Saturday, March 20, 2021

जय देव की याद आती रही रात भर

 रात भर आपकी याद आती रही.../

 देखी जिंदगी। न कोई शिकवा है, न शिकायत।


जयदेव जी को गए क़रीब ३४ वर्ष हो गए। उनका पूरा नाम जयदेव वर्मा था और नैरोबी (कीनिया) में उनका जन्म हुआ था। जब वो छठी में थे , तब लाहौर में फिल्म देखी थी 'अलीबाबा चालीस चोर।' मिस कज्जन (जहांआरा कज्जन) का गीत इतना भाया कि 'खुल जा सिमसिम' गाते हुए भागकर मुंबई जा पहुंचे, वहां से फिर लुधियाना पकड़कर लाया गया। जहां उनकी मुलाकात स्टंट फिल्मों की खूबसूरत हीरोइन मिस एर्मलीन से हुई। वो भी उनके गुरु के पास संगीत सीखने आती थीं।


जब वे मुंबई १९३२ में मुम्बई लौटीं तो उनके साथ वो भी मुम्बई आ गए। उन्होंने ही वाडिया प्रोडक्शन में परिचय कराया। फिर मिला 'वामन अवतार' में नारद का रोल। पर संतोष न मिला। भागकर घर जा पहुंचा। पिताजी मर चुके थे। पैसे की तंगी थी, इसलिए ट्यूशन करने लगा। पर यहां भी मन नहीं लगा।


फिर लखनऊ उस्ताद अली अकबर खान की शागिर्दी हासिल करने। उनके साथ उन्होंने जोधपुर महल में गाने भी गाए और वहीं उनकी मुलाकात संगीतकार और गायक एस. डी. बर्मन साहब से हुई।


अली साहब उन्हें अपने साथ मुंबई ले। अली साहब ने नवकेतन की फिल्‍म 'आंधियां' और 'हमसफर' में जब संगीत देने का जिम्मा संभाला, जिसमें उन्होंने सहायक के तौर पे काम किया। तब उन्होंने मुझे अपना सहायक बना लिया। हालांकि दोनों ही फिल्में फ्लॉप हो गईं। फिर शुरू हुआ बेकारी का दौर।


कुछ संघर्षों के बाद उन्हें एस. डी. बर्मन की असिस्टेंटशिप यानी दो सौ रुपये महीने का काम। फिर तो संगीत निर्देशक ही बन गया। मगर आगे का रास्ते इतना आसान भी नहीं था। अंजली, किनारे-किनारे, जोरू का भाई, हम दोनों, रेशमा और शेरा सारी फ्लॉप फिल्मों फिर भी एक असफल संगीत निर्देशक का लेबल चस्पा हो गया।


इसके बाद तमाम संघर्षों के बाद उन्होंने अपने संगीत से आलोचकों को अचम्भित कर दिया। लीक से दूरी बरत कर चलने वाले संगीतकार के रूप में बीसवीं शताब्दी के पचास-साठ के दशक में उभरे, जिसकी नक़ल या छाया लेकर कोई दूसरा संगीतकार पैदा नहीं हुआ।


इस कारण वो एक ऐसे अनूठे फनकार की कैफ़ियत रखे हुए सामने आते हैं, जिसने अपनी ही बनाई शैली का बार-बार परिमार्जन किया है अथवा उस सांचे को ही तोड़ दिया है, जिसने उन्हें काम और प्रसिद्धि दोनों दिलायी।


ऐसे में उनके काम की सार्थक छवियों वाली फ़िल्मों में से 'अंजलि' (१९५७), 'हम-दोनों' (१९६१), 'किनारे-किनारे', 'मुझे जीने दो' (१९६३), 'रेशमा और शेरा', 'दो बूंद पानी' (१९७१), 'मान जाइये' (१९७२), 'प्रेम पर्बत' (१९७३), 'परिणय' (१९७४), 'आन्दोलन' (१९७५), 'आलाप', 'घरौंदा' (१९७७), 'गमन', 'तुम्हारे लिए' (१९७८), 'अनकही' (१९८४) और 'जुम्बिश' (१९८६) का नाम पूरे आदर के साथ लिया जा सकता है।


जयदेव ने एक प्रयोगधर्मी काम ये किया था कि जब लता और आशा जैसी सुमधुर आवाज़ें उन्हें गायन के लिए उपलब्ध थीं, ऐसे दौर में भी उन्होंने नई और अलग से अपना स्वर-संस्कार रखने वाली आवाज़ों को पर्याप्त मौक़े उपलब्ध कराए।


उन्होंने अपनी फिल्मों मेंयहाँ लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार और आशा भोंसले के अतिरिक्त परवीन सुल्ताना, हीरा देवी मिश्र, छाया गांगुली, भूपेन्द्र, सरला कपूर, रूना लैला, शर्मा बन्धु, राजेन्द्र मेहता, दिलराज कौर, मधु रानी, यशुदास, फय्याज़, हरिहरन, मीनू पुरुषोत्तम, पीनाज मसानी, लक्ष्मी शंकर एवं नीलम साहनी जैसे कलाकारों से गीत गवाए।


हम आसानी से इनमें कुछेक का स्मरण कर सकते हैं- 'रात पिया के संग जागी रे' (मीनू पुरुषोत्तम, 'प्रेम-पर्बत'), 'पीतल की मोरी गागरी' (परवीन सुल्ताना एवं मीनू पुरुषोत्तम, 'दो बूँद पानी'), 'आजा सांवरिया तोहे गरवा लगा लूँ' (हीरा देवी मिश्र, 'गमन'), 'तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है' (रूना लैला, 'घरौंदा'), 'कवि रे कवि' (राजेन्द्र मेहता, 'परिणय'), 'आपकी याद आती रही रात भर' (छाया गांगुली, 'गमन'), 'फिर तेरी याद नये दीप जलाने आयी' (भूपेन्द्र, 'आयी तेरी याद') और 'मैं तो कब से तेरे शरण में हूँ' (नीलम साहनी एवं हरिहरन, 'रामनगरी') जैसे सदाबहार गीत।


ऐसे प्रयोगधर्मी संगीतकार जयदेव जी ६ जनवरी १९८७ को हमसे जुदा हो गए।

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