Thursday, January 20, 2011

नक्सली -एक नक्सली की डायरी (1)


क नक्सली की डायरी (1)

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चंद्रभूषण उर्फ चंदू भाई
चंद्रभूषण उर्फ चंदू भाई







बचपन की मेरी शुरुआती यादें आजमगढ़ शहर की हैं। तीन-चार साल की उम्र में मुझसे अट्ठारह साल बड़ी जीजी (मेरे ताऊ जी की बेटी) की पूंछ बने-बने जिधर-तिधर डोलने, गर्मियों की सुस्त दुपहरों में उनकी किसी सहेली के घर कढ़ाई-बुनाई के किस्से सुनने, पापड़-बड़ियां बनाने जैसी कवायदों की यादें।
मुझसे चार साल बड़ी मेरी सगी बहन से मेरा रिश्ता तीखी होड़ का था- उसके लिए चोटी आई, मेरे लिए क्यों नहीं आई, उसके लिए फीता आया, फ्रॉक आया मेरे लिए क्यों नहीं आया, मेरे बाल उसके बालों जितने बड़े क्यों नहीं होने दिए जाते। लड़कियों के बीच परवरिश लड़कों को शायद कुछ ज्यादा ही संवेदनशील बना देती है, लेकिन इसकी अपनी कई मुश्किलें भी हुआ करती हैं। बहुत साल बाद इसी शहर में बी.एससी. करते हुए मैंने अपने दोस्त पंकज वर्मा को अपनी परेशानी बताई। 'यार, लगता है मैं कभी प्रेम नहीं कर पाऊंगा।' 'क्यों?' 'जब तक किसी लड़की से मेरा परिचय नहीं होता, मैं उसके पीछे पलकें बिछाए घूमता हूं, लेकिन जैसे ही परिचय होता है, बातचीत होती है, वह मुझे बहन जैसी लगने लगती है।' बड़ी लड़कियों के बीच चोटी-फीता किए छोटी लड़की बनकर पड़े रहने के दिन। सुबह-सुबह ताऊजी से दस पैसे मांगकर बहन के साथ टुघुर-टुघुर जलेबी लेने चौक तक चले जाने के दिन। चौक से घर लौटते हुए किसी गली में भटक जाने और फिर जैसे-तैसे खोज लिए जाने के दिन। आजतक मेरी याददाश्त के सबसे खुशनुमा दिन यही हैं।
मेरा जन्म सन 1964 के जून में किसी दिन (सुविधा के लिए इसे मैंने 1 जून मान लिया है) आजमगढ़ से करीब बीस किलोमीटर दूर मनियारपुर गांव में हुआ था। मेरे पिताजी हाईस्कूल की योग्यता रखने वाले जरा विरले किस्म के पहलवान थे। भारी शरीर वाले, हमलावर और फुर्तीले लेकिन भावुक और किसी भी हाल में जी लेने वाले। मां औपचारिक शिक्षा से पूरी तरह वंचित कुशाग्र बुद्धि की अति कुशल महिला, हालांकि मिजाज से काफी तेज और बर्दाश्त में उतनी ही कमजोर। ताऊ जी मेरे आजमगढ़ में वकालत करते थे और चाचाजी राजनीतिक दबावों के चलते निरंतर इस शहर से उस शहर ट्रांसफर होते रहने वाले इंजीनियर थे।
पिताजी को अच्छे शरीर, कामचलाऊ पढ़ाई और पारिवारिक संपर्कों के चलते नौकरियां मिल जाती थीं लेकिन हो नहीं पाती थीं। जब मैं चार साल का हुआ तब नहर विभाग में उनकी आठवीं और सबसे लंबी नौकरी कुल ग्यारह साल चल चुकी थी। उस समय उनकी पोस्टिंग बलिया जिले के सिकंदरपुर कस्बे में थी। इसी मोड़ पर कुछ मीजान बिगड़ा। पिताजी किसी बात पर अपने बॉस से उखड़ गए, आमने-सामने की बातचीत में उस पर मेज ठेल दी, फिर उसकी कुर्सी उठाकर उसे बुरी तरह धुन डाला और बगैर इस्तीफा दिए हमेशा-हमेशा के लिए घर चले आए। यह राज खुलते-खुलते खुला, और जीवन फिर पहले जैसा नहीं रहा। कुछ बच्चों का बचपन जरा जल्दी बीत जाता है। ऐसे ही गर्मियों के दिन थे। मुझे मीयादी बुखार चढ़ा हुआ था। पिताजी बेरोजगार जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश में कुछ दिन गांव में रखकर खेती कराने का उपक्रम करते थे, फिर गांव वालों के ताने सुनकर ताऊ जी के यहां शहर भाग आते थे। शहर में मेरे दोनों बड़े भाई (क्रमशः तेरह और ग्यारह साल बड़े) और हम दो छोटे भाई-बहन अभी इसी गुमान में जी रहे थे कि यहां सबकुछ पहले जैसा ही चलता रहेगा। लेकिन ताऊजी के लिए अब हमारा खर्चा भारी पड़ने लगा था और वे हमें गांव ही जाकर रहने के संकेत देने लगे थे। यह संक्रमण एक घटना से अचानक पूरा हो गया।
मेरे लंबे बुखार से परेशान पिताजी मुझे एक दिन कोई सीरप पिलाने का प्रयास करने लगे। मैंने इसे पीने से साफ मना कर दिया, यह कहते हुए कि इस शीशी में तो गैंडे का मूत है। तब तक गैंडा तो क्या गैंडे की तस्वीर भी मैंने नहीं देखी थी, लेकिन दवा में 'गैंडे का मूत' होने की उर्वर कल्पना पता नहीं कैसे दिमाग में चली आई। पिताजी के गुस्से और चिढ़ का पारा पहले ही काफी चढ़ा हुआ था। उन्होंने अपने भारी हाथों से तड़ाक-तड़ाक तीन-चार थप्पड़ मेरे चेहरे पर रसीद कर दिए। जीजी इस घटना की गवाह थीं। बाद में उन्होंने सबको बताया कि तमाचे पड़ते ही मेरी आंखें निकलकर बाहर आ गई थीं। बहरहाल, इस मार से डरकर चुपचाप दवा पी लेने के बजाय एक रिफ्लेक्स में मैंने पास पड़ी एक टूटी हुई खटिया की पाटी उठा ली, जैसे पिताजी की पिटाई का पूरी बराबरी से जवाब देने वाला हूं। मेरी शक्ल इस समय निश्चय ही कुछ अजीब हो गई होगी। कुछ देर के लिए शायद मूर्छा भी आ गई थी। लेकिन पिताजी इस घटना से कुछ ज्यादा ही घबड़ा गए। उन्हें लगा कि बीमार बच्चे को उन्होंने कोई प्राणघातक चोट पहुंचा दी है। उसी हालत में मुझे उठाकर वे डॉ. साहा के यहां ले गए और इस बीच लगातार चिल्लाते रहे कि कोई उन्हें फांसी पर चढ़ा दे क्योंकि उन्होंने अपने बच्चे की जान ले ली है।
