Thursday, January 13, 2011


मीडिया को अपने गिरेबान में झांकना होगा

पत्रकार (फ़ाइल फोटो)
राडिया टेप को लीक करने वाले ने चाहे जिस नीयत से यह खुलासा किया हो, इस रहस्योद्घाटन से लोकतंत्र का भला होगा.
शुरुआत में ज़ाहिर है, सबका ध्यान बड़े नामों और उनके छोटे कामों पर जाएगा, लेकिन इस बहाने कुछ बुनियादी और संस्थागत सवाल उठाने की गुंजाईश बनी है.
बाकी सब पर उंगली उठाने वाला मीडिया खुद संदेह के घेरे में आया है.
असली ख़तरा यह नहीं है कि इससे पत्रकारिता बदनाम हो जाएगी. इस देश में ईमानदार पत्रकारों की कमी नहीं है.
देश के हर शहर के हर प्रेस-क्लब में हर कोई जानता है कि कौन कितने पानी में है, कौन किसकी जेब में है और कौन किसी भी लालच और धमकी से ऊपर है.
पत्रकारिता को जांच के दायरे के भीतर लाने से एक नंबर और दो नंबर की पत्रकारिता में अंतर साफ़ होगा, ईमानदार मीडियाकर्मियों का सिर ऊंचा ही होगा.
राडिया टेप से असली ख़तरा यह है कि या तो हम 'हर कोई चोर है' वाली मानसिकता में आ जाएँगे, या फिर कुछ दिन चस्का लेकर 'खेल ख़त्म चिंता हजम' वाली राष्ट्रीय मुद्रा अपना लेंगे.....इसे सिर्फ़ कुछ पत्रकारों की नैतिकता के सवाल से आगे, पूरे मीडियातंत्र के ढांचे से जोड़ना होगा. इसका मतलब होगा मीडिया और पूँजी, मीडिया और राजनीति तथा मीडिया और समाज के रिश्तों की शिनाख़्त करना...
योगेंद्र यादव
अगर नेताओं और बाबुओं के भ्रष्टाचार को लपक कर परोसने वाला मीडिया ख़ुद अपने पर उठे सवालों पर कन्नी काटता नज़र आएगा तो उससे हर ईमानदार पत्रकार का कद छोटा होगा.
प्रेस परिषद्, एडिटर्स गिल्ड और ऐसी संस्थाओं की ज़िम्मेवारी बनती है कि राडिया टेप प्रकरण में जिन पत्रकारों का नाम आया है उनकी पारदर्शी जांच करवाएँ और इस विषय में एक आचार संहिता बनाएँ.

'हर कोई चोर है'

राडिया टेप से असली ख़तरा यह है कि या तो हम 'हर कोई चोर है' वाली मानसिकता में आ जाएँगे, या फिर कुछ दिन चस्का लेकर 'खेल ख़त्म चिंता हज़म' वाली राष्ट्रीय मुद्रा अपना लेंगे.
याद रहे कि अमर सिंह टेप वाले मामले में भी यही हुआ था. तमाम लोगों ने नेताओं और एक वरिष्ठ संपादक के अश्लील संवादों को मज़े लेकर सुना और फिर एक स्टे आर्डर के बहाने सब कुछ रफ़ा-दफ़ा कर दिया.
शर्मसार पत्रकारों की आंखें नीची हुईं लेकिन संपादक महोदय की कुर्सी बरक़रार रही. वे खींसे निपोरते दूसरों की आँखों में आँखें डाल सीधी बात करते रहे.
अगर इस बार भी हम उस कहानी का दोहराव नहीं चाहते तो इस अवसर पर पत्रकारिता और लोकतंत्र के रिश्तों के बारे में कुछ कड़वे सच का सामना करना होगा.
पत्रकार (फ़ाइल फ़ोटो)
राडिया टेप प्रकरण से पत्रकार बिरादरी पर ही सवाल उठे हैं.
इसे सिर्फ़ कुछ पत्रकारों की नैतिकता के सवाल से आगे, पूरे मीडियातंत्र के ढांचे से जोड़ना होगा.
इसका मतलब होगा मीडिया और पूँजी, मीडिया और राजनीति तथा मीडिया और समाज के रिश्तों की शिनाख़्त करना.

