Monday, December 14, 2020

सचाई और अच्छाई

..."यदि सच्चाई और अच्छाई अपने भीतर नहीं मिलती तो फिर कहीं भी मिलने वाली नहीं है।"

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प्रस्तुति  - शैलेन्द्र  जारूहार


सकारात्मक विचार हमेशा आकर्षित करते हैं।जब उपरोक्त वाक्य सुनने में आया तो ध्यान गया और चिंतन शुरु हुआ।

बात बिल्कुल सही है।हम सच्चाई और अच्छाई की आशा जगत से करते हैं जो हमारा ही प्रक्षेपण है।

दर्पण में हम चाहें कि हमारा प्रतिबिंब सुंदर दीखे तो वह अपने आप सुंदर दिखनेवाला नहीं है।यह स्पष्ट है कि हमें ही अपने को ठीक करना होगा।प्रतिबिंब इसमें सहायक है।

इसी तरह सभी लोग हमारे प्रतिबिंब हैं।यदि प्रतिबिंब में कुछ गडबडी है तो स्वाभाविक है हमें अपने को ही संभालना रहा।

बाधा तब आती है जब प्रतिबिंब को कोई और मान लेते हैं।और यही हो रहा है।

यह जबरदस्त भ्रांति है।यही माया है।इसलिए सच का पता अवश्य लगाना चाहिए।

हम देखते हैं प्रतिबिंब चिढा हुआ है तो हम भी चिढ जाते हैं।प्रतिबिंब भी अधिक उग्र दिखाई देने लगता है।

यह ध्यान रहे कि चिढा हुआ व्यक्ति मेरा ही प्रतिबिंब है तो ध्यान खुद पर आ जायेगा।

अब खुद को ही देखना रहा कि मेरे भीतर क्या हो रहा है?

क्या मैं शांत रह सकता हूँ?

मुझे मेरे लिये शांत रहना अच्छा लगता है या नहीं?

अच्छा लगता है तो मैं शांत रहने लगता हूं।थोडी देर बाद मैं पाता हूँ मेरा प्रतिबिंब भी शांत दिखाई देने लगता है।

कुछ लोग कहते हैं-हमारी शांति के बावजूद कई लोग अशांत,नाराज,नाखुश रहते हैं।

इसका मतलब बात समझ में नहीं आयी।एक बात ध्यान रखने जैसी है कि जो चीज हमारे भीतर नहीं है वह कहीं भी नजर नहीं आयेगी।

हमारे भीतर अच्छाई नहीं है तो वह कहीं मिलनेवाली नहीं है।बुराई ही मिलेगी।मिलता वही है जो हमारे भीतर होता है।

न कहें हम शांत हैं ,जगत अशांत है।नहीं।जगत में जो अशांति दिखाई पड रही है वह हमारी ही अशांति का प्रतिबिंब है।जो हमारे भीतर होता है वही दिखाई दे सकता है,वही मालूम पड सकता है।

इसलिए कहा-अच्छाई और सच्चाई अपने भीतर नहीं मिलती तो फिर कहीं भी मिलनेवाली नहीं है।

यह ख्याल में आगया तो पूरा ध्यान स्वयं पर आ जाता है कि फिर क्या किया जाय?

अपने भीतर सच्चाई और अच्छाई कैसे लाई जाय?

माना यह कठिन है।भीतर बाधाएं कम नहीं हैं फिर भी एक संभावना उत्पन्न होती है।हम अपने को ठीक किये बिना प्रतिबिंब को ठीक करने जायें तो दर्पण में दिखते प्रतिबिंब में किये गये सुधार से मूल हममें कोई फर्क पडनेवाला नहीं है।बिंब ठीक है तो प्रतिबिंब की क्या फिक्र है?आशय है हर बात स्वयं से ही शुरू करनी चाहिए।कोई मान करता है,कोई अपमान करता है तब हमें क्या होता है?हमें कैसा अनुभव होता है,हम क्या करते हैं?

महापुरुषों ने इसे संबंध भी कहा है।संबंध के माध्यम से हम स्वयं को जान सकते हैं।

प्रतिबिंब से हमारा संबंध तो होता ही है।हम खुश तो,प्रतिबिंब खुश,हम नाखुश तो प्रतिबिंब नाखुश।

हम कहें हम खुश हैं मगर प्रतिबिंब नाखुश है तो यह कैसे हो सकता है?जो हम हैं वही प्रतिबिंब है।

प्रतिबिंब में नाखुशी झलकती है त़ो इसका मतलब साफ है हमारे गहरे में कहीं नाखुशी, नाराजगी छिपी हुई है।हम सचमुच आनंद में हैं।हमारी रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियां शांत हैं ,हमारे अनुभव में शांति है तो फिर सर्वत्र शांति है।

अशांत आदमी शांत वातावरण से भी खुश नहीं होता,कोई कमी निकाल लेता है।शांत आदमी अशांत वातावरण में भी सुखी संतुष्ट होता है।अवश्य यह शांति अनुभव में होनी चाहिए।

शांति शब्द,शांति नहीं है।

"The word is not the thing."

सचमुच शांति का अनुभव होता हो और कोई कहे कि शांति पर भाषण दो त़ो यही कहा जायेगा-मैं जिस शांति का अनुभव कर रहा हूं इस अनुभव का अनुभव करो।यह शांति पर दिये गये सौ भाषणों से अधिक प्रभावी होगा।

हम अशांत रहते हैं और चाहते हैं कि सभी लोग शांत रहें तो यह होने वाला नहीं है।बेहतर होगा हम ही शांत रहें।और यह तभी संभव होगा जब हम इस बात को ठीक से समझ लें कि हमारे भीतर शांति नहीं है तो फिर कहीं भी नहीं है।हम शांत कैसे रहें यह समस्या हो सकती है मगर स्थायी समाधान इसी में है।आत्मनिर्भर व्यक्ति जितना जल्दी समाधान खोज सकता है उतना जल्दी परनिर्भर व्यक्ति नहीं खोज सकता।उसे समाधान मिलता ही नहीं।वह व्यक्ति, घटना,परिस्थिति की दया पर निर्भर है।

ठीक यह उसी दुराशा की तरह है कि कैसे भी करके प्रतिबिंब सुंदर हो जाय ताकि मैं सुंदर दीखूं,तो यह कभी होनेवाला नहीं।कोई जीवन भर दर्पण के सामने बैठा रह सकता है मगर इससे कुछ नहीं होता इसलिए अपनी जिम्मेदारी अपने हाथ में लेकर स्वयं को सकारात्मक, रचनात्मक रुप में लाने की कोशिश शुरू कर दी जाय फिर फल का इंतजार करने की जरूरत नहीं।कर्म में ही फल छिपा है।कर्म से भिन्न फल की खोज में क्रोध है,क्षोभ है,आशा है,आतुरता है,भयचिंता है।ठीक ही कहा है-'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।'हमारी सारी शक्ति व समझ कर्म को सही करने में लगनी चाहिए।

तब यह प्रश्न पूछना सार्थक रहता है कि मेरे भीतर मुझमें और कर्म में दूरी कितनी है?

कोई दूरी नहीं है तो अखंडता है।

और

अखंडता का कर्म ही बेहतर है बनिस्बत खंड खंड कर्म के।


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