यह जानलेवा तो क्या खतरनाक चोट भी नहीं थी। कुछ दिन बाद मैं बिल्कुल ठीक हो गया। लेकिन दोनों बड़े भाइयों और चार साल बड़ी मेरी बहन का नाम तब तक स्कूल से कटाया जा चुका था और उनके बारी-बारी गांव रवाना होने की प्रक्रिया मेरे ठीक होने के पहले ही शुरू हो चुकी थी। एक शहरी बच्चा होने की यह करीब चार साल लंबी छाप इसके बाद बने मेरे समूचे गंवईं गठन पर पड़ी ही रह गई। मेरी सोच-समझ के लिए इसका नतीजा अच्छा रहा या खराब, इसका फैसला मैं आज तक नहीं कर सका हूं।
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सर माई नेमिज चंद्रभूषण मिश्रा

गांव का घर एक बड़े अंधियारे खंडहर जैसा था। वहां दादी थीं, जिनकी एक आंख पहले से खराब थी और दूसरी समलबाई के ऑपरेशन के वक्त खराब हो गई थी। 'हरे चनुआ'- नन्हीं लाल चुन्नी की कहानी वाले 'नानी' भेड़िए की तरह वे बहुत भारी मर्दानी आवाज में मुझे बुलाती थीं। राख लगाकर उनकी दाढ़ी-मूंछें नोच निकालने की मेरी ड्यूटी अक्सर लगा करती थी। घर में एक गाय थी, जिसका लालटेन या ढिबरी की रोशनी में घर्र-घों दुहा जाना भी अच्छा दृश्य बनाता था। मां उसे दुहती थी और मैं उजाला दिखाता था। घर के सामने एक गझिन बंसवार थी, जिसपर शाम के वक्त किलहंटियों (जंगली मैनाओं) की जबर्दस्त कचपचिया पंचायत जुटती थी। मां को सिलाई-पुराई का गुन आता था और सलाहें तो उसके पास हर चीज के लिए हुआ करती थीं। दोपहर में बगल की चाची जांता पीसने या चूड़ा कूटने आती थीं। उनकी आम बातें भी किस्सों जैसी लगती थीं। इन छिटपुट बातों के अलावा कोई रोचक और भरोसेमंद चीज गांव में नहीं थी।
नौकरी छोड़ने को लेकर पिताजी से मां का झगड़ा लगातार ही चल रहा था। गांव पहुंचने के कुछ ही दिन बाद यह इस कदर बढ़ा कि पिताजी घर छोड़कर कई महीनों के लिए पता नहीं कहां चले गए। वहां से उनके लौटने के बाद भी झगड़े में कोई कमी नहीं आई लेकिन धीरे-धीरे पिता के साथ एक बारीक सा दिमागी संतुलन शायद मां ने साध लिया कि निखट्टू हालत में भी उनका होना उनके न होने से थोड़ा बेहतर ही है। उधर पिताजी खुद को और अपने परिवार को जिंदा रखने के लिए एक मिथक अपने साथ लेकर लौटे थे। उनका कहना था कि बनारस के मणिकर्णिका मुर्दघट्टे पर कई दिनों की भूखी-प्यासी अधनींद में लाल साड़ी पहने एक सुंदर जवान औरत उनके सपने में आई और बोली कि अब उठो, घर जाओ, तुम्हारे बच्चे कभी भूखे नहीं मरेंगे। उन्हें यकीन था कि यह औरत देवी थी और गांव में, कम से कम उनके सामने, कई लोग इसपर हामी में मूंड़ हिलाते थे। इसका उपयोग उन्होंने ज्योतिष की जोर-आजमाइश में किया। उनके जुनूनी स्वभाव, पहलवानी शरीर और झझक वाली ज्योतिष का यह कॉकटेल साल भर के अंदर उन्हें कभी दो तो कभी चार रुपये की कमाई कराने लगा। मेरे लिए इसी समय स्कूल की एक नई आफत और शुरू हो गई। शहर में सीखे गए अंग्रेजी के दस-बारह शब्द मेरे जी का जंजाल बन गए। कोई कहीं भी पकड़ लेता और पूछता कि बोलो मुंह माने क्या, नाक माने क्या (अंग्रेजी मुझे तब कितनी आती थी, इसकी बानगी काफी बाद में दर्जा तीन की एक किताब में आमने-सामने के दो पन्नों पर देखने को मिली। सरकंडे की कलम से एक पर लिखा था- वाटिज योर नेम? और दूसरे पर- सर माई नेमिज चन्द्र भूषण मिश्रा)।
बहरहाल, इस तरह हर जगह सर्कस के जानवर की तरह पेश होना निजी झंझट  के अलावा स्कूल में भी मेरे लिए भारी मुसीबत का सबब बना। मुझे हर चीज पढ़ना आता था। यहां तक कि अपना सर्किल टूटने और लगातार खराब डिवीजन से स्थायी रूप से फ्रस्टेट रहने वाले अपने भाइयों के रसीले उपन्यास भी मैं छह-सात साल की उम्र में चट कर जाता था। लेकिन लिखने के नाम पर बिल्कुल कोरा था और गिनतियों के खेल में भी मेरी कोई खास गति नहीं थी। पता नहीं किस 'प्रतिभा' के चलते मुझे गदहिया गोल या दर्जा एक के बजाय सीधे दो में बिठा दिया गया। लेकिन शिक्षक गण किसी भी गलती पर या सवाल का जवाब न देने पर मुझे 'तेजूखां' कहकर बुलाते थे और 'बखानल धीया डोम घरे जइहैं' (बखानी अर्थात सराही हुई लड़की अंततः डोम के घर ब्याही कर लेती है) का आशीर्वाद देते थे। इस तरह बात-बात पर बेइज्जत होना मुझे बहुत खलता था लिहाजा अक्सर पिताजी की चापलूसी करके मैं उनके कंधे पर बैठ जाता था और उनके साथ जहां-तहां घूमते हुए ज्योतिष का नरम-गरम देखता रहता था। यह सिलसिला पांचवें दर्जे तक नियमित चला।
