Wednesday, January 26, 2011
jp/ भी जयप्रकाश नारायण का गांव
FRIDAY, JANUARY 15, 2010
जेपी का गांव

जब भी जयप्रकाश नारायण के बारे में पढ़ता था, मन में यह बात उठती थी कि एक बार उनके गांव जाकर देखना चाहिए। बचपन से ही यह सुनता आया था कि मेरे अपने गांव से जयप्रकाश नारायण का गांव बहुत दूर नहीं है। पिछले साल 28 अक्टूबर को जेपी के गांव जाने का सपना साकार हुआ। यात्रा में दो भतीजियां, जया और विजया, भी साथ थीं, दोनों ही गांव में खुले कान्वेंट स्कूल में पढ़ाती हैं। उनमें जेपी के गांव जाने का उत्साह इतना था कि दोनों ने स्कूल से एक दिन का अवकाश ले लिया। बहरहाल, अपने गांव शीतलपुर बाजार से मांझी तक सड़क ऐसी थी कि नीतीश कुमार पर बहुत गुस्सा आ रहा था। नीतीश ने उत्तरी बिहार पर बहुत कम ध्यान दिया है। स्थानीय नेता तो बस चुनाव जीतने और हारने के लिए ही आते हैं। कई नेता तो यह मानकर लूट मचाते हैं कि अगली बार जनता मौका नहीं देगी। कहीं सड़क पर खड्ढे हैं, तो कहीं खड्ढे में सड़क। ऐसी सड़कों पर पैदल चलना भी चुनौतीपूर्ण है। सात किलोमीटर दूर मांझी पहुंचने में लगभग पैंतालीस मिनट लग गए। फिर सरयू पर बना नया पुल पार किया, यह पुल भी लगभग बीस साल में तैयार हुआ है। खराब सड़कों की वजह से पुल से वाहनों की आवाजाही अभी कम ही है। खैर, आगे भी सड़क कहने को राजमार्ग है, हालत खस्ता है।
जेपी के गांव सिताब दीयरा के लिए छपरा-बलिया सड़क मार्ग से बाईं ओर मुड़ना होता है। दीयर का इलाका भी मैंने पहली बार देखा। दूर-दूर तक सपाट खेत, ऊंची सड़क से कहीं कहीं धूल उड़ाती गुजरती कार। सिताब दीयरा बहुत बड़ा गांव है, शायद 27 टोलों का। सड़क की बाईं ओर समानांतर लगभग पांच सौ मीटर दूर गांव शुरू हो चुका है, अपेक्षाकृत अच्छी, लेकिन सूनी सड़क पर पूछते-पूछते हम आगे बढ़ रहे हैं। जेपी ने चंबल में डकैतों से समर्पण करवाया, लेकिन उनका खुद का इलाका हमेशा से चोरों-लुटेरों से परेशान रहा है। जिस सड़क से हम गुजर रहे हैं, वह सुरक्षित नहीं है। बाईं ओर कई टोलों को पार करते हुए दाईं ओर एक टोला नजर आता है, पूछने पर पता चलता है, हां, इधर ही जयप्रकाश नारायण का घर है। उनके टोले में प्रवेश करते हुए लगता है कि किसी पॉश कॉलोनी में आ गए हैं। कई शानदार भवन, बागीचे, द्वार, अच्छी सड़कें। कोई भीड़भाड़ नहीं है। टोले के ज्यादातर लोग शायद बाहर ही रहते हैं। बाहर से भी यहां देखने के लिए कम ही लोग आते हैं। इस टोले का नाम पहले बाबुरवानी था, यहां बबूल के ढेरों पेड़ थे। जेपी के जन्म से काफी पहले जब सिताब दीयरा में प्लेग फैला, तो बचने के लिए जेपी के पिता बाबुरवानी में घर बनाकर रहने आ गए।
दीयर इलाका वह होता है, जो नदियों द्वारा छोड़ी गई जमीन से बनता है। सिताब दियरा गांव गंगा और सरयू के बीच पड़ता है। नदियां मार्ग बदलती रहती हैं। कभी यह गांव बिहार में था, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में है, हालांकि बताया जाता है, राजस्व की वसूली बिहार सरकार ही करती है। वैसे भी ऐसी जमीनें हमेशा से विवादित रही हैं। जेपी के दादा दारोगा थे और पिता नहर विभाग में अधिकारी, अतः जेपी के परिवार के पास खूब जमीन थी। आजादी के बाद भी काफी जमीन बच गई। चूंकि दीयर इलाके में हर साल बाढ़ आती है, इसलिए मजबूत घर बनाना मुश्किल काम है, अतः जेपी के घर की छत खपरैल वाली ही थी। आज भी उनका घर बहुत अच्छी स्थिति में रखा गया है। देख-रेख बहुत अच्छी तरह से होती है। जेपी के गांव जाने से दो दिन पहले मैं डॉ राजेन्द्र प्रसाद के गांव भी गया था। जेपी का गांव मेरे गांव से 34 किलोमीटर दूर, तो राजेन्द्र बाबू का गांव 52 किलोमीटर दूर है। राजेन्द्र जी के गांव में उनकी उपेक्षा हुई है, जबकि सिताब दीयरा में जेपी सम्मानजनक स्थिति में नजर आते हैं।
