Saturday, October 16, 2021

गुरमुख कोटिन जीव उबारी' –

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   स्वतः संत की अगुवाई, सम्झौती, रक्षा और मेहर की सहायता से जैसे-जैसे गुरमुख अपने जीव के उद्धार की कार्यवाही करता जाता है, मतलब यह कि अपनी सुरत को नीचे के चक्रों से खींच कर और मोह के बंधनों से अलग कर के ऊपर के मुकामों या मंडलों में पहुंचाता जाता है तो उससे मुकाबले के या नजदीकी भक्त जीवों की सुरत के अंतर के अंतर्गत, गुरुमुख के चैतन्य के प्रभाव से आकर्षण और खिंचाव पैदा होता है। इससे उनका भी भाग बढ़ता है और वे भी इस काबिल बनते हैं कि संतों के चैतन्य का उन पर भी असर पड़े। इससे साफ़ है कि बगैर गुरुमुख की मौजूदगी के आम और सामान्य जीवों का उद्धार मुमकिन नहीं है।


   गुरु और गुरुमुख के आने के साथ ही ऊपरी मंडलों की वे सूरतें भी इस देश में आ कर मनुष्य देह में जन्म लेती हैं और जो मौजूद हैं वे चैतन्य रूप से जाग उठती हैं, जो कि अपने पूरे उद्धार का काम पूरा कर सकें। यही वे सुरतें हैं जो गुरु और गुरुमुख के साथ भक्ति की रीत में रम कर अन्य साधारण जीवों के लिए एक उदाहरण बनती हैं। गुरुमुख ही तीसरे तिल को पार कर के, ब्रह्मांडीय और सत्य के मंडलों में गति प्राप्त कर सकता है और स्वतः संत द्वारा शुरू की हुई उद्धार की कार्यवाही को जारी रखता और आगे बढ़ाता है।

   ऊपर जो चर्चा की है, उससे स्पष्ट होता है कि राधास्वामी मत के उपदेश, तरीके और अभ्यास में जिस स्तर के चैतन्य की मदद की ज़रुरत होती है, वह तब ही मिल सकती है, जब कि मदद देने वाले की सुरत तीसरे तिल पर सदा एकसार स्थिर हो और ऊंचे से ऊंचे सभी देशों, मंडलों और उनके बीच के सभी मुकामों में से हो कर, जब चाहे तब स्वतंत्र रूप से आ-जा सके। साथ ही प्रभावी रूप से मुख्य हो कर तीसरे तिल से नीचे कभी न उतरे। संत और साध सुरत में इतनी भारी व प्रभावी चैतन्यता होती है कि केवल उनके भास् मात्र से ही उनके समस्त दैहिक काम सुचारू रूप से चलते व बनते रहते हैं।

   इस वज़ह से कि गुरु और शिष्य दोनों ही एक ही घाट यानी मनुष्य चोले में हों, तो यह ज़रूरी है कि गुरु भी मनुष्य चोले में ही मौजूद हों – जहां कि शिष्य बा-होश है।   


   यदि ऐसा न होता तो पहले हो चुके अवतारों, पैगम्बरों और महात्माओं को मनुष्य चोले में आने की कोई ज़रुरत ही न होती। इस स्थिति में सबसे भारी मदद यही होती है कि, गुरु धीरे-धीरे शिष्य की सुरत को तीसरे तिल की ओर बढ़ने की जुगत और उपाय समझाता जाए और उसकी अंतर में सदा 'निज बल' से सम्भाल करता रहे , जो कि सत्य देश में पहुँचने की राह में सबसे कठिन मंजिल है। जब कि शिष्य तो आम तौर पर नीचे के चक्रों में ही फंसा होता है। तब यदि गुरु शिष्य के घाट पर उतर कर न आएं तब यह मदद कैसे हो सकती है ?

   यदि जीव खुद ब खुद तीसरे तिल पर पहुँच कर बा-होश ठहर सके और साथ ही देह व ज्ञान इन्द्रियों के सभी काम कर सके, तब ऐसे जीव को देह धारी गुरु की ज़रुरत ही कहाँ रही ?


'तन  बे-सुध  मन  गुरु  पर  वार चली  री, 

सुरत सांवरी जगत जाल सब काट चली री।'

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