Thursday, January 6, 2011

महंगाई डायन और नेताई नौटंकी


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रमेश भट्ट कहिन

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महंगाई डायन से जनता परेशान और सरकार हैरान है। जनता इसलिए की बजट गड़बड़ा गया है और सरकार इसलिए की राजनीति कहीं गड़बड़ा न जाए। महंगाई रोकने का सरकारी खेल भी एकदम निराला है। यह न जनता के समझ में आता है और न ही महंगाई डायन को डराता है। महंगाई बढ़ती है। प्रधानमंत्री चिन्ता प्रकट करते हैं। कृषि मंत्री जल्द ही दाम घटने की बात कहते हैं। इतना ही नहीं ज्यादा कुरेदने पर वह आगबबूला हो जाते हैं। अरे भाई। कोई ज्योतिषी थोड़ी न हैं, जो यह बता देंगे की दाम कब कम थमेंगे। विपक्ष सरकार को कोसता है। अर्थशास्त्री मांग और आपूर्ति के खेल में मामले को उलझाकर अपनी विद्ववता का परिचय देते हैं। सरकारी प्रवक्ता राज्यों को जमाखोरों पर नकेल कसने की नसीहत देते फिरते रहते हैं। और विपक्षी प्रवक्ता पानी पी पी कर सरकार को कोसते हैं। इन सबके के बीच इस नाटक में जनता और परेशान नजर आती है। पहले बढ़ते दामों से और बाद में नेताओं के इस नाटक से। वह ना थोक मूल्य सूचकांक को समझती है और न ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का मतलब जानती है। उसे तो यह भी नही पता कि बार बार ऐसा क्यों कहा जाता है कि पहले जुलाई फिर नवंबर और बाद में मार्च तक खाद्य आधारित महंगाई 5.5 तक आ जाएगी। दुर्भाग्य से उसे असली सवालों का जवाब कभी नही मिलता।
दरअसल सरकार के पास महंगाई रोकने के लिए व्यापक तंत्र है। साथ ही जमाखोरों को ठिकाने लगाने के लिए कानून भी। मगर महंगाई डायन है कि न तंत्र से डरती है न कानून से। वह तो बस सरकार की नीतिगत खमियों का फायदा उठाकर बिचौलियों और जमाखोरों पर धन बरसा कर जनता को रूलाती रहती है। जनता जिसे न तंत्र का पता न कानून का। मगर कहानी बिना इसके अधूरी सी लगती है।
पहला तंत्र यह है कि उपभोक्ता मामले मंत्रालय के तहत एक दाम नियंत्रक सेल है। यह देशभर में 17 आवश्यक वस्तुओं के थोक और खुदरा मूल्य पर रोजना और साप्ताहिक नजर रखता है। मोटे तौर पर इसका काम मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन साधना है। ताकि जनता को उचित दामों पर जरूरी साजो समान मिला जाए-
प्रश्न नं 1- क्या यह विभाग अपनी जिम्मेदारी को निभा पा रहा है। अगर नही तो बिना देरी किए इसमें बदलाव लाया जाए नहीं तो ताला डाल दिया जाए।
दूसरा वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के तहत भी एक दाम नियंत्रक सेल काम करता है। इसका भी कामों दामों को नियंत्रित करना है। मगर नतीजा सिफर।
प्रश्न नं 2- क्या यह विभाग मात्र आंकड़े एकत्रित करने का तंत्र है।
तीसरा मंत्रियों का समूह- सीधी भाषा में इसे ऐसे समझ सकते है कि दो मंत्रालय की जब किसी मुददे पर ठन जाती है तो मामला मंत्रियों के समूह को भेज दिया जाता है। बहरहाल महंगाई पर इसकी भी पैनी नजर होती है।
प्रश्न संख्या 3- इस समूह ने महंगाई रोकने के लिए कोई रामबाण तैयार किया।
चौथा सचिवों की समिति- इसकी अध्यक्षता कैबिनेट सचिव करते है। महंगाई बढ़ने के बाद यह प्रधानमंत्री के इशारे पर यह मैराथन बैठकें करता है। मानों की इनकी बैठकें महंगाई डायन की बढ़ते कदम थाम देगी।
प्रश्न संख्या 4- क्या इसके पास महंगाई रोकने के लिए कोई दीर्घकालिक योजना है।