किसी भी साल स्कूल में आधी से ज्यादा उपस्थिति मेरी नहीं रही होगी। पांचवीं के इम्तहान तब बोर्ड से होते थे। इम्तहान की रात में हम लोग स्कूल में ही सोए। अगली सुबह तड़के ही स्कूल के अकेले गैर-ब्राह्मण शिक्षक 'मुंशीजी' के पीछे दौड़ते-भागते करीब पांच मील दूर मेहमौनी गांव में इम्तहान देने गए, जहां अपना पर्चा कर लेने के बाद अपने एक दगाबाज दोस्त की कापी लिखते हुए मैं पकड़ लिया गया। मजे की बात कि मुझे रेस्टीकेशन से डराने वालों में मेरे वह मित्र सुरेंदर भी शामिल थे, जिन्होंने अपने सवाल हल करने के लिए अपनी कापी मेरे हवाले कर दी थी। आठवीं तक लगातार मेरी क्लास के सबसे तेज लड़के थे मेरे ही गांव के रामधनी प्रसाद मौर्य। उनकी लिखावट जबर्दस्त थी, अथलीट वे अच्छे थे और शिक्षकों के अलावा लड़कियों में भी समान रूप से पॉपुलर थे। पता नहीं कैसे आठवीं के बाद अचानक उनके नंबर खराब होने लगे। शायद इसलिए कि तबतक उनका गौना आ गया था और जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं। या इसलिए कि पढ़ाई में अचानक आए अमूर्तन को पकड़ने के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था। या शायद इसलिए कि लंबी पढ़ाई करके बड़ा अफसर बन जाने की कोई प्रेरणा उनके निजी दायरे में मौजूद नहीं थी।
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परिवार की बर्बादी का सिलसिला

मुझसे चार साल बड़ी मेरी बहन पढ़ाई में मुझसे दो ही साल आगे थी। प्राइमरी के बाद उसे तीन किलोमीटर दूर कप्तानगंज बाजार भेजने के बजाय एक किलोमीटर दूर खासबेगपुर गांव भेजा गया। उसकी कद-काठी अच्छी थी लिहाजा बड़े स्कूल जाना शुरू करते ही उसकी शादी के बारे में बात होने लगी। फिर गांव के लुहेड़े लड़कों की मेहरबानी से कुछ ऐसा हुआ कि प्राइमरी स्कूल से मुक्ति पाकर जब मैंने छठीं की पढ़ाई के लिए कप्तानगंज जाना शुरू किया तब तक, यानी सातवीं का इम्तहान देने के बाद ही उसे स्कूल भेजने के बजाय घर के कामकाज सिखाने का फैसला हो गया। इसके बाद से करीब चार साल चला उसकी शादी खोजने का सिलसिला एक मिसऐडवेंचर में समाप्त हुआ। उसका विवाह उससे करीब डेढ़ गुनी उम्र वाले गोरखपुर जिले के एक सज्जन के साथ हुआ, जिनकी पहली पत्नी जीवित थी और ग्यारह साल से अलग रह रही थी। इस विवाह के साथ ही हमारे परिवार की असली बर्बादी शुरू हुई। पहले शारदा ऐक्ट के तहत हमारे घर की कुर्की-जब्ती हुई। फिर करीब चार साल अपनी ससुराल में बिताकर पेट की असाध्य बीमारी अपने साथ लिए बहन हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहने चली आई। इसके कोई छह महीने बाद इसी बीमारी से उसकी मृत्यु हुई और उसके तीन महीने बाद मेरे मंझले भाई ने फांसी लगाकर जान दे दी।
यह पूरा घटनाक्रम 1978 से 1983 के बीच का है। इस बीच की खड़ी ढलान में कुछ बिंदु ऊंचाइयों के भी हैं। 1979 में मेरा हाईस्कूल का इम्तहान कई मायनों में यादगार साबित हुआ। मेरा सेंटर महाराजगंज बाजार में पढ़ा था। पहली बार खुद को आजाद पाकर यहां मैं बिल्कुल छू उड़ गया। क्रिकेट खेलना यहीं पहली बार सीखा, इम्तहान के ऐन बीच, और रनिंग सुधारने की कोशिश में सड़क पर गिरकर घुटना फुड़ा बैठा। यहीं पहली बार मैंने वह चीज जानी, जिसे आजकल 'क्रश' कहकर आनंदित होने का रिवाज है, लेकिन मेरे लेखे वह जीवन भर किसी अनजानी चीज के नीचे बुरी तरह कुचल जाने जैसा ही रहेगा। यह किससे हुआ, कैसे हुआ, मैंने न तो किसी से कभी बताया, न आगे कभी बताऊंगा। लेकिन यह एक असंभव कल्पना थी- अपने पीछे एक दिमागी घाव छोड़ती हुई, जो गुलजार का लिखा, भूपेंद्र-लता का गाया गीत 'नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा' सुनते हुए आज भी रिसने और टीसने लगता है।
मेरे घर का, मेरी पढ़ाई का और मेरी इम्तहानी तैयारियों का जो हाल था, उसे देखते हुए उत्तर प्रदेश हाई स्कूल बोर्ड की मेरिट लिस्ट में स्थान पाना मेरे लिए ही नहीं, मेरे पूरे इलाके के लिए गौरव का विषय था। स्कॉलरशिप से पढ़ाई का खर्चा भी कुछ हद तक निकल सकता था। लेकिन इससे ज्यादा उड़ने की इजाजत नहीं थी। बेरोजगार बड़े भाई पिता के नक्शेकदम पर ज्योतिष में ही जोर-आजमाइश के लिए कलकत्ता-दिल्ली की सैर कर रहे थे और मंझले भाई बनारस में ट्यूबवेल ऑपरेटरी करते हुए घनघोर गंजेड़ी बनकर, बल्कि नशे की हालत में सरकारी ट्यूबवेल भी फूंककर घर लौट आए थे।
पिताजी की आमदनी अब दस-बारह रूपये रोजाना तक पहुंच चुकी थी लेकिन इसके बल पर वे मुझे शहर में रखकर पढ़ा तो नहीं सकते थे। इसी में दो झंझट परिवार के सिर और आ गए थे। बहन की शादी के मुकदमे में मां और पिताजी को आए दिन सौ मील दूर देवरिया जाना पड़ता था, जबकि बनारस से लौटे मंझले भाई को अपने नशे के लिए घर के बर्तन-भांड़े बेचने में भी कोई गुरेज नहीं था। दिन-रात की हताशा और झगड़ों से जान छुड़ाने के लिए इंटरमीडिएट के दोनों साल मैंने क्रिकेट या किसी और बहाने से घर के बाहर ही बिताने की कोशिश की और इंटर का इम्तहान होते ही कोई कामधंधा खोजने के लिए भागकर दिल्ली चला आया। यहां बड़े भैया का अपना ही जीना पहाड़ था, लिहाजा महीना बीतते उन्होंने बीच-बीच में कुछ पैसे भेजते रहने के वादे के साथ मुझे गांव वापस रवाना कर दिया।
