मयोगी बना जा सकता है, जो राष्ट्र के सच्चे मर्म को समझता हो। उनकी कृपा की सदैव अपेक्षा रहेगी। अत्यंत संकोच के साथ बताना चाहूंगा कि महात्मा स्वामी रामानंद जी को पढ़ते-जानते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए थे और पूज्य श्री रामनरेशाचार्य से भेंट के उपरांत भी मेरे मन में आंसुओं का वैसा ही ज्वार उठा, जैसा ज्वार किसी खोए हुए अभिभावक को पाकर किसी अभागे पुत्र के मन में उठता होगा। लगा, मैं बहुत दिनों बाद फिर बच्चा हो गया हूं, उंगली पकड़कर चलना सीखने को तैयार बच्चा।
वही राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में व्यापा, वही राम ये जगत पसारा, वही राम है सबसे न्यारा।
निष्कर्ष
अब अपनी विवेचना करूं, तो पाता हूं कि मैं विचार भूमि पर प्रारंभ से ही रामानन्दी रहा था, अभी भी हूं और आगे भी रहूंगा।


पूज्य हुज़ूर का निर्देश

  कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...