यहां यह उल्लेख जरूरी है कि राजेन्द्र प्रसाद और जेपी के बीच रिश्तेदारी भी थी। राजेन्द्र बाबू के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद और जेपी साढ़ू भाई थे।
जेपी का घर, दालान, उनका अपना कमरा, उनकी वह चारपाई जो शादी के समय उन्हंे मिली थी, उनकी चप्पलें, कुछ कपड़े, वह ड्रेसिंग टेबल जहां वे दाढ़ी बनाया करते थे, सबकुछ ठीक से रखा गया है, जिन्हें देखा और कुछ महसूस किया जा सकता है। उनके घर की बाईं ओर शानदार स्मारक है। जहां उनसे जुड़े पत्र, फोटोग्राफ इत्यादि संजोए गए हैं। पत्रों में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रपति रहते हुए भोजपुरी में लिखा गया पत्र भी शामिल है। इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू इत्यादि अनेक नेताओं के पत्र व चित्र दर्शनीय हैं। दरअसल, बलिया में सांसद रहते चंद्रशेखर ने जेपी के प्रति अपनी भक्ति को अच्छी तरह से साकार किया है। चंद्रशेखर की वजह से ही बाबुरवानी का नाम जयप्रकाश नगर रखा गया है। उन्हीं की वजह से बाहर से आने वाले शोधार्थियों के पढ़ने लिखने के लिए पुस्तकालय है, तीन से ज्यादा विश्राम गृह, स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए कुटीर उद्योग हैं। काश, राजेन्द्र प्रसाद को भी कोई चंद्रशेखर जैसा समर्पित प्रेमी नेता मिला होता। चंद्रशेखर वाकई धन्यवाद के पात्र हैं। उजाड़ दीयर इलाके में उन्होंने जयप्रकाश नगर बनाकर यह साबित कर दिया है कि अपने देश में नेता अगर चाहें, तो क्या नहीं हो सकते।
लेकिन न जेपी रहे और न चंद्रशेखर। तो क्या जयप्रकाश नारायण नगर का वैभव बरकरार रह पाएगा? मोटे तोर पर जयप्रकाश नगर का विकास चंद्रशेखर की ही कृपा से हुआ, सांसद निधि से भी कुछ पैसा मिला करता था। स्मारक इत्यादि के लिए सरकार ने कभी कोई बजट नहीं दिया। जो नेता या पदाधिकारी आते थे, अपने विवेक से कुछ दान की घोषणा कर जाते थे। चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर, जो अब बलिया से सांसद हैं, स्मारक का ध्यान रख रहे हैं, लेकिन जयप्रकाश नगर में कुछ न कुछ बदलेगा, लेकिन जो भी बदलाव हो, उससे वैभव में वृद्धि ही हो, ताकि यहां आने वालों को सुखद अहसास हो।
यह पावन भूमि जेपी जैसे महान नेता की जन्मभूमि है। एक ऐसे नेता की भूमि है, जो महात्मा गांधी को चुनौती देने की हिम्मत रखता था। जिसमें पंडित नेहरू भी प्रधानमंत्री होने की सारी योग्यताएं देखते थे। जिन्होंने सदैव दलविहीन लोकतंत्र की पैरोकारी की। वे चाहते थे कि प्रतिनिधि सीधे चुनाव जीत कर आएं, राजनीतिक दलों के चुनाव लड़ने को वे गलत मानते थे। वे किसी भी क्षण सत्ता के चरम पर पहुंच सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता के बजाय जन-संघर्ष का रास्ता चुना। सरकारी लोग उनके नाम से कांपते थे। उनका प्रभाव सत्ता में बैठे नेताओं से भी ज्यादा था। उन्होंने संपूर्ण क्रांति से देश की भ्रष्ट सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को संभव बनाया। उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। जीवन में सदैव नैतिक ऊंचाइयों को छूते रहे। उनके योगदानों की बड़ी लंबी सूची है। उनको चाहने वाले दुनिया के हर कोने में थे। अमेरिकी उन्हें पसंद करते थे, क्योंकि जेपी को बनाने में तब के जुझारू व मेहनतकश अमरीका का भी योगदान था, जेपी ने 1922 से 1929 तक अमरीका में रहकर मजदूरी करते हुए अध्ययन किया था। जब उनका निधन हुआ, तब सात दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा हुई थी। पटना में उनके अंतिम दर्शन के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चलाई गई थीं। निस्संदेह, उनकी यादों व स्मारकों की अहमियत हमेशा बनी रहेगी।
वाकई याद रहेगा जेपी का गाँव, मौका मिला तो फिर आयेंगे।
लेबल: चंद्रशेखर, जयप्रकाश नारायण, सिताब दियारा
FRIDAY, JANUARY 1, 2010
जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी : पूज्य से भेंट

नव वर्ष में आकर जब पिछले को देखता हूं, तो सोचता हूं कि आखिर पिछले का क्या अगले में याद रह जाएगा या पिछले का क्या विशेष अगले में साथ रखने योग्य है। अगर किसी एक इंसान की चर्चा करूं, जिससे मैं लगातार मिलना चाहूंगा, तो वो हैं जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी। हत् भाग्य पत्रकारिता ने मानसिकता ऐसी बना रखी है कि मन में प्रश्न आवश्यकता से अधिक उपजते हैं। प्रश्नों ने जितना भला नहीं किया है, उससे ज्यादा कबाड़ा किया है। हालांकि खोज तो सदा रही है कि कोई मेरे कबाड़ व पूरी मानसिक अव्यवस्था को व्यवस्थित कर दे। शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी का धन्यवाद देता हूं और अफसोस भी जताता हूं कि उनके कई आग्रहों पर मैं ध्यान नहीं दे पाया, वरना अदभुतहस्ती रामनरेशाचार्य जी से मेरी भेंट बहुत पहले ही हो गई होती। इसी को सौभाग्य कहते हैं, वह तभी संभव है, जब भाग्य प्रबल हो, वरना दुर्भाग्य तो मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। ग्रेगोरियन कलेंडर के वर्ष 2009 को मैं इसलिए याद रखना चाहूंगा, क्योंकि इस वर्ष मेरी भेंट पूज्य रामनरेशाचार्य जी से हुई। 30 दिसंबर की वह दोपहर सदा मेरी स्मृति में अंकित रहेगी। गेरुआ चादर लपेटे लंबी कद काठी के लगभग छह फुट के पूज्य श्री की छवि सदैव स्मरणीय है। पांव में गेरुआ मोजे, सिर और कान को ढकते हुए बंधा गेरुआ स्कार्फ यों बंधा था, मानो किसी ईश्वर ने अपने इन योग्य सुपुत्र को अपने हाथों से बाँधा हो। चेहरे पर सहजता-सरलता ऐसी मानो कुछ भी बनावटी न हो, कुछ भी आडंबरपूर्ण न हो, कुछ भी छिपाना न हो, कुछ भी पराया न हो, सबकुछ अपना हो, सब सगे हों। मेरे साथ समस्या है, मेरी दृष्टि उस चेहरे पर नहीं टिक पाती, जो चेहरा मुझसे बात करता है, लेकिन पहली बार बिना बगलें झांके मैंने अनायास पूज्य श्री को देखा। मेरे बारे में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने उन्हें पहले ही बता रखा था। वे एक तरह से मेरे जैसे तुच्छ ब्यक्ति से मिलना चाहते थे । आदर -सत्कार के बाद पहले उन्होंने संपादन की चर्चा की। यहां यह बताना उचित होगा कि पूज्य श्री के श्रीमठ (जो वाराणसी में पंचगंगा घाट पर स्थित है) से स्वामी रामानन्द जी पर एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है, जिसके संपादन में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने मेरा सहयोग लिया है, जिसके लिए मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। जिस पावन श्रीमठ की स्थापना महान श्री स्वामी रामानन्द जी ने की थी, जिससे कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा, सैन, तुलसीदास जी जैसी अनगिन महान विभूतियां निकलीं। जिन्होंने न केवल राम के नाम को जन-जन तक पहुंचाया, बल्कि समाज में धर्म भेद और जाति भेद को भी गौण बनाया। ऐसी महान विभूतियों को समाहित करने का प्रयास करती पुस्तक के संपादन में कुछ समय देकर सहयोगी बनना निस्संदेह सौभाग्य की बात है।यह शायद मेरे भाग्य में लिखा था कि पहले मैं पूज्य रामानन्द जी को जानूं, उनके योगदान व शिष्यों को जानूं, उनकी छटांक भर सेवा करूं, उसके बाद ही मुझे पूज्य रामनरेशाचार्य जी के दर्शन सुलभ होंगे। देश में स्वतंत्र मन वाले जो कुछ सम्मानित धर्मगुरु हैं, उनमें रामनरेशाचार्य जी का नाम पूरी ईमानदारी के साथ समाहित है। राष्ट्र की मुख्यधारा राजनीति भी उनका महत्व जानती है। वे एक ऐसे गुरु हैं, जो किसी दलित को पुजारी बनाते हिचकते नहीं हैं, जो किसी मुस्लिम से मंदिर की नींव डलवाने का भी सु-साहस रखते हैं। तो संपादन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, कौन-सा लेख कहां जाना चाहिए, किसका लेख पहले जाना चाहिए, यह तय करना महत्वपूर्ण कार्य है। अच्छे संपादन से अखबार चमक जाते हैं। स्वामी रामानन्द जी पर मेरे स्वयं के लेख ,थोथा दिया उड़ाय, को सराहते हुए उन्होंने कहा कि पुस्तकों से उद्धरण देकर तो बहुत लोग लिख लेते हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है। साल दर साल यही सब चलता है। इतिहास पुरुषों पर मौलिक लेखन कम होता है।