अगले दो साल मेरे लिए बी. एससी. की पढ़ाई से ज्यादा जीवन के मान्य सिद्धांतों की हकीकत परखने के रहे। बहन के ससुराली लोग धर्म-दर्शन में आकंठ डूबे हुए थे। घर के मुखिया चरम रजनीशी थे और ओशो की जलेबीनुमा दलीलों को सवर्ण सामंती दबंगई की राबड़ी में सानकर परोसते रहते थे। एक दिन मेरी बीमार बहन को ये लोग किसी कुचले हुए कुत्ते की तरह घिर्राकर हमारे यहां छोड़ गए। रोजाना घंटा भर पूजा करने वाली मेरी मां की ईश्वरीय शक्तियां बहन की जान तो क्या घर की कुर्की-जब्ती तक नहीं बचा पाईं और जिले भर का भविष्य भाखने वाले मेरे पिता अपने मंझले बेटे की खुदकुशी तो दूर, उसके असाध्य डिप्रेशन के बारे में भी कोई अनुमान नहीं लगा पाए।
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कुल पुरोहित से वाद-विवाद

केवल जीते चले जाने के अलावा जीने की कोई और वजह, कोई प्रेरणा न बचे, ऐसा सीन मात्र उन्नीस साल की उम्र में, जवानी शुरू होते ही होते बन जाना- काश ऐसा किसी के साथ भी न हो। इस दौर में मैंने कुछ बेहद बेवकूफी भरे काम भी किए, जिसे कोई मेरे पागलपन की शुरुआत भी समझ सकता था। जैसे छत पर खड़े होकर जोर-जोर से गाना, भयंकर लू में गांव के बाहर खुले में चले जाना और वहां तब तक कसरत करते रहना जब तक पस्त होकर जमीन पर लेटना न पड़ जाए। घर में अकाल मृत्यु के बाद ब्रह्मशांति के इरादे से भागवत बिठाई गई तो कुल पुरोहित से मैंने सर्व निषेधवादी नजरिए से कुछ वाद-विवाद भी किया। इस पर प्रतिक्रिया के रूप में गांव के कुछ लोगों को कहते सुना कि जिस परिवार में लोगों की मति इस तरह भ्रष्ट हो चुकी हो वहां यह सब नहीं होगा तो और क्या होगा। जब बात करने को कोई नहीं होता तो इन्सान चिड़ियों वगैरह से बतियाता है, लेकिन कभी-कभी यह सुविधा भी खत्म हो जाती है। आप हवा तक के इंटरैक्शन से बचने की कोशिश करने लगते हैं, इस कदर एक ककून आपको घेर लेता है। ऐसे ही दौर में किताबों के साथ एक दिलचस्प रिश्ता बना। पता चला कि जी यह तो एक अलग ही दुनिया है।
अभी आपके चौगिर्द फैली दुनिया से बहुत बड़ी और बहुत ही ज्यादा गहरी। इसमें कई हजार सालों का समय अगल-बगल दोस्ताना ढंग से बैठा होता है। प्लेटो, शंकर, न्यूटन, क्लिफर्ड और रसेल जैसे बड़े-बड़े लोग अपना जिंदगी भर का काम आपके सामने बिछाए होते हैं। और लोगों की तरह वे आपको घटिया और बेहूदा सवालों से तंग नहीं करते, खुद बहुत बड़े होते हुए भी आपको छोटी और बेकार की चीज नहीं समझते। वे दुनिया की बारीकियां आपके सामने खोलते हैं और बदले में आपसे सिर्फ थोड़ा-सा वक्त मांगते हैं। बहन की मौत और भाई की खुदकुशी के बाद जिन लालता सिंह वकील के यहां आजमगढ़ में एक कमरा किराए पर लेकर मैं रह रहा था, उनके परिजनों के लिए और उनके बाकी अमीरजादे किरायेदारों के लिए मैं ट्यूशन वगैरह पढ़ाकर गुजारा करने वाला एक गरीब देहाती लड़का था, जिससे वे जब जैसा चाहते वैसा बर्ताव कर सकते थे।
लेकिन मुझे उनकी बातों से परेशान होने की जरूरत नहीं थी क्योंकि उनके यहां से कोई पांच किलोमीटर दूर मेहता लाइब्रेरी के जरिए किताबों की एक अलहदा, अंडरग्राउंड दुनिया मेरे लिए हमेशा खुली हुई थी। लगभग पूरे दिन अपने कमरे में बंद रहने के बाद रोज शाम मैं गाड़ी पकड़ने की तेजी से सरपट मेहता लाइब्रेरी की तरफ भागता, वहां एक कोचिंग में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे बच्चों को मैथ-फिजिक्स पढ़ाता, तय शर्तों के मुताबिक कोचिंग चलाने वाले सज्जन के ही घर की बनी एक प्याली चाय पीता, फिर लाइब्रेरी में करीब आठ बजे तक बहुत सारी पत्रिकाएं चाटता और कोई किताब इश्यू कराकर घर ले आता। वहां आईएएस की तैयारी कर रही लालता सिंह की बेटी को किसी तरह पता चल गया कि गणित में मेरी कुछ गति है, लिहाजा अपनी कंपटीशन की किताबों में इंटेलिजेंस टेस्ट के लिए संभावित गणित के सवालों पर टिक लगाकर वे मेरे पास भेज देतीं और मैं उन्हें हल करके उनके भाई के हाथों वापस भिजवा देता। उन्हीं की देखादेखी मुझे लगा कि आजमगढ़ में जब मुझे बैठे-बिठाए वक्त काटना ही है तो क्यों न इसे आईएएस की तैयारी का इज्जतदार नाम दे दिया जाए। सो उन्हीं के साथ मैंने अपने लिए भी एक फॉर्म मंगवाया और विषय के खाने में मैथ और फिलॉसफी भर दिया।
गणित के साथ मेरा रिश्ता अजीब निकला। जब तक इसका दायरा सामान्य हिसाब-किताब तक सीमित था, मेरी दिलचस्पी इसमें कामचलाऊ किस्म की ही थी लेकिन बी.एससी. में इसके अमूर्त दायरे में घुसते ही अचानक यह दिल के बहुत करीब पहुंच गई। शिब्ली कॉलेज में मिले मुशर्रफ साहब के साथ ने इसे रिसर्च की अनजानी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। बी.एससी. पार्ट वन में, जब बच्चे गणित की सीढ़ियों पर बैठना सीखते हैं, एक सुबह बौराई सी हालत में मैंने मुशर्रफ साहब को घेर लिया और कहा कि मैं किसी भी संख्या का कोई भी मूल निकाल सकता हूं, ऐसा एक मेथड मैंने खुद खोजा है।
मुशर्रफ साहब हकलाते थे और कॉमन रूम में चॉक का डिब्बा और डस्टर उठाए दिन की अपनी पहली क्लास के लिए निकल रहे थे। उन्होंने कहा, क क क क्लास में आऊंगा तो दिखा देना।
