Tuesday, January 25, 2011

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निष्क्रिय धन का इस्तेमाल हो तो एफडीआई की जरूरत नहीं


नई दिल्ली, 23 जनवरी (आईएएनएस)। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) के बारे में यह माना जाता है कि देश के पास निवेश के लिए धन नहीं है। शायद बहुत से लोगों को पता नहीं है कि सच्चाई इसके विपरीत है। धन न होने की बात तो छोड़ ही दीजिए, देश के पास भारी मात्रा में निष्क्रिय धन है। वह जानता ही नहीं कि उस धन का क्या करे, कहां लगाए।
बेकार पड़ा धन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर एक बोझ होता है। वाणिज्यिक बैंकों पर नजर डालें। सी.एम.आई.ई. का जून, 2004 का मासिक समीक्षा-पत्र दिखाता है कि बैंक अतिरिक्त धन की समस्या से जूझ रहे हैं। यहीं कारण है कि निवेश के अवसरों के अभाव में वे अपना धन सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश कर देते हैं।

सी.एम.आई.ई. समीक्षा-पत्र कहता है कि वाणिज्यिक बैंकों ने 14 अप्रैल से मई, 2004 तक केवल छह सप्ताह के अंदर सरकारी प्रतिभूतियों में 42,055 करोड़ रुपये का निवेश किया था।

मार्च, 2004 में समाप्त 12 महीनों की अवधि में बैंकों ने 1,27,776 करोड़ रुपये की विशालतम धनराशि का निवेश सरकारी प्रतिभूतियों में किया। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, बैंकों की निवल निधियों का 41.5 प्रतिशत सरकारी प्रतिभूतियों में लगा हुआ है।

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प्रतिशत की सांविधिक सीमा के विरुद्ध बैंकों ने निवेश के लिए दूसरे रास्ते न पाकर, सरकारी प्रतिभूतियों में जो अतिरिक्त निवेश किया है, उसका आंकड़ा 2,69,777 करोड़ रुपये अथवा 60 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। यह निष्क्रिय धन, जिसका निवेश करने के लिए बैंकों के पास कोई उपाय नहीं बचा है!

अब जरा विदेशी मुद्रा भंडार को देखें। यह 120 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है और प्रत्येक माह इसमें 2 बिलियन डॉलर की वृद्धि हो रही है। भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, विदेशी मुद्रा भंडार का दूसरे देशों के लिए गए निवेश पर पिछले साल तक 4.1 प्रतिशत की दर से मिलने वाला प्रतिफल सन् 2003-04 में घटकर 2.1 प्रतशत रह गया है।

अत: 5,40,000 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय परिसंपत्ति पर हमें केवल 11,340 करोड़ रुपये प्रतिलाभ के रूप में मिलते हैं। चूंकि हमें मालूम नहीं कि इस राशि को भारत में कैसे निवेश करें, अत: हम इसे अमरिका में रखते हैं और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को 4 प्रतिशत ब्याज की आर्थिक मदद देते हैं।