पांचवां कैबीनेट कमिटि आन प्राइसेस- यह सबसे मजबूत समूह है। मतलब जब हालत काबू से बाहर हो जाए तो यह समूह हरकत में आता है। घंटों की माथापच्ची के बाद बैठक खत्म होती है। महंगाई कम करने के दर्जन भर सरकारी उपायों का ढोल पीटकर अपने कर्मों की इतिश्री कर ली जाती है। यह तो रहा सरकारी कारनामों का लेखा जोखा।
मगर मामला इतने में ही नही थमता। मसला महंगाई का हो और विपक्ष का गुस्सा सातवें आसमान पर न हो, भला यह कैसे हो सकता है। यह बात दीगर है कि आटा, चावल, दूध सब्जी, तेल और अन्य वस्तुओं के दाम उन्हें मालूम भी है या नहीं। खैर छोड़िये। मामला संसद में उठाऐंगे कहकर वह मामले के प्रति अपनी गंभीरता को प्रकट करते हैं। संसद सत्र शुरू होता है। सत्र के पहले कुछ दिन इस बात पर बर्बाद हो जाते हैं कि महंगाई पर चर्चा आखिर कौन से नियम के तहत हो। नियम 193 या 184 के तहत। यहां यह बताते चले की नियम एक 184 के तहत वोटिंग का प्रावधान है। लिहाजा ज्यादातर सरकारें इस नियम के तहत चर्चा कराने से दूर ही रहती हैं। इसी मुददे पर कई दिन तक हंगामा चलता है। बहरहाल सहमति बन जाती है। सदन में चर्चा शुरू होती है। आंकड़ों का महायुद्ध चलता है। विपक्ष के नेताओं की तीखे प्रहारों के बीच वित्तमंत्री चर्चा में हस्तक्षेप करते हैं। हस्तक्षेप का मुख्य जोर महंगाई रोकने से ज्यादा विपक्षियों को जलील करने पर रहता है कि हमसे ज्यादा महंगाई तो आपके कार्यकाल में थी।
यानी इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो। कृषि मंत्री के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष वाक आअट करता है। खबर बनती है। और जयरामजी की। ऐसा लगता है कि कोई फिल्म चल रही है। जिसका कोई क्लाइमेक्स नही है। बेशर्म महंगाई डायन नेताओं की इतनी मेहनत के बाद भी कम होना का नाम नही लेती है। इसके बाद बारी आती है कानून की। डायन को डराने के लिए भी कानून है। दो कानून है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955। प्रिवेंशन आफ ब्लैक माकेर्टिक एक्ट 1988। कायदे से इसका इस्तेमाल राज्य सराकरों को जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए करना चाहिए। मगर होता कुछ और है। इसका सही इस्तेमाल केन्द्र सरकार करती है। यह कहकर कि राज्यों को इस कानून के तहत पूरी ताकत दी गई है। मगर राज्य इसका इस्तेमाल नही कर रहे हैं। क्योंकि महंगाई को रोकने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य दोनों की है। अब मामला ठंडा पड़ने लगता है।
इधर जनता महंगाई से ज्यादा इस नाटक से परेशान है। कुछ दिनों की शांति के बाद अचानक विपक्ष की ओर से बयान आता है। अगर महंगाई डायन को थामने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्यों की संयुक्त है तो केन्द्र राज्यों के मुख्यमंत्री को बुलाकर बैठक करें। विज्ञान भवन में जलसा लगता है। प्रधानमंत्री लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं। कुछ छोटी-मोटी दिखावटी नोंकझोंक के साथ मामला शांति से निपट जाता है। अब मुसीबत यह कि बाहर जाकर मीडिया को क्या कहें। जवाब तैयार होता है। मीडिया को कहा जाता है कि तीन है समिति बना दी गई है। पहली महंगाई को रोकने को लेकर, दूसरी वितरण प्रणाली को कैसे दुरूस्त किया जाए और तीसरी कृषि उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए। इन सब के बावजूद मगर महंगाई जारी है। इतिश्री महंगाई पुराणों प्रथमों सोपानः समाप्तः

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