मैंने कहा, सर अभी देख लीजिए। उनके सामने हिसाब करने लगा तो गलत निकल गया। मेरा दिल किया, अभी मर जाऊं। फिर उनके जाने के बाद कॉमन रूम में बैठे डिपाटर्मेंटल हेड सिद्दीकी साहब की अनदेखी करते हुए वहीं एक मेज पर झुके-झुके मैंने एक संख्या का घनमूल निकाला और तुरंत जाकर उन्हें दिखाया। इस घटना के बाद से मुशर्रफ साहब के साथ मेरी छनने लगी। उन्होंने खुद दो पन्ने की मेरी रिसर्च अपने दोरंगी टाइपराइटर पर टाइप की। इसे शीर्षक दिया- ऐन अलजेब्राइक ट्रीटाइज ऑन फाइंडिंग एनथ रूट ऑफ एनी नंबर, और इसे किसी मैथ्स जर्नल में छपने के लिए भेज दिया। यह छपा या नहीं छपा, या छपा तो इस पर गणित के हलकों में प्रतिक्रिया क्या रही, मुझे नहीं पता, क्योंकि इसके ठीक बाद मैं अपने घर पर एक के बाद एक हुए हादसों में मसरूफ हो गया था। बाद में लालता सिंह के घर पर रिहाइश के दौरान मैंने मुशर्रफ साहब को मैंने अपने गणित और दर्शन के सवालों से बहुत तंग किया। रीयल एनालिसिस में मेरी दिलचस्पी भी उन्हीं दिनों बनी, जिसे आगे बढ़ाने का काम आज तक मुल्तवी है।
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जीने लगे इलाहाबाद में

घर के बाकी लोग भी इस दौर में अपने को अपने-अपने ढंग से जमाने में जुटे हुए थे। मंझले भाई की आत्महत्या से ठीक नौ दिन पहले बड़े भाई का गौना आ गया था। नई-नई आई भाभी के लिए यह झटका घर के बाकी लोगों से भी ज्यादा बड़ा था। लेकिन उनकी मौजूदगी भर से घर में रिश्तों के सारे समीकरण हमेशा के लिए बदल चुके थे। मां-पिताजी के पास अब एक-दूसरे को कोसने और आपस में झगड़ने के अलावा कुछ और काम भी आ गए थे। गौने के लिए अपना जमता काम छोड़कर दिल्ली से घर आए भैया फिर वापस नहीं गए और अगले सात साल घर में ही रुककर खेती और थोड़ा-बहुत ज्योतिष से परिवार की जीविका निकालते रहे। पिताजी के लिए अब यह काम भी संभव नहीं रह गया था। अपने घर में ही नाकारा साबित हुए एक ज्योतिषी से अपना भविष्य भखवाने में भला किसकी दिलचस्पी हो सकती थी! इसी समय संयोग से भैया का इलाहाबाद में एक जुगाड़ निकल आया। हमारे पुश्तैनी नाई परिवार की एक लड़की वहां ब्याही हुई थी, जिसकी बेटी एमबीबीएस करते हुए एक गुजराती ब्राह्मण (नागर) लड़के के प्रेम में पड़कर एक बच्ची की मां बन गई थी, लेकिन लड़का मां-बाप के दबाव में आकर किसी और से विवाह करने जा रहा था। भैया एक नजर में ही समझ गए कि काम तो उन्होंने पकड़ लिया लेकिन उनके लिए यह 'मिशन इंपॉसिबल' साबित होने वाला है। बहरहाल, इस क्रम में लड़के का परिवार उनसे इतना प्रभावित हो गया कि जब उन्होंने घर के मुखिया के सामने सवाल रखा कि आईएएस का इम्तहान देने इलाहाबाद आ रहे उनके छोटे भाई को क्या वे महीने भर के लिए अपने यहां ठहरा सकते हैं, तो उन्होंने खुशी-खुशी हामी भर दी। वहां से लौटकर भैया ने मुझे आजमगढ़ छोड़कर स्थायी रूप से इलाहाबाद ही चले जाने को कहा और मेरे सामने चुनौती रखी कि इसी एक महीने में वहां जमने का कुछ उपाय कर सकूं तो कर लूं।
दोस्त के डेरे पर : मुझे खेद है कि अभी तक मैंने गांव के अपने परम मित्र उमेश का कोई जिक्र नहीं किया। उमेश फिलहाल आजमगढ़ में गणित के लेक्चरर हैं। हम लोग आठ-नौ साल की उम्र में पता नहीं कैसे- शायद सिधाई की बेसिस पर- दोस्त बनने शुरू हुए थे। फिर इसमें धीरे-धीरे गणित ने दाखिला लिया और हमारी दोस्ती 'हैप्पी, हेल्दी, रोरिंग ऐंड किकिंग' ढंग से आज भी बरकरार है। इलाहाबाद का टिकट कटाते हुए मेरे मन में यह बल था कि उमेश तो वहां हैं ही- अगर नागरों ने अगले दिन ही मुझे अपने घर से निकाल दिया तो जैसे-तैसे उमेश के डेरे पर चला जाऊंगा और महीने भर में चार ट्यूशन पकड़कर गाड़ी को आजमगढ़ वाले ही रास्ते पर लेता आऊंगा। हुआ भी लगभग ऐसा ही। नागर लोग अपने लड़के की शादी की तैयारियों में जुटे थे और लड़का भी कुछ यूं दिखा रहा था जैसे गार्हस्थ्य जीवन में पहली बार प्रवेश लेने जा रहा हो। इसी क्रम में एक बार सार्वजनिक बातचीत के दौरान मेरे मुंह से कुछ ऐसा निकल गया, जिससे लड़के के गुप्त प्रेम विवाह और पिछले परिवार के बारे में सारी मालूमात सामने आ गई। ऐसे ही भयंकर झूठों की बुनियाद पर न जाने कितने शरीफों की शराफत के महल टिके रहते हैं, इसका अंदाजा मुझे उसी वक्त हो गया। इसके अगली ही  सुबह लोगों के बिस्तर छोड़ने तक जबर्दस्ती की दुआ-सलाम बजाता मैं अपना झोला लिए रिक्शे पर सवार होकर कर्नलगंज स्थित उमेश के डेरे की तरफ रवाना हो गया। महीने भर नागरों के भोजन और आवास का कर्ज मेरे मन पर आज भी बना हुआ है, लेकिन वे मेरी शक्ल ही देखने को तैयार नहीं थे तो इसे चुकाने के लिए मैं भला क्या कर सकता था।
उमेश का क्वार्टर 181, कर्नलगंज में था, जो भाकपा-माले के छात्र संगठन पीएसओ के दफ्तर 171, कर्नलगंज से मात्र दस घर की दूरी पर था। उमेश खुद मामूली तौर पर पीएसओ के संपर्क में भी थे, लेकिन इस संगठन से मेरी वाकफियत करीब दो महीने बाद ही बन सकी। 10 जून 1984 को आईएएस प्रीलिम्स देकर मैंने दो-चार दिन उमेश के साथ कंपनी बाग में टहलते और उनके साथियों के सेक्सुअल फ्रस्टेशन के किस्से सुनते हुए बिताए और फिर घर चला आया। यहां जीजी (मेरे ताऊजी की बेटी, जिनका जिक्र मैं शुरू में कर चुका हूं) और जीजाजी आए हुए थे, जिनके साथ मैं कुछ दिनों के लिए उनकी नौकरी की जगह लोहियाहेड चला गया।