मीडिया और पूँजी

राडिया प्रकरण मीडिया और पूँजी के रिश्तों के एक छोटे से पहलू का पर्दाफ़ाश करता है. बड़े-बड़े संपादक उद्योगपतियों की हाज़िरी बजाते हैं, उनके दलालों के इशारे पर भी अपनी कलम नचाते हैं.
हक़ीकत यह है कि अंबानी बंधुओं की आपसी कलह से पहले इस साम्राज्य की करतूतों के बारे में लिखने की हिम्मत इने-गिने पत्रकारों को ही थी.
पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद इसके एक संस्थागत पहलू का ख़ुलासा हुआ. अनेक अख़बारों ने चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवारों के पक्ष में खबरें छापने के दाम वसूले.
कई आर्थिक अख़बारों ने कंपनियों के हक़ में ख़बरें छापने के बाक़ायदा लिखित क़रार कर रखे हैं.
मीडिया और पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशे लगनी जरूरी हैं.
योगेंद्र यादव
अधिकांश अख़बार और टीवी चैनल पूंजीपति या कंपनी की मिलकीयत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों के लिए करना चाहता है.
अनेक मीडिया के मालिक या तो रियल एस्टेट का धंधा चलाते हैं, या फिर रियल एस्टेट में अनाप शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनेल खोल लेते हैं.
जो अपने अख़बार या चैनल का प्रसार कर उससे पैसा कमाना चाहे उसे तो धर्मात्मा मानना चाहिए.
असली दिक़्कत यह है कि मीडिया का इस्तेमाल दलाली और ब्लैकमेल के लिए भी होता है.

परोक्ष और प्रत्यक्ष

पत्रकार (फ़ाइल फ़ोटो)
पत्रकारों पर बंदिशें लगाए जाने की बहस तेज़ हो गई है.
मीडिया और पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशे लगनी जरूरी हैं.
हर अख़बार या चैनल के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह अपने मालिक के हर अन्य व्यावसायिक हितों की घोषणा करे.
मालिक के स्वार्थ से जुड़ी हर ख़बर में इस संबंध का ज़िक्र करना ज़रूरी हो.
ख़बरों की ख़रीद फ़रोख्त पर पाबंदी लगे.
मीडिया और राजनीति का रिश्ता परोक्ष से प्रत्यक्ष तक पूरी इबारत से बंधा है.
देश के कई इलाक़ों में राजनेता या उनके परिवार मीडिया के मालिक हैं और उसका इस्तेमाल खुल्लमखुल्ला अपनी राजनीति के लिए करते हैं.
एक मायने में यह प्रत्यक्ष नियंत्रण कम ख़तरनाक़ है क्योंकि हर कोई इसे जानता है. इससे ज़्यादा ख़तरनाक़ है 'स्वतंत्र' मीडिया पर पिछले दरवाज़े से कब्ज़ा.
तमाम राज्य सरकारें अख़बारों पर न्यूज़प्रिंट, विज्ञापन और प्रलोभन के ज़रिए दबाव बनाती हैं.
मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की ज़रूरत है...हाल ही में मेरे संस्थान सीएसडीएस के एक शोध ने देश के शीर्ष हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की खबरों के विश्लेषण कर एक ख़ौफ़नाक तस्वीर पेश की. इस विश्लेषण के मुताबिक शीर्ष छह अख़बारों में कुल छपी खबरों में महज़ दो फ़ीसद गाँव-देहात के बारे में थीं
योगेंद्र यादव
हरियाणा में चौटाला सरकार जैसी सरकार के कार्यकाल के दौरान इन हथकंडों में दादागिरी भी जुड़ जाती है.
लेकिन नीतीश कुमार जैसे नफ़ीस और लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी मीडिया को "मैनेज" करने के हथकंडे अपनाते पाए जाते हैं.
कश्मीर और पूर्वोत्तर में सुरक्षाबल भी कई बार मीडिया पर बंदिश लगाते हैं.
मीडिया को इस दबाव से मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग को मीडिया और राजनीति के रिश्तों की शिनाख़्त करने का अधिकार मिलाना चाहिए.
सिर्फ़ चुनाव के वक्त या उससे कुछ पहले ही नहीं, चुनाव आयोग को मीडिया पर दबाव की हर शिकायत की जाँच करने और उस पर कार्रवाई का अधिकार मिलना चाहिए.