बिहार चर्चा
पूज्य श्री के साथ हुई बिहार चर्चा विशेष रही। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि मेरी पैतृक भूमि बिहार है, तब उन्होंने उत्तर बिहार अर्थात पुराने छपरा जिला की विभूतियों को गिनाना शुरू किया। नामी संस्कृत विद्वानों के साथ-साथ उन्होंने कुंवर सिंह, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, भिखारी ठाकुर इत्यादि को याद किया। मैंने उन्हें बताया कि मेरे गांव से राजेन्द्र जी का घर 52 किलोमीटर दूर और जयप्रकाश नारायण का घर 34 किलोमीटर दूर स्थित है। मैंने यह भी बताया कि ठग नटवरलाल भी वहीं के थे, राजेन्द्र प्रसाद के गांव के बगल के, तो उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव भी वहीं के हैं। लेकिन उनका जोर उस भूमि की प्रशंसा पर था। उन्होंने बताया, सिकंदर ने पंजाब जीत लिया, लेकिन उसकी हिम्मत मगध या बिहार की ओर बढ़ने की नहीं हुई, क्योंकि वहां नंद वंश का शासन था। ऐसी धारणा थी कि अगर सिकंदर की सेना बिहार पर आक्रमण करती, तो कोई जीवित नहीं लौटता। इस बीच उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि हम भी वहीं से आते हैं। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि पूज्य श्री का गांव भोजपुर के जगदीशपुर के परसिया में पड़ता है। ईश्वर ने चाहा, तो कभी उनके गांव की यात्रा करूंगा।
मेरे पैर सो गए
उनके चरणों में बैठे-बैठे मेरे पैर सो गए, तो अनायास मन में भाव आया कि पैर ये संकेत दे रहे हैं कि अब यहां थमा जा सकता है, आगे चलने या आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यहां निश्चिंत हुआ जा सकता है, खुद को पूज्य श्री को समर्पित करते हुए। उनके साथ केवल धर्म नहीं है, उनके साथ एक राष्ट्रीय आंदोलन है, जो वास्तव में राष्ट्र को सशक्त करने की क्षमता रखता है। उनके साथ केवल कर्मकांडी नहीं, कर्मयोगी हुआ जा सकता है। ऐसा कर्मयोगी बना जा सकता है, जो राष्ट्र के सच्चे मर्म को समझता हो। उनकी कृपा की सदैव अपेक्षा रहेगी। अत्यंत संकोच के साथ बताना चाहूंगा कि महात्मा स्वामी रामानंद जी को पढ़ते-जानते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए थे और पूज्य श्री रामनरेशाचार्य से भेंट के उपरांत भी मेरे मन में आंसुओं का वैसा ही ज्वार उठा, जैसा ज्वार किसी खोए हुए अभिभावक को पाकर किसी अभागे पुत्र के मन में उठता होगा। लगा, मैं बहुत दिनों बाद फिर बच्चा हो गया हूं, उंगली पकड़कर चलना सीखने को तैयार बच्चा।
वही राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में व्यापा, वही राम ये जगत पसारा, वही राम है सबसे न्यारा।
निष्कर्ष
अब अपनी विवेचना करूं, तो पाता हूं कि मैं विचार भूमि पर प्रारंभ से ही रामानन्दी रहा था, अभी भी हूं और आगे भी रहूंगा।
Subscribe to:
Posts (Atom)
पूज्य हुज़ूर का निर्देश
कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...
-
संत काव्य : परंपरा एवं प्रवृत्तियां / विशेषताएं ( Sant Kavya : Parampara Evam Pravrittiyan / Visheshtayen ) हिंदी साहित्य का इतिहास मुख्...
-
प्रस्तुति- अमरीश सिंह, रजनीश कुमार वर्धा आम हो रहा है चुनाव में कानून तोड़ना भारतीय चुनाव पूरे विश्व में होने वाला सबसे बड़ा चुनाव ह...
-
Asg: 👆👆1) The above song is a devotional song about the Supreme Being. 2) It was actually sung by a dancer , in front of Huzur Mahara...