लोहियाहेड की तरावट :  नैनीताल (अब ऊधमसिंह नगर) जिले में खटीमा कस्बे के पास घने जंगलों में स्थित हाइडेल का एक पॉवरहाउस था। यह आज भी है, लेकिन लगभग ध्वंसावशेष की शक्ल में। जीजाजी यहां के मिडिल स्कूल में प्रिंसिपल थे और जीजी यहीं पढ़ाती थीं। इलाहाबाद की सड़ी-बुसी गर्मी के बाद बारिशों भीगे लोहियाहेड में आत्मा के पेंदे तक पहुंचती विचित्र खुशबुओं वाली ठंडी बरसाती हरियाली ने मेरे भीतर एक अलग तरह की केमिस्ट्री रच डाली और यहीं से जीवन के एक नए मोड़ का आगाज हुआ। यह मेरी सोच की बुनियादी बनावट में नजर आने वाली रूमानियत की शुरुआत थी, जिसका शिखर भले ही अब पीछे छूट चुका हो, लेकिन जो संभवतः आखिरी सांस तक मेरे व्यक्तित्व का सबसे बड़ा डिफाइनिंग फैक्टर बनी रहेगी।
कोचिंग रेट और खर्चे की चिन्ता : अभी मेरे लिए यह कहना बहुत आसान है कि इलाहाबाद जाने का मेरा मकसद इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ाई करना था। लेकिन उस समय की हकीकत इससे बहुत दूर थी। शायद मेरे लिए वहां जाने का मकसद सिर्फ आजमगढ़ से दूर जाने का था। युनिवर्सिटी की पढ़ाई मुफ्त में नहीं होती। आजमगढ़ में कोचिंग और ट्यूशन से मैं अपने रहने-खाने का खर्च इसलिए निकाल ले रहा था क्योंकि यहां दिन भर घर पर पड़े रहने के अलावा मुझे कोई काम नहीं था। इलाहाबाद में जल्द ही समस्या मुझे समझ में आने लगी। यहां जो दो-एक ट्यूशन मुझे मिले उनके रेट बहुत कम थे, और बी.एससी. पास नौजवान को यहां कोई कोचिंग में पढ़ाने के लिए नहीं रखने वाला था। एक बार पढ़ाई शुरू हो गई तो क्लास करने के बाद साठ-सत्तर रुपयों के कितने ट्यूशन मैं कर पाऊंगा जो फीस और किताबों के अलावा रहने-खाने का खर्चा भी निकाल ले जाऊं। पांच पर्सेंट की अदर युनिवर्सिटी वाली कटौती के बाद भी एम. एससी. मैथ में एडमिशन के लिए मेरे नंबर पर्याप्त थे, लेकिन इसकी नॉर्मल प्रॉसेस के लिए महीने भर की देर हो चुकी थी।
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लापता खुद की खोज

उमेश ने जब मेरा परिचय पीएसओ से कराया था तो इसका एक मकसद यह भी था कि एडमिशन के लिए कुछ जुगाड़ लगाया जा सके। लेकिन वहां पहले ही दिन लालबहादुर और अखिलेंद्र सिंह से मेरी जो बातें हुईं , उससे लगा कि मेरा आगे का रास्ता युनिवर्सिटी में पढ़ाई करने का नहीं है। मुझे याद है, अखिलेंद्र सिंह ने मुझसे पूछा था- आपका समम बोनम क्या है। मैंने पूछा, यह क्या होता है। उन्होंने कहा जीने का मकसद। मैंने कहा, वह तो नहीं, जो अभी कर रहा हूं। इससे कुछ दिन पहले की बात है। मैं और उमेश खाना खाने जा रहे थे तो हमारी मुलाकात  कर्नलगंज थाने के सामने अरुण पांडे और ज्ञानवंत सिंह से हुई। बातचीत के दौरान अरुण ने पूछा कि आप करना क्या चाहते हैं तो मैंने कहा कि ख्वाहिश तो मैथमेटिशियन बनने की है, हालांकि इलाहाबाद आईएएस का प्रीलिमिनरी देने आया था। ये दोनों हमउम्र लोग फिलॉसफी के स्टूडेंट थे और हुज्जत की परंपरा में उन्होंने कहा कि अपने हिसाब-किताब में मगन रहने वाले मैथमेटिशियन और शराब पीकर नाली में पड़े रहने वाले शराबी के बीच सामाजिक दृष्टि से कोई अंतर है क्या। मैं जिन स्थितियों से गुजर कर आया था, उसमें सब कुछ छोड़कर सामाजिक विडंबनाओं से लड़ने की अपील बहुत गहरी थी, लेकिन अरुण की दलील मेरे तईं उतनी गहरी नहीं थी।
यह स्थिति पीएसओ की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के कुछ अंक पढ़ने के बाद बदल गई। खासकर गोरख पांडे का लेख 'सुख क्या है', पढ़ने के बाद। मुझे ध्यान है, 'अभिव्यक्ति' के उसी अंक में भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' भी शामिल था, जिसे आजमगढ़ में वामपंथी मिजाज वाले एक पड़ोसी डॉक्टर साहब ने मुझे दिया था। नास्तिक दर्शन के करीब रहने वाले मेरे मुस्लिम परिचितों में वे तब तक अकेले थे और मेरे ख्याल से वे नक्सल मूवमेंट के किसी धड़े के करीब भी थे। खासकर लालबहादुर से बातचीत के बाद इन दोनों लेखों को मैंने बिल्कुल अलग संदर्भों में ग्रहण किया और हफ्ते भर के अंदर फैसला हो गया कि मेरा आगे का जीवन कम्युनिस्ट क्रांति के लिए समर्पित होगा।
यह बहुत ही कठिन फैसला था। तीन महीने के अंदर दो अकाल मौतें देख चुके घर-परिवार की सारी उम्मीदें मुझ पर ही टिकी हुई थीं। बड़े भाई को नौकरी मिलने की कोई उम्मीद पहले भी नहीं थी और 1978 से 1983 तक दिल्ली में ज्योतिष के पेशे में उन्होंने जितनी भी जमीन बनाई थी, उसका इस्तेमाल वे तभी कर सकते थे, जब दिल्ली वापस जाने की नौबत आती। बूढ़े मां-बाप के लिए मंझले भाई की खुदकुशी का झटका बहुत बड़ा था और भायं-भायं करते घर में भाभी को उनके अकेलेपन के हवाले छोड़ कर दिल्ली लौटने की उनकी हिम्मत अगले छह-सात साल नहीं हो पाई। ऐसे में जब क्रांति के रास्ते पर जाने की मेरी चिट्ठी घर वालों को मिली होगी तो इसे बर्दाश्त करना उनके लिए आसान नहीं रहा होगा।
