Sunday, January 2, 2011

डॉ. लोहिया की धार्मिक दृष्टि


डॉ. लोहिया की धार्मिक दृष्टि




- डॉ. मनोज चतुर्वेदी
डॉ. राम मनोहर लोहिया भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे। उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वे तथा उनकी धार्मिक दृष्टि थी। यद्यपि वे स्वयं को नास्तिक कहा करते थे। पर उनकी नास्तिकता यदि देश, समाज, राष्ट्र व मानवजाति के विकास में सहयोगी दिखाई पड़ता है, तो वो मुझे भी स्वीकार्य है।
डॉ. साहब धर्म के संबंध में कहते हैं कि यह हरेक व्यक्ति का एक कोना होता है। फारस व अन्यों देशों में यह गुलाबी रूप में दिखाई देता है। अपने यहां सत्य को देखने की अलग-अलग दृष्टियां है। कोई अद्वैत, कोई शुद्धाद्वैत तो कोई विशिष्टाद्वैत। यह धर्म का अलग-अलग कोना है। तुलनात्मक धर्म-दर्शनों का अध्ययन करने पर ऐसा दिखाई पड़ता है कि धर्म के दो पक्ष है एक, कर्मकांड तथा दूसरा पक्ष ज्ञानकांड का। प्राय: प्रत्येक धर्मों में कर्मकांडीय पक्षों का बाहुल्य है। चंदन, टीका, रोली, अक्षत, षोडस संस्कार इत्यादि ये सभी कर्मकांडीय पक्ष हैं। दूसरा पक्ष, ज्ञानकांड डॉ. लोहिया ज्ञानकांड के इस पक्ष पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि सबमें एकात्मभाव दृष्टि का विकास तथा दरिद्रनारायण को देखना ही ज्ञान कांड या स्थितिप्रज्ञ दर्शन है। मै इस भाव से भारत को मजबुत रूप में देखना चाहता हूँ। मेरे राज्य में स्त्री, दलित, पिछड़ी जाति, मुसलमान, हरिजन एक समान होंगे वे गांधी-दर्शन की तरह अपने अंदर स्वाभिमान का प्रदर्शन करेंगे।
डॉ. साहब बार-बार कहते हैं कि मै तो धार्मिक नहीं हूं पर धर्मस्थलों की सफाई जरूरी है। यहां हिंदू-धर्मस्थलों के सफाई पर ही उनका बल नहीं है बल्कि अन्य धर्मस्थलों यथा-अजमेर शरीफ के सफाई पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। ये यह कहते है कि इस पर तथाकथित धार्मिक कहे जाने वाले जनों ने आवाज नहीं उठायी।
कैलाश मानसरोवर के संबंध में डॉ. साहब का कहना है कि मेरी धार्मिक दृष्टि में कैलाश मानसरोवर का विशिष्ट स्थान है। यह भारत, भारतीय आस्था के साथ जुड़ा हुआ मुद्दा है। मानसरोवर तथा मानेसर गांव का संबंध भारत से जुड़ा है। जब चीन ने इस पर कब्जा किया तो सर्व-प्रथम मैने ही आवाज उठायी। लेकिन किसी भी धार्मिक व्यक्ति ने आवाज नहीं उठायी।
डॉ. साहब गंगा, सिंधु, सरस्वती व कावेरी जैसी नदियों के सफाई पर जोर देते हैं। यह इसलिए कि हमारे सांस्कृतिक विचारधारा के मु’य स्त्रोत नदी घाटी सभ्यता है। इन्हीं नदियों के आसपास सभ्यताओं का विकास हुआ है। वहां मल, मूत्र, पखाना बहाना उन तीर्थ स्थलों की पवित्रता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करते हैं। नदियों की सफाई तथा गंगा एक्शन प्लान में घोटाले पर आज से 10 वर्षों पूर्व बी. सी. सी. ने धारावाहिक प्रसारित किया था। आज यदि डॉ. साहब होते तो इस पर भी आंदोलन खड़ा करते। क्योंकि यह भारत, भारतीयता से जुड़ा हुआ मुद्दा है।
डॉ. साहब स्वयं को नास्तिक मानते हैं। भारत में जैन तथा बौद्ध धर्म भी पूर्णत: व अंशत: नास्तिक दर्शन है। जब बुद्ध से उनके शिष्य आनंद ने आत्मा व परमात्मा के संबंध में पूछा तो वे चुप हो गए। रामचंद्र राव गोरा भी नास्तिक थे। पर सनातन-मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था के कारण वे नास्तिक होकर भी आस्तिक बन गए। डॉ. लोहिया यदि नास्तिक हैं तो उनकी नास्तिकता को मैं भी स्वीकार करूंगा। पाखंडी आस्तिक के तुलना में ‘नास्तिकों वेद निंदक:’ होना ठीक होगा।
‘भारत में जातिवाद’ और ‘जातिवाद का जहर’ नामक पुस्तक में जातीय संकीर्णता को देखा जा सकता है। भारत में जातीयता एक असामान्य बात है। डॉ. साहब ने जाति तोड़ने का प्रयास किया। आज के लोहियावादी/समाजवादी ‘जाति तोड़ो नहीं जाति जोड़ो’ का काम कर रहे हैं। उनके समाजवाद में परिवारवाद तथा जातिय वर्चस्व है। आज यदि लोहिया होते तो एक बार फिर आंदोलन करते या अपने लोहिया के लोगों को देखकर आत्महत्या कर लेते। हर जगह तथा कथित समाजवादी वाले ‘लोहिया के लोग’ लिखकर लोहिया के विचारों की बार-बार हत्या कर रहे हैं। यह लोहिया ही नहीं संपूर्ण भारतीयों के लिए छलावा है।
लोहिया जनमशताब्‍दी वर्ष में कुजात गांधीवादी तथा कुजात लोहियावादी कहां पर है। यह प्रश्न सामाजवादी विचारधारा, लोहियावादी विचारधारा तथा संपूर्ण बुध्दिजीवियों के सामने है। कृपया बताए? आज यदि लोहिया होते तो विशेष अवसर के सिध्दांत पर पुनर्विचार करते। वे कहते 1) दलित 2)हरिजन 3) नारी 4)पिछड़ा 5) अल्पसंख्‍यकों को आरक्षण देना भारत के एकात्म, समरस स्वरूप पर आघात है। मैं जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल, लिंग के आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण का विरोध करता हूं। आज मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आरक्षण का आधार आर्थिक न होकर व्यक्ति की योग्यता एवं क्षमता के आधार पर होना चाहिए। यह राष्ट्रीय एकता के लिए परमावश्यक है।
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