Saturday, October 16, 2021

राधास्वामी रक्षक जीव के, जीव ना जाने भेद.' -

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  सवाल : कौमी कर्म किसको कहते हैं ?


  जवाब : किसी गांव या शहर के लोगों के नाकिस कर्मों का जब एक ही वक़्त में आकाश मण्डल में जमावड़ा होता है, तब उनका सूक्ष्म रूप मरी, अकाल या और कोई सूक्ष्म रूप ले कर नाज़िल होता है। इसको कौमी कर्म या नेशनल कर्म कहते हैं। जो और देश के लोग वहां आ कर मरते हैं, उनका भी ज़रूर कोई सम्बन्ध है। तब वहां जा कर उनके हिसाब में शामिल हुए।

    


   मतलब यह कि जैसे समुद्र से उठ कर जल आकाश में बादलों के रूप में समा जाता है, वैसे ही जीव जगत में जो भी विकारी कर्म करता जाता है उसका नाकारात्मक प्रभाव ब्रह्मांड की गहराइयों (प्रकृति) में भी समाता जाता है। और जब यह प्रभाव मर्यादा (सीमा) से अधिक होने लगता है तब उसका सूक्ष्म प्रभाव प्राकृतिक आपदा के रूप में धरती या जगत में वर्षा के समान वापस बरस जाता है।

   प्रकृति एक व्यवस्था है, यह विधि का विधान है और ब्रह्मांड की सीमाओं में रह कर इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। पर जब भी इसमें मनुष्य द्वारा छेड़-छाड़ या बदलाव का प्रयास किया जाता है, तब मनुष्य का यह प्रयास ही, प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आ जाता है। इस प्रकार प्रकृति हमारे हर नाकिस प्रयास और प्रयोगों को निष्फल करते हुए, हमें वापस उसी स्थान पर खड़ा कर देती है जहां से कि हमने शुरुआत करी थी। प्रकृति में सारा खेल या हिसाब-किताब साकारात्मक और नाकारात्मक ऊर्जा का ही है। तो, जिन जीवों में नाकारात्मक ऊर्जा का विकारी अंग प्रधान है, वे नकारात्मकता की इस नाशमांन आंधी में बह कर नाश को प्राप्त हो जाते हैं ; और जिन जीवों में सकारात्मक ऊर्जा के आस्था, विश्वास और धैर्य जैसे सात्विक अंग प्रधान होते हैं, वे इस नाशमांन नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह में भी बच जाते हैं।


* तो इससे बचने का 'उपाय' क्या है ?


   अंतर में ध्यान, सुमिरन व भजन करने से सारे शरीर की एक-एक कोशिका में चेतना व चैतन्य ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है, जब हम अंतर ध्वनि , अनंत धुन और 'शब्द'  या ब्रह्मांडीय नादों को सुनते हैं, तब इन अंतरी चैतन्य ध्वनि तरंगों का चैतन्य प्रभाव, जो कि अपने सात्विक गुण के कारण भौतिक दृष्टि से हमारी देह की रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावी बनाए रखता है और साथ ही अधिक मजबूत बनाता जाता है। इस तरह चैतन्यता के इस सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव के बढ़ने से हमारी देह में नाकारात्मक ऊर्जा के समूह, विषाणुओं का प्रभाव कम से कमतर होते हुए, नगण्य होता जाता है।

   तो क्यों न प्रतिदिन 'कुछ निश्चित वक्त' मालिक की याद में ध्यान, सुमिरन व भजन में रह कर बिताया जाए।


मेरा मानना है कि, "जाना है तो जीना है."

   जीने से अर्थ स्वस्थ जीवन से भी है। वरना तो जीव ध्यान रोग और शोक में ही फंसा रहेगा और 'अंतर्यात्रा' के पथ पर बढ़ पाना कठिन होता जाएगा।


'जिसके सिर ऊपर तू स्वामी, सो दुख कैसा पावे।'

🙏सप्रेम राधास्वामी🙏

      🌷🙏🌷

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