भैया का वह जवाबी खत मुझे याद है। एक बेबसी, एक मजबूरी और एक ऐसा भाव कि अब तुम्हारा फैसला हो गया है तो हम कर ही क्या सकते हैं। बहरहाल , मेरे अब तक के अनुभव यही बताते हैं कि जो फैसले सबसे मुश्किल होते हैं, उन्हें ही आप सबसे ज्यादा आसानी से ले लेते हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी होती हो कि आप अपने अवचेतन में पहले से ही उनसे कतराने की तैयारी कर रहे होते हैं। उमेश के यहां रखे सामान के नाम पर मेरे पास बस एक बैग था, जिसमें तन के कपड़ों के अलावा एक लुंगी, एक पैंट-शर्ट, एक जोड़ी अंडरिवयर-बनियान, चप्पल और मोजे, ब्रश-मंजन, एक डायरी और चार-छह किताबें थीं। इससे ज्यादा सामान मेरे पास अगले बारह वर्षों में नहीं रहा और इससे मुझे कभी कोई परेशानी भी नहीं हुई।
एक दिन उस बैग को मैंने उमेश के यहां से उठाया और 171, कर्नलगंज की पीएसओ लाइब्रेरी कम ऑफिस में ही रहने चला आया। दिन भर संगठन का काम करना और रात में जितनी देर तक और जितनी ज्यादा हो सके, लाइब्रेरी की किताबें बांचना। इलाहाबाद में बिताए गए अगले चार वर्षों में यही मेरी दिनचर्या रही। मेरे मित्रों को मेरे बारे में क्या लगता होगा, यह मुझे नहीं पता, लेकिन मेरे लिए ये चार साल काफी अगियाबैताल किस्म के रहे। शुरू में दो-तीन महीने शहर की एक गरीब बस्ती राजापुर में आधार बढ़ाने के इरादे से संगठन द्वारा शुरू किए गए एक स्कूल में पढ़ाया लेकिन जनवरी 1985 में हिंदू हॉस्टल के सामने एक चक्काजाम के दौरान हुई गिरफ्तारी ने यह सिलसिला तोड़ दिया।
बमुश्किल हफ्ता भर जेल में रहना हुआ, लेकिन इतने ही समय में नजरिया बहुत बदल गया। क्रांति अब अपने लिए कोई अकादमिक कसरत नहीं रही। बाहर निकल कर लोगों के बीच काम करना जरूरी लगने लगा। इस दौरान संगठन की एक साथी से इनफेचुएशन जैसा भी कुछ हुआ लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि गाड़ी गलत पटरी पर जा रही है। आघात बहुत गहरा था। तीन दिन तेज बुखार में डूबा रहा। फिर मन पर कुछ गहरी खरोचें और हमेशा खोजते रहने के लिए एक अनजाना रहस्यलोक छोड़ कर वह समय कहीं और चला गया। उसका एक ठोस हासिल अलबत्ता रह गया कि छह-सात महीने पहले लोहियाहेड में किसी बौद्धिक कसरत की तरह दिमाग में फूटा कविता का अंखुआ मन के भीतर अपने लिए उपजाऊ जमीन पा गया। लगा कि हर बात बाहर बताने के लिए नहीं होती। कुछ को हमेशा के लिए सहेज कर रखना भी जरूरी होता है। कविता के मायने मेरे लिए आज भी यही हैं।
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विचारधारा की रूमानियत

इससे आगे की यात्रा राजनीतिक है। अपनी राजनीति के बारे में क्या कहूं। एक बड़े इजराइली लेखक की कहानी में नायिका अपने जीवन का निचोड़ एक वाक्य में बताती है- जब किसी से प्यार करो तो उसे अपना सर्वस्व कभी मत सौंपो, क्योंकि उसके बाद तुम्हारे पास अपना कुछ नहीं रह जाता। कुछ नहीं, यानी ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके सहारे आगे जिया जा सके। लेकिन जब आप प्यार करते हैं और जब किसी विचारधारा की राजनीति से जुड़ते हैं तो अपना कुछ भी बचाए रखना आपसे नहीं हो पाता। चाहें तो भी नहीं पाता। अपने कई राजनीतिक साथियों को मैंने संगठन से हटने के बाद या उससे किसी तरह का मतभेद हो जाने के बाद टूटते, बिखरते, अंधविश्वासी होते, आत्महत्या की कोशिश करते और मरते देखा है। होलटाइमरी से हटने के बाद क्रोध के बवंडरों में फंस कर खुद को तबाह होते देख भाई की सलाह पर खुद भी सात-आठ महीने चांदी में जड़ी मोती की अंगूठी पहनी है। लेकिन करें क्या, प्यार ऐसा ही होता है- चाहे वह व्यक्ति से हो या विचारधारा से। उसमें अधूरेपन का क्या काम।
सबसे पीछे विमल वर्मा (बाईं ओर) अमरेश मिश्र और उदय यादव। नीचे अनिल सिंह (दायीं ओर), प्रमोद सिंह (बीच में) तथा एक अन्य साथी
सबसे पीछे विमल वर्मा (बाईं ओर) अमरेश मिश्र और उदय यादव। नीचे अनिल सिंह (दायीं ओर), प्रमोद सिंह (बीच में) तथा एक अन्य साथी
बहरहाल, पीएसओ में मुझे एक से एक बुद्धिमान और हुनरमंद लोग मिले। ब्लॉग से जुड़े लोग इनमें से कुछ को जानते हैं। प्रमोद सिंह, अभय तिवारी, अनिल सिंह, विमल वर्मा, इरफान। लेकिन संयोगवश, ये सारे लोग सांस्कृतिक मिजाज के हैं और उस समय पीएसओ की सांस्कृतिक इकाई दस्ता के साथ काम करते थे। दस्ता से ही जुड़े अमरेश मिश्रा फिलहाल इतिहासकार हैं और 1857 पर हाल में उनके दो वॉल्यूम चर्चा में रहे हैं। जिन अरुण पांडे और ज्ञानवंत सिंह का जिक्र पिछली किस्त में आया है, उनमें अरुण अभी न्यूज 24 टीवी चैनल में हैं और ज्ञानवंत पश्चिम बंगाल में काफी ऊंची रैंक के पुलिस अफसर हैं- कुछ समय पहले इतर वजहों से चर्चा में आए थे। संगठन में अरुण कुछ खजाने का और कुछ ऊपर-झापर का काम संभालते थे जबकि ज्ञानवंत संगठक की भूमिका में रहते थे। ये दोनों लोग शुरू में पोस्टरिंग भी अच्छी करते थे, हालांकि प्रमोद भाई इस मामले में गुरू आदमी थे।