मीडिया और समाज

मीडिया और समाज के रिश्ते में दो पक्ष चिंताजनक हैं.
पहला तो यह कि हमारी मीडिया और हमारे मीडियाकर्मी महानगरों के उपभोक्तावादी वर्ग की चिंताओं से ग्रस्त हैं.
देश के आम नागरिक के दुख-सुख खबरों की दुनिया से कमोबेश गायब हैं.
हाल ही में मेरे संस्थान सीएसडीएस (विकासशील समाज अध्ययन पीठ) के एक शोध ने देश के शीर्ष हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की खबरों के विश्लेषण कर एक ख़ौफ़नाक तस्वीर पेश की.
इस विश्लेषण के मुताबिक शीर्ष छह अख़बारों में कुल छपी खबरों में महज 2 फ़ीसद गाँव-देहात के बारे में थीं.
उन दो फ़ीसद में भी अधिकांश हिंसा और आपदा से जुड़ी थीं, गाँव की महज़ एक चौथाई ख़बरों का संबंध खेती या गाँव के विकास से था.

'कोई दलित-आदिवासी पत्रकार नहीं'

दूसरा चिंताजनक पक्ष मीडिया कर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है.
कोई चार साल पहले अनिल चमड़िया, जीतेंद्र कुमार और मैंने मिलकर दिल्ली के 'राष्ट्रीय मीडिया' के शीर्ष पत्रकारों की सामाजिक पृष्टभूमि का खुलासा किया था.
चार साल पहले किए गए एक सर्वे में हमने पाया कि देश की ख़बरें तय करने वालों में 83 फ़ीसद पुरुष थे, और 86 फ़ीसद हिन्दू द्विज जातियों से थे. मुसलमान सिर्फ़ चार फ़ीसद, पिछड़ी जातियां भी सिर्फ़ चार फ़ीसद और दलित-आदिवासी शून्य थे...पिछले साल प्रमोद रंजन के बिहार के हिंदी मीडिया के शोध से पता चला कि 87 फ़ीसद पत्रकार सवर्ण हिंदू परिवार से थे
उस वक्त देश की ख़बरें तय करने वालों में 83 फ़ीसद पुरुष थे, और 86 फ़ीसद हिन्दू द्विज जातियों से.
मुसलमान सिर्फ़ चार फ़ीसद, पिछड़ी जातियां भी सिर्फ़ चार फ़ीसद और दलित-आदिवासी शून्य थे.
पिछले साल प्रमोद रंजन द्वारा बिहार के हिंदी मीडिया की शोध से पता लगा कि 87 फ़ीसद पत्रकार सवर्ण हिंदू परिवार से थे.
हर किसी का विचार अपनी जाति-समुदाय से बंधा नहीं होता, लेकिन अगर मीडिया समाज के चरित्र से इतना अलग हो तो इसका खबरों पर असर पड़ना अवश्यम्भावी है.
ज़ाहिर है, मीडिया और समाज के रिश्तों पर कोई क़ानून नहीं बन सकता. लेकिन हमें ऐसी संस्थाओं की ज़रूरत है जो इन रिश्तों की लगातार पड़ताल करे और मीडिया को आईना दिखा सके.
मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की ज़रूरत है.

बड़े सवाल

राडिया टेप की उलझी गांठे सुलझाने के लिए ज़रूरी है कि हम इन बड़े सवालों पर ध्यान देकर कुछ संस्थागत उपाय सोचें.
लोकतंत्र में सिर्फ़ नेता और बाबू ही नहीं, कोर्ट-कचहरी और मीडिया सहित हर किसी की जवाबदेह होना चाहिए.
पुनश्च: कहीं यह लेख पत्रकार बंधुओं को पर-उपदेश जैसा न लगे इसलिए यहाँ ज़िक्र कर दूँ कि मैं कई बार चुनावी सर्वे पर एक आचार संहिता की वकालत कर चुका हूँ.
चुनाव के दौरान एग्ज़िट पोल की भविष्यवाणियों पर पाबंदी का समर्थन कर चुका हूँ. तमाम सर्वेक्षणों के लिए अनिवार्य होना चाहिए कि वो अपने पैसे के स्रोत, सैंपलिंग तकनीक और सैंपल की सामाजिक पृष्ठभूमि का ख़ुलासा करें

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