बैंकों के पास 60 बिलियन डॉलर की निष्क्रिय धनराशि का क्या किया जाए, यह हमें पता नहीं, और हमें यह भी नहीं मालूम कि हमने 60 बिलियन डॉलर (120 मिलियन डॉलर में से) की अतिरिक्त राशि किस कारणवश अत्यल्प ब्याज पर अन्य देशों को उधार दी हुई है, फिर भी हमें एफ.डी.आई. की जरूरत है। हां, यह ठीक है कि सन् 1990 दशाब्दी के मध्य तक हमारे पास धन की कमी थी। लेकिन क्या आज कोई कह सकता है कि हमारे पास धनाभाव है, हमें एफ.डी.आर. चाहिए? क्या हमारे पास धन की कमी है?
आंकड़ें स्पष्ट हैं। हमारे पास अत्याधिक बेशी धन है, देशी भी और विदेशी भी। हमें उसे निवेश के अनुकूल बनाना है। सवाल यह है कि बैंकों के बेशी धन और बेशी विदेशी मुद्रा-कुल मिलाकर 120 बिलियन डॉलर-को निवेश अनुकूल कैसे बनाया जाए? नीति-निर्माताओं की आंखों पर रूढ़िवादी बाजार की पट्टी बंधी होने के कारण वे भारतीय वास्तविकता को देखने में विफल रहे।
मुक्त बाजार सिद्धांत में विश्वास रखनेवालों ने भारतीय व्यापारियों को कह दिया कि स्थानीय या विदेशी बाजार से दीर्घावधि धन प्राप्त करना उनका काम है और दीर्घाकालीन पूंजी उत्पन्न करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है।
धारणा यह थी कि बाजार दीर्घाकालिक पूंजी उत्पन्न करेगा। लेकिन भारतीय पूंजी बाजार ने ऐसा नहीं किया। और करेगा भी नहीं। क्यों?
एक कुटुंब आधारित अर्थव्यवस्था, जिसमें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना परिवारों की जिम्मेदारी है, कभी भी जोखिमपूर्ण शेयर बाजार निवेश का रास्ता नहीं अपनाएगी। ऐसी अर्थव्यवस्था सुरक्षित निवेश करना चाहेगी। इसलिए भारतीय परिवार बहुत ही कम ब्याज-दर मिलने के बावजूद बैंकों के पास ही जाते हैं। नतीजा यह होता है कि बैंकों के पास धन जमा होता रहता है, लेकिन ये अल्पकालिक जमा राशियां होती हैं, जिनका उपयोग दीर्घकालीन निवेश के लिए नहीं किया जा सकता। रूढ़िवाद आधारित बाजार में भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (आई.डी.बी.आई.) और भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (आई.एफ.सी.आई.) एक बैंक बनने से बच गया और उसने घर, कार, मोटरसाइकिल, फ्रिज आदि के लिए धन उधार देना शुरू कर दिया। आई.डी.बी.आई. और आई.एफ.सी.आई. दोनों रुग्ण हो गए, क्योंकि उन्होंने कर्ज देने में राजनीतिक सलाह का अधिक पालन किया।
फिर उपाय क्या है? जब अल्पकालिक जमाराशियों का विशाल अतिरिक्त भंडार निष्क्रिय पड़ा हो, ऐसी दशा में यह कहकर एफ.डी.आई. की अपेक्षा करना हास्यास्पद है कि हमारे पास धन की कमी है। सच तो यह है कि हमें अपने धन का निवेश करना ही नहीं आता। यह तभी हो सकता है जब सरकार इसमें रुचि ले और उचित हस्तक्षेप करे।
सरकार को बैकों को गारंटी देनी होगी और उन्हें अपनी अल्पकालिक निधियां आई.डी.बी.आई. और आई.एफ.सी.आई. के शेयरों तथा दीर्घकालिक बांडों में लगाने के लिए कहना होगा। इससे बैंकों की अल्कालिक विपुल धनराशि दीर्घकालीन निवेश-अनुकूल धन में बदल जाएगी। इसका मतलब यह है कि भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना सरकार दायित्व नहीं है, शेयर बाजार की चाल नहीं चल सकती।
दीर्घकालीन पूंजी का निर्माण करने में सरकार को हस्तक्षेप करना ही होगा। निवेश की कमी को हल करने का यही उपाय है, अर्थात् बैंकों में पड़ी अल्पकालिक धनराशि को सरकार के उचित हस्तक्षेप क जरिए दीर्घकालिक निधियों में बदल दिया जाए। विश्व के विकासशील देश किसी-न-किसी रूप में यह काम करते हैं, लेकिन हम नहीं करते। क्यों?
हम अपनी हर समस्या के समाधान के लिए मुक्त बाजार अर्थव्यवस्थावाले देश अ मेरिका की ओर देखते हैं, और यह भूल जाते हैं कि अमेरिका में आधे से अधिक परिवार शेयर बाजार में बाजी लगाते हैं, जबकि भारतीय परिवारों को बचत का केवल दो प्रतिशत ही शेयर बाजार में निवेश होता है।
यदि सरकार अल्पकालिक बैंक निधियों को दीर्घकालिक निधियों में परिवर्तित करे तो हम 60 बिलियन डॉलर तक की राशि निवेश के लिए उपलब्ध करा सकते हैं।
विदेशी मुद्रा निधियों को भी भारत में निवेश अनुकूल निधियों में बदला जा सकता है, विशेषकर निर्यातकों के लिए। तिरुपुर के वस्त्र बनाने वाले लघु निर्यातक भी, जिन्हें दो अंकों में ब्याज देना पड़ता है, एक निलंब खाता (एस्क्रो अकाउंट) संचालित कर सकते हैं और उनकी निर्यात क्षमता के आधार पर उन्हें आधुनिकीकरण के लिए 4 या 5 प्रतिशत पर विदेशी मुद्रा ऋण दिए जा रहेंगी।
ऐसा होने पर जोखिम 'शून्य' हो जाएगा, क्योंकि उधारकर्ता विदेशी मुद्रा अर्जित करेंगे और चुकाएंगे भी विदेशी मुद्रा में। अत: आरक्षित निधियां सुरक्षित हैं। सरकार को 2 प्रतिशत से अधिक लाभ मिलेगा और निर्यातकों को 4 या 5 प्रतिशत ब्याज पर उधार मिल सकेगा - यह स्थिति दोनों के लिए लाभदायक होगी। अतएव सवाल यह नहीं है कि यदि एफ.डी.आई. नहीं तो कहां से लेकर निवेश किया जाए, बल्कि सवाल इस बात का है कि निवेश कहां किया जाए? सबक यह है कि पहले अपने ही निष्क्रिय धन का निवेश करें, फिर एफ.डी.आई. के लिए प्रयास करें। हमें एफ.डी.आई. की जरूरत तब होगी जब हमारे पास पूंजी का अभाव होगा। अभी हमारे पास भरपूर पूंजी है।

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