हमारे वैचारिक नेता लालबहादुर थे। विचारधारा उनके चिंतन में ही नहीं, जीवन में भी मूर्त रूप लेती थी। उनके अकादमिक रिकॉर्ड, उनकी एक-अकेली प्रेमकथा, फटी पैंट और मुचड़ी शर्ट पहने उनका बेझिझक घूमना, सब कुछ उन्हें एक किंवदंती बनाता था- जैसे स्पार्टकस, जैसे जूडस मकाबियस, जैसे चे ग्वेवारा। आदिविद्रोही पढ़ते हुए मैं कई बार खुद को डेविड की तरफ से उनसे पूछता हुआ पाता था- हम क्यों हार गए स्पार्टकस। एक बार आनंद भवन से सोहबतियाबाग के रास्ते पर मैंने चलते-चलते लालबहादुर को अपने परिवार की कथा सुनाई। सुनने में वे लाजवाब थे और रहेंगे। उनके जितना अच्छा श्रोता मुझे आज तक नहीं मिला। किस्सा सुनने के बाद ठंडी सांस भरते हुए उन्होंने कहा- इस महायज्ञ में देखो कितनी आहुतियां पड़ती हैं अभी। ....और सालों बाद उन्हीं लालबहादुर को मैंने ऐसी दशा में भी देखा, जिसका जिक्र किसी से करने में जबान ठहरती है। वे अभी सीपीआई-एमएल लिबरेशन के साथ नहीं हैं। राजनीति कर रहे हैं, लेकिन किस तरह की, मुझे नहीं पता। विचारधारा का दिया जब बुझने लगता है तो धुंआं फैलाता है, लेकिन धुआं निकलने की खिड़की कहीं नहीं होती।
मैंने संगठन में अपनी दिलचस्पी पहले स्टडी सर्कल में और फिर आंदोलन से जुड़े कामों- भाषण देने, फूंकताप, पत्थरबाजी वगैरह करने में पाई। इस क्रम में कई बार पुलिस पिटी तो दो-तीन बार मैं भी उसके हाथों जम कर पिटा। लगभग इतने ही बार हफ्ते-दस दिन के लिए जेल भी गया- दो बार नैनी सेंट्रल जेल और एक बार प्रतापगढ़ सेंट्रल जेल। खास तौर पर प्रतापगढ़ में कई दिलचस्प क्रिमिनल करैक्टरों से मुलाकात हुई। थोड़ा-बहुत लड़ाई-झगड़ा भी हुआ लेकिन बात मारपीट के स्तर तक नहीं पहुंची। यह ट्रेनिंग छह-सात साल बाद भोजपुर में काम आई, जहां ज्यादा खतरनाक धाराओं में ज्यादा लंबी जेल काटने का मौका मिला। गुप्त ढंग से संगठन बनाने की कला मुझे इलाहाबाद में बहुत रास नहीं आई। बल्कि गुप्त संगठन से जुड़ी सारी रूमानियत के बावजूद संपर्क होने के थोड़े समय बाद ही मुझे लगने लगा कि इसमें काफी सारा मामला फेक (बनावटी या जाली) है।
हमारे एक वरिष्ठ साथी अनिल अग्रवाल ने, जो फिलहाल इलाहाबाद हाई कोर्ट के बड़े वकील हैं, मुझसे कई दिनों की गोपनीय बातचीत के बाद सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) का सदस्यता फॉर्म भराया। इस घटना को जब डेढ़ साल बीत गए तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि मेरे अंदर आखिर ऐसी कौन सी खामी लगातार पाई जा रही है जो मेरी फौरी सदस्यता को परमानेंट नहीं किया जा रहा है। इसके जवाब में जब कुछ दिन बाद मुझसे दूसरा फॉर्म भराया गया तो मैंने अपनी दरयाफ्त और तेज की। पता चला कि अनिल भाई ने अनेक गोपनीय चीजों के साथ मेरा फॉर्म भी अपने बक्से में रख दिया था, लेकिन उसमें झींगुरों की दवाई डालना भूल गए थे। फॉर्म वहीं पड़ा रहा और झींगुरों ने उसे धीरे-धीरे चाटते हुए किसी दिन अपने ही स्तर पर मेरी सदस्यता का आवेदन निरस्त कर दिया। इसी तरह इलाहाबाद में हमें बिहार में नक्सली आंदोलन के गढ़ भोजपुर की भावना से करीब से परिचित कराने आए, शुरुआत से ही उसके साथ जुड़े पार्टी के अत्यंत ऊंचे स्तर के एक नेता लगातार छत्तीस घंटे चली मीटिंग में तकरीबन लगातार ही सोते रहे। यह बात और है कि यह काम वे आलथी-पालथी मारे कर रहे थे और आभास ऐसा दे रहे थे, जैसे सारी बातें गौर से सुन रहे हों। बाद में कुछ वरिष्ठ साथियों ने बताया कि जिस तरह नेपोलियन ने युद्ध में घोड़े पर ही सो जाने की कला विकसित कर ली थी, वैसे ही नक्सली योद्धाओं ने अपनी भूख और नींद को इस तरह साध लिया है कि आप जान ही नहीं सकते कि वे कितने भूखे हैं और कितने समय से जगे हुए हैं। गनीमत है कि बाद में आंदोलन के जेनुइन लोगों से जब मेरी मुलाकात हुई तो गुप्त संगठन को लेकर अवचेतन में बनी नकारात्मक धारणाएं काफी हद तक जाती रह
प्रस्तुति देवेश श्रीवास्तव--
चंद्रभूषण को उनके जानने वाले चंदू या चंदू भाई के नाम से पुकारते हैं. चंदू भाई हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया. कई जनांदोलनों में शिरकत की. नक्सली कार्यकर्ता भी रहे. ब्लाग जगत में इनका ठिकाना ''पहलू'' के नाम से जाना जाता है. सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं. इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं. चंदू भाई से यह डायरी लिखवाने का श्रेय वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर अजित वडनेरकर को जाता है. अजित जी के ब्लाग ''शब्दों का सफर'' से साभार लेकर इस डायरी को यहां प्रकाशित कराया गया है. 

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