Thursday, January 13, 2011

लकवाग्रस्‍त सरकार से और उम्‍मीद भी क्‍या की जा सकती है!


 लकवाग्रस्‍त सरकार से उम्‍मीद भी क्‍या की जा सकती है!

E-mailPrintPDF
User Rating: / 2 
PoorBest 
हिमांशुउमर अब्‍दुल्‍ला के बयान के बाद भी हर तरफ चुप्‍पी है :  चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद सिंह के सामने बच्चे भी आंख दिखा लेते हैं और जंजीरों में बंधे गजराज के आगे चूहे भी कूल्हे मटका लेते हैं। हैरत तो तब होती है जब शेर अपनी मांद में महज इसलिए दुबक जाये, क्योंकि बाहर भेडें बेखौफ दहाड़ रही हैं। जंगल में यह अचरज भरा दृश्य भले ही न दिखता हो लेकिन इस देश के राजनीतिक बियावन में हम अब ऐसे ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों को देखने के आदी हो गए है। क्या अजब हालात हैं। साठ साल से संकल्प समूचा कश्मीर हासिल करने का बना हुआ है और जमीनी असलियत यह है कि अपना घर भी दुश्मन के कब्जे में आता जा रहा है। लाहौर में तिरंगा फहराने के नारे थे और हकीकत यह है कि श्रीनगर में ही राष्‍ट्रध्वज फहराने में पतलून ढीली हो जा रही है। पाकिस्तान के पालतू हमारे घर में घुसकर गुर्रा रहे हैं, और हमारे पहरेदार हंटर जेब में रख उन्हें शांति के बयानों की बोटियां परोस कर अपने आप को धन्य मान रहे हैं।
दुर्भाग्य यह है कि घर का मालिक सब कुछ जान कर भी पक्षाघत का शिकार बना टुकुर-टुकुर बस निहार रहा है। रगों में बह रहे बारह दलों के खून से जिंदा लकवाग्रस्त सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी क्या की जाये? मामला जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण का है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के प्रमुख यासीन मलिक का खुले आम ऐलान है कि जिसमें दम हो वो यहां ‘तिरंगा’ फहराकर दिखलाये। भारतीय जनता युवा मोर्चा का संकल्प है कि हर हाल में तिरंगा फहराया जायेगा। इस परिदृश्य में बतौर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला मिमिया रहे हैं, ‘‘अमन बनाये रखने की खातिर तिरंगा न फहराया जाये।’’ आश्चर्य उमर के बयान पर नहीं है, क्योंकि इस तरीके की अवसरवादिता उनकी खानदानी परंपरा रही है। आक्रोश तो अनेक बैसाखियों के सहारे घिसट रही केन्द्र सरकार के प्रति है और अफसोस है देश के अवाम की इस खामोशी पर, जिसके अंदर राष्‍ट्र के प्रति जज्बा शायद कहीं सो सा गया है।
उमर अब्दुल्ला के इस कदर गैर-जिम्मेदाराना बयान को आये अड़तालीस घंटे से भी अधिक समय होने आया है और विरोध में कहीं से कोई दहाड़ तो दूर चूं तक नहीं हुई। अपने देश के सम्मान और अस्तित्व के प्रति हम इतने बेपरवाह-बेखबर हो चले हैं। हजारों जवान अर्से से कश्मीर की सरहद पर अपनी जवानियों को इस दिन को देखने के लिए बर्बाद होने दिये कि देश के भीतर ही अपना राष्‍ट्रध्वज फहराने के लाले पड़ जायें। क्या इस कीमत पर ‘अमन’ या ‘शांति’ के ख्वाहिशमंद हैं हम। आज तिरंगा न फहराना ‘शांति’ की गारंटी है कल उमर कह सकते हैं कि घाटी में शांति बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ ‘पाकिस्तानी संविधान’ के तहत लिया जाना जरूरी है। तब भी सरकार और हम ऐसे ही खामोश बने रहेंगे? अंग्रेजी हुकूमत के दौर में हमारे पूर्वजों ने तिरंगा फहराने की कीमत ‘जेल’ और ‘फांसी’ के रूप में क्या इसी दौर को देखने के लिए चुकाई थी। गुलाम भारत में ध्वजारोहण एक चुनौती होना समझ में आता है, लेकिन स्वाधीन भारत में भी इसे ‘नापाक’ करार दिया जाना तो हर देशभक्त के लिए धिक्कार है। तिरसठ साल की आजादी में ही क्या ‘स्वराज’ की अकाल मौत हम सुनिश्चित कर चुके हैं? किस दौर में आ गया है देश।
अराजकता, आतंक, अशांति! यह ख्वाहिश तो हमारी भी कभी नहीं रही। लेकिन, क्या शांति हम देश का सम्मान और संप्रभुता को खोकर हासिल करना चाहते हैं? यदि यही तय कर लिया है तो सरहदों से सेनायें वापिस बुला ली जायें। लद्दाख चीन को और घाटी पाकिस्तान के चरणों में बतौर चढ़ावा चढ़ा दी जाये, क्योंकि अशांति और आतंक के बीज तो वहीं से हमारी मिट्टी में अर्से से फेंके जा रहे हैं। और सत्ता की खातिर हमारे ही अवसरवादी राजनीतिज्ञ ‘अधिक स्वायतता’ जैसे बयानों की खाद-पानी देकर उसे सींचते आ रहे हैं। अवसाद के इस दौर में अरुंधति और अग्निवेश जैसों की खामोशी खूब याद आती है। आम आदमी की आजादी के यह स्वयंभू पैरोकार ऐसे समय पर अपने मुंह में दही जमाये कहां छिप जाते हैं। जब देश ही आजाद नहीं रहेगा तो नागरिक की आजादी कहां रहेगी।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक की एक-एक इंच भूमि हमारे राष्‍ट्रध्वज के ससम्मान फहराने के लिए उपलब्ध रहे, यह किसी एक राजनैतिक दल या नेता का दायित्व न होकर इस देश के हर नागरिक का पावन कर्तव्य है। बेहतर होगा कि दिल्ली की हुकूमत आदेश जारी कर उमर अब्दुल्ला को निर्देशित करें कि वह अशांति की आशंकाओं को खारिज कर हर कश्मीरी से लाल चौक पर ‘तिरंगा’ फहराने का आह्वान करें। क्योंकि घाटी में शांति की कीमत देश के अपमान के रूप में हरगिज नहीं चुकाई जा सकती। भाजपा का आह्वान लाल चौक पर ‘भगवा’ फहराने का नहीं ‘तिरंगा’ लहराने का है। वह तिरंगा जो हमारे राष्ट्र के गौरव और समर्पण का सर्वोच्च प्रतीक है।
वक्त की नजाकत का तकाजा तो यह है कि आह्वान को एक दल के दायरे से बाहर निकालकर सर्वदलीय बनाया जाये और 26 जनवरी का मुख्य समारोह दिल्ली का ‘राजपथ’ न होकर श्रीनगर का ‘लाल चौक’ बनाया जाये। भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे देश के हमारे हुक्‍मरान कम से कम इतना तो ‘साहस’ दिखायें।
लेखक डा. हिमांशु द्विवेदी हरिभूमि के मैनेजिंग एडिटर हैं.

No comments:

Post a Comment

पूज्य हुज़ूर का निर्देश

  कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...